हिन्दी कविताएँ : सुशांत सुप्रिय

Hindi Poetry : Sushant Supriye


अंतर

महँगे विदेशी टाइल्स और सफ़ेद संगमरमर से बना आलीशान मकान ही तुम्हारे लिए घर है जबकि मैं हवा-सा यायावर हूँ तुम्हारे लिए नर्म-मुलायम गद्दों पर सो जाना ही घर आना है जबकि मेरे लिए नए क्षितिज की तलाश में खो जाना ही घर आना है

आश्चर्य

आज दिन ने मुझे बिना घिसे साबुत छोड़ दिया मैं अपनी धुरी पर घूमते हुए हैरान सोच रहा हूँ -- यह कैसे हुआ यह कैसे हुआ यह कैसे हुआ

इक्कीसवीं सदी का प्रेम-गीत

ओ प्रिये दिन किसी निर्जन द्वीप पर पड़ी ख़ाली सीपियों-से लगने लगे हैं और रातें एबोला वायरस के रोगियों-सी क्या आईनों में ही कोई नुक़्स आ गया है कि समय की छवि इतनी विकृत लगने लगी है ?

इंस्पेक्टर मातादीन के राज में

(हरिशंकर परसाई को समर्पित) जिस दसवें व्यक्ति को फाँसी हुई वह निर्दोष था उसका नाम उस नौवें व्यक्ति से मिलता था जिस पर मुक़दमा चला था निर्दोष तो वह नौवाँ व्यक्ति भी था जिसे आठवें की शिनाख़्त पर पकड़ा गया था उसे सातवें ने फँसाया था जो ख़ुद छठे की गवाही की वजह से मुसीबत में आया था छठा भी क्या करता उसके ऊपर उस पाँचवें का दबाव था जो ख़ुद चौथे का मित्र था चौथा भी निर्दोष था तीसरा उसका रिश्तेदार था जिसकी बात वह टाल नहीं पाया था दूसरा तीसरे का बॉस था लिहाज़ा वह भी उसे 'ना' नहीं कह सका था निर्दोष तो दूसरा भी था वह उस हत्या का चश्मदीद गवाह था किंतु उसे पहले ने धमकाया था पहला व्यक्ति ही असल हत्यारा था किंतु पहले के विरुद्ध न कोई गवाह था , न सबूत इसलिए वह कांड करने के बाद भी मदमस्त साँड़-सा खुला घूम रहा था स्वतंत्र भारत में ...

इस युग की कथा

इस युग की कथा जब कभी लिखी जाएगी तो यही कहा जाएगा कि फूल ढूँढ़ रहे थे ख़ुशबू शहद मिठास ढूँढ़ रही थी गुंडों ने पहन रखे थे सफ़ेद लिबास नदी प्यासी रह गई थी पलस्तर-उखड़ी बदरंग दीवारें ढूँढ़ रही थीं ख़ुशनुमा रंगों को वृद्धाएँ शिद्दत से ढूँढ़ रही थीं अपनी देह के किसी कोने में शायद कहीं बच गए युवा अंगों को जिसके पास सब कुछ था वह भी ' और ' के लालच में खोया हुआ था सूर्योदय कब का हो चुका था किंतु सारा देश सोया हुआ था

इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं

देह में फाँस-सा यह समय है जब अपनी परछाईं भी संदिग्ध है ' हमें बचाओ , हम त्रस्त हैं ' -- घबराए हुए लोग चिल्ला रहे हैं किंतु दूसरी ओर केवल एक रेकॉर्डेड आवाज़ उपलब्ध है -- ' इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं ' न कोई खिड़की , न दरवाज़ा , न रोशनदान है काल-कोठरी-सा भयावह वर्तमान है ' हमें बचाओ , हम त्रस्त हैं ' -- डरे हुए लोग छटपटा रहे हैं किंतु दूसरी ओर केवल एक रेकॉर्डेड आवाज़ उपलब्ध है -- ' इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं ' बच्चे गा रहे वयस्कों के गीत हैं इस वनैले-तंत्र में मासूमियत अतीत है बुद्ध बामियान की हिंसा से व्यथित हैं राम छद्म-भक्तों से त्रस्त हैं समकालीन अँधेरे में प्रार्थनाएँ भी अशक्त हैं ... इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं

ईंट का गीत

जागो मेरी सोई हुई ईंटो जागो कि मज़दूर तुम्हें सिर पर उठाने आ रहे हैं जागो कि राजमिस्त्री काम पर आ गए हैं जागो कि तुम्हें नींवों में ढलना है जागो कि तुम्हें शिखरों और गुम्बदों पर मचलना है जागो मेरी पड़ी हुई ईंटो जागो कि मिक्सर चलने लगा है जागो कि तुम्हें सीमेंट की यारी में इमारतों में डलना है जागो कि तुम्हें दीवारों और छतों को घरों में बदलना है जागो मेरी बिखरी हुई ईंटो जागो कि तुम्हारी मज़बूती पर टिका हुआ है यह घर-संसार यदि तुम कमज़ोर हुई तो धराशायी हो जाएगा यह सारा कार्य-व्यापार जागो मेरी गिरी हुई ईंटो जागो कि तुम्हें गगनचुम्बी इमारतों की बुनियाद में डलना है जागो कि तुम्हें क्षितिज को बदलना है वे और होंगे जो फूलों-सा जीवन जीते होंगे तुम्हें तो हर बार भट्ठी में तप कर निकलना है जागो कि निर्माण का समय हो रहा है

एक उपेक्षित उपन्यास के बीच में

इस धरती पर अपने शहर में मैं एक उपेक्षित उपन्यास के बीच में एक छोटे-से शब्द-सा आया था वह उपन्यास एक ऊँचा पहाड़ था मैं जिसकी तलहटी में बसा एक छोटा-सा गाँव था वह उपन्यास एक लंबी नदी था मैं जिसके बीच में स्थित एक सिमटा हुआ द्वीप था वह उपन्यास पूजा के समय बजता हुआ एक ओजस्वी शंख था मैं जिसकी ध्वनि-तरंग का हज़ारवाँ हिस्सा था हालाँकि वह उपन्यास विधाता की लेखनी से उपजी एक सशक्त रचना थी आलोचकों ने उसे कभी नहीं सराहा जीवन के इतिहास में उसका उल्लेख तक नहीं हुआ आख़िर क्या वजह है कि हम और आप जिन महान् उपन्यासों के शब्द बनकर इस धरती पर आए उन उपन्यासों को कभी कोई पुरस्कार नहीं मिला?

एक दिन

एक दिन मैंने कैलेंडर से कहा -- आज मैं मौजूद नहीं हूँ और अपने मन की करने लगा एक दिन मैंने कलाई-घड़ी से कहा -- आज मैं मौजूद नहीं हूँ और खुद में खो गया एक दिन मैंने बटुए से कहा -- आज मैं मौजूद नहीं हूँ और बाज़ार को अपने सपनों से निष्कासित कर दिया एक दिन मैंने आईने से कहा -- आज मैं मौजूद नहीं हूँ और पूरे दिन उसकी शक्ल नहीं देखी एक दिन मैंने अपनी बनाईं सारी हथकड़ियाँ तोड़ डालीं अपनी बनाई सभी बेड़ियों से आज़ाद हो कर जिया मैं एक दिन

एक 'हत्यारे' का हलफ़िया बयान

मेरी बहन पहले कविताएँ लिखती थी कहानियाँ भी पेंटिंग्स भी बनाती थी बहुत सुंदर बेहद खुश रहती थी वह उन दिनों फिर अचानक उसने बंद कर दीं लिखनी कविताएँ , कहानियाँ बंद कर दी उसने बनानी ख़ूबसूरत पेंटिंग्स और भीतर से बुझ गई वह योर ऑनर मैं ही इसका ज़िम्मेदार हूँ मैंने कभी प्रशंसा नहीं की उसकी कविताओं , कहानियों की कभी नहीं सराहा उसकी पेंटिंग्स को मैं चाहता था कि वह अपना सारा समय बर्तन-चौका , झाड़ू-बुहारू और स्वेटर बुनने में लगाए योर ऑनर मैं हत्यारा हूँ मैंने अपनी बहन की प्रतिभा की हत्या की है उसकी कला का दम घोंटा है मुझे कठोर से कठोर सज़ा दी जाए योर ऑनर

कठिन समय में

बिजली के नंगे तार को छूने पर मुझे झटका लगा क्योंकि तार में बिजली नहीं थी मुझे झटका लगा इस बात से भी कि जब रोना चाहा मैंने तो आ गई हँसी पर जब हँसना चाहा तो आ गई रुलाई बम-विस्फोट के मृतकों की सूची में अपना नाम देखकर फिर से झटका लगा मुझे : इतनी आसानी से कैसे मर सकता था मैं इस भीषण दुर्व्यवस्था में इस नहीं-बराबर जगह में अभी होने को अभिशप्त था मैं ... जब मदद करना चाहता था दूसरों की लोग आशंकित होते थे यह जानकर संदिग्ध निगाहों से देखते थे मेरी मदद को गोया मैं उनकी मदद नहीं उनकी हत्या करने जा रहा था बिना किसी स्वार्थ के मैं किसी की मदद कैसे और क्यों कर रहा था यह सवाल उनके लिए मदद से भी बड़ा था ग़लत जगह पर सही काम करने की ज़िद लिए मैं किसी प्रहसन में विदूषक-सा खड़ा था

कबीर

एक दिन आप घर से बाहर निकलेंगे और सड़क किनारे फुटपाथ पर चिथडों में लिपटा बैठा होगा कबीर ' भाईजान , आप इस युग में कैसे ? ' -- यदि आप उसे पहचान कर पूछेंगे उससे तो वह शायद मध्य-काल में पाई जाने वाली आज-कल खो गई उजली हँसी हँसेगा उसके हाथों में पड़ा होगा किसी फटे हुए अख़बार का टुकड़ा जिस में बची हुई होगी एक बासी रोटी जिसे निगलने के बाद वह अख़बार के उसी टुकड़े पर छपी दंगे-फ़सादों की दर्दनाक ख़बरें पढ़ेगा और बिलख-बिलख कर रो देगा

कलयुग

एक बार एक काँटे के शरीर में चुभ गया एक नुकीला आदमी काँटा दर्द से कराह उठा बड़ी मुश्किल से उसने आदमी को अपने शरीर से बाहर निकाल फेंका तब जा कर काँटे ने राहत की साँस ली

कल रात सपने में

कल रात मेरे सपने में गाँधारी ने इंकार कर दिया आँखों पर पट्टी बाँधने से एकलव्य ने नहीं काटा अपना अँगूठा द्रोण के लिए सीता ने मना कर दिया अग्नि-परीक्षा देने से द्रौपदी ने नहीं लगने दिया स्वयं को जुए में दाँव पर पुरु ने नहीं दी ययाति को अपनी युवावस्था कल रात इतिहास और ' मिथिहास ' की कई ग़लतियाँ सुधरीं मेरे सपने में

कामगार औरतें

कामगार औरतों के स्तनों में पर्याप्त दूध नहीं उतरता मुरझाए फूल-से मिट्टी में लोटते रहते हैं उनके नंगे बच्चे उनके पूनम का चाँद झुलसी रोटी-सा होता है उनकी दिशाओं में भरा होता है एक मूक हाहाकार उनके सभी भगवान पत्थर हो गए होते हैं ख़ामोश दीये-सा जलता है उनका प्रवासी तन-मन फ़्लाइ-ओवरों से लेकर गगनचुम्बी इमारतों तक के बनने में लगा होता है उनकी मेहनत का हरा अंकुर उपले-सा दमकती हैं वे स्वयं विस्थापित हो कर हालाँकि टी. वी. चैनलों पर सीधा प्रसारण होता है केवल विश्व-सुंदरियों की कैट-वाक का पर उस से भी कहीं ज़्यादा सुंदर होती है कामगार औरतों की थकी चाल

किसान का हल

उसे देखकर मेरा दिल पसीज जाता है कई घंटे मिट्टी और कंकड़-पत्थर से जूझने के बाद इस समय वह हाँफता हुआ ज़मीन पर वैसे ही पस्त पड़ा हुआ है जैसे दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद शाम को निढाल हो कर पसर जाते हैं कामगार और मज़दूर मैं उसे प्यार से देखता हूँ और अचानक वह निस्तेज लोहा मुझे लगने लगता है किसी खिले हुए सुंदर फूल-सा मुलायम और मासूम उसके भीतर से झाँकने लगती हैं पके हुए फ़सलों की बालियाँ और उसके प्रति मेरा स्नेह और भी बढ़ जाता है मेहनत की धूल-मिट्टी से सनी हुई उसकी धारदार देह मुझे जीवन देती है लेकिन उसकी पीड़ा मुझे दोफाड़ कर देती है उसे देखकर ही मैंने जाना कभी-कभी ऐसा भी होता है लोहा भी रोता है

कुछ समुदाय हुआ करते हैं

कुछ समुदाय हुआ करते हैं जिनमें जब भी कोई बोलता है 'हक़' से मिलता-जुलता कोई शब्द उसकी ज़ुबान काट ली जाती है जिनमें जब भी कोई अपने अधिकार माँगने उठ खड़ा होता है उसे ज़िंदा जला दिया जाता है कुछ समुदाय हुआ करते हैं जिनके श्रम के नमक से स्वादिष्ट बनता है औरों का जीवन किंतु जिनके हिस्से की मलाई खा जाते हैं कुल और वर्ण की श्रेष्ठता के स्वयंभू ठेकेदार कुछ अभिजात्य वर्ग सबसे बदहाल, सबसे ग़रीब सबसे अनपढ़ , सबसे अधिक लुटे-पिटे करोड़ों लोगों वाले कुछ समुदाय हुआ करते हैं जिन्हें भूखे-नंगे रखने की साज़िश में लगी रहती है एक पूरी व्यवस्था वे समुदाय जिनमें जन्म लेते हैं बाबा साहेब अंबेडकर महात्मा फुले और असंख्य महापुरुष किंतु फिर भी जिनमें जन्म लेने वाले करोड़ों लोग अभिशप्त होते हैं अपने समय के खैरलाँजी या मिर्चपुर की बलि चढ़ जाने को वे समुदाय जो दफ़्न हैं शॉपिंग माल्स और मंदिरों की नींवों में जो सबसे क़रीब होते हैं मिट्टी के जिनकी देह और आत्मा से आती है यहाँ के मूल बाशिंदे होने की महक जिनके श्रम को कभी पुल, कभी नाव-सा इस्तेमाल करती रहती है एक कृतघ्न व्यवस्था किंतु जिन्हें दूसरे दर्ज़े का नागरिक बना कर रखने के षड्यंत्र में लिप्त रहता है पूरा समाज आँसू, ख़ून और पसीने से सने वे समुदाय माँगते हैं अपने अँधेरे समय से अपने हिस्से की धूप अपने हिस्से की हवा अपने हिस्से का आकाश अपने हिस्से का पानी किंतु उन एकलव्यों के काट लिए जाते हैं अंगूठे धूर्त द्रोणाचार्यों के द्वारा वे समुदाय जिनके युवकों को यदि हो जाता है प्रेम समुदाय के बाहर की युवतियों से तो सभ्यता और संस्कृति का दंभ भरने वाली असभ्य सामंती महापंचायतों के मठाधीश उन्हें दे देते हैं मृत्यु-दंड वे समुदाय जिन से छीन लिए जाते हैं उनके जंगल, उनकी नदियाँ , उनके पहाड़ जिनके अधिकारों को रौंदता चला जाता है कुल-शील-वर्ण के ठेकेदारों का तेज़ाबी आर्तनाद वे समुदाय जो होते हैं अपने ही देश के भूगोल में विस्थापित अपने ही देश के इतिहास से बेदख़ल अपने ही देश के वर्तमान में निषिद्ध किंतु टूटती उल्काओं की मद्धिम रोशनी में जो फिर भी देखते हैं सपने विकल मन और उत्पीड़ित तन के बावजूद जिन की उपेक्षित मिट्टी में से भी निरंतर उगते रहते हैं सूरजमुखी सुनो द्रोणाचार्यों हालाँकि तुम विजेता हो अभी सभी मठों पर तैनात हैं तुम्हारे ख़ूँख़ार भेड़िए लेकिन उस अपराजेय इच्छा-शक्ति का दमन नहीं कर सकोगे तुम जो इन समुदायों की पूँजी रही है सदियों से जहाँ जन्म लेने वाले हर बच्चे की आनुवंशिकी में दर्ज है अन्याय और शोषण के विरुद्ध प्रतिरोध की ताक़त

कैसा युग है यह

कैसा युग है यह जब कुत्तों के नाम जॉनी और जैकी हैं जबकि इंसान कुत्ते की तरह दुम हिला रहा है जब खुद पिंजरे में बैठा तोता आपके बारे में भविष्यवाणी कर रहा है जब सूखे हाथ मोटे लोगों की मालिश कर रहे हैं जब आपके ऑफ़िस में कूड़ेदान हैं जबकि कुछ ग़रीब बच्चों के लिए कूड़ेदान ही ऑफ़िस हैं

कैसा समय है यह

कैसा समय है यह जब हल कोई चला रहा है अन्न और खेत किसी का है ईंट-गारा कोई ढो रहा है इमारत किसी की है काम कोई कर रहा है नाम किसी का है कैसा समय है यह जब भेड़ियों ने हथिया ली हैं सारी मशालें और हम निहत्थे खड़े हैं कैसा समय है यह जब भरी दुपहरी में अँधेरा है जब भीतर भरा है एक अकुलाया शोर जब अयोध्या से बामियान तक ईराक़ से अफ़ग़ानिस्तान तक बौने लोग डाल रहे हैं लम्बी परछाइयाँ

कोई और

एक सुबह उठता हूँ और हर कोण से खुद को पाता हूँ अजनबी आँखों में पाता हूँ एक अजीब परायापन अपनी मुस्कान लगती है न जाने किसकी बाल हैं कि पहचाने नहीं जाते अपनी हथेलियों में किसी और की रेखाएँ पाता हूँ मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि ऐसा भी होता है हम जी रहे होते हैं किसी और का जीवन हमारे भीतर कोई और जी रहा होता है

क्या तुम जानती हो , प्रिये

ओ प्रिये मैं तुम्हारी आँखों में बसे दूर कहीं के गुमसुम-खोएपन से प्यार करता हूँ मैं घाव पर पड़ी पपड़ी जैसी तुम्हारी उदास मुस्कान से प्यार करता हूँ मैं उन अनसिलवटी पलों से भी प्यार करता हूँ जब हम दोनों इकट्ठे-अकेले मेरे कमरे की खुली खिड़की से अपने हिस्से का आकाश नापते रहते हैं मैं परिचय के उस वार से भी प्यार करता हूँ जो तुम मुझे देती हो जब चाशनी-सी रातों में तुम मुझे तबाह कर रही होती हो हाँ, प्रिये मैं उन पलों से भी प्यार करता हूँ जब ख़ालीपन से त्रस्त मैं अपना चेहरा तुम्हारे उरोजों में छिपा लेता हूँ और खुद को किसी खो गई प्राचीन लिपि के टूटते अक्षर-सा चिटकता महसूस करता हूँ जबकि तुम नहींपन के किनारों में उलझी हुई यहीं कहीं की होते हुए भी कहीं नहीं की लगती हो

ग़रीब दलित का रामचरितमानस

ग़रीब दलित के रामचरितमानस में ये कांड नहीं होते : बाल कांड सुंदर कांड किष्किंधा कांड लंका कांड अयोध्या कांड ग़रीब दलित के रामचरितमानस में दरअसल ये कांड होते हैं : अपमान कांड भेद-भाव कांड पीड़ा कांड खैरलाँजी कांड मिर्चपुर कांड ...

ग़लत युग में

यदि तुम सूरज को गाली दे कर धूप से दोस्ती नहीं कर सकते यदि तुम चाँद को दाग़दार कह कर चाँदनी से इश्क़ नहीं कर सकते यदि तुम फूल को नकार कर ख़ुशबू को नहीं अपना सकते तो तुम ग़लत युग में पैदा हुए हो

ग़लती

शुरू से ही मैं चाहता था चाँद-सितारों पर घर बनाना आकाश-गंगाओं और नीहारिकाओं की खोज में निकल जाना लेकिन बस एक ग़लती हो गई आकाश को पाने की तमन्ना में मुझसे मेरी धरती खो गई

छटपटाहट भरे कुछ नोट्स

( एक ) आज चारों ओर की बेचैनी से बेपरवाह जो लम्बी ताने सो रहे हैं वे सुखी हैं जो छटपटा कर जाग रहे हैं वे दुखी हैं ( दो ) आज हमारी बनाई इमारतें कितनी ऊँची हो गई हैं लेकिन हमारा अपना क़द कितना घट गया है ( तीन ) आज विश्व एक ग्लोबीय गाँव बन गया है हमने स्पेस-शटल बुलेट और गतिमान रेलगाड़ियाँ बना ली हैं एक जगह से दूसरी जगह की दूरी कितनी कम हो गई है लेकिन आदमी और आदमी के बीच की दूरी कितनी बढ़ गई है ( चार ) आज दीयों के उजाले कितने धुँधले हो गए हैं आज क़तार में खड़ा आख़िरी आदमी कितना अकेला है ( पाँच ) आज लम्बी-चौड़ी गाड़ियों में घूम रहे हैं छोटे लोग बड़े-बड़े बंगलों में रह रहे हैं लघु-मानव बौने लोग डालने लगे हैं लम्बी परछाइयाँ

जब आँख खुली

कल रात मैंने एक सपना देखा मगर वह कोई सपना नहीं था सपने में मुझे कुछ जोकर दिखे लेकिन वे कोई जोकर नहीं थे वहाँ सर्कस जैसा माहौल था किंतु वह कोई सर्कस नहीं था वहाँ एक अमीर आदमी लाया गया जो वास्तव में कोई और ही था वहाँ झक्क् सफ़ेद धोती-कुर्ते और उजले सफ़ारी सूटों में कुछ जादूगर आए जो असल में जादूगर थे ही नहीं उन्होंने उस अमीर आदमी को जोकरों की तालियों के बीच देखते ही देखते एक बीमार भिखारी बना दिया लेकिन यह कोई खेल नहीं था बहुत देर बाद जब मेरी आँख खुली तो मैंने पाया कि वे सफ़ेदपोश असल में राजनीतिज्ञ थे और मेरी बगल में जो बीमार भिखारी पड़ा कराह रहा था वह दरअसल मेरा देश था

जो कहता था

जो कहता था मेरे पास कुछ नहीं है असल में उसके पास सब कुछ था जो कहता था मैं पूरब दिशा में जा रहा हूँ दरअसल वह पश्चिम की ओर जा रहा होता था जो कहता था मैं पीता नहीं हूँ उसी के घर से शराब की सबसे ज़्यादा ख़ाली बोतलें निकलती थीं जो इलाक़े के बच्चों में सबसे ज़्यादा टाफ़ियाँ बाँटता था वही पकड़ा गया बच्चों के यौन-शोषण के आरोप में जो कहता था लोकतंत्र में हमारी गहरी आस्था है वही बन बैठा सबसे बड़ा तानाशाह जो पहनता था सातों दिन सफ़ेद वस्त्र उसी का मन सबसे ज़्यादा काला निकला जो करता था सबसे ज़्यादा पूजा-पाठ जो पहनता था तीसों दिन गेरुए वस्त्र जो अपने उपदेशों में नारी को ' देवी ' बताता था वही पकड़ा गया एक अबला के शील-भंग के आरोप में जो आदमी ख़ुद को गाँधीजी का सबसे बड़ा भक्त बताता था जो दिन-रात 'अहिंसा' का जाप करता रहता था अंत में वही हत्यारा निकला

जो नहीं दिखता दिल्ली से

बहुत कुछ है जो नहीं दिखता दिल्ली से आकाश को नीलाभ कर रहे पक्षी और पानी को नम बना रही मछलियाँ नहीं दिखती हैं दिल्ली से विलुप्त हो रहे विश्वास चेहरों से मिटती मुस्कानें दुखों के सैलाब और उम्मीदों की टूटती उल्काएँ नहीं दिखती हैं दिल्ली से राष्ट्रपति-भवन के प्रांगण संसद-भवन के गलियारों और मंत्रालयों की खिड़कियों से कहाँ दिखता है सारा देश मज़दूरों-किसानों के भीतर भरा कोयला और माचिस की तीली से जीवन बुझाते उनके हाथ नहीं दिखते हैं दिल्ली से मगरमच्छ के आँसू ज़रूर हैं यहाँ किंतु लुटियन का टीला ओझल कर देता है आँखों से श्रम का ख़ून-पसीना और वास्तविक ग़रीबों का मरना-जीना चीख़ती हुई चिड़ियाँ नुचे हुए पंख टूटी हुई चूड़ियाँ और काँपता हुआ अँधेरा नहीं दिंखते हैं दिल्ली से दिल्ली से दिखने के लिए या तो मुँह में जयजयकार होनी चाहिए या फिर आत्मा में धार होनी चाहिए

जो बचा रहा

मैं तो पेड़ था बचा रहा पशु था जो वह मेरी पत्तियाँ खा कर चला गया भूख पशु की देह में चुभी कँटीली झाड़ी थी पत्तियों में उस चुभन का दर्द दूर करने वाला मरहम था पशु के कुलाँचों में बदल गई मेरे पेड़ की हरी पत्तियाँ मुझमें बचा रहा उसे नव-जीवन देने का संतोष

डर

तुम डरते हो तेज़ाबी बारिश से ओज़ोन-छिद्र से मैं डरता हूँ विश्वासघात के सर्प-दंशों से बदनीयती के रिश्तों से तुम डरते हो रासायनिक हथियारों से परमाणु बमों से मैं डरता हूँ मूल्यों के स्खलन से स्वतंत्रता के हनन से तुम डरते हो एड्स से कैंसर से मृत्यु से मैं डरता हूँ उन पलों से जब जीवित होते हुए भी मेरे भीतर कहीं कुछ मर जाता है

ढेंचू-ढेंचू

मैं भी बढ़िया , तुम भी बढ़िया दोनों बढ़िया , ढेंचू-ढेंचू राग अलापे , जो भी हम-सा वह भी बढ़िया , ढेंचू-ढेंचू मेरा खूँटा , मेरी रस्सी यही है दुनिया , ढेंचू-ढेंचू हम भी गदहे , तुम भी गदहे जग गदहामय , ढेंचू-ढेंचू यदि तुम हिन-हिन करते हो तो तुम घटिया हो , ढेंचू-ढेंचू

दीवार

बर्लिन की दीवार कब की तोड़ी जा चुकी थी लेकिन मेरा पड़ोसी फिर भी अपने घर की चारदीवारी डेढ़ हाथ ऊँची कर रहा था पता चला कि वह उस ऊँची दीवार पर काँच के टुकड़े बिछाएगा और फिर उस दीवार पर कँटीली तारें भी लगाएगा मैं नहीं जानता उसके दिमाग़ में दीवार ऊँची करने का ख़याल क्यों और कैसे आया हाँ , एक बार उसने मेरे लॉन में उगे पेड़ की वे टहनियाँ ज़रूर काट डाली थीं जो उसके लॉन के ऊपर फैल गई थीं पर उस पेड़ की छाया इस घटना के बाद भी बराबर उसके लॉन में पड़ती रही एक ही आकाश इस घटना के बाद भी दोनो घरों के ऊपर बना रहा धूप इस घटना के बाद भी दो फाँकों में नहीं बँटी और हवाएँ इस घटना के बाद भी बिना रोक-टोक दोनो घरों के लॉन में आती-जाती रहीं फिर सुनने में आया कि मेरे पड़ोसी ने शेयर-बाज़ार में बहुत पैसा कमाया है कि अब वह पहले से ऊँची कुर्सी पर बैठने लगा है कि उसकी नाक अब पहले से कुछ ज़्यादा खड़ी हो गयी है मैं उसे किसी दिन बधाई दे आने की बात सोच ही रहा था कि उसने अपनी चारदीवारी डेढ़ हाथ ऊँची करनी शुरू कर दी उन्हीं दिनों रेडियो टी. वी. और समाचार-पत्रों ने बताया कि बर्लिन की दीवार तोड़ने की बीसवीं वर्षगाँठ मनाई जा रही है ... याद नहीं आता कहाँ और कब पढ़ा था कि जब दीवार आदमी से ऊँची हो जाए तो समझो आदमी बेहद बौना हो गया है

दूसरे दर्ज़े का नागरिक

उस आग की झीलों वाले प्रदेश में वह दूसरे दर्ज़े का नागरिक था क्योंकि वह किसी ऐसे पिछड़े इलाक़े से आकर वहाँ बसा था जहाँ आग की झीलें नहीं थीं क्योंकि वह ' सन-ऑफ़-द-सोएल ' नहीं माना गया था क्योंकि उसकी नाक थोड़ी चपटी रंग थोड़ा गहरा और बोली थोड़ी अलग थी क्योंकि ऐसे ' क्योंकियों ' की एक लम्बी क़तार मौजूद थी आग की झीलों वाले प्रदेश में चलती काली आँधियों को नज़रंदाज़ कर उसने वहाँ की भाषा सीखी वहाँ के तौर-तरीके अपनाए वह वहाँ जवानी में आया था और बुढ़ापे तक रहा इस बीच कई बार उसने चीख़-चीख़ कर सबको बता देना चाहा कि उसे वहाँ की मिट्टी से प्यार हो गया है कि उसे वहाँ की धूप-छाँह भाने लगी है कि वह ' वहीं का ' होकर रहना चाहता है पर हर बार उसकी आवाज़ बहरों की बस्ती में भटकती चीत्कार बन जाती वहाँ की संविधान की किताब और क़ानून की पुस्तकों में सब को समान अधिकार देने की बात सुनहरे अक्षरों में दर्ज़ थी वहाँ अदालतें थीं जिनमें खड़ी नाक वाले सम्मानित जज थे वहाँ के विश्वविद्यालयों में ' मनुष्य के मौलिक अधिकार ' विषय पर गोष्ठियाँ और सेमिनार आयोजित किए जाते थे क्योंकि आग की झीलों वाला प्रदेश बड़ा समृद्ध था जहाँ सबको समान अवसर देने की बातें अक्सर कही-सुनी जाती थीं इसलिए उसने सोचा कि वह भी आकाश भर फैले समुद्र भर गहराए फेनिल पहाड़ी नदी-सा बह निकले पर जब उसने ऐसा करना चाहा तो उसे हाशिए पर ढकेल दिया गया वह अपनी परछाईं जितना भी न फैल सका वह अंगुल भर भी न गहरा सका वह आँसू भर भी न बह सका उसकी पीठ पर ज़ख़्मों के जंगल उग आए जहाँ उसे मिलीं झुलसी तितलियाँ तड़पते वसंत मैली धूप कटा-छँटा आकाश और निर्वासित स्वप्न दरअसल आग की झीलों वाले उस प्रदेश में सर्पों के सौदागर रहते थे जिनकी आँखों में उसे बार-बार पढ़ने को मिला कि वह यहाँ केवल दूसरे दर्ज़े का नागरिक है कि उसे लौट जाना है यहाँ से एक दिन ख़ाली हाथ कि उसके हिस्से की धरती उसके हिस्से का आकाश उसके हिस्से की धूप उसके हिस्से की हवा उसे यहाँ नहीं मिलेगी इस दौरान सैकड़ों बार वह अपने ही नपुंसक क्रोध की ज्वाला में सुलगा जला और बुझ गया रोना तो इस बात का है कि जहाँ वह उगा था जिस जगह वह अपने अस्तित्व का एक अंश पीछे छोड़ आया था जहाँ उसने सोचा था कि उसकी जड़ें अब भी सुरक्षित होंगी जब वह बुढ़ापे में वहाँ लौटा तो वहाँ भी उसे दूसरे दर्ज़े का नागरिक माना गया क्योंकि उसने अपनी उम्र का सबसे बड़ा हिस्सा आग की झीलों वाले प्रदेश को दे दिया था ...

नरोदा पाटिया : गुजरात , २००२

जला दिए गए मकान के खंडहर में तनहा मैं भटक रहा हूँ उस मकान में जो अब साबुत नहीं है जिसे दंगाइयों ने जला दिया था वहाँ जहाँ कभी मेरे अपनों की चहल-पहल थी उस जले हुए मकान में अब उदास वीरानी है जला दिए गए उसी मकान के खंडहर में तनहा मैं भटक रहा हूँ यह बिन चिड़ियों वाला एक मुँहझौंसा दिन है जब सूरज जली हुई रोटी-सा लग रहा है और शहर से संगीत नदारद है उस जला दिए गए मकान में एक टूटा हुआ आइना है मैं जिसके सामने खड़ा हूँ लेकिन जिसमें अब मेरा अक्स नहीं है आप समझ रहे हैं न जला दिए गए उसी मकान के खंडहर में मैं लौटता हूँ बार-बार वह मैं जो दरअसल अब नहीं हूँ क्योंकि उस मकान में अपनों के साथ मैं भी जला दिया गया था ...

नियति

मेरे भीतर एक अंश रावण है एक अंश राम एक अंश दुर्योधन है एक अंश युधिष्ठिर जी रहा हूँ मैं निरंतर अपने ही भीतर अपने हिस्से की रामायण अपने हिस्से का महाभारत

पढ़ते-पढ़ते

पढ़ो -- कहता है टेबल-लैम्प बच्चा सिर झुकाए पाठ पढ़ने लगता है ध्यान से पढ़ो ठीक से याद करो पाठ का कोई अंश छूट न जाए -- कहता है टेबल-लैम्प सुनता है बच्चा और डूब जाता है पाठ में इसी तरह झुका हुआ न जाने कब तक पढ़ता रहता है बच्चा जागता रहता है टेबल-लैम्प पढ़ते-पढ़ते बच्चे का ज़हन भारी हो जाता है पाठ के सारे शब्द अपने अर्थों की चादर ओढ़ कर सो जाते हैं बहुत देर बाद जब कमरे में माँ आती है तो वह बच्चे और टेबल-लैम्प दोनों को सोया हुआ पाती है

प्रियतमा के नाम

ओ प्रिये तुम खरगोश बन जाओ और मैं बन जाऊँ तुम्हारा बिल तुम मुझ में आ कर रहो शिकारियों से बचो और आश्रय पाओ या तुम दुधमुँही बच्ची बन जाओ और मैं बन जाता हूँ एक दूध भरा गरम और भारी स्तन जो भर दे तुम में नव-जीवन क्यों न मैं एक लम्बी सीढ़ी बन जाऊँ और तुम उस पर दौड़ कर चढ़ जाओ ऊँचाइयों तक जाने के लिए चलो मैं समुद्र बन जाता हूँ और तुम बन जाओ एक रंग-बिरंगी सुंदर मछली जो तैरे मेरी अतल गहराइयों में क्यों न ऐसा करें कि मैं बन जाता हूँ एक वाद्य-यंत्र और तुम मुझे बजाओ अपनी सहस्र उँगलियों से अब मैं पेड़ हूँ और तुम हो एक फुदकती चिड़िया या एक नटखट गिलहरी जो खाए मेरे मीठे फलों को या ऐसा करता हूँ कि मैं किशमिश बन जाता हूँ और तुम बन जाओ एक छोटी बच्ची जो मुझे मुँह में भर कर खुश हो जाए या फिर सुनो तुम बीज बन जाओ और मैं बन जाता हूँ मिट्टी पानी और धूप तुम्हारे लिए

फ़िलिस्तीन

ऐटलस हमेशा पूरा सच नहीं देता है कुछ क़ौमों का जीवन भिंची हुई मुट्ठी-सा होता है कोई नाम साँसों में रचा-बसा होता है कोई नाम होठों पर आयतों-सा होता है इसे कहीं चेचेन्या कहीं ईराक़ कहीं अफ़ग़ानिस्तान कहते हैं किंतु इसका मतलब हर भाषा में फ़िलिस्तीन ही होता है

बचपन

दशकों पहले एक बचपन था बचपन उल्लसित, किलकता हुआ सूरज, चाँद और सितारों के नीचे एक मासूम उपस्थिति बचपन चिड़िया का पंख था बचपन आकाश में शान से उड़ती रंगीन पतंगें थीं बचपन माँ का दुलार था बचपन पिता की गोद का प्यार था समय के साथ चिड़ियों के पंख कहीं खो गए सभी पतंगें कट-फट गईं माँ सितारों में जा छिपी पिता सूर्य में समा गए बचपन अब एक लुप्तप्राय जीव है जो केवल स्मृति के अजायबघर में पाया जाता है वह एक खो गई उम्र है जब क्षितिज संभावनाओं से भरा था

मासूमियत

मैंने अपनी बाल्कनी के गमले में वयस्क आँखें बो दीं वहाँ कोई फूल नहीं निकला किंतु मेरे घर की सारी निजता भंग हो गई मैंने अपनी बाल्कनी के गमले में वयस्क हाथ बो दिए वहाँ कोई फूल नहीं निकला किंतु मेरे घर के सारे सामान चोरी होने लगे मैंने अपनी बाल्कनी के गमले में वयस्क जीभ बो दी वहाँ कोई फूल नहीं निकला किंतु मेरे घर की सारी शांति खो गई हार कर मैंने अपनी बाल्कनी के गमले में एक शिशु मन बो दिया अब वहाँ एक सलोना सूरजमुखी खिला हुआ है

माँ

इस धरती पर अपने शहर में मैं एक उपेक्षित उपन्यास के बीच में एक छोटे-से शब्द-सा आया था वह उपन्यास एक ऊँचा पहाड़ था मैं जिसकी तलहटी में बसा एक छोटा-सा गाँव था वह उपन्यास एक लम्बी नदी था मैं जिसके बीच में स्थित एक सिमटा हुआ द्वीप था वह उपन्यास पूजा के समय बजता हुआ एक ओजस्वी शंख था मैं जिसकी गूँजती ध्वनि-तरंग का हज़ारवाँ हिस्सा था वह उपन्यास एक रोशन सितारा था मैं जिसकी कक्षा में घूमता हुआ एक नन्हा-सा ग्रह था हालाँकि वह उपन्यास विधाता की लेखनी से उपजी एक सशक्त रचना थी आलोचकों ने उसे कभी नहीं सराहा जीवन के इतिहास में उसका उल्लेख तक नहीं हुआ आख़िर क्या वजह है कि हम और आप जिन उपन्यासों के शब्द बन कर इस धरती पर आए उन उपन्यासों को कभी कोई पुरस्कार नहीं मिला ?

माँ , अब मैं समझ गया

मेरी माँ बचपन में मुझे एक राजकुमारी का क़िस्सा सुनाती थी राजकुमारी पढ़ने-लिखने घुड़सवारी , तीरंदाज़ी सब में बेहद तेज़ थी वह शास्त्रार्थ में बड़े-बड़े पंडितों को हरा देती थी घुड़दौड़ के सभी मुक़ाबले वही जीतती थी तीरंदाज़ी में उसे केवल ' चिड़िया की आँख की पुतली ' ही दिखाई देती थी फिर क्या हुआ -- मैं पूछता एक दिन उसकी शादी हो गई -- माँ कहती उसके बाद क्या हुआ -- मैं पूछता फिर उसके बच्चे हुए -- माँ कहती फिर क्या हुआ -- मैं पूछता फिर वह बच्चों को पालने-पोसने लगी -- माँ के चेहरे पर लम्बी परछाइयाँ आ जातीं नहीं माँ मेरा मतलब है फिर राजकुमारी के शास्त्रार्थ घुड़सवारी और तीरंदाज़ी का क्या हुआ -- मैं पूछता तू अभी नहीं समझेगा रे बड़ा हो जा खुद ही समझ जाएगा -- यह कहते-कहते माँ का पूरा चेहरा स्याह हो जाता था ... माँ अब मैं समझ गया

मेरा सपना

एक दिन मैं जैव-खाद में बदल जाऊँ और मुझे खेतों में हरी फ़सल उगाने के लिए डालें किसान एक दिन मैं सूखी लकड़ी बन जाऊँ और मुझे ईंधन के लिए काट कर ले जाएँ लकड़हारों के मेहनती हाथ एक दिन मैं भूखे पेट और बहती नाक वाले बच्चों के लिए चूल्हे की आग तवे की रोटी मुँह का कौर बन जाऊँ

मैं भी हूँ भारत

आप ही की तरह गाता हूँ मैं भी तिरंगे का गीत जब भारत जीतता है हॉकी में , टेनिस में मैं भी झूम उठता हूँ ख़ुशी से हार जाता है जब भारत क्रिकेट में मैं भी उदास होता हूँ झुके हुए झंडे-सा आप ही की तरह मुझे भी ग़ुस्सा आता है आतंकवादियों की काली करतूतों पर क्योंकि मेरा नाम अशफ़ाक खान गुरचरन सिंह या माइकल डिसूज़ा है केवल इसीलिए आप मुझे क्यों टाँग देना चाहते हैं घृणा और संदेह की सूली पर ?

मौत

वह नहीं मरा एबोला वायरस एड्स बर्ड-फ़्लू या स्वाइन-फ़्लू से वह मेरा सबसे अच्छा मित्र था खुद से ज़्यादा मुझे उस पर भरोसा था लेकिन एक दिन मेरी निगाह से वह ऐसा गिरा जैसे गिरता है कोई दुनिया की सबसे ऊँची इमारत से चील के झपट्टे-सी अचानक आई उसकी मौत मेरे लिए

यह सच है : एक

अपने बेटे के जन्म-दिन की ख़ुशी में मैंने एक पौधा लगाया बेटा बड़ा होने लगा पौधा भी बड़ा होने लगा मैं बेटे से प्यार करता था मैं पौधे से भी प्यार करता था मैं बेटे को पाल-पोस रहा था मैं पौधे में खाद-पानी डाल रहा था एक दिन बेटा बड़ा हो गया एक दिन पौधा पेड़ बन गया फिर बेटा मुझे छोड़ अपनी राह चल दिया पेड़ अब भी मेरे पास है बेटा अब मुझे याद भी नहीं करता पेड़ अब मुझे छाया और फल देता है कभी-कभी मुझे लगता है जैसे पेड़ के पके हुए फलों के भीतर कहीं मेरे पिता की सुगंध है पेड़ की जड़ों में कहीं मेरी माँ का दूध है आप भी पेड़ लगाइए अपनों का सुख पाइए

यह सच है : दो

जब मैं छोटा बच्चा था तब मेरे भीतर एक नदी बहती थी जिसका पानी उजला साफ़ और पारदर्शी था उस नदी में रंग-बिरंगी मछलियाँ तैरती थीं जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया मेरे भीतर बहती नदी मैली होती चली गई धीरे-धीरे मैं युवा हो गया पर मेरे भीतर बहती नदी अब एक गंदे नाले में बदल गई थी उस में मौजूद सारी मछलियाँ मर चुकी थीं उसका पानी अब बदबूदार हो गया था जिसमें केवल बीमारी फैलाने वाले मच्छर पनपते थे यह दुनिया की अधिकांश नदियों की व्यथा है यह दुनिया के अधिकांश लोगों की कथा है

युग-बोध

मेरे दादाजी अक्सर अपरिचित लोगों के सपनों में चले जाते थे वहाँ दादाजी उन सबसे घुल-मिलकर खुश हो जाते थे मेरे पिताजी के सपनों में अक्सर अजनबी लोग खुद ही चले आते थे पिताजी भी उन सबसे घुल-मिलकर खुश हो जाते थे मैं किसी के सपनों में नहीं जाता हूँ न ही कोई मेरे सपनों में आता है मैंने अपने सपनों के द्वार पर ' यह आम रास्ता नहीं है ' का बोर्ड लगा रखा है मेरे समकालीनों के सपनों के दरवाज़े पर ' कुत्तों से सावधान ' का बोर्ड लगा हुआ है

लोगो , समझो

हवा किस भाषा में बहती है धूप कौन-सी बोली बोलती है नदी के पानी की ज़बान क्या है बादल कौन-सी जाति के होते हैं सूरज किस गोत्र का है चाँद-सितारे किस धर्म के हैं इंद्रधनुष की नस्ल का नाम क्या है लोगो , समझो अब ना समझे कब समझोगे

लौटना

बरसों बाद लौटा हूँ अपने बचपन के स्कूल में जहाँ बरसों पुराने किसी क्लास-रूम में से झाँक रहा है स्कूल-बैग उठाए एक जाना-पहचाना बच्चा ब्लैक-बोर्ड पर लिखे धुँधले अक्षर धीरे-धीरे स्पष्ट हो रहे हैं मैदान में क्रिकेट खेलते बच्चों के फ़्रीज़ हो चुके चेहरे फिर से जीवंत होने लगे हैं सुनहरे फ़्रेम वाले चश्मे के पीछे से ताक रही हैं दो अनुभवी आँखें हाथों में चॉक पकड़े अपने ज़हन के जाले झाड़कर मैं उठ खड़ा होता हूँ लॉन में वह शर्मीला पेड़ अब भी वहीं है जिस की छाल पर एक वासंती दिन दो मासूमों ने कुरेद दिए थे दिल की तसवीर के इर्द-गिर्द अपने-अपने उत्सुक नाम समय की भिंची मुट्ठियाँ धीरे-धीरे खुल रही हैं स्मृतियों के आईने में एक बच्चा अपना जीवन सँवार रहा है ... इसी तरह कई जगहों पर कई बार लौटते हैं हम उस अंतिम लौटने से पहले

विडम्बना-1

कितनी रोशनी है फिर भी कितना अँधेरा है कितनी नदियाँ हैं फिर भी कितनी प्यास है कितनी अदालतें हैं फिर भी कितना अन्याय है कितने ईश्वर हैं फिर भी कितना अधर्म है कितनी आज़ादी है फिर भी कितने खूँटों से बँधे हैं हम

विडम्बना-2

जब सुकरात को मृत्यु-दंड दिया जा रहा था तुम किसी राज-भवन में भोग-विलास का आनंद उठा रहे थे जब ईसा को सूली पर लटकाया जा रहा था तुम किसी वन में आखेट का मज़ा ले रहे थे जब गाँधी को गोली मारी जा रही थी तुम आज़ादी का जश्न मना रहे थे जब जयप्रकाश नारायण को जेल में ठूँसा जा रहा था तुम अपनी सरकारी नौकरी बचा रहे थे जब भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन चल रहा था तुम अपने बेड-रूम में टी. वी . देखते हुए इसे महज़ एक ख़बर की तरह पचा रहे थे जब उनके ज़ुल्म से पीड़ित हो कर रोहित वेमुला आत्म-हत्या कर रहा था तुम आइ.पी.एल. की चियर-लीडर्स देख कर अपना मन बहला रहे थे ... फिर भी हर युग में तुम्हें शिकायत रही है कि दुनिया में कितना अन्याय अपराध और भ्रष्टाचार है और इनके विरुद्ध कोई कुछ करता क्यों नहीं !

विनम्र अनुरोध

जो फूल तोड़ने जा रहे हैं उनसे मेरा विनम्र अनुरोध है कि थोड़ी देर के लिए स्थगित कर दें आप अपना यह कार्यक्रम और पहले उस कली से मिल लें खिलने से ठीक पहले ख़ुशबू के दर्द से छटपटा रही है जो यह मन के लिए अच्छा है अच्छा है आदत बदलने के लिए कि कुछ भी तोड़ने से पहले हम उसके बनने की पीड़ा को क़रीब से जान लें

सच्चा प्यार

ओ प्रिये मैंने कहा -- मैं तुमसे सच्चा प्यार करता हूँ तुम बोली -- सबूत दो तो सुनो प्रिये -- तुम मेरा 'लाइ-डिटेक्टर टेस्ट' ले लो फिर तुम जान जाओगी कि तुम्हारे प्रति मेरा प्यार सच्चा है या फिर तुम्हारे वियोग में मैंने जो आँसू बहाए हैं उन्हें तुम प्रयोगशाला की टेस्ट-ट्यूबों में भर कर एलेक्ट्रोन माइक्रोस्कोप के नीचे उनका परीक्षण कर लो मेरे उन आँसुओं में तुम्हें तुम्हारे प्रति मेरे सच्चे प्यार के असंख्य अणु तैरते मिलेंगे इस कंक्रीट-जंगल में जहाँ टेस्ट-ट्यूब बच्चों का युग पल रहा है मैं तुम्हें अपने प्यार के सच्चा होने का और कौन-सा सबूत दूँ ?

सबसे अच्छा आदमी

सबसे अच्छा है वह आदमी जो अभी पैदा ही नहीं हुआ उसने हमें कभी नहीं छला प्रपंचों पर वह कभी नहीं पला हमें पीछे खींच कर वह आगे नहीं चला बची हुई है अभी वे सारी जगहें जिन्हें घेरता उसका अस्तित्व अपनी परछाईं से बची हुई है अभी उन सारी जगहों की आदिम सुंदरता उसके हिस्से की रोशनी में नहाती हुई बची हुई है अब भी निर्मल उसके हिस्से की धूप पानी हवा आकाश मिट्टी बचा हुआ है अभी फ़िज़ा में उसके हिस्से का ऑक्सीजन राहत की बात है कि इसी बहाने थोड़ी कम है अभी वायु-मंडल में कार्बन-डायॉक्साइड की मात्रा नहीं बनी है एक और सरल रेखा वक्र-रेखा अभी बची हुई हैं बेहतरी की कुछ सम्भावनाएँ अभी कि उपस्थित के बोझ से कराह रही धरती को अनुपस्थित अच्छे आदमी से मिली है थोड़ी-सी राहत ही सही

सूरज , चमको न

सूरज चमको न अंधकार भरे दिलों में चमको न सूरज उदासी भरे बिलों में सूरज चमको न डबडबाई आँखों पर चमको न सूरज गीली पाँखों पर सूरज चमको न बीमार शहर पर चमको न सूरज आर्द्र पहर पर सूरज चमको न सीरिया की अंतहीन रात पर चमको न सूरज बुझे हुए ईराक़ पर जगमगाते पल के लिए अरुणाई भरे कल के लिए सूरज चमको न आज

स्टिल-बॉर्न बेबी

वह जैसे रात के आईने में हल्का-सा चमक कर हमेशा के लिए बुझ गया एक जुगनू थी वह जैसे सूरज के चेहरे से लिपटी हुई धुँध थी वह जैसे उँगलियों के बीच में से फिसल कर झरती हुई रेत थी वह जैसे सितारों को थामने वाली आकाश-गंगा थी वह जैसे ख़ज़ाने से लदा हुआ एक डूब गया समुद्री-जहाज़ थी जिसकी चाहत में समुद्री-डाकू पागल हो जाते थे वह जैसे कीचड़ में मुरझा गया अधखिला नीला कमल थी...

स्पर्श

धूल भरी पुरानी किताब के उस पन्ने में बरसों की गहरी नींद सोया एक नायक जाग जाता है जब एक बच्चे की मासूम उँगलियाँ लाइब्रेरी में खोलती हैं वह पन्ना जहाँ एक पीला पड़ चुका बुक-मार्क पड़ा है उस नाज़ुक स्पर्श के मद्धिम उजाले में बरसों से रुकी हुई एक अधूरी कहानी फिर चल निकलती है पूरी होने के लिए पृष्ठों की दुनिया के सभी पात्र फिर से जीवंत हो जाते हैं अपनी देह पर उग आए खर-पतवार हटा कर जैसे किसी भोले-भाले स्पर्श से मुक्त हो कर उड़ने के लिए फिर से जाग जाते हैं पत्थर बन गए सभी शापित देव-दूत जैसे जाग जाती है हर कथा की अहिल्या अपने राम का स्पर्श पा कर

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