हिन्दी कविताएँ : सियारामशरण गुप्त
Hindi Poetry : Siyaramsharan Gupt


एक फूल की चाह

उद्वेलित कर अश्रु-राशियाँ, हृदय-चिताएँ धधकाकर, महा महामारी प्रचण्ड हो फैल रही थी इधर उधर। क्षीण-कण्ठ मृतवत्साओं का करुण-रुदन दुर्दान्त नितान्त, भरे हुए था निज कृश रव में हाहाकार अपार अशान्त। बहुत रोकता था सुखिया को 'न जा खेलने को बाहर', नहीं खेलना रुकता उसका नहीं ठहरती वह पल भर। मेरा हृदय काँप उठता था, बाहर गई निहार उसे; यही मानता था कि बचा लूँ किसी भांति इस बार उसे। भीतर जो डर रहा छिपाये, हाय! वही बाहर आया। एक दिवस सुखिया के तनु को ताप-तप्त मैंने पाया। ज्वर से विह्वल हो बोली वह, क्या जानूँ किस डर से डर - मुझको देवी के प्रसाद का एक फूल ही दो लाकर। बेटी, बतला तो तू मुझको किसने तुझे बताया यह; किसके द्वारा, कैसे तूने भाव अचानक पाया यह? मैं अछूत हूँ, मुझे कौन हा! मन्दिर में जाने देगा; देवी का प्रसाद ही मुझको कौन यहाँ लाने देगा? बार बार, फिर फिर, तेरा हठ! पूरा इसे करूँ कैसे; किससे कहे कौन बतलावे, धीरज हाय! धरूँ कैसे? कोमल कुसुम समान देह हा! हुई तप्त अंगार-मयी; प्रति पल बढ़ती ही जाती है विपुल वेदना, व्यथा नई। मैंने कई फूल ला लाकर रक्खे उसकी खटिया पर; सोचा - शान्त करूँ मैं उसको, किसी तरह तो बहला कर। तोड़-मोड़ वे फूल फेंक सब बोल उठी वह चिल्ला कर - मुझको देवी के प्रसाद का एक फूल ही दो लाकर! क्रमश: कण्ठ क्षीण हो आया, शिथिल हुए अवयव सारे, बैठा था नव-नव उपाय की चिन्ता में मैं मनमारे। जान सका न प्रभात सजग से हुई अलस कब दोपहरी, स्वर्ण-घनों में कब रवि डूबा, कब आई सन्ध्या गहरी। सभी ओर दिखलाई दी बस, अन्धकार की छाया गहरी। छोटी-सी बच्ची को ग्रसने कितना बड़ा तिमिर आया! ऊपर विस्तृत महाकाश में जलते-से अंगारों से, झुलसी-सी जाती थी आँखें जगमग जगते तारों से। देख रहा था - जो सुस्थिर हो नहीं बैठती थी क्षण भर, हाय! बही चुपचाप पड़ी थी अटल शान्ति-सी धारण कर। सुनना वही चाहता था मैं उसे स्वयं ही उकसा कर - मुझको देवी के प्रसाद का एक फूल ही दो लाकर! हे मात:, हे शिवे, अम्बिके, तप्त ताप यह शान्त करो; निरपराध छोटी बच्ची यह, हाय! न मुझसे इसे हरो! काली कान्ति पड़ गई इसकी, हँसी न जाने गई कहाँ, अटक रहे हैं प्राण क्षीण तर साँसों में ही हाय यहाँ! अरी निष्ठुरे, बढ़ी हुई ही है यदि तेरी तृषा नितान्त, तो कर ले तू उसे इसी क्षण मेरे इस जीवन से शान्त! मैं अछूत हूँ तो क्या मेरी विनती भी है हाय! अपूत, उससे भी क्या लग जावेगी तेरे श्री-मन्दिर को छूत? किसे ज्ञात, मेरी विनती वह पहुँची अथवा नहीं वहाँ, उस अपार सागर का दीखा पार न मुझको कहीं वहाँ। अरी रात, क्या अक्ष्यता का पट्टा लेकर आई तू, आकर अखिल विश्व के ऊपर प्रलय-घटा सी छाई तू! पग भर भी न बढ़ी आगे तू डट कर बैठ गई ऐसी, क्या न अरुण-आभा जागेगी, सहसा आज विकृति कैसी! युग के युग-से बीत गये हैं, तू ज्यों की त्यों है लेटी, पड़ी एक करवट कब से तू, बोल, बोल, कुछ तो बेटी! वह चुप थी, पर गूँज रही थी उसकी गिरा गगन-भर भर - 'मुझको देवी के प्रसाद का - एक फूल तुम दो लाकर!' "कुछ हो देवी के प्रसाद का एक फूल तो लाऊँगा; हो तो प्रात:काल, शीघ्र ही मन्दिर को मैं जाऊँगा। तुझ पर देवी की छाया है और इष्ट है यही तुझे; देखूँ देवी के मन्दिर में रोक सकेगा कौन मुझे।" मेरे इस निश्चल निश्चय ने झट-से हृदय किया हलका; ऊपर देखा - अरुण राग से रंजित भाल नभस्थल का! झड़-सी गई तारकावलि थी म्लान और निष्प्रभ होकर; निकल पड़े थे खग नीड़ों से मानों सुध-बुध सी खो कर। रस्सी डोल हाथ में लेकर निकट कुएँ पर जा जल खींच, मैंने स्नान किया शीतल हो, सलिल-सुधा से तनु को सींच। उज्वल वस्र पहन घर आकर अशुचि ग्लानि सब धो डाली। चन्दन-पुष्प-कपूर-धूप से सजली पूजा की थाली। सुकिया के सिरहाने जाकर मैं धीरे से खड़ा हुआ। आँखें झँपी हुई थीं, मुख भी मुरझा-सा था पड़ा हुआ। मैंने चाहा - उसे चूम लें, किन्तु अशुचिता से डर कर अपने वस्त्र सँभाल, सिकुड़कर खड़ा रहा कुछ दूरी पर। वह कुछ कुछ मुसकाई सहसा, जाने किन स्वप्नों में लग्न, उसकी वह मुसकाहट भी हा! कर न सकी मुझको मुद-मग्न। अक्षम मुझे समझकर क्या तू हँसी कर रही है मेरी? बेटी, जाता हूँ मन्दिर में आज्ञा यही समझ तेरी। उसने नहीं कहा कुछ, मैं ही बोल उठा तब धीरज धर - तुझको देवी के प्रसाद का एक फूल तो दूँ लाकर! ऊँचे शैल-शिखर के ऊपर मन्दिर था विस्तीर्ण विशाल; स्वर्ण-कलश सरसिज विहसित थे पाकर समुदित रवि-कर-जाल। परिक्रमा-सी कर मन्दिर की, ऊपर से आकर झर झर, वहाँ एक झरना झरता था कल-कल मधुर गान कर-कर। पुष्प-हार-सा जँचता था वह मन्दिर के श्री चरणों में, त्रुटि न दिखती थी भीतर भी पूजा के उपकरणों में। दीप-दूध से आमोदित था मन्दिर का आंगन सारा; गूँज रही थी भीतर-बाहर मुखरित उत्सव की धारा। भक्त-वृन्द मृदु-मधुर कण्ठ से गाते थे सभक्ति मुद-मय - "पतित-तारिणि पाप-हारिणी, माता, तेरी जय-जय-जय!" "पतित-तारिणी, तेरी जय-जय" - मेरे मुख से भी निकला, बिना बढ़े ही मैं आगे को जानें किस बल से ढिकला! माता, तू इतनी सुन्दर है, नहीं जानता था मैं यह; माँ के पास रोक बच्चों की, कैसी विधी यह तू ही कह? आज स्वयं अपने निदेश से तूने मुझे बुलाया है; तभी आज पापी अछूत यह श्री-चरणों तक आया है। मेरे दीप-फूल लेकर वे अम्बा को अर्पित करके दिया पुजारी ने प्रसाद जब आगे को अंजलि भरके, भूल गया उसका लेना झट, परम लाभ-सा पाकर मैं। सोचा - बेटी को माँ के ये पुण्य-पुष्प दूँ जाकर मैं। सिंह पौर तक भी आंगन से नहीं पहुँचने मैं पाया, सहसा यह सुन पड़ा कि - "कैसे यह अछूत भीतर आया? पकड़ो, देखो भाग न जावे, बना धूर्त यह है कैसा; साफ-स्वच्छ परिधान किए है, भले मानुषों जैसा! पापी ने मन्दिर में घुसकर किया अनर्थ बड़ा भारी; कुलषित कर दी है मन्दिर की चिरकालिक शुचिता सारी।" ए, क्या मेरा कलुष बड़ा है देवी की गरिमा से भी; किसी बात में हूँ मैं आगे माता की महिमा से भी? माँ के भक्त हुए तुम कैसे, करके यह विचार खोटा माँ से सम्मुख ही माँ का तुम गौरव करते हो छोटा! कुछ न सुना भक्तों ने, झट से मुझे घेर कर पकड़ लिया; मार-मार कर मुक्के-घूँसे धम-से नीचे गिरा दिया! मेरे हाथों से प्रसाद भी बिखर गया हा! सब का सब, हाय! अभागी बेटी तुझ तक कैसे पहुँच सके यह अब। मैंने उनसे कहा - दण्ड दो मुझे मार कर, ठुकरा कर, बस, यह एक फूल कोई भी दो बच्ची को ले जाकर। न्यायालय ले गए मुझे वे सात दिवस का दण्ड-विधान मुझको हुआ; हुआ था मुझसे देवी का महान अपमान! मैंने स्वीकृत किया दण्ड वह शीश झुकाकर चुप ही रह; उस असीम अभियोग, दोष का क्या उत्तर देता; क्या कह? सात रोज ही रहा जेल में या कि वहाँ सदियाँ बीतीं, अविस्श्रान्त बरसा करके भी आँखें तनिक नहीं रीतीं। कैदी कहते - "अरे मूर्ख, क्यों ममता थी मन्दिर पर ही? पास वहाँ मसजिद भी तो थी दूर न था गिरजाघर भी।" कैसे उनको समझाता मैं, वहाँ गया था क्या सुख से; देवी का प्रसाद चाहा था बेटी ने अपने मुख से। दण्ड भोग कर जब मैं छूटा, पैर न उठते थे घर को पीछे ठेल रहा था कोई भय-जर्जर तनु पंजर को। पहले की-सी लेने मुझको नहीं दौड़ कर आई वह; उलझी हुई खेल में ही हा! अबकी दी न दिखाई वह। उसे देखने मरघट को ही गया दौड़ता हुआ वहाँ - मेरे परिचित बन्धु प्रथम ही फूँक चुके थे उसे जहाँ। बुझी पड़ी थी चिता वहाँ पर छाती धधक उठी मेरी, हाय! फूल-सी कोमल बच्ची हुई राख की थी ढेरी! अन्तिम बार गोद में बेटी, तुझको ले न सका मैं हाय! एक फूल माँ का प्रसाद भी तुझको दे न सका मैं हा! वह प्रसाद देकर ही तुझको जेल न जा सकता था क्या? तनिक ठहर ही सब जन्मों के दण्ड न पा सकता था क्या? बेटी की छोटी इच्छा वह कहीं पूर्ण मैं कर देता तो क्या अरे दैव, त्रिभुवन का सभी विभव मैं हर लेता? यहीं चिता पर धर दूँगा मैं, - कोई अरे सुनो, वर दो - मुझको देवी के प्रसाद का एक फूल ही लाकर दो!

अभागा फूल

अभागे फूल, मुरझाने लगा तू; सताया काल से जाने लगा तू। अभी अच्छी तरह खिल भी न पाया कि तुझ पर हाय! एसा दुख आया। नहीं फैला सका सौरभ कभी तू, अभी से खो चला गौरव सभी तू। सभी साथी मुदित हैं, देख तेरे, तुझी को हाय! है दुर्दैव घेरे। नहीं तेरा अभी सुवसंत आया, प्रथम ही हाय! उसका अंत आया! अभी से लग गया आतप सुखाने कलेवर हाय! तेरा यह सुखाने! यदपि मध्यान जीवन का निकट है, तदपि तेरे लिये सन्ध्या प्रकट है! हुआ क्यों हाय! यह चित दु:ख भोगी, दयामय! क्या दया इस पर न होगी?

अपूर्ण यांचा

शुद्ध शांति-जल बरसाओ तुम उर-क्षेत्र पर हे प्राणेश! यही प्रार्थना करते रहना हुआ हमारा था उद्देश्य। यह परंतु तुमको क्या भाया, पावक ही पावक बरसाया; जीवन-धारण कठिन हो गया जिसके कारण एक निमेष। सभी झाड़-झंकाड़ जला के, स्वाद-रूप में उन्हें बना के, वह दाहक-पावकस्वामिन अब स्वयं हो गया है नि:शेष। अब झट हल का संघर्षण कर इष्ट बीज बो दो हे विभुवर। सफल काम करना फिर करके शांति वारि वर्षा सविशेष।

असमय

ये जीव-जंतुगण पा कर तीव्र क्लेश, हैं हो चुके अहह नीरद! भस्म-शेष। दावाग्नि से जल चुका वन प्रांत सारा, बरसा रहे अब किस लिये वारि-धारा?

अनौचित्य

यह कृषि कितनों की अन्नदा प्राण-दात्री, अहह घन! तुम्हारी है रही प्रेम-पात्री। जलधर, तुमने ही तो इसे था बढाया, फिर उपल गिरा के क्यों स्वयं ही मिटाया।

आह्लाद

आज पड़ती है जहाँ मेरी दृष्टि पाती वहीं नूतन रहस्य सृष्टि मेरे कान, सुनते हैं जो कुछ समस्त वह स्वगीय गान। मेरे प्राण जो कुछ है चारो ओर, - जिसका न ओर छोर- हो गये उसी में हैं विलीयमान। मेरा आज, आज चिरकाल में रहा विराज। मेरे अरे ओ अनंत, मुझको बता दे, कहाँ अंतर्हित तेरा अंत।

एक बूँद

"मैं हूँ कृपण कहाँ आई तू ले कर जीवन भर की प्यास? दे सकता हूँ एक बूँद मैं, जा तू अन्य धनी के पास।" "बस बस, एक बूँद ही दे दे!" कहा तृषार्ता ने खिलकर- "किसके पास, कहाँ जाऊँ अब तुझ-से दानी से मिलकर? सिक्ता की कंटक शैय्या पर इसी बूँद की आशा में आतप के पंचाग्नि ताप से डिगी नहीं हूँ मैं तिल भर। मेरे पुलक-स्वाति के घन हे। पूरा कर मेरा अभिलाष; अधिक नहीं, बस, इस सीपी को एक बूँद की ही है प्यास।"

घनाह्लाद

पावस का यह घनघटापुंज कर स्निग्ध धरा का नव निकुंज बरसा बरसा कर सुरसधार करता है नभतल में विहार। भरकर नव मौक्तिकबिन्दु माल वसुधा का यह अंचल विशाल आनंद विकम्पित है अधीर; क्रीड़ारत है सुरभित समीर। नव-सूर्य-करोज्ज्वल, रजतगात, झरझर कर यह निर्झर प्रपात कर उथलित प्रचुर प्रमोदपान करता है कलकल-कलित गान। रह रह कर यह पिक बार-बार कर रहा मधुरिमा का प्रसार है हरित धरा का हेमगात्र भर ओतप्रोत प्रमोदपात्र। उस प्रमद पात्र का सुरस धन्य है छलक रहा अनुपम अन्य। पर इस उर में यह घनाह्लाद धारण कर लेता है विषाद।

गृह प्रदीप

बुझा गया इस गृह प्रदीप को हाय! अचानक कौन समीर, आज हमारी पर्ण कुटी में अंधकार हो उठा गभीर। अभी यहाँ तुमको आना है अब क्या करूँ कहो हे नाथ स्वागत कैसे करूँ तुम्हारा आज यहाँ इस तम के साथ? वैसे ही तो यहाँ तुम्हारे योग्य नहीं था कोई साज, अल्प स्नेह से हाय! एक ही दीप जला रक्खा था आज। वह भी हा! बुझ गया अचानक; चिंता है अब यही विशेष,- बाहर से ही लौट न जाओ घर में कहीं अंधेरा देख। पर यह चिंता व्यर्थ, तुम्हे जब आना है तो आओगे, मन्द दीप को ही न देख कर लौट नहीं तुम जाओगे। पहुँचेगा तब एक चरण ही द्वारदेहरी तब जब तक, सौ सौ दीपावलियाँ गृह को सुप्रभ कर देंगी तब तक!

गूढाशय

स्वर्ण सुमन दे कर न मुझे जब तुमनें उसको फेंक दिया; हो कर क्रुद्ध हृदय अपना तब मैंने तुमसे हटा लिया। सोचा-मैं उपवन में जा कर सुमन इन्हें दिखलाऊं ला कर। मैने सारी शक्ति लगा कर कण्टक वेष्टन पार किया। स्वर्ण सुमन दे कर न मुझे जब तुमने उसको फेंक दिया। उपवन भर के श्रेष्ठ सुमन सब, जा कर तोड़ लिये सहसा जब। समझ तुम्हारा गूढाशय तब, हुआ विशेष कृतज्ञ हिया। स्वर्ण सुमन देकर न मुझे जब तुमनें उसको फेंक दिया।

कामना

हाय! तुम्हारे क्रीड़ा-स्थल इस मानस में हे हृदयाधार, विपुल वासनाओं के पत्थर फेंक रहे हम बारंबार। उलटी हमें हानि ही होती, यद्यपि इस अपनी कृति से किंतु इसी में लगे हुए हैं यथाशक्ति हम सभी प्रकार। जो जल स्वच्छ और निर्मल था पंकिल होता जाता है, घटता ही जाता है प्रति पल उसका वह गाम्भीर्य अपार। छिपा हुआ है पद्मासन जो यहीं तुम्हारे लिये कहीं, उसके उपर चोट न आवे यही विनय है करुणागार।

कृतघ्न

इन विटपवरों ने हे मरूत् ! मोदकरी, सुरभि सतत देके की सु-सेवा तुम्हारी! व्यथित अब इन्हीं के वह्नि से आज देख ज्वलित कर रहे हो और भी क्यों विशेष।

कब

प्रियतम कब आवेंगे,--कब? कुछ भी देर हुई तो मेरे सुमन सूख जावेंगे सब। सखि, तब ये तूने किस बल पर चुन रक्खे प्रसून अंचल भर, नहीं ठहर सकते जो पल भर? शीघ्र सूख जाने वाले थे सुमन सूख जावेंगे जब, प्रियतम तब आवेंगे,--तब! प्रियतम कब आवेंगे,--कब? कुछ भी देर हुई तो मेरे दीनक सो जावेंगे सब! सखि, सब सजग स्नेह से खाली, दीपावलि किसलिए उजाली, रहे न क्षण भर जिसकी लाली? सत्वर सो जाने वाले थे दीपक सो जावेंगे जब, प्रियतम तब आवेंगे,--तब!

खिलौना

मैं तो वही खिलौना लूंगा मचल गया दीना का लाल खेल रहा था जिसको लेकर राजकुमार उछाल-उछाल। व्यथित हो उठी मां बेचारी- था सुवर्ण-निर्मित वह तो! 'खेल इसी से लाल, नहीं है राजा के घर भी यह तो! 'राजा के घर! नहीं-नहीं मां, तू मुझको बहकाती है, इस मिट्टी से खेलेगा क्या राजपुत्र, तू ही कह तो। फेंक दिया मिट्टी में उसने, मिट्टी का गुड्डा तत्काल, 'मैं तो वही खिलौना लूंगा - मचल गया दीना का लाल। 'मैं तो वही खिलौना लूंगा - मचल गया शिशु राजकुमार, 'वह बालक पुचकार रहा था पथ में जिसको बारंबार। 'वह तो मिट्टी का ही होगा, खेलो तुम तो सोने से। दौड पडे सब दास-दासियां राजपुत्र के रोने से। 'मिट्टी का हो या सोने का, इनमें वैसा एक नहीं, खेल रहा था उछल-उछलकर वह तो उसी खिलौने से। राजहठी ने फेंक दिए सब अपने रजत-हेम-उपहार, 'लूंगा वहीं, वही लूंगा मैं! मचल गया वह राजकुमार।

जाग्रत

देखा, - देख नहीं सकता कुछ, अन्धकूप का है घेरा। यहाँ कहाँ आ पड़ा हाय रे! यह मैं दुर्विधि का प्रेरा? व्यर्थ हुआ क्या साधन सारा? सर्प - रज्जु का भी न सहारा, भगवन, हा! यह कैसी कारा? ऎं यह क्या! - मैं खड़ा हो गया; कहाँ गया वह भय मेरा ओ जागृत वह स्वप्न मात्र था पथ है खुला पड़ा तेरा!

दूरागत गान

दूर से आ कर तुम हे गान! आकुल करते दृदय-मर्म्म को, भेद लक्ष्य अनजान। मूर्छित सी हैं दसो दिशायें, हुई इकट्ठी अयुत निशायें, गली गली में घाट घाट में सन्नाटा सुनसान। बिना साज सज्जा के सजकर भाषा और अर्थ को तज कर, निकल पड़े करने को सहसा किसका अनुसंधान। क्षीण कंठ क्या विरह विधुर हो आह! करुण तुम मंजु मधुर हो, किसे ज्ञात है, हममें तुममें है कब की पहचान। जगा वेदना को सोते से, यों ही प्राण छोड रोते से, लो, लय होते हो अनंत में निर्म्मम निठुर समान, दूर से आकर तुम हे गान!

निर्विवेक

संतुष्ट आक पर नित्य रहो सहर्ष, हे ग्रीष्म, संतत करो उसका प्रकर्ष। है कौन हेतु, पर हो कर जो कराल, हो नष्ट भ्रष्ट करते तुम थे तमाल

मौनालाप

इसी कक्ष में, यही लेखनी ले कर इसी प्रकार बैठा मैं कविता लिखने को जाने कितनी बार। यहीं इसी पाषाण पट्ट पर, खोल हृदय के द्वार खेली मेरी काव्य कल्पना निर्भय, निर्लंकार। मेरी काव्यकल्पना ही-सी धीरे से चुपचाप, जब-तब तू अज्ञात भाव से आकर अपने आप, पीछे खडी हुई कुछ क्षण तक, रह नीरव निस्पंद, हँस पड़ती थी पकड़ चोर सा खिल खिल कर सानंद। पीछे मुड़कर, तुझे देख कर, देखूँ फिर इस ओर छिप जाता था हृदय गुहा में कहीं मानषी-चोर! उसी तरह इस उसी ठौर फिर बैठा हूँ मैं आज कौन देखता है यह, क्या क्या बदल गये हैं साज। आ न सकेगी किंतु आज तू उसी भाँति साह्लाद, लिखने मुझे नहीं देती बस, आ कर तेरी याद। तो फिर उस तेरी स्मृति से ही करके मौनालाप, आज और कुछ नहीं लिखूंगा रुक कर अपने आप।

पलायित

अरे पलायित भाव, रूठ कर कहाँ गया तू, ले आया था आज कौन उपहार नया तू? मैं था अन्यमनस्क कि एसे में तू आया, छली, तुझे मैं भली भाँति पहचान न पाया। आया था क्या कुशलकथा ले नन्दनवन से; सुमन नयन कर या कि शुभाषा के कानन से; या कि भविष्यत-जालवेध कुल लाया था तू; आगामी कुछ दृश्य देख कर आया था तू; या वार्तावह बना चाहता था तू मेरा दूर लोक के लिये; इष्ट, क्या था यह तेरा? बीच मार्ग से लौट गया क्यों निर्मम बन तू; मेरा विषम विषाद और कर गया सघन तू।

भेंट

करो नाथ, स्वीकार आज इस हृदय-कुसुम को; करें और क्या भेंट राजराजेश्वर तुमको? सौरभ की है कमी, कहाँ पर उसको पावें? सुन्दरता है नहीं, कहाँ से वह भी लावें? नहीं आपके योग्य भेंट यह ध्रुव निश्चय है; पर जैसी है आज वही सम्मुख सविनय है। इष्ट नहीं यह करो कि धारण इसे हृदय पर। निज मंदिर में ठौर कहीं इसको दो प्रभुवर। तब पद-छाया अकस्मात जिस दिन पावेगा, तुच्छ कुसुम यह राज कुसुम से बढ जावेगा। अंतहीन सुवसंत इसे विकसित कर देगा, निरुपमेय सौन्दर्य-सुरभि इसमें भर देगा। उस दिन गर्व समेत कह सकेंगे हम तुमसे- क्या अब भी है अरुचि तुम्हें इस वन्य कुसुम से?

मृत्यु भय

यह रात सहसा आ गई, नभ में अंधेरी छा गई। सोना पड़ेगा अब हमें ये कार्य तज कर सब हमें। हैं कार्य पूर्ण न एक भी, किस भाँति सो जावें अभी। क्या नींद अच्छी आयगी, यह रात यों ही जायगी। दु:स्वप्न दुख पहुँचायँगे, क्या शांति झँप कर पायँगे? हे नाथ, लें न विराम हम, दिन भर करें बस काम हम। सन्ध्या समय एसे थकें, हम नींद गहरी ले सकें, जिसमें कि हम फिर जब जगें, सोत्साह कार्यों में लगें।

माली के प्रति

माली! देखो तो तुमने यह कैसा वृक्ष लगाया है! कितना समय हो गया, इसमें नहीं फूल भी आया है! निकल गये कितने वसंत हैं, बरसातें भी बीत गईं; किंतु प्रफुल्लित इसे किसी नें अब तक नहीं बनाया है! साथ छोड़ती जाती है सब शाखा आदि रुखाई से। शुष्क हुए पत्तों को इसनें इधर-उधर छितराया है। अतुल तुम्हारे इस उपवन की इससे भी कुछ शोभा है? क्या निज कौशल दिखलाने को इसे यहाँ उपजाया है। अरे, काट ही डालो इसको अथवा हरा भरा कर दो, कहें सभी आहा! तुमने वह कैसा वृक्ष लगाया है!

परीक्षा

मैं हूँ एक, अनेक शत्रु हैं सम्मुख मेरे क्रोध, लोभ, मोहादि सदा रहते हैं घेरे। परमपिता, इस भाँति कहाँ मुझको ला पटका जहाँ प्रतिक्षण बना पराभव का है खटका। अथवा निर्बल समझ अनुग्रह है दिखलाया, करने को बलवृद्धि अखाडे में पहुँचाया सबल बनूँ मैं घात और प्रतिघात सहन कर, ऊपर कुछ चढ सकूँ और दुख भार वहन कर। इस कठिन परीक्षा कार्य में हो जाऊँ उत्तीर्ण जब कर देना मानस सद्म में शांति सुगंधि विकीर्ण तब।

प्यारे बापू

हम सब के थे प्यारे बापू सारे जग से न्यारे बापू जगमग-जगमग तारे बापू भारत के उजियारे बापू लगते तो थे दुबले बापू थे ताक़त के पुतले बापू नहीं कभी डरते थे बापू जो कहते करते थे बापू सदा सत्य अपनाते बापू सबको गले लगाते बापू हम हैं एक सिखाते बापू सच्ची राह दिखाते बापू चरखा खादी लाए बापू हैं आज़ादी लाए बापू कभी न हिम्मत हारे बापू आँखों के थे तारे बापू

विनय

है यह विनय वारंवार दीनता वश हम न जावें दूसरों के द्वार। यदि किसी से इष्ट हो साहाय्य या उपकार। तो तुम्ही से हे दयामय, देव, जगदाधार। यदि कभी सहना पड़े दासत्व का गुरुभार। तो तुम्हारा ही हमें हो दास्य अंगीकार। यदि कभी हम पर करो तुम क्रोध का व्यवहार। भक्तिपूर्वक तो सदा वह हो हमें स्वीकार। यदि कभी हमको मिले आनन्द हर्ष अपार। भूल कर भी तो प्रभो! हम तुम्हें दे न विसार।

शरणागत

क्षुद्र सी हमारी नाव, चारो ओर है समुद्व वायु के झकोरे उग्र रुद्र रूप धारे हैं। शीघ्र निगल जाने को नौका के चारो ओर सिंधु की तरंगे सौ-सौ जिव्हाएँ पसारे हैं। हारे सभी भाँति हम, तब तो तुम्हारे बिना झूठे ज्ञात होते और सबके सहारे हैं। और क्या कहें अहो! डुबा दो या लगा दो पार चाहे जो करो शरण्य! शरण तुम्हारे हैं! सुनसान कानन भयावह है चारो ओर, दूर दूर साथी सभी हो रहे हमारे हैं। काँटे बिखरे हैं, कहाँ जावें कहाँ पावें ठौर छूट रहे पैरों से रुधिर के फुहारे हैं। आ गया कराल रात्रिकाल, हैं अकेले यहाँ हिंस्त्र जंतुओं के चिन्ह जा रहे निहारे हैं। किसको पुकारें यहाँ रो कर अरण्य बीच चाहे जो करो शरण्य! शरण तुम्हारे हैं!

यात्री-1

कैसे पैर बढाऊँ मैं? इस घन गहन विजन के भीतर मार्ग कहाँ जो जाऊँ मैं? कुटिल कँटीले झंखाड़ों में उत्तरीय उड़कर मेरा उलझ उलझ जाता है, इसको कहाँ-कहाँ सुलझाऊँ मैं? कहीं धसी है धरा गर्त में कहीं चढी है टीलों पर; मुक्त विहग-सा उड़ जाऊँ जो पंख कहाँ से लाऊँ मैं?

यात्री-2

पंख कहाँ से लाऊँ मैं! अरे, पैर ही क्या कुछ कम हैं! क्यों न अभी बढ जाऊं मैं? उत्तरीय का क्या, यह तनु भी क्षत छिन्न हो जाने दूँ; इन शत शत काँटों में बिंध कर लक्क्ष लाभ निज पाऊँ मैं। गह्वर टीले इधर उधर हैं, मुझको पथ देने को ही; अपने इन पदचिन्हों पर ही नूतन मार्ग बनाऊँ मैं! कुछ हो, पैर बढाऊँ मैं!

विदा के समय

जाता हूँ जाने दो मुझको, हूँ मैं सरित - प्रवाह; जाकर फिर फिर आ जाने की मेरे मन में चाह! बन्धु बाँध रक्खो मत मुझको, मैं मलयानिल मुक्त; जा कर ही फिर लौट सकूंगा नव-नूतन मधु युक्त। गृह कपोत हूँ मैं, उड़ने दो मुझको पंख पसार; नहीं हर सकेगा अनंत भी मेरे घर का प्यार। चिंता की क्या बात सखे, यदि हूँ मैं पूरा वर्ष; लौट पडूँगा क्षण में ही मैं ले नूतन का हर्ष।

स्वर्ण-प्रतिमा

पूर्ण विभुवर बहु वैभवधाम राजराजेश्वर थे श्रीराम। कहीं भी उनके संतोषार्थ न था कोई दुर्लभ्य पदार्थ। यज्ञ में करने को प्रतिपूर्ति, जनकजा की सोने की मूर्ति, बना सकते थे वे सुसमर्थ; न था यह दुश्कर उनके अर्थ। किंतु यह जन सब साधनहीन अकिंचन दानों का भी हीन, जुठावे आज कहाँ से हेम अरे कैसे प्रकटित प्रियप्रेम। अधूरा अपना जीवन यज्ञ करे कैसे पूरा यह अज्ञ; भुक्तभोगी तुम हो हे नाथ दया कर आज तुम्ही दो साथ। हृदय में कहीं पुण्य का लेश किये हो यदि सुवर्ण शुभ वेश, उसी से रच कर मूर्ति प्रसन्न करो मखरक्षक, मख सम्पन्न।

स्वप्न

हो सकती भव-बीच नहीं क्या कोई नूतन बात? आ जा आज यहाँ फिर से तू सम्मित पुलकित गात। होती रहती है कितनी ही बातें नव नव नित्य; यह विषाद हो जाय आज यदि किसी स्वप्न का कृत्य! मन्द मन्द गति से आकर तू आँखें सी दे खोल; फिर से तेरे मंजु मिलन में उठे हर्ष किल्लोल। "अरे, यहाँ कैसे बैठे तुम, करते हो क्या खूब!" कुछ न सुनूँ जा लिपटूँ तुझसे हर्षोदधि में डूब। (हाय, कुहुकमयि क्रूर कल्पना!) यह है छलना व्यर्थ; अश्रु गिराना मात्र रहा है अब तो तेरे अर्थ। उनमें से भी तुझ तक कोई पहुँच न सकते आह! जाने कितने गिरि वन सागर रोक रहे हैं राह?

सुजीवन

हे जीवन स्वामी तुम हमको जल सा उज्ज्वल जीवन दो! हमें सदा जल के समान ही स्वच्छ और निर्मल मन दो! रहें सदा हम क्यों न अतल में, किंतु दूसरों के हित पल में आवें अचल फोड़कर थल में; ऐसा शक्तिपूर्ण तन दो! स्थान न क्यों नीचे ही पावें, पर तप में ऊपर चढ जावें, गिरकर भी क्षिति को सरसावें ऐसा सत्साहस धन दो!

संतोष

जिस दिन तुम इस हृदय कुंज पर अकस्मात छा जाओगे, करुणा धाराएँ बरसा कर सब संताप मिटाओगे। कहीं शुष्कता नहीं रहेगी, तृष्णानल बुझ जावेगी; इसको हरा भरा करके तुम धूल उड़ा कर यह समीर जो इसे मलिन करता रहता तुम सर्वत्र इसी के द्वारा शुभ सौरभ फैलाओगे! आतप की इस दु:सहता में है संतोष यही हमको-- पावस में हे घनश्याम! तुम नवजीवन ले आओगे।

सु-अवसर

विगत हे जलजात! निशा हुई, द्युतिमयी वह पूर्व दिशा हुई। छिप उलूक गये भय भीति से अब विकास करो तुम प्रीति से।

स्नेह-रीति

"दीप, तू जागृत रहा है रात भर और मैं बेसुध पड़ा सोता रहा। हाय, अत्याचार यह निज गात पर, स्नेह - सह तू प्रज्ज्वलित होता रहा।" "प्रज्वलित होता रहा, अच्छा हुआ," दीप बोला - "जागना मेरा सफल। अब सुजागृति ने तुझे आ कर छुआ, पा सकूँगा सुप्ति-सुख मैं भी विमल!"

पुण्यभूमि यह

पुण्यभूमि यह हमें सर्वदा है सुखकारी; माता के सम मातृभूमि है यही हमारी। हमको ही क्या, सभी जगत को है यह प्यारी; इतनी गुरुता और कहीं क्या गई निहारी? यह वसुधा सर्वोत्कृष्ट है, क्यों न कहें फिर हम यही— जय-जय भारतवासी कृती, जय-जय-जय भारतमही॥ अब तक जो कुछ विश्व बीच हमने पाया है, वह इस प्यारी पुण्य-भूमि की ही माया है। हममें ओत-प्रोत प्रेम इसका छाया है! हमने यह सब भाँति जगत को बतलाया है। हम इसके सुत हमको निरख, कह उठते हैं सब यही— जय-जय भारतवासी कृती, जय-जय-जय भारतमही॥ इसी भूमि पर राम कृष्ण ने जन्म लिया है, ऋषि-मुनियों ने प्रथम ज्ञान-विस्तार किया है। है क्या कोई देश यहाँ से जो न जिया है? सदुपदेश-पीयूष सभी ने यहाँ पिया है। नर क्या, इसको अवलोक कर कहते हैं सुर भी यही— जय-जय भारतवासी कृती, जय-जय-जय भारतमही॥ है हम सबकी मातृभूमि, भयहारिणि माता, बस तेरा ही रूप हमें जी से है भाता। तेरा-सा सौंदर्य सृष्टि में दृष्टि न आता; तेरी शोभा देख स्वर्ग भी है सकुचाता। हम जिधर कान देते उधर सुन पड़ता हमको यही— जय-जय भारतवासी कृती, जय-जय-जय भारतमही॥ धरणी, सागर, शैल जहाँ तक गये निहारे, हैं तेरे ही यशोगान से गुंजित सारे। सभी देश हैं अतुलनीय तेरा ऋण धारे, कीर्ति-धवल कर गये तुझे हैं पितर हमारे। सब सुनें, गिरा यह गूँजकर है अनंत में छा रही;— जय-जय भारतवासी कृती, जय-जय-जय भारतमही॥

शंखनाद

मृत्युंजय, इस घट में अपना कालकूट भर दे तू आज; ओ मंगलमय, पूर्ण, सदाशिव, रुद्र-रूप धर ले तू आज! चिर-निद्रित भी जाग उठें हम, कर दे तू ऐसी हुंकार; मदमत्तों का मद उतार दे दुर्धर, तेरा दंड-प्रहार। हम अंधे भी देख सकें कुछ, धधका दे प्रलय-ज्वाला; उसमें पड़कर भस्मशेष हो है जो जड़ जर्जर निस्सार। यह मृत-शांति असह्य हो उठी, छिन्न इसे कर दे तू आज; मृत्युंजय, इस घाट में अपना कालकूट भर दे तू आज! ओ कठोर, तेरी कठोरता कर दे हमको कुलिश-कठोर, विचलित कर न सके कोई भी झंझा की दारुण झकझोर। सिर के ऊपर के प्रहार सब सुमन-समूह-समान झड़ें, पैरों के नीचे के काँटे मृदु-मृणाल-से जान पड़ें। भय के दीप्तानल में धँसकर उसे बुझा दें पैरों से; छाती खोल, खुले में अड़कर विपदाओं के साथ लड़ें। तेरा सुदृढ़ कवच पहने हम घूम सकें चाहे जिस ओर: ओ कठोर, तेरी कठोरता कर दे हमको कुलिश-कठोर। ओ दुस्सह, तेरी दुस्सहता सहज-सह्य हमको हो जाय; तेरे प्रलय-घनों की धारा निर्मल कर हमको हो जाय। अशनि-पात में निर्घोषित हो विजय-घोष इस जीवन का; तड़ित्तेज में चिर ज्योतिर्मय जो उत्थान-पतन तन का। बंधन-जाल तोड़कर सहसा इधर-उधर के कूलों का, तेरी उच्छृंखल वन्या में पागलपन हो इस मन का। निजता की संकीर्ण क्षुद्रता तेरे सुविपुल में खो जाय; ओ दुस्सह, तेरी दुस्सहता सहज-सह्य हमको हो जाय। ओ कृतांत, हमको भी दे जा निज कृतांतता का कुछ अंश; नई सृष्टि के नवोल्लास में फूट पड़े तेरा विभ्रंश। नव-भूखंड अमृत के घट-सा दे ऊपर की ओर उछाल,— सागर का अंतस्थल मथकर तेरे विप्लव का भूचाल। जीर्णशीर्णता के दुर्गों को, कुसंस्कार के स्तूपों को ढा दे एक साथ ही उठकर दुर्जय, तेरा क्रोध कराल। कुछ भी मूल्य नहीं जीवन का हो यदि उसके पास न ध्वंस; ओ कृतांत, हमको भी दे जा निज कृतांतता का कुछ अंश। ओ भैरव, कवि की वाणी का मृदु माधुर्य लजा दे आज; वंशी के ओठों पर अपना निर्मम शंख बजा दे आज! नभ को छूकर दूर-दूर तक गूँज उठे तेरा जय-नाद; घर के भीतर छिपे पड़े जो बाहर निकल पड़ें साह्लाद। तिमिर-सिंधु में कूद, तैरकर सुप्रभात-से उठ आवें; निखिल संकटों के भीतर भी पावें तेरा पुण्य-प्रसाद। जीवन-रण के योग्य हमारा निर्भय साज सजा दे आज, ओ भैरव, कवि की वाणी में निर्मम शंख बजा दे आज।

एक हमारा देश

एक हमारा ऊँचा झंडा, एक हमारा देश, इस झंडे के नीचे निश्चित एक अमिट उद्देश। देखा जागृति के प्रभात में एक स्वतंत्र प्रकाश; फैला है सब ओर एक-सा एक अतुल उल्लास। कोटि-कोटि कंठों में कूजित एक विजय-विश्वास, मुक्त पवन में उड़ उठने का एक अमर अभिलाष! सबका सुहित, सुमंगल सबका, नहीं वैर-विद्वेष, एक हमारा ऊँचा झंडा, एक हमारा देश। कितने वीरों ने कर-करके प्राणों का बलिदान, मरते-मरते भी गाया है इस झंडे का गान। रक्खेंगे ऊँचे उठ हम भी अक्षय इसकी आन, चक्खेंगे इसकी छाया में रस-विष एक समान। एक हमारी सुख-सुविधा है, एक हमारा क्लेश, एक हमारा ऊँचा झंडा, एक हमारा देश। मातृभूमि की मानवता का जाग्रत जयजयकार; फहर उठे ऊँचे से ऊँचे यह अविरोध, उदार। साहस, अभय और पौरुष का यह सजीव संचार; लहर उठे जन-जन के मन में सत्य अहिंसा प्यार! अगनित धाराओं का संगम, मिलन-तीर्थ-संदेश: एक हमारा ऊँचा झंडा, एक हमारा देश।

शुभागमन

चक्रपाणिता तज, धोने को पाप-पंक के परनाले, आहा! आ पहुँचा मोहन तू विप्लव की झाड़ू वाले! आवर्जन के ढेर हमारे इस आँगन में फैले हैं; ऊपर से हम स्वच्छ बने जो हृदय हमारे मैले हैं। हम सारे जग के अछूत जो, उच्च कह रहे हैं निज को; इस घर के सारे के सारे वातावरण विषैले हैं। आज झाड़ देगा निश्चय ही तू इस जड़ता के जाले; आ पहुँचा तू अहा! अचानक विप्लव की झाड़ू वाले! खोल सकेगा खट से तू ही उर-उर के अवरुद्ध कपाट, हमें खड़ा करके चौड़े में देगा तू भय-बंधन काट। दृष्टि हमें देगा ऐसी तू देखेंगे हम विस्मय से— क्षुद्र नहीं हैं हम, हममें ही है यह तेरे तुल्य विराट। क्या चिंता, यदि पिये पड़े हम इस बेसुधपन के प्याले, आ पहुँचा तू अहा! अचानक विप्लव की झाड़ू वाले! मधुर हुआ तेरी वाणी में आकर विप्लव का हुंकार; जा पहुँचा उर के भीतर वह करके कितने ही स्तर पार। पड़े पंगु-से थे अब तक जो प्रस्तुत हैं चल पड़ने को; तू आगे-आगे है पथ के काँटों का क्या सोच-विचार? नहीं हमें ही, सारे जग को तेरी पावनता छा ले; आ पहुँचा तू अहा! अचानक विप्लव की झाड़ू वाले! निगल रही है इस जगती को लौह-यंत्रिणी दानवता; पड़ी धूल में है बेचारी आज विश्व की मानवता। दान अभयता का दे तूने उसे उठाया नीचे से, फिर से झलक उठी है उसमें जागृत जीवन की नवता। छिन्न-भिन्न हो उठे शीघ्र ही हिंसा के बादल काले, आ पहुँचा तू अहा! अचानक विप्लव की झाड़ू वाले! तूने हमें बताया-हम सब एक पिता की हैं संतान, हैं हम सब भाई-भाई ही, हैं सबके अधिकार समान। नहीं रहेंगे मानव हम यदि मानव ही को पीसेंगे; सत्य, अहिंसा, निखिल-प्रेम में गूँज उठा तेरा जय-गान! टूटे तेरे मृदु प्रहार से, पड़े बुद्धि पर थे ताले; आहा! आ पहुँचा बापू, तू विप्लव की झाड़ू वाले!

हम सैनिक हैं

हम सैनिक हैं, हमें जगत में किसका डर है? रणक्षेत्र ही सदा हमारा प्यारा घर है। हृदय हमारा विपुल वीरता का आकर है, आँगन-सा है हमें भुवन, प्रकटित सब पर है। वह कौन कार्य है हम जिसे कर न सकें पूरा कभी? निज भारतीय बल-वीर्य्य का आओ, परिचय दें अभी॥ है पृथ्वी में कौन वस्तु वह जिसके द्वारा— हो सकता गतिरोध तनिक भी कभी हमारा? दुर्गम गिरि, वन, वह्नि, प्रबल पानी की धारा— सभी सुगम हैं हमें जानता है जग सारा। वह कौन शत्रु है हम जिसे, जीत न सकते हो कभी? निज भारतीय बल-वीर्य्य का, आओ, परिचय दें अभी॥ प्राण-दान कर हमीं विजय की ध्वजा उड़ाते; मातृ-भूमि को विपज्जाल से हमीं छुड़ाते। अनुत्साह, आलस्य हमारे पास न आते; हमें मृत्यु के बाद हमारे गीत जिलाते। हम पश्चात्पद संग्राम से, हो सकते हैं क्या कभी? निज भारतीय बल-वीर्य्य का आओ, परिचय दें अभी॥ भरा हमीं में भीम और अर्जुन का बल है; कंपित हमसे कहाँ नहीं होता रिपु दल है? वीरप्रण सब काल हमारा अचल, अटल है, राम-कृष्ण का अभय-दान हम पर निश्चल है। ये यवन हमारे सामने टिक सकते हैं क्या कभी? निज भारतीय बल-वीर्य्य का आओ, परिचय दें अभी॥ आओ वीरो! आज देश की कीर्ति बढ़ा दें, सबके सम्मुख मातृभूमि को शीश चढ़ा दें। शत्रु जनों को मार यहाँ से अभी हटा दें; उनका घोर घमंड सदा के लिए घटा दें। संसार देख ले फिर हमें, तुच्छ नहीं हैं हम कभी; निज भारतीय बल-वीर्य्य का आओ, परिचय दें अभी॥

जय-जय भारतवर्ष हमारे

जय-जय भारतवर्ष हमारे, जय जय हिंद, हमारे हिंद, विश्व-सरोवर के सौरभमय प्रिय अरविंद, हमारे हिंद! तेरे स्रोतों में अक्षय जल खेतों में है अक्षय धान, तन से मन से श्रम-विक्रय से, है समर्थ तेरी संतान। सबके लिए अभय है जग में जन-जन में तेरा उत्थान, वैर किसी के लिए नहीं है, प्रीति सभी के लिए समान। गंगा-यमुना के प्रवाह हे अमल अनिंद्य , हमारे हिंद, जय-जय भारतवर्ष हमारे, जय-जय हिंद, हमारे हिंद! तेरी चक्रपताका नभ में ऊँची उड़े सदा स्वाधीन, परंपरा अपने वीरों की शक्ति हमें दे नित्य नवीन। सबका सुहित हमारा हित है, सार्वभौम हम सार्वजनीन; अपनी इस आसिंधु धरा में नहीं रहेंगे होकर हीन। ऊँचे और विनम्र सदा के हिमगिरि विंध्य, हमारे हिंद, जय-जय भारतवर्ष हमारे, जय-जय हिंद, हमारे हिंद!

जग में अब भी गूँज रहे हैं

जग में अब भी गूँज रहे हैं गीत हमारे; शौर्य, वीर्य्य, गुण हुए न अब भी हमसे न्यारे। रोम, मिस्र, चीनादि काँपते रहते सारे, यूनानी तो अभी अभी हमसे हैं हारे। सब हमें जानते हैं सदा भारतीय हम हैं अभय; फिर एक बार हे विश्व! तुम गाओ भारत की विजय॥ साक्षी है इतिहास, हमीं पहले जागे हैं, जागृत सब हो रहे हमारे ही आगे हैं। शत्रु हमारे कहाँ नहीं भय से भागे हैं, कायरता से कहाँ प्राण हमने त्यागे हैं? हैं हमीं प्रकंपित कर चुके सुरपति तक का भी हृदय, फिर एक बार हे विश्व! तुम गाओ भारत की विजय॥ कहाँ प्रकाशित नहीं रहा है तेज़ हमारा? दलित कर चुके सभी शत्रु हम पैरों द्वारा। बतलाओ, वह कौन नहीं जो हमसे हारा, पर शरणागत हुआ कहाँ, कब हमें न प्यारा? बस, युद्ध मात्र को छोड़कर कहाँ नहीं हैं हम सदय? फिर एक बार हे विश्व! तुम गाओ भारत की विजय॥ कारणवश जब हमें क्रोध कुछ हो आता है, अवनि और आकाश प्रकंपित हो जाता है। यही हाथ वह कठिन कार्य कर दिखलाता है— स्वयं शौर्य भी जिसे देखकर सकुचाता है हम धीर, वीर, गंभीर हैं; है हमको कब कौन भय? फिर एक बार हे विश्व! तुम गाओ भारत की विजय॥ चंद्रगुप्त सम्राट हमारे हैं बलधारी, सिल्यूकस की सर्व शक्ति है जिनसे हारी। जिनका वीर्य्य विलोक मुग्ध मन में हो भारी, पहनाई जयमाल जय-श्री ने सुखकारी। हे हरि! गुंजित हो स्वर्ग तक यह विजय-ध्वनि हर्षमय, फिर एक बार हे विश्व! तुम गाओ भारत की विजय॥ ताल दे उठी अहा! प्रतिध्वनि इस कीर्तन में, हुई यही ध्वनि व्योम, शैल, नद, नगर, विजन में। दो सहस्र से अधिक हो गये यद्यपि वत्सर, पर विलीन हो सकी नहीं वह ध्वनि श्रुति-सुखकर। गावेंगे ऐसे गीत हम क्या फिर और किसी समय? फिर एक बार हे विश्व! तुम गाओ भारत की विजय॥