हिंदी कविताएँ : सुरेन्द्र प्रजापति

Hindi Poetry : Surendra Prajapati



1. कोहरा

जनवरी के इस कहर बरसाती ठंड में जबकि कोहरे के भयंकर धातुई जबड़े अपने पुरे वजुद के साथ जिंदगी की जंग को परास्त कर विजय गर्व से ठहाके लगा रहा है सूर्य नतमस्तक हो दुबक गया है कहीं पुरे-पुरे दिनभर के लिए और मैं कविता लिखने की जिद्द पर अड़ा हूँ कपटी हवाएँ, पुरे शरीर को झनझना रही है संतुर की भांति रक्त ठिठुर कर हलक में ही जमने को विवश है हड्डियां बिचुड़कर, कोई और ही शक्ल ईजाद कर रहा है, जिंदगी का! मैं कपकँपाते हुए जनतंत्र को उजागर करना चाहता हूँ पुरी दृढ़ता के साथ उसके पाषाणी चेहरे- विकृत मुखों को। लेकिन निगुड़ी अंगुलियाँ आक्रांत है *लेकिन* को पकड़ने से षड्यंत्र रचते शब्द आ जा रहे हैं लेकिन करूँ क्या? मैं निःसहाय, निःश्वाश अखबार के पन्ने मुश्किल से ही देख पाता हूँ एक इश्तहार झकझोरता है कि सामान्य से सामान्य लोग जिंदगी की जंग हार गए बेआवाज, बेआबरू दासता कहते-कहते

2. एक सुंदर कविता

गुलाब काँटो में कैसे खिलता है? सूर्य की प्रखर किरणो में तपकर भी- सुगन्ध कहाँ से लाता है? कैसे बनती है एक सुंदर कविता पूछो इससे बंजर मिट्टी को तोड़ते पसीने को जलाते इंसान को पढ़ो क्या तुम सुन रहे हो, कि यह टूटते पत्थर का रुदन है या मिट्टी में सने खून का चीत्कार शब्दों में ढूंढो, जीवन की एक मुकम्मल तस्वीर पढ़ो, संवेदना की गूँज समर्पण का उच्छवास सत्य का प्रकाश

3. कैलेंडर

देखो, कैलेंडर में सिर्फ तारीखें मत देखो अपनी योजना देखो विस्तार लेता संसार देखो ये मत देखना कि किन तारीखों में तुम्हारा दुःस्वप्न, विपदा लाया था किस माह, में तुम अपना बाजी हार गया था देखो, रोज तारीखें आती है पुण्य, यश, कृति का संवाद लाती है किसी का जीत किसी का हार अंकित है उन्ही तिथियों में जीवन का अनुराग संचित है देखो, और विचार करो प्रगति के चक्रों को भूलो मत प्रकृति अपना कलेंडर टांग दिया बसंत की बहार में विपदाओं के हाहाकार में सुनो, तुम कौन सा राग लिख रहे हो इन दिनों लिखो जीवन, सृजन करो जिंदगी का काव्य, अमर वाक्य क्योंकि इन्ही तारीखों में गढ़ने होंगे प्रशस्तियाँ उज्ज्वल रश्मियों का मार्ग

4. भूख

भुख से बेजार होते बच्चे चिल्ला रहे थे प्रार्थना की शक्ल में गुहार लगा रहे थे देख रहे थे अपनी माँ को आशाभरी दृष्टि से माँ का हृदय रो पड़ा घर में अन्न का एक दाना नहीं कहाँ से दूं भोजन तब उसने बच्चे को बहलाया, फुसलाया "बापु तेरे आते होंगे- लो, अभी भोजन बनाया तब तक कुछ विश्राम करले दिनभर खेल में थके हुए हो कुछ आराम तो कर ले"। बच्चों का बापु आया पर खाली हाथ थका हुआ, उदासी लाया माँ ने चूल्हा जलाया खाली-खाली बर्तन चढ़ाया माँ के आंखों से आँसू की बूंदे बर्तन में गिरता जाता था छन्न छन्न छन्न छन्न बन रहा आज पकवान कोई एक आवाज गूंजता जाता था सुनकर बच्चे आनन्द विभोर थे कहते "माँ पकवान बनाया" लेकिन विश्वदेव देख, स्वयं लज्जा घृणा ही पाया ××××××××××××× भुख-भुख बच्चे बोलो अन्न कहाँ, किस घर से लाऊं हे देव ! मुझे बता बच्चों को कबतक आँसू से बहलाऊँ ।

5. जीवन का कर्ज

संध्या समय में, जब घर लौटा थकान, दर्द से विलाप करते कुछ टुटे स्वप्नों, निराशाओं से हाथ मलते निढाल ढोते निर्बल शरीर के साथ अपनी साँसों को नियंत्रित कर रहा था आसमान में पुरी चन्द्रमा अपनी स्निग्ध शीतलता उड़ेल रही थी मैं, उसके चंचल उजाले में बैठ शीतल सुधामय वायु के साथ अपने जख्मों को लगाना चाहा मलहम ताकि प्राण लहरियों में फिर से हरियाली आ जा सके तभी, दरवाजे पर दस्तक हुआ और मैं उस ओर थथम कर देखने लगा उस महाजन को, जिसका मैं कर्जदार था वह मुझे ऐसे घुर रहा था जैसे उसके सबसे अनमोल धरोहर पर मैं किसी घिनौने जीव की भांति घात लगाए बैठा हूँ मेरी आँखों में व्याप्त कातरता उसके चेहरे पर उत्पन्न भर्त्सना में थोड़ी सी मोहलत और याचना के निर्बल, निःशब्द गुहार लगा रही थी उसने तीखे शब्दों का प्रहार किया मेरी विवशता थी, उसे स्वीकार किया उसने अपशब्दों, कुशब्दों का चाबुक फेंका मेरी दीनता थी, उसे मुक सुनता रहा निर्लजों की तरह, पुरी हया को भुलकर उसने कहा 'कामचोर' और मेरा कठोर श्रम संघर्षों में ईमानदार पसीना बहाते लहूलुहान होकर बिखर गया मेरी वफादारी, मेरी विनम्रता मेरी ही आत्मा से सवाल करने लगा उद्धार हो जाओ, साहुकार से, बेचारी किस्मत से जिंदगी भी एक साहुकार है उसका भी कर्ज चुकाने होंगे, बन्धु !

6. गरीबों के लिए

कानून में लिखा गया, हर नियम सिर्फ गरीबों के लिए होता है अमीरों के लिए तो ये खिलबाड़ है समाज का हर कहर, बर्बरता का नाद निर्बलों, वंचितों, असहायों पर बिजली बनकर गिरता है और पुरा का पुरा घर जलाकर राख कर देता है । अमीरों के लिए तो ये बज्र की किवाड़ है संसार की सारी घृणाएँ अपशब्द, कुतर्को की पोटली मिथ्या आरोप, झुठा मुकदमा भयभीत कर देनेवाली यातनाएँ सन्तप्त वेदना की अनुगूंज पुकार बजबजाती, दम तोड़ती याचनाएँ सिर्फ असहायों, वंचितों, मलिन बस्तियों में रहने वाले, कमजोर प्राणियों पर ही क्यों कहर ढाता है, क्यों ? जब तब उन बदनसीबों को हिंसा प्रतिहिंसा की धधकती हुई भठ्ठी में झोंक दिया जाता है क्या ? इस प्रश्न का उत्तर है तेरे बीमार तंत्र के पास बताओ, सत्ता पर आसीन आकाओं

7. आँख का स्वप्न

आँख सिर्फ आँसू बहाने के लिए कहाँ होती है ? वह स्वप्न भी देखती है, चमकदार उसके जबड़े होते हैं, शिल्पगत कारगर हाथ जुड़ते हैं, दाता के सामने तो बंदूक भी सम्हालते हैं आतिशबाजियां करनेवाली अंगुलियाँ स्वतंत्र शब्द भी रचती है नसों में बहने वाली लहु क्या जमीन को नहीं रंगती ? सुमनों की चंचल सुरभि से मुग्ध होने वाले मस्तिष्क में क्या विचारों की चिंगारी नही उड़ती ? दाता कहने वाला मुख अपना भाग्य विधाता भी कहता है स्थिर जल में कंकड़ डालो तुम उसमें, तरंगे फुफकरता है लपकता है, लहलहाते आग की तरह तिस पर मैं एक मनुष्य हूँ क्रिया करता हूँ तो क्या प्रतिक्रिया करने का अधिकार नहीं है मेरा ? मुक्त बहती हवाएँ अविरल बहती जलधारा किसने रोका कभी फिर तुम मुझे जंजीरों में बाँधोगे, हरियाली को सींचती बाग बगैर, रक्तरंजित होते रह सका है किसी युग, किसी काल में अपमान, घृणा और जिल्लत भरी कसमसाती जिंदगी की आँखों मे झाँको मुक्ति का बवंडर चलेगा वहाँ भी और हिला देगा तुम्हारी स्याह में डूबी सता को और मैं अपने कविता की एक-एक पंक्ति की प्रत्येक शब्द की तरह अपने एक-एक कतरे खुन को न्योछावर कर दूँगा मैं दिनकर के प्रचंड ताप पर और तपाउँगा अपनी महत्वाकांक्षा को अपने जीवन की उर्बर मिट्टी पर मानव नद के निर्मल तटों पर हरियाली का मौसम जल के लाल कणों में ही सींचेग्गे

8. ग्राम-जीवन

मैं मलिन बस्तियों में गया सड़ांध और बदबुदार रोशनी को देखा और जी भर कर रोया वहाँ जीवन कैसे रचता है अपना कौतुक? उत्सुकता से ठहर कर जानना चाहा वहाँ गांव का गंवईपन निर्लिप्त उज्ज्डता गंवार और भोले-भाले लोगों की आत्मीयता कि वे रात्रि के पिछले प्रहर से ही करते हैं, ईश्वर भजन साझा करते हैं एक दूसरे के सुख-दुःख मिट्टी की सुगंध लिए वायु की आत्ममुग्धता में अपने हृदय की व्यथा को धोया और मीठे स्वप्न में मैं नींद भर सोया।

9. अलाना फलाना जिंदाबाद

वो बोलता है अलाना फलाना जिंदाबाद तुम बोलते हो इंकलाब जिंदाबाद वो कहता है देश की जनता भुखा है तुम कहते हो हमारा अमर संस्कृति सुखा है वो कहता है ये दिल्ली की है सरकार खुब पनपता भ्र्ष्टाचार देश की सत्ता मुर्दाबाद अफसरशाही मुर्दाबाद तुम कहते हो घर-घर से आई आवाज जनता को दो न्याय दो अधिकार तख्त ताज लेकिन जनतंत्र की भीड़ में जो कल एक बेसहारा गरीब को रौंद डाला था जो खुलेआम कत्लेआम किया जो मासूम जिंदगी के साथ हवस की चाशनी लगाकर खेला ताज्जुब है वो आज किसका मुर्दाबाद कहता है? खून पसीने से निकली उष्णता लू उमस ठिठुरन और भीगते अरमान से जिसने धरती महकाया, किया कठोर परिश्रम का सस्वर पाठ, शिल्प रचा नंगे पांव चलकर बनाया राजमार्ग....

10. सड़कों पर आंदोलन

वे सड़कों पर हैं आप महलों में हो वे आंदोलन कर रहे हैं बता रहे हैं, मिट्टी में बहाए गए अपने बदबूदार पसीने की व्यथा-कथा खपा दिए गए अपनी ऊर्जा, संघर्ष की, विनम्र श्रधांजलि बेदम दिनचर्चाओ के साथ अपने विश्राम को स्वाहा करता अपना स्वप्निल बसंत भूख प्यास को होम करता आज वह मांगता है कीमत वाजिब हक, अपना अधिकार तुम दे रहे हो तिरस्कार, घृणा, त्रासदी का

11. उठो कृषक

उठो, कृषक! भोर से ही तुहिन कण फसलों में मिठास भरती उषा को टटोलती उम्मीदों की रखवाली कर रही है जागो, कि अहले सुवह से ही सम्भावना की फसलों को चर रही है नीलगाय प्रभात को ठेंगा दिखाती जागो, कृषक कि तुम्हारा कठोर श्रम बहाए गए पसीने की ऊष्मा गाढ़ी कमाई का उर्वरक मिट्टी में बिखरे पड़े हैं उत्सव की आस में कर्षित कदम अड़े हैं जागो, कृषक कि सान्तवना की किरण आ रही है तुम्हारे बेसुरे स्वर में परिश्रम को उजाले से सींचने अंधेरे में सिसक रहे मर्मर विश्वास को खींचने उठो, कृषक उठाओ, कठोर संघर्ष स्वीकार करो, लड़खड़ाते पैरों की दुर्गम यात्रा बीत गया, रीत गया कई वर्ष...!

12. फसल मुस्कुराया

देखो, भूमिपुत्र...! उषा की बेला में उम्मीद की लौ से सिंचित मिट्टी में दुबका बीज धरती की नमी को सोखकर आकाश में हँस रहा है तुम्हारे थकान को उर्वरक का ताप दिखाकर ऊसर में बरस रहा है ऐ खेत के देवता... तुम्हारी वेदना, तुम्हारा सन्ताप बहते श्वेद कण का प्रताप शख्त मिट्टी में मिलकर ओस की बूंदों में सनकर जगा रहा है कंठ का प्यास उपज में सोंधी मिठास आस की भूख सता रही है कई-कई दिनों से निर्मित आत्मा की फीकी मुस्कुराहट जीवन का रहस्य बता रही है कि कसैला स्वाद चखने वाला चीख-हार कर, गम खानेवाला बासमती धान का भात कैसे खाए जिसपर संसद का कैमरा फोकस करता है... जिसपर शाही हुक्मरान प्रबल राजनीत करता है...

13. कृषक की संध्या

पश्चिम क्षितिज में रक्तिम आभा में पुता हुआ किसी चित्रकार का पेन्टिंग हताश आँखों से देखता है खेत से लौटता कामगर झोलफोल (संध्या) हुआ... अब लौट रहा है किसान आकाश का पगड़ी बाँधकर सूरज की रौशनी को चिलम में भर-भर, दम मारता जम्हाई ले रहा है पहाड़ मार्ग में उड़ रहा है गर्द गुबार रम्भाति हुई गऊएं दौड़ी चली आ रही है पास ही धधक रहा है शीशम के सूखे पते की आग पुरब में धुंधलका छा रहा है अंधेरे का दैत्य आ रहा है नन्हा बछड़ा... रुक-रुक कर रम्भाता है धमन चाचा बोलता है 'च..ल हो अंधियार हो गेलो' उलटता है चिलम, फूक मारकर साफ करता है बुझी हुई राख सूर्य डूब रहा है- पहाड़ी के पीछे...!

14. अभिलाषा का फसल

फसल बोने से पहले अभिलाषा का बीज बोता है किसान उम्मीद की तपिश देकर बंजर भूमि को लगन के कुदाल से कोडता है परिश्रम के फावड़े से तोड़ता है पसीने की नमी देकर मिलाता है बार-बार हताशा और थकान का खाद डालता है। अपने हृदय की व्यथा को संवेदना की गर्मी देकर बनाता है बलवान कितने-कितने आपदाओं से लड़कर अपने हाथों से लिखता है अपने भाग्य की लिपि सम्भावना को तलाशता नियति के चक्रों, कुचक्रों को धकियाता किस्मत को गोहराता है

15. मेरा क्या है साहब

मेरा क्या है साहब? शरीर हमारा श्रम हमारा पसीना हमारा थकान हमारी पीड़ा हमारा जख्म से बहते खून पीव हमारा सरकार आपका खेत खलिहान आपका विशाल दलान आपका मेरा क्या है साहब? दुर्दशा हमारा दम तोड़ती अभिलाषा हमारी छिन्न होता प्रकाश हमारा व्यथा, दुःख, क्लेश हमारा चीथड़ों में लिपटा वेश हमारा हुकूमत आपका सल्तनत आपका जंजीरों का जकड़न बेड़ियों का हुंकार आपका मेरा क्या है साहब? याचना हमारी प्रार्थना हमारी रातों जगते आँख में सूजन हमारी कटे परों से फड़फड़ाता उम्मीद हमारा खेत से गोदाम तक पहुंचाता उपज का आस हमारा फसल पर लगाया कीमत तुम्हारा हुकूमत तुम्हारा डंडे लाठी का प्रहार तुम्हारा मेरा क्या है साहब? प्रजा, सरकार चुनता है अपना बहिष्कार चुनता है सड़क से संसद तक अपना संघर्ष बुनता है

16. वह नियति को कोसता है

किसान! मिट्टी की खुश्बू से पहचान लेता है धरती की नमीं, उष्णता की मिठास फसल की गरमी कि कौन सा फसल उपयुक्त है मिट्टी के किस रंग में कौन सा उपज लगेगा जैसे एक गर्भवती माँ अपने पेट में पलते शिशु के झिलसागर में तैरते हलचल को महसूस करती है अपने लोरियों में पिरोती है नवजात शिशु की थपकी मुस्कानों में अंकित करती है ममत्व का चुम्बन जैसे सता के तलबगार लोग अपने षडयंत्रो के चाबुक से थाह लेता है प्रजा का भूख और तैयार करता है नफरत के अग्नि पर एक छलता हुआ सुख किसान प्रकृति के प्रत्येक थपेड़ों से निर्भयता के साथ सामना करता है लड़ता है झंझा के तूफानों से लेकिन सत्ता के गलियारे से उसके खिलाफ किए गए फैसले का सामना नहीं करता सिर्फ नियति को कोसता रहता है

17. तुम आत्महत्या करोगे

संकट गहरा रहा है दुराकाश में हिंसक पक्षियों का दल आ रहा है क्षितिज पर षड्यंत्र का सूरज निकला है किरणों से कुतर्कों, अमंगल शब्दों का बयान आ रहा है टुकड़े में बंटे खेत का अस्तित्व अब मिट रहा है धरती से काले, कोट-पैंट में लुटेरे कॉर्पोरेट का कर रहा है शिलान्यास सौंपने होंगे अब पुरखों के ऊर्बर जमीन कोई जरूरी नहीं कि उसमें तुम्हारी इच्छा स्वतंत्र हो तुम्हारे इच्छाओं के विरुद्ध तुम्हारे सपने को करता चूर-चूर कॉर्पोरेट अपना घराना बनाएगा तुम्हारा जमीन छीना जाएगा बनेगा राजमार्ग राजधानी तक क्या करोगे तुम लरजकर हाथ बांधे खड़े रहोगे होरी बनकर कितने कितने त्रासदी को झेलोगे अंततः शहरों में जाओगे मॉल, कारखानों में काम करोगे दिहाड़ी मजदूर बनकर या सभ्रांत घरों में चाकरी करोगे नौकर बनकर जुर्म की दुनिया में काम करने के लिए कभी भर्ती बंद नहीं हुआ है हो सकता है आतंक का पर्याय बनो और बावजूद इसके जब भी भीड़ नहीं जुटा सको अपने हक-अधिकार के लिए कुछ भी बोलना न चाहो कायरों की तरह न याचना करना, न रोना-गिड़गिड़ाना न तड़पना न बरसना एक मार्ग काल के फलक पर बेह्याही के साथ तुम्हारे हृदय को मथेगा तुम आत्महत्या करोगे "क्या कहा...."? यह आसान सा विकल्प है जिंदगी से पीछा छुड़ाने का लेकिन एक बात समझना जरूरी है, भाई तुम तो मुसीबतों से बच जाओगे लेकिन आनेवाली, तुम्हारी पीढ़ियों का दिन और भी भयावह हो सकता है और भी बदतर.... फिर बीज बोने बाला हाथ सिर्फ अपनी सुरक्षा के लिए नर्क का निर्माण करेगा

18. देवता मलिन बस्तियों में

मुखौटा में युग का नायक है शोर मत करना, कानाफूसी नहीं असली चेहरों में लिपटा है ना बोझिल उम्मिन्दो का आश लगाए वही तो खलनायक है रोना, गिड़गिड़ाना तो अपयश है समृद्धि, शांति पर धब्बा है वैभव की समाधि का हास्यास्पद कलंक है झूठ सच का बाजार का चलन हो गया इस बाजार में सरपट दौड़ लगा दो छल, कपट फरेब से तो हस्तिनापुर सजा है और न्याय का डंका बजा है और एक तुम हो कि सच का बाँसुरी फूक रहे हो आदर्श, त्याग का मंगल गाकर अपने दामन में ही थूक रहे हो लेकिन देखो देवता मलिन बस्तियों में खपा रहे हैं अपनी ऊर्जा को बेतरतीब, जीते हुए सड़ांध पैदा कर रहे हैं कहीं नंगे बदन ठंढ से कांप रहे हैं और शाही सम्राट अपनी उपलब्धि का सदाव्रत बाँट रहे हैं

19. मेरी वफादारी

मेरी वफादारी ठिठुरती, बिसूरति कभी स्याह अंधेरे को घूरती करवट बदलती, ढूंढती रही आनंद का उत्सव, सुख की मीठी लोरी और ईमानदारी का कलरव। रात्रि के घने अंधेरे में निमग्न घमासान का क्रौंच अनायास, जब तब आता और बेसुरा राग सुना जाता दे जाता, मेरे संघर्ष को चुभन थकान, तिरस्कार का आलिंगन सुनो ! मैं एक गीत रचा हूँ उसे तुम्हारे नफरत की बांसुरी में छुपा दूँगा एक गहरे तिलिस्म की तरह स्वर्णिम प्रभात में रवि किरणों से थोड़ी सी ज्वाला लेकर, तपाउंगा जलाऊँगा, अतीत बन जाने के लिए। कल, जब मैं न रहूँगा हो सकता है मेरा नामो निशान मिटा दिया जाएगा, तब मेरे आने वाली नस्लें, अतीत हो चुके इसी वर्तमान को मुकुट की तरह धारण करेगा। मेरे दोस्त, तब वह गीत सिंहनाद करेगा, उल्का पिंडो पर बाँसुरी का तान विप्लवी हो जाएगा तिलिस्म से निकलेगी चिंगारी छितरा जाएगी पुरी धरती पर तब संघर्ष की ज्वाला प्रेम के सौंदर्य को राँघेगा काल त्योहार मनाएगा

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