Vividh Kavitayen : Sitakant Mahapatra

विविध कविताएं : सीताकांत महापात्र -अनुवाद : दिनेश कुमार माली


समय का शेष नाम

कई बार गोधूलि वेला की लालिमा में अकेले बैठकर मैं तुम्हारी कहानी सुनाता हूँ पतले तने के चंपा पेड़ को हँसते हुए मोगरे के फूल को निशब्द में उड़ती चिड़िया को अच्छे बच्चे की तरह पंख समेटे बैठी तितली को कहता हूँ देखो, तुम अब केवल चंपा-पेड़ मोगरा-फूल, चिड़िया या तितली बनकर नहीं रही तुम मेरी तरह अकेले बैठकर इस प्रकार देख रही हो, स्पर्श कर रही हो, जूडा सजा रही हो,विश्वास कर रही हो प्रियतमा, याद रखो हम दोनों अपने विगत कल से,आज से बड़े हैं हम बड़े हैं हमारे अतीत, पुनर्जन्म से और हम से बड़ी है प्रबल पराक्रमी वह निर्जनता सारे कर्म, करण संप्रदान की वह जो अलंघ्य कर्ता। किसी पतझड़ चैत्र ने तुमको, मेरी कविता में लाया था किसे था पता कोई उन्माद फाल्गुन तुम्हारी आँखों से रंग चुराकर लगा रहा था पेड़, पत्रों , फूलों और आकाश में मेरे प्रत्येक शब्द को श्रुतिमधुर बनाते आज भी आया निर्जन चैत्र, उन्माद फाल्गुन वापस लगाने के लिए स्नेह, आंसुओं और शब्दों का परिपूर्ण हाट हमारी अंतिम अवस्था, जो हमारे रास्ते के मोड़ पर करती अमर प्रतीक्षा और कामना हमारे रक्त की, उसके हर नये पत्ते और फूल में हमारी आँखों के सपनीले आकाश के उन्मुक्त रंग की शेष उसकी यही दशा अकेलापन और अनमना भाव और दुपहरी में केवल कौए की कांव -कांव एकदम जनशून्य निर्जनता में असीम को लाँघते हुए अकेले बटोही का सुनसान रास्ता। कभी- कभी लगता है अभी हमारे चारों तरफ असंख्य शब्दों की भीड़ चारों दिशाओं को घेरे हुए केवल शब्द, शब्द, शब्द ठूसाठूसी, धक्का-मुक्की, खुंदाखुंदी, ठेलापेली, अंधे शब्द शब्द रूप, शब्द रस, शब्द गंध, शब्द स्पर्श न तुम मुझे देख सकती हो और न मैं तुमको मेरे हाथ से निकलकर शब्दों की भीड़ में खो जाती हो तुम और डूब जाती हो शब्द के समुद्र में उन शब्दों को हटाकर मैं तुम्हें खोजता हूँ यह कहने के लिए जहाँ सारे शब्द हो समाप्त वहीं है प्रेम वहीं है कविता दुनिया के सारे संकोच भय और सिहरन समेत कुल पुरोहित की देखरेख में जो हथेली दी गई थी मेरे हाथ में वह रह गई ऊपर स्थिर होकर आकाशीय दिगंत की तरह यंत्र, दूब, चावल, जल की पोटली देकर निरोला, पवित्र, निर्जन आंतरिकता में वही निर्जनता धीरे धीरे फैला रही थी अपना साम्राज्य कर देने वाले अनेक राज्य, पुत्र, पौत्र, प्रपोत्र योग्य मंत्री ,पारिषद वर्ग गरजते सिंधु घोष की जय के बाद निर्जनता ही केवल लेती है जम्हाई आँखें बंद करते ही नींद की तरह उसके सामने होती है खाली रात आकाश और शांत चंद्रमा मगर निद्राविहीन रजनी की निर्जनता से मुक्ति कहाँ ? यहाँ तक हाथ की पहुंच में होने से भी असंभव कहानी सुनाते सुनाते वह चुप हो गया धीरे- धीरे लगने लगा कोई उसका दोस्त नहीं सामने किसी काल से प्रतिष्ठा की हुई ओस भीगी - शब्दहीन, मुद्राहीन निर्वाक खंडित मूर्ति कभी -कभी तुम सोच रही होगी तुम्हारे अलक्ष्य मेंहो जाता हूँ मैं अन्तर्हित तुम्हारे मन के चित्रपट से भोर- भोर के ध्रुव तारे की तरह बचपन के दिनों की अजस्र स्मृति की तरह विश्व- इतिहास के राजतंत्र की तरह मैं अन्तर्हित हो जाता हूँ, विलीन हो जाता हूँ परियों की कहानियों में, आकाश के नीले बादलों में रह -रहकर गा रही कोयल के दर्द भरे गीतों में अंधेरे में अभी भी सुनाई दे रहे हैं तुम्हारे स्वर पहले के दिनों की तरह कभी -कभी वृद्ध माँ की आवाज की तरह गाँव के गहरे कुएँ में पानी की तरह कई बार सख्त- प्रतिबंध की तरह तो कई बार छोटी बच्ची की तरह, वे स्वर पहाड़ी झरनों की तरह छल-छल चंचल। क्या हमें नहीं मालूम स्नेह की परिभाषा जितना मजबूत गहरा, जितना सुदीर्घ होने से भी मिटा नहीं सकता है निर्जनता को । निर्जनता जो हमारा भाग्य, शेष दशा निर्जनता जो हमारा साक्षी और साक्ष्य, हमारी शेष भाषा समय के सहस्र नाम के भीतर शेष नाम ही निर्जनता अंत में हम सभी पहुंचते हैं वही और बनाते है मित्र उसे ही खिलौने टूटने पर मन दुखी कर बैठी छोटी बेटी को क्रिकेट खेलने के लिए दोस्त नहीं मिलने पर किशोर को नए- नए प्रेम में पड़े युवक- युवती को अपने-अपने काम में सारा परिवार इधर-उधर हल्की अंधेरी शाम में बिस्तर पकड़े बुजुर्ग को दीर्घ अंतहीन दोपहर में अधेड़ उम्र की स्वेटर बुनती स्त्री को इन सभी को, हाँ घनघोर जंगल में जाराशबर को प्रतीक्षा करते बैठे हुए ईश्वर को भी।

दुर्योधन

नतमस्तक और सकल अनुनय- विनय के पश्चात तुम पा नहीं सके अपनी माँ का अभय-वरदान या आशीर्वचन मुँह के दो शब्द “जाओ, पुत्र युद्ध में विजयी होकर लौटो।” असत्य और अधर्म से विजय पाने की प्रबल-इच्छा ने माँ के हृदय से कर दिया तुम्हारा पूर्ण -निष्कासन । बिन-बोले तुम लौटे खिलौना नहीं मिलने पर रूठे बच्चे की तरह अपना क्रंदन सीने में दबाकर परित्यक्त पुत्र होने पर भी वही घमंड और वही घमंडी-चाल, वास्तव में मिथ्याभिमान की मूरत हो तुम चिरकाल प्रीतिहीन ,प्रेमरस-विहीन हे दुर्बल, प्रेम पिपासु प्राणी। कौरव श्रेष्ठ, पाशों का कपट-खेल, लाक्षागृह-प्रज्ज्वलन द्रोपदी का भरी सभा में वस्त्र-हरण श्रीकृष्ण का दूत-संदेश और भिक्षा में मांगे पांच प्रदेश सब अमान्य , सब अश्रव्य तुम्हारे लिए अपने अंतःकरण की पुकार तक सूच्याग्रे-भूमि बिना युद्ध के नहीं देने को तत्पर अरे ! अभिमानी, घमंड में चूर मनुष्यों के प्रतिनिधि, विधाता के विरोधी । अरे ! अबोध तुम तो विधि के यज्ञवेदी में लाखों-सैकडों के बीच एक आहूति मात्र हो। हे दुर्नीति अज्ञेय, तुम नियति के स्त्रोत में मात्र व्याकुल जीव हो। घनघोर अँधेरी रात में रक्ताक्त नदी पारकर छल-कपट के अंतिम दौर में गदायुद्ध में तुम हमेशा- हमेशा के लिए सो गए एक अभिमान के ऊपर एक अभिमान के साथ हे कौरव अग्रज, हे मान गोविंद ! अंत में तुमने अपनी हार स्वीकारी । विधि के विधान का अलंघ्य छंद “मैं जानता हूँ धर्म मेरी प्रवृत्ति नहीं । मैं जानता हूँ अधर्म से मेरी निवृत्ति नहीं , सभी के हृदय में निवास करने वाले सर्वव्यापी प्रभु जैसा आदेश करोगे तुम वैसा ही मैं करूँगा।” हे आहत प्राण !हे शाश्वत, आत्मकेन्द्रित, मिथ्याभिमानी निष्ठुर, निर्मम एक असहाय आदमी का विधाता के विरोध में यह चिर अभिमान ।

नियमगिरि, खाम्बसी गाँव की चौरासी वर्षीय बूढ़ी की अनकही कहानी

(1) ये जितने लंबे- लंबे पेड़ ये जंगल , ये पहाड़ सात पुश्तों से, अति पवित्र ! देखने मात्र से घट जाती है भूख उधर बंगा है बुरूबंगा साथ निभाता है हर सुख- दुःख गगनचुंबी साल के पेड़ के पत्ते देते हैं बनाने के लिए तुम्हारे खाने की थाली और दोना महुआ पेड़ के गिरे फूलों से महुली बनाना और बालाओं के जूड़ों में सजाना इसके चारों तरफ धरती के गर्भ में सारी संपति, सारी खदानें पहाड़ों में बॉक्साइट और अनगिनत खनिज चाहे कल हो या परसों निश्चय ही लोभी की संपति की तरह हो जाएँगी खत्म एक मुट्ठी भर चावल कणों की तरह चारों तरफ कलकल करते झरनों के पानी की नहीं मिल पाएगी कल एक बूंद सूख जाएगी सब तुम्हारे लोभ की गरमी से कल खोजते समय ये धुंधली आँखें देखेगी वे पवित्र पेड़ नहीं पेड़ के नीचे कुल देवता नहीं झरणों में पानी नहीं उन गीतों में, युवकों की बंसी में मधुर रागिनी नहीं। इस तरह नहीं- नहीं के भीतर होंगे अभी तक जो ! सात पुश्तों से बने छोटे से घर से सर से टकराएगा, अलंदू काला ध्यान से देखकर आओ, देख सकते हो छत से लटकती हुई कोई माला चट्टान के गीत सरस बाजरा नहीं मिलने पर लेंगें आम की गुठलियों का रस। (2) जानती थी ,तुम सब दिन आओगे। हमारे लिए रोओगे ओजस्वी भाषण के सारे शब्द अग्नि के स्फुलिंग होकर बिखर जाएंगे डर लगता है झरनों में आग लग जाएगी ? जानती थी, किसी दिन भी जिन्हें देखा तक नहीं था वे सब भी आएँगे। ये कोई नई बात नहीं है राजा- महाराजा समुद्र पार के शासक तिरंगा लहराने के समय तरह- तरह के शासक, शोषक छोटे मोटे व्यापारियों से बड़े- बड़े व्यापारी तक सभी आएँगे। तुम्हारी आँखें होते हुए भी देख नहीं पाओगे कैमरे की आँखें तो अंधें की आँखें तुम्हारे कान होने पर भी सुन नहीं पाओगे सीने की धकधक नहीं होने को शायद नहीं समझ पाओगे। उन सबसे क्या लेना- देना ?- ' दर्मू ' धर्म देवता छिपकर देख रहा है सब बुरुबंगा नियमगिरि चुपचाप कान लगाकर सुन रहा है सब धरती माता समझ रही है छोटी- मोटी बातें सब ।

घासफूल

वे जिद्द पर अड़ गए निश्चित ही यह झूठी कहानी यह खबर प्रकाशित नहीं हुई किसी भी अखबार में कैसे घट सकती है ऐसी अघट्य घटना ? फूल कभी खिल सकते हैं बिन सभा, तालियों की गड़गड़ाहट, उदघाटन पत्रकार-सम्मेलन और संवाद-संबोधन के ? मगर पहुँचकर देखा जब सच में घासपेड़ पर एक नग्न लाल फूल कोहरे वाली सुबह की ठंडी हवा में ठिठुरते हुए धूल और कोयले चूर्ण से भरे उद्यान की पौधशाला में । वे देखकर आए थे एक अद्भुत नजारा पुराने आम पेड़ और कनेर के फूलों की घेरेबंदी को सुनसान पथ पर हाथ पकड़कर नाचते हुए स्कूली -बच्चों की तरह गुनगुनाते हुए एक गीत “आह! नंद की गोद में मेरे गोविंद बाजे शंख दुदुंभि भुवन आनंद ओ ! नंद की गोद में मेरे गोविंद।” ज्ञानी, दार्शनिक जन , दीमक लगी पीली धर्मग्रन्थों की पोथियाँ , शास्त्रों की मोटी- मोटी पुस्तकें एक के ऊपर दूसरे का थोक झाँककर देखा जब पुस्तकों के पहाड़ से समस्त इंद्रधनुषी रंगों से सुशोभित आकाश में सुबह के प्रसूतिकक्ष में दिखाई दिया खिला हुआ एक फूल ।। देवतागण दौड़ पड़े गाय के नवजात बछड़ों की तरह नाचते हुए स्वर्ग पथ पर ढोलिकयों पर ढाप बजाते आम पेड़ और कनेर के साथ हरिबोल हुलहुल शब्द के सिन्धु-घोष से गुंजित करते तीनो लोक । बंद आँखों की पट्टी खोलकर उतारा जब मुंह का मुखौटा खींची हुई सख्त मांसपेशियां सब हो गई सामान्य एक पल में तब वे गीत गाने लगे : "आओ- आओ घासफूल मेरे बरामदे में बैठो खाने को दूँगा तुमको मेरा हृदय -रस पीने को दूँगा तुमको ‘बैंत पोखर-जल गपेंगे, नाचेंगे जब तक भरे न तुम्हारा मन ।"

आज फिर दिवाली

आज फिर दिवाली और तुम नहीं फैल रहा निसंग अंधेरा तुम्हारी सांसों की तरह कर रही प्रतीक्षा कौतूहली पवन दीप जलने पर खेलने को छुप्पा-छुप्पी तुम नहीं हो ,आई है दीवाली पोता-पोती सभी हर साल की तरह दीप जलाकर जला रहे हैं आतिशबाजी -फुलझड़ी झर रही है तारों की झड़ी , तुम्हारा आशीष बनकर तेल चिकनी पुरानी बेंत कुर्सी में अब बैठी है शून्यता अपने पाँव पसार गगन सम विशाल तुम्हारी हंसी फूलझड़ी दीप शिखा से भी उज्ज्वल तुम्हारा वह चेहरा फूलझड़ी के प्रकाश में अदृश्य मगर फूलकुंड देख रहे हैं विषादयुक्त माँ की आँखों में दौड़ती अँधेरे की वेगवती सरिता आज फिर दिवाली और तुम नहीं बरामदे में तुम अब पूर्वज और आंजकल तुम्हें 'अंधेरे में आओ और रोशनी में जाओ' कहकर अनुरोध किया जाएगा,पर मन नहीं मानता है। तुम्हारे चेहरे के पास फूलझड़ी लेकर नटखट पोता और कभी डरा नहीं पाएगा अब तुम डर भय, स्नेह और सपनों से कोसो दूर आज फिर दीवाली और लगी है फूलझड़ी की तारावली ।

तुमको छूने पर

तुमको छूने पर स्नायु शिराधमनियों में दौड़ जाता है कहीं सुदूर से एक अनजान नाम गाँव के अंतिम छोर के किसी मंदिर की आरती की घंट--ध्वनियां सुनाई देती है ‘रात हो गई, रात हो गई’ कहते घोंसलों में लौटते पक्षियों के शुभ्र संचरण में तुमको छूने पर मेरा बचपन फिर एक बार आषाढ़ की पहली बारिश में भीग जाता है भीगी मिट्टी की सौधी गंध से खिलखिलाने लगती है संतापित मेरे धूल में मेघ की फसल कडकडाने लगती है बिजली मेरे चित्त आकाश में तुमको छूने पर तुलसी चौरा मूल में शाम के समय याद आती है तुरंत बुझे दीए की बत्ती की महक पता नहीं , कहाँ खो जाते है सुवासित अंधेरे में चंद्र-तारें और नीहारिकाएं

छाया

कई दिनों से देख रहा हूँ वह वहां खडी हो गई है चुपचाप मुँह नीचे करके ठीक मेरे फाटक के सामने निश्चल मूर्ति की तरह। चाहती तो अनायास फाटक खोलकर अंदर आ सकती थी बरामदा , ड्राइंग रूम पार करके सीधे मेरे शयन कक्ष में घुस सकती थी मेरी किताबें, मेरे ख्याल मेरा अवशिष्ट आयुष, मेरे सपने अपनी इच्छानुसार लेजा सकती थी किंतु मूर्ख की तरह उसने ऐसा कुछ नहीं किया भ्रमित स्वर में और पांच लोगों की तरह बरामदे से उठकर पुजारी, पुजारी,पुजारी पुकारा तक नहीं हालाँकि, रास्ता छोडकर चलीं भी नहीं गई धूपधाप, शीत, ठंड सब सहते हुए चाँदनीरात में बिजूखा की तरह वह वैसे ही वहीं खड़ी रही फाटक तक नहीं खोला किंतु क्या तंत्र-मंत्र वह जानती थी किसे पता मेरे सारे सपनों में आकर हो जाती खड़ी फिर उसके बाद बेटा- बेटी, पत्नी और मैं आमने- सामने ,चौकी पर बैठकर चाय पीते समय भी लगा हम सभी शून्य आकाश में चमकते नक्षत्र की तरह सारी बातें अचानक बिगडने लगी बात पूरी होने से पहले अन्यमनस्क भाव से हो गया मैं चुप । उसके डर से या पता नहीं क्यों जो चिड़ियां घर के सामने पेड़ डाल पर बैठ बहुत गीत गा रही थी और मैं सोच रहा था वे सारे गीत खास कर मेरे लिए वो कहाँ उड़ गई पेड लताएँ दुर्बल और सूखी दिखने लगी चन्द्रमा का प्रकाश भी निष्प्रभ धुंधला लग रहा था और कुछ दिन यदि वह ऐसे ही खडी रहेगी तो चन्द्रमा पूरी तरह से काला पड़ जाएगा चिड़ियाँ गीत भूल जाएगी पेड लताएँ सूखकर मर जाएँगे सारे शब्द समाप्त हो जाएंगे। नौकर चाकर, स्त्री बच्चें जिसको भी पूछने से वे कहते थे, कहाँ फाटक के पास में केवल हवा के सिवाय और कुछ भी नहीं मैने कितने उपाय किए आदर के साथ उसे घर में बुलाने के लिए मगर उनमे निष्फल रहा तब सोचा धमकाकर दुश्मन की तरह भगा दूँगा किंतु यह भी काम नहीं आया क्या दिन ,क्या रात क्या आषाढ, क्या फाल्गुन नीचे सिर करके सपनों में देखते सपनों की तरह वह वैसे ही वहाँ खडी रही।

जाराशबर का संगीत

धनु और तुणीर आकाश का नीला धनुष, मेरे मन का तीर कोमल भविष्य की दो डबडब बड़ी आँखें निकाल देता है, और रह जाता है केवल समय का अचेतन भयंकर अंधकार । ये कैसी माया है, प्रभो ? मथुरा गोप् से द्वारिका यात्रा, शाम्ब नारी वेश और जेतवन के बाद तुम्हारे मन का अंतिम आग्रह सब केवल मिथ्या लगते हैं, सब प्रताड़ना छोटे मनुष्य के साथ आँख मिचौली सुनाई दे रहा है आकाश में तुम्हारा छुप- छुपकर हँसना। यदि तुम्हारा जन्म नहीं, मृत्यु भी नहीं यदि इतिहास से परे हो तुम तब क्यों रो रहा है यमुना का लाल पानी कदंब के फूल, गोवर्धन पर्वत बंसी के शून्य तान में रोने के स्वर । देवकी और वसुदेव की आँखों में जलन क्यों ? हल्की लाल आँखें जल रहा है मेरा तन, मेरा मन, आत्मा की विभूति अतीत का कोहरा लग रहा है बादलों से घिरी चांदनी रात की तरह हजारों गोपियों की आँखें आँसूओं से भरी । ऐसा लग रहा है माया का अभिषेक, रासलीला यमुना के तट पर लुप्त होकर मिलना और फिर लुप्त हो जाने के लिए हमारे छोटे से जीवन के स्नेह और प्रत्यय जैसे। सभी तो माया है प्रभु, सभी मिथ्या है आकाश, पृथ्वी हमें युग- युग से धोखा दे रहे हो सच में ,बड़े धोखेबाज और झूठे हो तुम रथ के ऊपर हो, तुम पानी के तल में भी हो अगर अक्रूर को मतिभ्रम हो सकता है तो यह शबर तुम्हें क्या समझ पाएगा.। शायद तुम लौट आओगे इस धरती पर नया रूप धारण करके मन में याद बनी रहेगी अभिशप्त जारा की कथा ? विकराल देह, बड़े- बड़े दाँत बड़ी- बड़ी आँखें चुल्हे में जलते अंगारे की तरह शबर की बर्बरता धनु और तुनीर। शायद सब जानोगे, देखोगे मेरा नया रूप मेरी पुरानी आत्मा का पता करोगे लगता है इस द्वापर में त्रेता युग देख रहे हो जारा को देखोगे किष्किन्धा के बाली की तरह । मैं तो किंतु जान नहीं पाऊँगा तुम्हें और तुम्हारे नए रूप को तुम्हारे नए शरीर में पुराने शरीर को पहचान नहीं पाऊँगा मेघवर्ण, करुणापूरित मृगनयन तुम्हारे सीने में कौस्तुभ मणि नई कोपलों की तरह तुम्हारें दो पाँव जिन पर हतभागा जारा का लगा था एक तीर जान नहीं पाऊँगा, पहचान नहीं पाऊँगा। सब तो देख रहे हो तुम वर्तमान, भूत और भविष्य सब तो जान रहे हो तुम जीवन और मृत्यु का रहस्य हमारे लिए केवल भूलभुलैया का अबूझ अंधार मायाजाल जैसा षड़यंत्र । नचिकेता के जैसे मैं, जानने के लिए नहीं मागूंगा जीवन-मृत्यु का अमोघ रहस्य कुरूक्षेत्र में अर्जुन की विषाद खंडन वाणी ज्ञान, कर्म और भक्तियोग। हे कपटी, हे निष्ठुर, हे शिवसुंदर तुम्हारा विश्वरूप देखने की भी इच्छा नहीं जिसमें स्थित है सारे ग्रह, तारे इंद्र, ,चन्द्र , नीहारिका सूर्य, वैश्वानर । मैं तुम्हारा ज्ञान नहीं मागूँगा और न ही असीम स्मृति हे मायावी विश्वरूप , मेरी केवल इतनी प्रार्थना युग- युग में मेरा तीर तुम्हे लगे, तुम्हारे शरीर से, अपने छल से तुम्हें मुक्ति देकर युग- युग मैं रोता रहूँ सीने पर गुदड़ी की तरह पकड़कर तुम्हारे सुकोमल जामुनी दो पाँव।

प्रतिवेशी

समुद्र से प्यार करके वे उसके पडोसी बन गए स्वामी के ऑफिस जाने के बाद हर सुबह वह कंघी करने बैठती नमकीन हवा में सिर बांधना ठीक नहीं नमकीन हवा में सारी स्मृतियाँ विलीन हो जाती हैं पतझड़ की तरह सारी चिन्ताएँ फटे कागज की तरह उड़ जाती है सूखी रेत पर भिखारी लावारिस बच्चे की तरह समुद्र खिड़की से झाँकता है बेहूदे ढंग से जिनके घर समुद्र किनारे हैं वे जानते हैं समुद्र आपस की बातों को सुनने नहीं देता केवल अपनी बात गपियाता है जबरदस्ती समय- असमय अपनी करामातें सुनाकर पागल की तरह अट्टहास करता है बात- बात पर नगर चौक के अंधे और बहरे की तरह ड्रम और बिगुल बजाते दो कोटर से मूक-दर्शक बन नीले आकाश को देखता अपने दुख बताकर बीच- बीच में फूट फूटकर रोता धूप के समय चिढ़ाता है विस्तीर्ण शून्य इलाके को आँखों में धूल फेंककर कहते जाता है स्नेह केवल सुबह का कोहरा धूप के समय, शाम, रात किसी को भी नहीं भूलता नायिका नौका एक दिन पानी से बाहर निकल आएगी गरम बालू में बैठकर नींद के झोंके लेती बूढ़ी दादी माँ की तरह दर्पण में मुँह दिखाई देता है किसी और मुँह की तरह अंधेरे में हिंसक मृत्यु की तरह उसका स्नेह संभाषण काले-काले बादलों में अचानक चमकता विद्युत् और वज्र की तरह ऐसा लगता है मानो खून सूख गया हो जूडे के फूल का गिरना कुष्ठरोगी के हाथो की तरह धूप के समय आता है कोकुआभय से डर के मारे वे आँखें खोल नहीं पाते । अंधेरे में खोजते हैं आहा ! परिचित वे दिव्य तरूण टूटी -फूटी सेज उलट पुलट करके, कालामेघ जूड़ा खोलकर निवृत हाथों से समुन्नत कुंचक संधि में मन रोता है, हृदय रोता है, पिंजरे का पंछी रोता है चहक पड़ता है अधीर होकर। झरोखे से दिखाई देता है चमकती तलवार लिए शाम का अँधेरा मदिरापान किए मतवालों की तरह नाचती तरंगें प्रकाश को दहलाते और फूंकते हुए मिटाने के लिए समुद्री पवन अचानक घुस जाती है दालभात खाने के पत्तों में रात में कभी दोनों का तन मन नीली तरंगों में- मिलने से अचानक भूकंप होता है, हजारों- हजारों कांच टूट जाते हैं या ऐसा लगता है झरोखों के उस पार क्या- क्या सब जो टूट जाते हैं सपनों में, मन आत्मा और पृथ्वी घर नींव हिल जाती है, शरीर टूट जाता है और मन के सारे नमक खाए ईंट और पत्थर। समुद्र रात में आकर खटखटाता है पिछले दरवाजे से चोर की तरह, कामुक पुरूष की तरह अनिद्रा में आँखें भारी, बिछौने में बालू और सीपी आँखें जलती हैं नमकीन आँसू से ,देखकर मन पड़ता है फीका सब तहस-नहस करके समुद्र पागल हाथी, राजा के बगीचे में घूमता है अकेला- अकेला भय से कांपते हुए होकर झरोखे में झांकने से दिखती है चारों तरफ पड़ी हुई हड्डियाँ अंधेरे में दौड़ती सैंकड़ो खोपड़ियों के चमकते दांत और मसूढ़े।

दादी माँ-1

आषाढ़ तो दिलखुश मौसम भरी नदियाँ, साग-सब्जी क्यारियाँ, कंटीली बाड़ पार करके पहुँचने से देखा तुम दूर दिग्वलय जैसे बैठी हो। छत से टप- टप गिर रहा था पानी बादल गरज रहे थे हमारे बरामदे के ऊपर चकुली पीठा की खुशबू और छत के ऊपर कद्दू की लता के भीतर से धुंआ अंधेरे के साथ मिलकर छा रहा था चारों तरफ बस्ती से डपली की आवाज ‘क्या लेकर आये थे ,क्या लेकर जाओगे’ सुनाई पड़ रही थी आहत समय और अंधेरे के शैवाल के अंदर से तुम दिखी केंकड़े की तरह दो आँखें निर्लिप्त,अंतरंग, सुदूर। ठंडी के दिनों में पहुँचने से शाम को बैठी मिलती हो बैठक कक्ष में हवा में पोड़ पीठा की खुशबू, दीवार पर दुर्गापूजा चीता चिडिया, लता और हाथी की सुंदर तस्वीर संध्या आरती के समय तुम दिखती हो साक्षात देवी प्रतिमा की तरह हमारे टूटे मंदिर में वैशाख की लू में पहुँचने से शांति मिलती तुम्हारे दुखों के सघन बरगद की छाया-तले गहरे पानी के जैसे ठंडे तुम्हारे शब्दों की सरल नदी में पास में चुपचाप आकर बैठ जाती हो पालतू चिड़िया की तरह तुम्हारे निःशब्द स्नेह हल्के अंधेरे में टहलती छाया की तरह। तुम्हारी पेटी के भीतर से जुगनू निकल आते हैं खाने की थाली ऊपर। आम डाल के अंधेरे में वे क्या खोज रहे हैं ? ‘थोड़ा और खाले’ बात खत्म तो सारी रात खत्म पेटी के भीतर से सुनाई दे रही है स्मृति की शहनाई कितने नहबत कितनी काँच की चूड़ियाँ रुनझुन कितनी चुपचाप बातें और कितने रोने के स्वर अधिक रात होने पर पेटी का तेल चिकनी चूने के दाग लिए मैली पुरानी दीवार में लाल छोटे- छोटे पत्तों की हंसी झिल मिलाते तारें आम मंझरी की सुगंध से महकता घर चांद छुपने पर कोयल के गीत सुनाई देते है पुराने सिंदूक के हिस्सों में से। शाम के समय की बात दोपहर में असमय बसंत ,उन्माद पवन बहती है निष्प्रदीप उस अंधेरी कोठरी में।

दादी माँ-2

बस में माचिस-पेटी की तूलिकाओं की तरह भरे हुए मनुष्य धकड़ चकड़ रास्ता, महानदी में नाँव पार करके उमड़ते-घुमड़ते बादल, रिमझिम बारिश घास-फूस,घोंघों और केंकड़े से भरी संकीर्ण डगर ये सब पार करके पहुँचते समय शाम का हल्का अंधेरा वे कहते थे हमारे गाँव में यमदूत को भी पहुँचने में देर लगती है। बहुत देर हो गई थी। सब कुछ खत्म हो चुका था। अर्थी उठाने वालों ने सारी व्यवस्था कर दी थी उसकी दूसरी दीर्घयात्रा की शुरुआत हमारे कंधों पर नदी के किनारे श्मशान तक उससे पहले बैलगाड़ी में बहु बनाकर आई थी हल्दी लगे, अपने पिताजी के गाँव से हमारे गाँव में। "समय नजदीक है जाने का ,बीच- बीच में आते रहना बाबू! हो सकता है तुम्हें और देख नहीं पाऊँ " मौत का निसहाय अंधेरा नदी के स्त्रोत में बहता जाता जहाँ शब्दों की अनिवार्यता ख़त्म । बीच में सफेद चादर उठाकर इतिहास का मुँह देखा आकाश जैसा शून्य, मिट्टी की तरह निर्वाक नीरवता ने एक बार और ली दीर्घ श्वास । झींगुर , बॉस जंगल में जुगनू आकाश में चमकते नक्षत्र तिक्त पत्ते चबाकर जो जहाँ लौट गए गोबर लिपी मैली दीवार पर नाचती एक छाया दीवार की तरफ मुँह करके हमारी तरफ पीठ करके पिताजी रो रहे थे । उनको रोते देखना मेरे लिए था पहला अवसर उनको क्या दिलासा देते ? बाहर आकर आकाश की तरफ देखा दिखा वहां एक चमकता हुआ और नक्षत्र। उस दिन से समझ में आया जीवन के सारे क्रंदन छुप छुपकर रोने होते हैं।

ओड़िशा

इस नौ- तेईस छपरीले घर की चौखट को पारकर जहाँ भी जाता हूँ , दिल्ली, टोक्यो या लेनिनग्राड किसी काम से, किसी कवि- सम्मलेन में , किसी चेरी-फूलों के उद्यान में या नेवा नदी के तट पर अपने साथ ले जाता हूँ घर के आगे पुरवाई पवन में हिलोरे खाते मंजरी से लदे आम्रवृक्ष जिस पर किसी सपने की तरह हल्दी बसंत चिड़ियों के 'लुकाछिपी' के खेल में छिप जाना ,दिखाई पड़ना फिर खो जाना ,फिर दिखाई देना इतना ही बस मेरे लिए ओड़िशा । अपने साथ ले जाता हूँ रास्ते में नारियल के खोल से खेलते हुए छोटे-छोटे मासूम बच्चों की उदास आँखें; टूटी कुर्सी का विकट बनाकर दोपहर की तपती धूप में क्रिकेट खेल में लीन किशोरों के चमकते चेहरें ; धान के खेतों में गीली मिटटी को रोलते हुए झुकी कमर वाले कुशा डेरा , रघु मलिक के अनिश्चित अन्धकारमय भविष्य इतना ही बस मेरे लिए ओड़िशा । अपने साथ ले जाता हूँ सूर्योदय की पूर्व वेला में कजलपाती.कौआ या कोयल की कूक सुनाई देने से पहले खंडगिरी की गुफाओं से सुनाई देने वाले जैन मुनियों की प्रार्थना के वे उदात्त स्वर ; रक्तरंजित दयानदी के किनारे पश्चाताप में निमग्न सम्राट के निद्रा विहीन वह प्रहर; अपने साथ ले जाता हूँ अंधियारे साँझ में पिता को पहली बार मिलने आए किशोर, कलश लगाने के बाद जिसके मंदिर के चूल से कूदकर सागर में आत्म-विसर्जन कर देने से से उत्पन्न हुए अंतहीन करुण शोक लहर का वह प्रहर; चित्रोत्पला घाट पर स्नान-तर्पण करके खडाऊं की खट खट के साथ लौटते हुए मेरे दादा जी के प्रभात-वेला में वे मधुर स्वर इतना ही बस मेरे लिए ओड़िशा । अपने साथ ले जाता हूँ भग्न-मंदिर की भित्तियों पर समय की अनदेखी कर सबकी नज़रों से बचते-बचाते अपलक दूर निहारती प्रेमलीला के रस में डूबी भृत्य नायिकाएं ; कुमुद के फूलों से भरे गाँव के सरोवर के स्नान-घाट पर अलता से रंगे पावों को घिसते किसी दूसरे स्वप्नलोक में विचरण करती हुई तरुणियाँ और बातों बातों में हंसी-मजाक के लच्छे उडाती स्नेहशील भौजाइयाँ. अपने साथ ले जाता हूँ हल्दी के पत्तों की सुगंध,काकरा,चकुली पीठा गोधूलि वेला में बरामदे में सहारा लेकर बैठी हुई मेरी दादी माँ ; रंगोली, दशहरे का मिष्ठान्न द्वार से दहलीज के अन्दर तक बने लक्ष्मीपाद के निशान; अपने साथ ले जाता हूँ भागवत की छोटी - छोटी पंक्तियाँ निर्माल्य कणिका ओर अभय वरदान देती हुई दो चक्राकार आँखें इतना ही बस मेरे लिए ओड़िशा । साथ ले जाता हूँ वही पुराना टेबल जिस पर जमी धूल को झटके बिना जमा होती मेरी कापियां -किताबें , मेरी ध्यान धारणा और पिताजी के बार- बार हाथ लगने से चिकनी हुई अधफटी पुरानी गीता ; कमरे के चारों कोनों में भरे हुए बच्चों के पुराने उपेक्षित खिलौनें और उनके तरह तरह के नए सपनें , नए खिलौनें , नई कल्पनाएँ अपना दुःख छुपा कर मुख पर मुस्कराहट बिखेरती तुलसी चौरा के आगे नमन करती हुई गृह- लक्ष्मी की नीरव प्रार्थना ; चौखट पारकर जब मैं बाहर जाता हूँ इतना ही बस मैं अपने साथ ले जाता हूँ इतना ही बस मेरे लिए ओड़िशा ।

दो नौसिखिये चित्रकार

हरे कदंब का पत्ता पता नहीं क्यों समय आने से पहले झड़ जाता है , फिर भी अनेक पीले पत्ते डालियों पर खेलतें हैं हवा में ! उस पत्ते को उठाकर दादाजी लाकर रख देते हैं तुम्हारे टेबल पर दूसरे दिन सुबह उस पत्ते में दिखाई देता है हल्का- हल्का पीलापन हरे पीले के मेल से पत्ता दिखता है सुन्दर ! और एक दिन बाद हरा रंग कहीं उड़ जाता है सिर्फ रह जाता है पीलापन क्या यह है वही पत्ता ! तुम चकित हो जाते हो फिर एक दिन बाद कुछ धूसर रंग के बिंदु दिखने लगते है पीले रंग पर धीरे- धीरे पीलेपन को ख़त्म करते हुए धूसर रंग क्रमशः काला होकर पूरे पत्ते पर छा जाता है ! दिन- ब- दिन पीले पत्ते के बदलते रूप का चित्र दोनों चित्रित करते हैं अपने नौसिखिये हाथों से एक दिन लाए उस पत्ते को टेबल से फेंक देते हैं दादाजी, बाहर मरा समझकर लेकिन बचे रह जाते हैं कापी में उसके रंगीन स्केच ।

धरावतरण

तुम सोच रहे होंगे , हमारी धरती पर अधर्म का भार बढ जाने से स्वधर्म भूलकर अँधेरे, असत्य और मौत के जाल में हम मर्त्यवासियों के छटपटाने पर स्वर्ग से देवता उतर कर आते हैं समय- समय पर ख़ास हमारे परित्राण के लिए ? नहीं स्वर्ग के चकाचौंध में अंधे होकर मुक्ति की अभिलाषा करते हैं वहाँ के दीर्घकाय दिव्यरूप देवता तिलमिलाकर भाग आते हैं हमारे पास , धरती के अन्धकार में रत्न- सिंहासन तक तडपने लगते है उनकी याद में चमचमाते हीरे, नीलम , मणी- माणक्य रत्न- मुकुट ,दिव्य- वस्त्र, आभूषण सारे तुच्छ समझकर वे खोजने लगते हैं बालू और कीचड मीठे बेर, मवेशियों के झुण्ड दो , उनको मित्र बनने दो ! अप्सराओं का नृत्य ,आकर्षक भाव- भंगिमा हमेशा देखकर थक जाती हैं आँखें और जम्हाई लेता है बिछौने पर लेटा हुआ मन खोजने लगता है स्नानरत निर्वस्त्र तरुणी के जिस्म की मनमोहक आकृति झील में ,कल- कल नाद करते हुए खुले तट पर सुनाई पड़ने लगती हैं माँ की स्नेहमयी आवाज , पेड़- पौधे ,कीट -पतंगे ,नदी- पहाड़ों की पुकार फिर एक बार कानों में हमारे लिए नहीं धरावतरण हमारे कीचड , हमारे कष्ट हमारे कर्म- फल ,हमारे मरण, हमारे अन्धकार हमारी अदृश्य चोटें , हमारी यातनाएं, हमारा हाहाकार इन सभी के भीतर थोड़ा-सी थकान मिटाने के लिए ।

हाथ बढ़ाते ही स्वर्ग मिलेगा पता न था

पिता के स्वर में ॐ भू: भुव :सुनकर एक बात मन में कर गई थी घर भूलोक द्युलोक पारकर स्वर्ग लोक तक पहुंचना बहुत ही दुष्कर वहां पहुँचने को करने होते हैं बहुत कुछ सत्य, धर्म, आचरण अभ्यास, वैराग्य ज्ञान, कर्म ,भक्ति ,अनासक्ति गोमाता की सेवा से लेकर दरवाजे से भिखारी खाली हाथ नहीं लौटने तक के सारे अच्छे कर्म २. रात में टिप-टिप मूसलाधार बारिश छोड़ देती है लान की घास पर तेज बौछारों के कर्कश आघात के निशान पूर्णतया स्पष्ट अचानक दिखा मुझे भीगा कुम्भाटुआ का एक नन्हा बच्चा एक- एक कदम चलता हुआ उस घास पर मेरे प्रिय नागचंपा पेड़ की तरफ कुम्भाटुआ की लाल आँखें तब देखी थी मैंने सारी रात गाँव में नौटंकी देखने में उन लाल आँखों का अनुभव भी किया कभी मैंने घने पेड़- पौधों के पीछे छिपकर उसकी आवाज भी सुनी थी कभी मैंने मगर इतने पास बिलकुल सुनसान में मेघधुली स्वच्छ प्रभात में कुम्भाटुआ की बाल गोपाल टुक टुक चाल देखी न थी मुझे बिलकुल मालुम न था हाथ बढ़ाते ही छू लेंगे स्वर्गलोक ।

खोज- खोज कर मै थक गया

खोज- खोज कर मै थक गया शहद की एक बूँद अमृत का एक कण कितना मूर्ख था पता नहीं प्रतिदिन नीरस जिन्दगी की मधुमक्खियों की झुंडों ने हताशा और यंत्रणा के छत्ते में भरकर रखी हैं मधु ख़ास मेरे लिए अमृत घट भरा है लबालब छोटे- छोटे आनंद के अन्दर सम्पूर्ण चेतना इकट्ठा करके मेरी तरफ देखने वाले एक पालतू कुत्ते के एकाग्र ध्यान में निर्मल चांदनी रात में नेनुआ के फूलों की तरह तरोताजी आँखों में दादा- पोते के रहस्य में तालाब के पानी में मेंढक की तरह कूदते-फांदते नंगे बच्चों की भोली- भाली हँसी में और निराशा का वही मधु-छत्ता आनंद का वही अमृत-घट दोनों ही मेरे अतःस्थल में हृदय के एक छोटे से कोने में ।

चांदनी रात में रेल यात्रा

सीरियल दुस्वप्नों के बाद उठकर बैठा और मुझे नींद नहीं हुई द्रुतगामी ट्रेन जा रही थी काली देवी की तरह डिब्बे के हिचकोले खाते झूलों में नींद में सोये हुए थे कुछ आदमी भिन्न- भिन्न गाँव के ,शहर के, बस्ती के जा रहे थे अलग- अलग गाँव को, शहर को इधर मेरे दुस्वप्न में भयंकर आततायी भाग रहे थे अलग- अलग लक्ष्य- स्थल को आह ! बाहर रानिफूल -सा चाँद कितना सरल जीवन ! जीवन के दिन- रात में यह धरती कितनी सुन्दर खिड़की के शीशों से पेड़ ,क्यारी, तालाब ,कुमुद दौड़ कर भाग रहे थे सभी पीछे- पीछे हमारे भय, हमारे आंसू हमारी व्यथा, अपनों को खोने का दुःख हमारी प्रगल्भता,हमारे शून्य, हमारे आंसू और हमारे खून दौड़ कर भागे जा रहे थे कल के अँधेरे में , अतीत में इतिहास के पन्नो में , और वहाँ से मिथक में ट्रेन चलती जारही है, चलती जारही है दिग्वलय पर चंद्रमा दौड़ता जारहा है ,दौड़ता जारहा है मगर मुझे नींद नहीं

तुम मुझे शब्द दो

तुम मुझे शब्द दो मै तुम्हे नीरवता दूंगा दीक्षा गुरु बनकर, शांत बैठने का मंत्र सिखाऊंगा !! तुम मुझे शब्द दो बच्चों के खेल में लोगो या रंगीन ब्लाक की तरह मै उन्हें ढंग से सजाऊंगा आरटीटेक्ट हूँ मै सारे शब्द मेरी गणना की गोटियाँ अनायास ही आत्मा का बखान !! तुम मुझे शब्द दो , अक्षय वह बीज उस बीज को मै रोकूंगा तपती धूप में, प्यासे मरू प्रांत में मेरी सारी श्रद्दा और आनंद सारी भावना और विषाद अभिमंत्रित जल की तरह छींट दूंगा उस सूखी मिट्टी पर देखना बीज कैसे अंकुरित होगा सूरज की तरफ देखते ,सम्पूर्ण नीरवता में खिल उठेंगी दो नव कोपलें उसके लिए तैयार हो जाओ खुली रखो आँखें पागल की तरह दौड़- भाग बंद करके जरा बैठो उस अमृत बेला के इन्तजार में ज्यादा देर नहीं है खुले रखो कान अगर सुनना चाहते हो प्रणव ओंकार की तरह उन नवजातकों के कोमल स्वर तुम मुझे शब्द दो मै तुम्हे नीरवता दूंगा कुछ भी न कहकर सब कुछ कह देने का मंत्र सिखा दूंगा तुम मुझे शब्द दो !!