हिन्दी कविताएँ सोहन लाल द्विवेदी
Hindi Poetry Sohan Lal Dwivedi


कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती कोशिश करने वालों की हार नहीं होती नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है मन का विश्वास रगों में साहस भरता है चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती कोशिश करने वालों की हार नहीं होती डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है जा जाकर खाली हाथ लौटकर आता है मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती कोशिश करने वालों की हार नहीं होती असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम कुछ किये बिना ही जय जयकार नहीं होती कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

मातृभूमि

ऊँचा खड़ा हिमालय आकाश चूमता है, नीचे चरण तले झुक, नित सिंधु झूमता है। गंगा यमुन त्रिवेणी नदियाँ लहर रही हैं, जगमग छटा निराली पग पग छहर रही है। वह पुण्य भूमि मेरी, वह स्वर्ण भूमि मेरी। वह जन्मभूमि मेरी वह मातृभूमि मेरी। झरने अनेक झरते जिसकी पहाड़ियों में, चिड़ियाँ चहक रही हैं, हो मस्त झाड़ियों में। अमराइयाँ घनी हैं कोयल पुकारती है, बहती मलय पवन है, तन मन सँवारती है। वह धर्मभूमि मेरी, वह कर्मभूमि मेरी। वह जन्मभूमि मेरी वह मातृभूमि मेरी। जन्मे जहाँ थे रघुपति, जन्मी जहाँ थी सीता, श्रीकृष्ण ने सुनाई, वंशी पुनीत गीता। गौतम ने जन्म लेकर, जिसका सुयश बढ़ाया, जग को दया सिखाई, जग को दिया दिखाया। वह युद्ध–भूमि मेरी, वह बुद्ध–भूमि मेरी। वह मातृभूमि मेरी, वह जन्मभूमि मेरी।

भारत

भारत तू है हमको प्यारा, तू है सब देशों से न्यारा। मुकुट हिमालय तेरा सुन्दर, धोता तेरे चरण समुन्दर। गंगा यमुना की हैं धारा, जिनसे है पवित्र जग सारा। अन्न फूल फल जल हैं प्यारे, तुझमें रत्न जवाहर न्यारे! राम कृष्ण से अन्तर्यामी, तेरे सभी पुत्र हैं नामी। हम सदैव तेरा गुण गायें, सब विधि तेरा सुयश बढ़ायें।

वंदना

वंदिनी तव वंदना में कौन सा मैं गीत गाऊँ? स्वर उठे मेरा गगन पर, बने गुंजित ध्वनित मन पर, कोटि कण्ठों में तुम्हारी वेदना कैसे बजाऊँ? फिर, न कसकें क्रूर कड़ियाँ, बनें शीतल जलन–घड़ियाँ, प्राण का चन्दन तुम्हारे किस चरण तल पर लगाऊँ? धूलि लुiण्ठत हो न अलकें, खिलें पा नवज्योति पलकें, दुर्दिनों में भाग्य की मधु चंद्रिका कैसे खिलाऊँ? तुम उठो माँ! पा नवल बल, दीप्त हो फिर भाल उज्ज्वल! इस निबिड़ नीरव निशा में किस उषा की रश्मि लाऊँ? वन्दिनी तव वन्दना में कौन सा मैं गीत गाऊँ?

तुम्हें नमन

चल पड़े जिधर दो डग, मग में चल पड़े कोटि पग उसी ओर ; गड़ गई जिधर भी एक दृष्टि गड़ गए कोटि दृग उसी ओर, जिसके शिर पर निज हाथ धरा उसके शिर- रक्षक कोटि हाथ जिस पर निज मस्तक झुका दिया झुक गए उसी पर कोटि माथ ; हे कोटि चरण, हे कोटि बाहु हे कोटि रूप, हे कोटि नाम ! तुम एक मूर्ति, प्रतिमूर्ति कोटि हे कोटि मूर्ति, तुमको प्रणाम ! युग बढ़ा तुम्हारी हँसी देख युग हटा तुम्हारी भृकुटि देख, तुम अचल मेखला बन भू की खीचते काल पर अमिट रेख ; तुम बोल उठे युग बोल उठा तुम मौन रहे, जग मौन बना, कुछ कर्म तुम्हारे संचित कर युगकर्म जगा, युगधर्म तना ; युग-परिवर्तक, युग-संस्थापक युग संचालक, हे युगाधार ! युग-निर्माता, युग-मूर्ति तुम्हें युग युग तक युग का नमस्कार ! दृढ़ चरण, सुदृढ़ करसंपुट से तुम काल-चक्र की चाल रोक, नित महाकाल की छाती पर लिखते करुणा के पुण्य श्लोक ! हे युग-द्रष्टा, हे युग सृष्टा, पढ़ते कैसा यह मोक्ष मन्त्र ? इस राजतंत्र के खण्डहर में उगता अभिनव भारत स्वतन्त्र !

गिरिराज

यह है भारत का शुभ्र मुकुट यह है भारत का उच्च भाल, सामने अचल जो खड़ा हुआ हिमगिरि विशाल, गिरिवर विशाल! कितना उज्ज्वल, कितना शीतल कितना सुन्दर इसका स्वरूप? है चूम रहा गगनांगन को इसका उन्नत मस्तक अनूप! है मानसरोवर यहीं कहीं जिसमें मोती चुगते मराल, हैं यहीं कहीं कैलास शिखर जिसमें रहते शंकर कृपाल! युग युग से यह है अचल खड़ा बनकर स्वदेश का शुभ्र छत्र! इसके अँचल में बहती हैं गंगा सजकर नवफूल पत्र! इस जगती में जितने गिरि हैं सब झुक करते इसको प्रणाम, गिरिराज यही, नगराज यही जननी का गौरव गर्व–धाम! इस पार हमारा भारत है, उस पार चीन–जापान देश मध्यस्थ खड़ा है दोनों में एशिया खंड का यह नगेश!

रे मन

प्रबल झंझावत में तू बन अचल हिमवान रे मन। हो बनी गम्भीर रजनी, सूझती हो न अवनी, ढल न अस्ताचल अतल में बन सुवर्ण विहान रे मन। उठ रही हो सिन्धु लहरी हो न मिलती थाह गहरी नील नीरधि का अकेला बन सुभग जलयान रे मन। कमल कलियाँ संकुचित हो, रश्मियाँ भी बिछलती हो, तू तुषार गुहा गहन में बन मधुप की तान रे मन।

आया वसंत आया वसंत

आया वसंत आया वसंत छाई जग में शोभा अनंत। सरसों खेतों में उठी फूल बौरें आमों में उठीं झूल बेलों में फूले नये फूल पल में पतझड़ का हुआ अंत आया वसंत आया वसंत। लेकर सुगंध बह रहा पवन हरियाली छाई है बन बन, सुंदर लगता है घर आँगन है आज मधुर सब दिग दिगंत आया वसंत आया वसंत। भौरे गाते हैं नया गान, कोकिला छेड़ती कुहू तान हैं सब जीवों के सुखी प्राण, इस सुख का हो अब नही अंत घर-घर में छाये नित वसंत।

अलि रचो छंद

अलि रचो छंद आज कण कण कनक कुंदन, आज तृण तृण हरित चंदन, आज क्षण क्षण चरण वंदन विनय अनुनय लालसा है। आज वासन्ती उषा है। अलि रचो छंद आज आई मधुर बेला, अब करो मत निठुर खेला, मिलन का हो मधुर मेला आज अथरों में तृषा है। आज वासंती उषा है। अलि रचो छंद मधु के मधु ऋतु के सौरभ के, उल्लास भरे अवनी नभ के, जडजीवन का हिम पिघल चले हो स्वर्ण भरा प्रतिचरण मंद अलि रचो छंद।

नयनों की रेशम डोरी से

नयनों की रेशम डोरी से अपनी कोमल बरजोरी से। रहने दो इसको निर्जन में बांधो मत मधुमय बन्धन में, एकाकी ही है भला यहाँ, निठुराई की झकझोरी से। अन्तरतम तक तुम भेद रहे, प्राणों के कण कण छेद रहे। मत अपने मन में कसो मुझे इस ममता की गँठजोरी से। निष्ठुर न बनो मेरे चंचल रहने दो कोरा ही अंचल, मत अरूण करो हे तरूण किरण। अपनी करूणा की रोरी से।

जागरण गीत

अब न गहरी नींद में तुम सो सकोगे, गीत गाकर मैं जगाने आ रहा हूँ ! अतल अस्ताचल तुम्हें जाने न दूँगा, अरुण उदयाचल सजाने आ रहा हूँ। कल्पना में आज तक उड़ते रहे तुम, साधना से सिहरकर मुड़ते रहे तुम. अब तुम्हें आकाश में उड़ने न दूँगा, आज धरती पर बसाने आ रहा हूँ। सुख नहीं यह, नींद में सपने सँजोना, दुख नहीं यह, शीश पर गुरु भार ढोना. शूल तुम जिसको समझते थे अभी तक, फूल मैं उसको बनाने आ रहा हूँ। देख कर मँझधार को घबरा न जाना, हाथ ले पतवार को घबरा न जाना . मैं किनारे पर तुम्हें थकने न दूँगा, पार मैं तुमको लगाने आ रहा हूँ। तोड़ दो मन में कसी सब श्रृंखलाएँ तोड़ दो मन में बसी संकीर्णताएँ. बिंदु बनकर मैं तुम्हें ढलने न दूँगा, सिंधु बन तुमको उठाने आ रहा हूँ। तुम उठो, धरती उठे, नभ शिर उठाए, तुम चलो गति में नई गति झनझनाए. विपथ होकर मैं तुम्हें मुड़ने न दूँगा, प्रगति के पथ पर बढ़ाने आ रहा हूँ।

मंदिर दीप

मैं मंदिर का दीप तुम्हारा। जैसे चाहो, इसे जलाओ, जैसे चाहो, इसे बुझायो, इसमें क्या अधिकार हमारा? मैं मंदिर का दीप तुम्हारा। जस करेगा, ज्योति करेगा, जीवन-पथ का तिमिर हरेगा, होगा पथ का एक सहारा! मैं मंदिर का दीप तुम्हारा। बिना स्नेह यह जल न सकेगा, अधिक दिवस यह चल न सकेगा, भरे रहो इसमें मधुधारा, मैं मंदिर का दीप तुम्हारा।

तुलसीदास

अकबर का है कहाँ आज मरकत सिंहासन? भौम राज्य वह, उच्च भवन, चार, वंदीजन; धूलि धूसरित ढूह खड़े हैं बनकर रजकण, बुझा विभव वैभव प्रदीप, कैसा परिवर्तन? महाकाल का वक्ष चीरकर, किंतु, निरंतर, सत्य सदृश तुम अचल खड़े हो अवनीतल पर; रामचरित मणि-रत्न-दीप गृह-गृह में भास्वर, वितरित करता ज्योति, युगों का तम लेता हर; आज विश्व-उर के सिंहासन में हो मंडित, दीप्तिमान तुम अतुल तेज से, कान्ति अखंडित; वाणी-वाणी में गंजित हो बन पावन स्वर, आज तुम्हीं कविश्रेष्ठ अमर हो अखिल धरा पर!