बांग्ला कविता हिन्दी में : शंख घोष

Bangla Poetry in Hindi : Shankha Ghosh


मूल बँगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी

आकांक्षा का तूफ़ान

इस गहन निस्पंद निर्जनता में अँधेरी साँझ की अजस्र निःसंग हवा में तुम उठाओ -- बादल की तरह शीतल, चाँद की तरह विवर्ण अपना सफ़ेद ज़र्द चेहरा विराट आकाश की ओर! दूर देश में काँप उठा हूँ मैं आकांक्षा के असह्य आक्षेप से -- तुम्हारे चेहरे के सफ़ेद पत्थर को घेर काँप रहे हैं आर्तनाद, प्रार्थना की अजस्र उँगलियों की तरह क्षीण घुँघराले बाल अँधेरी हवा में! बादलों के आकाश में कोई पुंज भारी हो उठा है और उसके बीच इच्छा की विद्युल्लता तेज़ी से झलक जाती है बारम्बार प्रचंड वेग से फट पड़ना चाहती है प्रेम की अशांत लहर अस्थिर कर देता है अंधकार का निस्सीम व्यवधान मग्न थिर मिट्टी की सघन कांति। तुम थामे रहो -- बादलों-सा शीतल, चाँद-जैसा विवर्ण अपना चेहरा रो-रोकर क्लान्त मूल मिट्टी की लहर-जैसे स्तन प्रार्थना में अवसन्न व्याकुल जीर्ण दीर्घ प्रत्याशा का हाथ उसी विक्षुब्ध विराट आकाश की ओर -- और उसे घेरता हुआ अंधकार -- बिखरते केश निस्सीम निस्संग हवा में अजस्र स्वरों के वाद्य! धीरे-धीरे तत्पर यह सृष्टि जिस तरह मधुरतम क्षणों में वज्र बनकर टूट पड़ता है उसकी आकांक्षा का मेघ तुम्हारी उद्धत उत्सुक विदीर्ण छाती के बीचोंबीच मिलन की संपूर्ण कामना के साथ! इसके बाद भीगी अस्त-व्यस्त इस भग्न पृथ्वी का कूड़ा-करकट बुहारती हुई आए सुंदर, शीतल, ममतामयी सुबह!!

बादलों-जैसा इन्सान

मेरे सामने से बादलों-जैसा वह इन्सान चला जा रहा है उसकी देह को थपकने से लगता है पानी झरने लगेगा मेरे सामने से बादलों-जैसा वह इन्सान जा रहा है उसके पास जाकर बैठने पर लगता है छाया उतर आएगी वह देगा, या कि लेगा? वह आश्रय है, या कि आश्रय चाहता है? मेरे सामने से बादलों-जैसा वह इन्सान चला जा रहा है उसके सामने जाकर खड़े होने से हो सकता है मैं भी कभी बादल बन जाऊँ!

डर

सी. आई. टी. रोड के मोड़ पर कंकड़ों पर हाथ फैला सोई हुई है मेरी बिटिया सीने के पास रखा है तामचीनी का कटोरा। आज दिन भर झरती रही बारिश उसकी भिक्षा पर इसलिए मैं समझ नहीं पाया पानी कौन-सा था, रुलाई कौन-सी! उस दिन जब खो गई थी बंद गली की भँवरों में और रो उठी थी जैसे रोती हैं अनाथ लड़कियाँ। मैंने कहा था क्यों डरती हो मैं तो तेरे पीछे ही था। लेकिन मुझे भी डर लगता है जब सो जाती है वह और उसके होंठों की कोरों पर बादलों को चीरती ढुलक आती है एक टुकड़ा रोशनी।

देह

देह के भीतर कुछ घट रहा है, डॉक्टर मुझे ठीक-ठीक नहीं पता कि उसका नाम किस तरह लिया जाता है आइने के सामने बैठो तो भारी हो उठती हैं आँखें दर्द उठता है पेशियों के भीतर भीतर से फूट रही है पीली रोशनी लेकिन वह तो गोधूलि की आभा है गोधूलि क्या ख़ून में दिखाई देती है? ख़ून में दिखाई देती है गोधूलि? तो क्या बेहतर है चले जाना? देह के भीतर कुछ घट रहा है, डॉक्टर मुझे उसका नाम नहीं पता।

हमारी अंतिम बातें

हमारी अंतिम बातें ढुलक रही हैं अंधकार की ओर हमारी अंतिम बातें ... मरे हुए लोगों की आँखों से भर गया है आधा आकाश हमारे शब्दों के उस पार आज रात ताड़ के झुरमुट के भीतर से उठ आ रहे हैं युवकों के हृत्पिण्ड हम जिनके नाम तक नहीं जानते उनके ख़ून के लिए रास्तों पर रखे गए हैं कलश हम लोग शान से उनके पास से गुज़र जाते हैं और हमारी बातें गोल होकर जगमगाती हुई ढुलक जाती हैं पिछले दिनों की ओर!

जन्मदिन

तुम्हारे जन्मदिन पर और क्या दूँगा सिवाय इस वचन के कि कभी फिर हमारी मुलाक़ात होगी। मुलाक़ात होगी तुलसीवट पर मुलाक़ात होगी बाँस के पुल पर सुपारीवन के किनारे मुलाक़ात होगी। हम घूमेंगे शहर में डामर की टूटी सड़कों पर गुनगुनी दोपहर या अविश्वासों की रातों में लेकिन हमें घेरे रहेगी अदृश्य उसी तुलसी अथवा पुल अथवा सुपारी की कितनी ही सुंदर तन्वंगी हवाएँ। हाथ उठाकर कहूँगा यह देखो सिर्फ़ दो-एक दर्द बचे रह गए हैं आज भी। जब जाने का समय होगा तो इस तरह देखूँगा कि भीग जाएँगी आँखें हृदय को दुलराएगा उँगलियों का एक पंख मानो हमारे सम्मुख कहीं कोई अपघात नहीं और मृत्यु नहीं दिगंत तक। तुम्हारे जन्मदिन पर और क्या दूँगा सिवाय इस वादे के कि कल से हरेक दिन मेरा जन्मदिन होगा!

खुलने लगे हैं तोरण

यह चिट्ठी किसे लिखूँगा मैं अभी तक नहीं जानता लेकिन लिखनी ही पड़ेगी लिखना पड़ेगा कि अब समय हो आया है समेट लेने का समय .... अब उठना ही पड़ेगा अब कोई काम नहीं कि जिसे अधूरा छोड़ सकें नीचे झुककर पानी की छाया में देख लेने होंगे सभी चेहरे सबके चेहरों पर है मेरी छाया और मेरी देह में व्याप्त कितने लोगों, कितने दिनों का अविरल विश्वास। कहाँ से आया था इतना सब? जमा रह गया .... इस बार लिखना ही पडे़गा। लिखना ही पड़ेगा कि मैं भी हूँ मैं भी हूँ तुम्हारे साथ हाथ मिलाने के लिए और जिसे लिखूँगा उसने भी शायद अब आना शुरू कर दिया है स्वप्न में खुलने लगे हैं ... खुलने ही लगे हैं रास्तों पर बने हुए तोरण।

मणिकर्णिका

चतुर्दशी के अंधकार में बह रही है गंगा उसके ऊपर हमारी पाल वाली नाव की साँसें हमारे चेहरों से टकरा रही थी मणिकर्णिका की आभा हम किसी के भी चेहरे की ओर नहीं देख रहे थे केवल हाथ से डेक को छू रहे थे पानी की दो-एक बूँदों का माथे पर लग रहा था तिलक दिन के समय जिसे देखा था चांडाल रात को वही हमारा माझी था उनकी आँखों की पुतलियों में किसी तरह का भेद नहीं था पानी पर उड़ती आ रही थी चिनगारियाँ भस्म घुलती जा रही थी हवा में पंजर के भीतर डुबकी लगा रहा थे ऊदबिलाव अब हम दक्षिण में हरिश्चंद्र घाट की ओर घुमा लंेगे नाव दोनों ओर दिखाई दे रहे हैं कालू डोम के घर चतुर्दशी के अंधकार में बह रही है गंगा एक श्मशान से दूसरे श्मशान जाते हुए हम किसी के भी चेहरे की ओर नहीं देख रहे थे।

संकेत

मुझे याद है तुम्हारा संकेत मैं ठीक पहुँच ही जाऊँगा समय रहते। आइने के सामने खड़े होने के बहुत-से बहाने हैं उन सब को हटाकर पिछले साल के बाक़ी-बक़ाये में डूबे मन इन सबको भूलकर इसके उसके उनके साथ मुलाक़ात हो जाने बातें कहने-सुनने इन सबको पोंछकर दिन-दोपहर की ओट में पहुँच ही जाऊँगा आज तुम्हारे संकेत की शाम को भग्न-हाट के थके व्यापारियों के पड़ोस से होकर गाँव के सिवान के श्मशान में जहाँ पीपल के झुक आए चेहरे की ओर टकटकी लगाए देख रहा है ठण्ड गूँगा जल ...

उस दिन अनंत मध्यरात

उस दिन अनंत आधी रात को राह में हुई थी बारिश टूट गए थे घर और पेड़ों को मिली थी हवा सुपारी की टहनियों की फुनगी पर रुपहले पानी की प्रभा थी और अँधेरे में थी -- हृदयहीन अँधेरे में ज़मीन पर सुला दी गई नावें उनके सीनों में जम गई थी बारिश भीगी छाल की साँसें किसी शून्यता के भीतर स्तब्ध हो गई थीं मिट्टी और आकाश ने सिर्फ़ पुल बनकर बाँधी थी धारा जीवन और मृत्यु के ठीक बीचोबीच वायवीय जाल को कँपाते उतर आए थे अतीत, अभाव और अवसाद पत्थर की प्रतिमा ने इसीलिए पत्थर पर रखा था अपना सफे़द चेहरा और चारों ओर अविरल झर रही थी बारिश बारिश नहीं, शेफाली, टगर, गंधराज थी वे बूँदें घरविहीन देह के उड़ते जाते मलिन इशारों से वे पोंछ लेना चाहते हैं अपने जीवन के अंतिम अपमान सीने में हुई थी बारिश उस दिन अनंत आधी रात।

वे जो वसन्तदिन

और एक और एक दिन इसी तरह ढल जाता है पहाड़ के पीछे और हम निःशब्द बैठे रहते हैं। नीचे गाँव से उठ रहा है किसी हल्ले का आभास हम एक-दूसरे का चेहरा देखते हैं। अकड़ी हुई लताओं की मानिन्द लिपटे रहते हैं हम और चेहरे पर आकर जम जाती हैं बर्फ़ की कणिकाएँ इच्छा होती है सोचें कि हम अतिकाय बर्फ़ीले-मानव हैं। आग जलाकर बैठते हैं चारों ओर कहते हैं, अहा, आओ गपशप की जाए। वे जो वसन्तदिन थे... वे जो वसन्तदिन थे... और वसन्तदिन सचमुच हमारे हाथ छोड़ सूदूर जाने लगते हैं!

मत

इतने दिनों में क्या सीखा एक-एक कर बता रहा हूँ, सुन लो. मत किसे कहते हैं, सुनो मत वही जो मेरा मत जो साथ है मेरे मत के वही महत, ज्ञानी भी वही वही अपना मानुस, प्रियतम उसे चाहिए टोपी जिसमें लगे हों दो-चार पंख उसे चाहिए छड़ी क्योंकि वह मेरे पास रहता है मेरे मत के साथ रहता है. अगर वह इतना न रहे? अगर कभी कोई दुष्ट हवा लगकर उसमें कोई भिन्न मति जाग जाए? इसलिए ध्यान रखना पड़ेगा कि वह दुर्बुद्धि तुम्हें कहीं जकड़ न ले. लोग उसे जानेंगे भी कैसे? मैं बन्द कर दूँगा सारे रास्ते — हंगामे से नहीं — चौंसठ कलाओं से तुम्हें पता भी है मैंने कितनी कलाएँ सीख ली हैं?

टलमल पहाड़

जब चारों ओर दरारों से भर गया है पर्वत तुम्हारी मृत आँखों की पलकों से उभर रहा है वाष्प-गह्वर और उसे ढँक देना चाहता है कोई अदृश्य हाथ, दृष्टिहीन खोखल के प्रगाढ़ अंचल में अविराम उतरते आ रहे हैं कितने ही कंकड़ और हम लोग पीली पड़ चुकी सफ़ेद खोपड़ी के सामने खड़े हैं, थिर — मानो कुहासे के भीतर से उठ रहा हो चाँद हालाँकि आज भी सम्भव नहीं शिनाख़्त करना कि इतने अभिशापों के भीतर-भीतर विषैले लताबीज की परम्परा किसने तुम्हारे मुँह में रख दी थी उस दिन तन्द्रालस जाड़े की रात! जब इस नील अधोनील श्वास के प्रतिबिम्ब में बिखरी हुई पंक्तियाँ काँपती रहती है वासुकि के फन पर और मर्म के मर्मर में हाहाकार कर उठते हैं तराई के जंगल मैं तब भी जीवन की ही बात करता हूँ जब जानवरों के पंजों के निशान देखते-देखते दाखि़ल हो जाता हूँ दिगन्त के अन्धेरे के भीतर-भीतर किसी आरक्त आत्मघात के झुके कगार पर मैं तब भी जीवन की ही बात करता हूँ जब तुम्हारी मृत आँखों की पलकों पर से अदृश्य हाथ हटाकर मैं हर खोखल में रख जाता हूँ मेरा अधिकारहीन आप्लावित चुम्बन — मैं तब भी जीवन की ही बात करता हूँ तुम्हारी मृत आँखों की पलकों से उभर रहा है वाष्प-गह्वर और उसे ढँक देना चाहता है कोई अदृश्य अनसुना हाथ ... यह टलमल पहाड़ !

इसीलिए इतनी सूख गई हो

बहुत दिनों से तुमने बादलों से बातचीत नहीं की इसीलिए तुम इतनी सूख गई हो आओ मैं तुम्हारा मुँह पोंछ दूँ सब लोग कला ढूँढ़ते हैं, रूप ढूँढ़ते हैं हमें कला और रूप से कोई लेना-देना नहीं आओ हम यहाँ बैठकर पल-दो-पल फ़सल उगाने की बातें करते हैं अब कैसी हो बहुत दिन हुए मैंने तुम्हें छुआ नहीं फिर भी जान गया हूँ दरारों में जमा हो गए हैं नील भग्नावशेष देखो ये बीज भिखारियों से भी अधम भिखारी हैं इन्हें पानी चाहिए बारिश चाहिए ओतप्रोत अन्धेरा चाहिए तुमने भी चाहा कि ट्राम से लौट जाने से पहले इस बार देर तक हो हमारी अन्तिम बात ज़रूर, लेकिन किसे कहते हैं अन्तिम बात ! सिर्फ़ दृष्टि के मिल जाने पर समूची देह गल कर झर जाती है मिट्टी पर और भिखारी की कातरता भी अनाज के दानों से फट पड़ना चाहती है आज बहुत दिनों के बाद हल्दी में डूबी इस शाम आओ हम बादलों को छूते हुए बैठें थोड़ी देर ....

सैकत

अब आज कोई समय नहीं बचा ये सारी बातें लिखनी ही पड़ेंगी, ये सारी बातें कि निस्तब्ध रेत पर रात तीन बजे का रेतीला तूफ़ान चाँद की ओर उड़ते-उड़ते हाहाकार की रुपहली परतों में खुल जाने देता है सारी अवैधता और सारे अस्थि-पंजर की सफ़ेद धूल अबाध उड़ती रहती है नक्षत्रों पर एक बार, सिर्फ़ एक बार छूने की चाहत लिए. और नीचे दोनों ओर केतकी के पेड़ों की कतारों के बीच से होती हुई भीतर की सँकरी-सी सड़क जिस तरह चली गई है अजाने अटूट किसी मसृण गाँव की ओर वह अब भी ठीक वैसी ही है यह कहना भी मुश्किल है फिर भी यह सजल गह्वर पूरे उत्साह से रात में यह विराट समुद्र जितनी दूर तक सुनाता है अपना गर्जन वहाँ तक मत जागना सोते हुए लोगो ! तुम सोए रहो, सोए रहो उस गाँव पर बिखर जाए निःशब्द सारी रेत और तुम्हें भी अलक्षित उठा ले निःसमय अंक में रख ले अन्धेरे या फिर अन्धेरे-उजाले की जलसीमा पर रख ले पद्म के कोमलभेद में जन्म के होंठ छूकर आ धमके मृत्यु आज अब और समय नहीं है सारी बातें आज लिखनी ही पड़ेंगी ये सारी बातें, ये सारी ...!

काठ

एक दिन उस चेहरे पर अपरिचय की आभा थी। हरी महिमा थी, गुल्म थे, नामहीन उजास आसन्न बीज के व्यूह में पड़ी हुई थी आदिमता और जन्म की दाईं ओर थी हड्डियाँ, विषाक्त खोपड़ी ! शिराओं में आदिगन्त प्रवहमान डबरे थे अकेले वशिष्ठ की ओर स्तुति बनी हुई थी आधीरात शिखर पर गिर रहे थे नक्षत्र और जड़ों में एक दिन मिट्टी के अपने तल पर थी हज़ारों हाथों की तालियाँ. पल्लवित टहनियाँ सीने की छाल से दूर स्वाधीन अपरिचय में झुककर एक दिन खोल देते थे फूल. और आज तुम सामाजिक, भ्रष्ट, बीजहीन काठ बनकर बैठे हो अभिनन्दन के अन्धेरे में !

मूल बँगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल


हमको नहीं दी कोई आज भी

कटा हाथ, करता है आर्तनाद जंगल में आर्तनाद करता है कटा हाथ — गारो पहाड़ में सिन्धु की दिशाओं में करता है आर्तनाद कटा हाथ कौन किसे समझाए और लहरें समुद्र की, दिखातीं तुम्हें हड्डियाँ हज़ारों में लहराते खेतों से उठ आतीं हड्डियाँ हज़ारों गुम्बद और मन्दिर के शिखरों से, उग आतीं हड्डियाँ हज़ारों आँखों तक आ जातीं, करतीं हैं आर्तनाद सारे स्वर मिलकर फिर खो जाते जाने कहाँ कण्ठहीन सारे स्वर आर्तनाद करते हैं, खोजते हुए वे धड़, शून्य थपथपाते हुए, खोजते हैं हृत्पिण्ड पास आ अँगुलियों के करती है आर्तनाद अँगुलियाँ नाच देख ध्वंस का पानी के भीतर या कि बर्फ़ीली चोटियों पर कौन किसे समझाए और करते हैं आर्तनाद अर्थहीन शब्द और सुनते हो तुम भौंचक हमको नहीं दी कोई आज भी हमको नहीं दी कोई आज भी हमको नहीं दी कोई मातृभाषा देश ने ।

पत्थर

पत्थर, धरा है खुद मैंने यह छाती पर रोज़-रोज़ और अब उतार नहीं पाता । धिक् ! मेरी ग़लतियों, परे जाओ, उतरो मैं फिर से शुरू करूँ, फिर से खड़ा हूँ, जैसे खड़ा होता है आदमी । तैरते हुए दिन और हाथों के कोटर में लिपटी हैं रातें क्योंकर उम्मीद है, समझ लेंगे दूसरे? पूरी देह जुड़कर भी जगा सकी नहीं है कोई नवीनता । जन्महीन महाशून्य घेरे में, बरसों तक पल-प्रतिपल किसकी की पूजा? अलग रहो, अलग रहो, अलग रहो, अलग रहो । चुपके-से कहता हूँ आज, तू उतर जा, उतर जा पत्थर ! धरा था तुझे छाती पर, मानकर देवता अब मैं गया हूँ तुझे ठीक से पहचान !

जाम

भालू के पेट में भालू के तलुवे स्थिर है काल जो असीम। लटकाये गला है जि़राफ़ उछल-उछल पड़ती ज़ेब्रा क्रासिंग हंस वे कई हज़ार चाहते झपटना पंख दूसरों के बालक भिखारी भरी दोपहर डुगडुगी बजाता और गाता हुआ गाना। रह-रहकर हिलता है माथा चाहे हो तरुण चाहे पुराना। कण्डक्टर कहता पुकार कर पीछे से आगे हो जाना।

स्वप्न

अः, पृथिवी। अभी टूटी नहीं है मेरी नींद। स्वप्न के भीतर है तुमुल पहाड़ परतों में खुली जा रही हैं उसकी पपड़ियाँ खुली जा रही हें हरी पपड़ियाँ, भीतर और भीतर, खोल रही हैं अपने को, बीच में उनके उग रहे हैं धान खेत जब आएगी लक्ष्मी लक्ष्मी जब आएगी तब हाथों में लिये कृपाण, पाइप गन, कौन हैं वे जो चले आ रहे हैं लूटने फ़सल अः पृथिवी, अभी टूटी नहीं है मेरी नींद।

अंजलि

घर जाय प्रिय जाय परिचित जाय सबको मिलाकर आय वह मुहूर्त जब तुम हो जाते अकेले खड़े हो उस मुहूर्त-टीले पर और जल है सब ओर, जल, जल धारा प्लावन में घरहीन, पथहीन प्रियहीन परिचितहीन तुम ही अकेले शून्य तले महाकाल के दो छोटे हाथों से पकड़े हुए धूल भरा माथा जानते नहीं कब दोगे किसको दोगे जाकर दोगे कब कितनी दूर।

मेघ

ले आया मेघ घर वह हमारे लिए जाना-पहचाना। आज इस काली भोर बेला में पहुँच सकता हूँ उस देश ढेलकर दिनों का पहाड़। जाने कब भाग कर कौन किसको पकड़ ले, किसने जाना। एक विदा से दूसरी विदा के बीच है सरलरेखा-सा वह पथ और उसके आखिरी छोर पर खड़ा है दो सौ वर्षों का बरगद पुराना। कहता है वह इतना भय क्यों, आओ इस जगह बैठो आकर — आज मेघ से जाना प्रथम साहस का आना।

बुद्धू

कोई हो जाये यदि बुद्धू अकस्मात, यह तो वह जान नहीं पाएगा खुद से। जान यदि पाता यह फिर तो वह कहलाता बुद्धिमान ही। तो फिर तुम बुद्धू नहीं हो यह तुमने कैसे है लिया जाना?

खुलते ही जाते पथ तोरण

बाँचेगा चिट्ठी यह कौन कहाँ यह तो न जानता लेकिन यह लिखनी ज़रूर है लिखनी है, समय हुआ लिखने का, उठ पड़ना होगा अब छोड़ना नहीं बाक़ी कोई भी कामकाज झुककर जल-छाया में मुख सबका देखना मुख पर सबके पड़ती अपनी भी छाया कितने जन कितने दिन घिरे हुए बँधा हुआ अविरल विश्वास आया सब इतना कैसे पास? जमा हुआ अब सब लिख डालना लिखना है मैं भी हूँ उत्सुक, मैं तुमसे मिलने को, मिलाने को हाथ। जिसको यह लिखना है सम्भव है वह भी हो चलता चला आता इतने दिनों से खुलते ही जाते पथ तोरण सब स्वप्न में सजे हुए खुलते ही जाते वे !

आकण्ठ भिक्षुक

आकण्ठ भिक्षुक, कहो कुछ कानों में गृहस्थ के, उसकी स्थिरता सब भंग करो, कार्निश से उसकी झरा दो प्रपात, बंशी बजाओ भेद तन मन उसका गुनगुन नचाओ उसे पथ-पथ पर भीड़ जहाँ देखो तब भी कितनी बची हुई उसके शरीर से लगी हुई मोह-सिक्त मूर्खता!

आलस्य

उस सबकी चिन्ता करो नहीं, उस सबका तो कोई अन्त नहीं छोड़ो, आओ देखो बैठो यहाँ देखो यह, किसी एक छोटी-सी चीज़ को और बड़ा करते ही लगने क्यों लगता है अशालीन वहाँ दूर भय से वे चले गये दौड़ते माटी में छाती में तुम्हारी भी होता क्यों कम्पन आँखों में छाया आलस्य का भार यह फिर भी क्यों होती यह चाहना ठीक ठाक सब कुछ है ना !

मेघ जैसा मनुष्य

गुज़र जाता है सामने से मेरे वह मेघ जैसा मनुष्य लगता है छू दें उसे तो झर पड़ेगा जल गुज़र जाता है सामने से मेरे वह मेघ जैसा मनुष्य लगता है जा बैठें पास में उसके तो छाया उतर आएगी वह देगा या लेगा? आश्रय है वह एक, या चाहता आश्रय? गुज़र जाता है सामने से मेरे वह मेघ जैसा मनुष्य सम्भव है जाऊँ यदि पास में उसके किसी दिन तो मैं भी बन जाऊँ एक मेघ।

भय

मोड़ पर सी आई टी रोड के हाथ फैला सो रही है मेरी बेटी फुटपाथ पर छाती के पास है कटोरा एनामेल का। हुई है दिनभर आज वर्षा उसकी भिक्षा के ऊपर समझ नहीं पाया इसीलिए कौन-सा था उसका रोना और कौन-सा वर्षा-स्वर। उस दिन खो गयी थी वह जब गलियों के चक्र में रो उठी थी जैसे रो पड़ती हैं लड़कियाँ बेसहारा। कहा था तब भय कैसा मैं तो पीछे ही था तेरे। पर होता है भय मुझे भी जब वह जाती है सो और फोड़कर मेघ को उसके होंठों के कोने पर आ रहता है एक टुकड़ा प्रकाश का।

भीड़

'उतरना है ? उतर पड़िए हुज़ूर' उतार कर चर्बी कुछ अपनी यह।' 'आँखें नहीं हैं ? अन्धे हो क्या ?' 'अरे, तिरछे हो जाओ, जरा छोटे और।' भीड़ से घिरा हुआ कितना और छोटा बनूँ मैं हे ईश्वर ! क्या रहूँ नहीं अपने जितना भी कहीं भी खुले में, बाज़ार में, एकान्त में ?

शिल्पी

पड़ता आलोक मध्यरात्रि का मुख पर रहता आधा अपने में ही घिरा। तुम हो दिशा हारा अब भी जानते नहीं तारा कौन कहाँ मरा बचा कहाँ कौन। वामन सम चलते ही कभी-कभी कभी-कभी अग्रदूत बनकर वसन्त के कभी-कभी लगते हो अपने ही बहुत बड़े प्रेत से। रंग और ध्वनि की निरंजन वह श्वास उड़ जाती कुछ तो कुछ रह जाती पड़ी यहीं निज को हो जानते? जानते हो कितना? तुम हो बस चित्र वही मीडिया बना देता जितना।

सिल्चर

किसने कहा यह मेरा नहीं? नहीं यह तुम्हारा? यहाँ पाँव रखते ही छिन जाती छिन्नता। तार मिल जाते सब मेरे तुम्हारे मुहूर्त में। उठतीं सिहरतीं सब लहरें आनन्द की सिर से ले पाँव तक। रहता है बहता स्रोत बराक नदी का पर्वती छाया में जल भीगी आँखों में तुम्हारी सर्पिल लावण्य वह जमा हुआ बीच पत्थरों के, नाचता जैसे कि संयुक्ताक्षर शक्ति के शब्दों में। छाती में उग आता परिचित पुराना पेड़ विस्मय-सी शाखाएँ रहतीं झूल इस देश उस देश समय गढ़ देता शिल्प प्रकृतिमय हो उठती शिल्पमय प्रकृति!

निग्रो बन्धु को चिट्ठी

रिचर्ड, नाम यह तुम्हारा, शब्द मेरा भी। रिचर्ड रिचर्ड। रिचर्ड कौन? कोई नहीं? रिचर्ड मेरा शब्द नहीं। रिचर्ड, नाम यह तुम्हारा, स्वप्न मेरा भी। रिचर्ड, रिचर्ड। कौन रिचर्ड? कोई नहीं? रिचर्ड मेरा स्वप्न नहीं। रिचर्ड, नाम यह तुम्हारा दुःख मेरा भी। रिचर्ड रिचर्ड। रिचर्ड कौन? कोई नहीं? रिचर्ड मेरा दुःख नहीं।

संगिनी

हाथ पर रखना हाथ सहज नहीं सारा जीवन देना साथ सहज नहीं बात लगती यह सहज, जानता न लेकिन कौन सहज बात होती उतनी सहज नहीं। पाँवों के भीतर चक्कर मेरे, चक्कर है उनके नीचे भी, कैसा नशा है यह, इसके तो सभी ऋणी। झिलमिल-सी दुपहर में भी रहती ही है साथ गंगा तीर वाली चंडालिनी। वही सनातन अभ्रुहीना, आसहीना तुम ही तो हो संगिनी मेरे हर समय की, है ना? तुम मुझको सुख दोगी यह तो सहज नहीं तुम मुझको दुःख दोगी यह भी सहज नहीं।

घर-2

जो चाहे आना उसको लाना जो चाहे आना उसको लाना जो चाहे आना उसको लाना उसको बुलाना घर के ही आसपास कितने तो लोग जो जाए दूर बहुत दूर बहुत दूर जाए घूमे-फिरे उसको लाना घर लाना घर लाना घर के ही पास में है घर के ही लोग फिर क्यों जाते-जाते उल्टी दिशा में उल्टी दिशा में चाहो तुम दल-बाँध घर ही जलाना?

कबूतर

उस कबूतर ने पास आ मेरी ही कार्निश के दिखाया मुझे निज को। इस तरह देखा था क्या कभी? उसकी कोमलता को जानता। दुपहर को दूर चली जाती स्वर ध्वनि उसकी पारकर पहाड़ देशकाल जानी है। वे सब नहीं हैं सुख रेखाएँ छाती में उसकी श्वेत, कितने ही नख-क्षत देख लिए मैंने आज, जैसे ही उठाए हुए कितने ही मेघ भार छोटी उस छाती में — चाहता चुुम्बन वहाँ, मेघों को फोड़कर चाहता होना वृष्टि, खोलकर डैनों को चाहता झर जाना मर जाना अन्तिम बार गेरूआ माटी में — छुऊँगा नहीं उस कबूतर को और कभी आगामी शीत में।

ग्रह

इस ग्रह के कोई नहीं हो तुम लगता यह रहता। मेघों में आलोक। पर्वत की गोद में हाथों में लिये हुए बैठे हो हरी-हरी रेखाएँ चाहूँ मैं मुझको ही घेरकर तुम्हारा भी छाया पथ जाग उठे। आँखों में सुश्रुवा का भाव जो तुम्हारी वह आकर समा जाए मेरे शरीर में बूँद एक बनकर। फिर तुम बचे कहाँ ! तुम हो बस माटी में पत्थर में घास के ऊपर सिहरता वृष्टि जल इस ग्रह के कोई नहीं हो तुम फिर भी यह ग्रह है तुम्हारा।

अब भी मैं वैसी वह

अब भी हैं वे कीर्तन? अब भी वह नाम। है प्रवाह वैसा ही? अब भी वह राह? नहीं, नहीं ज्यों की त्यों रहने की थी भी न बात। पार किये पथ कितने, डैनों को खोल-मोड़, एक और रूप लिए गाती वह जलवती अब भी तो। तुमको है देखती? रखती क्या तुम्हें याद? सोचा यह सब कहाँ, इस दुपहर आया जब आज यहाँ, मन में रखकर अपने इतना विश्वास उठती यह देह जाग, आता हूँ जब उसके पास।

संध्या नदी जल

संध्या नदी जल! छूते हैं दोनों हाथ स्रोत को तुम्हारे, साक्षी हो। तर्पण के ऐसे दिन पार कर कितने ही मैदान आया हूँ पास मैं बैठा हूँ दुःखों के किनारे तुम्हारे इस भोर बेला में। हैं वे भी बनकर यवनिका एक यहीं कहीं जो अब रहे नहीं, उनकी भी श्वासों को अंजलि बनाकर मैं बैठा हूँ सोचता सम्बल बस मेरा है स्थिर हो रहना। सम्बल हैं लता-फूल अविकल, पथ को घेरे, संध्या नदी नाम मेरी नदी का है, तुम हो उसी का तो जल ! काव्य तत्व कही भी कल क्या यह बात? सम्भव है। लेकिन नहीं मानता उसे आज। कल जो था मैं, वहीं हूँ मैं आज भी इसका प्रमाण दो। मनुष्य नहीं है शालिग्राम कि रहेगा एक ही जैसा जीवन भर। बीच-बीच में आना होगा पास। बीच-बीच में भरेगा उड़ान मन। कहा था कल पर्वत शिखर ही है मेरी पसन्द सम्भव है मुझे आज चाहिए समुद्र ही। दोनों में कोई विरोध तो है नहीं मुट्ठी में भरता हूँ पूरा भुवन ही। क्या होगा कल और आज का योग कर करूँगा भी तो करूँगा वह बहुत बाद में। अभी तो रहा हूँ मैं सोच यही — फुर्ती यह आई कैसे विषम ज्वर में!

मिथ्या

यह मुख निर्मल नहीं मिथ्या लगी इस पर अच्छा नहीं पास में जाना तुम्हारे अभी तुम तो स्नेही सुदक्षिणा मेघमय धार उतर आती आज भी आँखों के जल से तुम्हारे रुद्ध देश भर जाता पुण्य से। फिर भी मैं दूर चला जाता यह मुख निर्मल नहीं, बोधहीन पीला शरीर जाता थम, तापीं तुमने दिया बहुत कुछ मेरा तो समस्त ही देना अभी बाक़ी। (तापीं : तपस्विनी)

मूल बँगला से अनुवाद : सुलोचना वर्मा / शिव किशोर तिवारी


चाहत का तूफ़ान

इस छोर से उस छोर तक घूमती नि:शब्द निर्जनता में अन्धेरी शाम की तेज़ अकेली हवा में तुम उठाती हो अपना बादलों-सा ठण्डा, चान्द की तरह पाण्डुर नीरक्त, सफ़ेद चेहरा विपुल आकाश की ओर। दूर देस में मैं काँपता हूँ चाहत की असह्य वेदना से — तुम्हारे श्वेत पाषाण-सदृश मुख को घेरे काँपती हैं — आर्त प्रार्थना में उठी हज़ार उँगलियों की तरह — बालों की पतली लटें, बिखरी अलकें अन्धेरी हवा में। घिर आए बादल अपने ही भार से आकाश के एक कोने में जमा हो गए — उस पुंज के बीच बार-बार ज़ोर से कौंधती है कामना की तड़ित् ; प्रचण्ड आवेग से फेनिल होता प्रेम का अबाध्य प्रवाह अन्धकार के सीमाहीन अन्तराल और विचारमग्न, स्थिर धरित्री की घन कान्ति को अस्थिर करता है। तुम उठाती हो अपना बादलों-सा ठण्डा, चान्द की तरह पाण्डुर मुख, रोते-रोते थककर चुप हुई धरती के उठते-गिरते स्तन, प्रार्थना में क्लान्त, विकल, दुर्बल, दीर्घ प्रत्याशा के हाथ, विपुल, विक्षुब्ध आकाश की ओर उठे — और सबको घेरकर फैला अन्धकार, तुम्हारे विरल केश, असीम, एकाकी हवा में असंख्य स्वरों वाले वाद्य। धीरे-धीरे सृष्टि प्रस्तुत होती है, मानो मर्मभेदी एक मधुर मुहूर्त में दु:सह वज्र बनकर टूटता है उसकी चाहत का बादल तुम्हारे उद्धत, उत्सुक, प्रसारित, विदारित वक्ष के मध्य मिलन की पूर्ण प्रेमाकुलता के साथ ― उसके बाद भीगी, अस्तव्यस्त, भग्न पृथ्वी की गन्दगी साफ़ कर आता है सुन्दर, शीतल, ममता-भरा विहान

बाउल

कहा था तुम्हें लेकर जाऊँगा दूर के दूसरे देश में सोचता हूँ वह बात दौड़ती रहती है दूर-दूर तक जीवन की वह सातों माया सोचता हूँ वह बात तकती रहती है पृथ्वी, तुमसे हार मानकर वह बचेगी कैसे ! जहाँ भी जाओ अतृप्ति और तृप्ति दोनों चलती है जोड़े में बाहर भी, अन्दर भी. उदासीन नहीं कुछ से — समझ सकता हूँ तुम्हारे सीने में है कुछ और, यंत्रणा खोलती है हृदय को अपनी हर गिरह में, उस खुलने का है अर्थ कुछ और। नींद में देखता हूँ प्रकाश के पूर्ण-कुसुम को नीलांशुक में नहीं बाँध सकता है ये जगते ही देखता हूँ कितनी विचित्र बात है, एक भी खरोंच नहीं लगी उसके प्रेम की देह पर कहा था तुम्हें मैं फैला दूँगा दूर हवा में सोचता हूँ वह बात तुम्हारे सीने के अन्धकार में बजा है सुख मदमत्त हाथों से सोचता हूँ वह बात।

त्रिताल

तुम्हारा कोई धर्म नहीं है, सिर्फ़ जड़ से कसकर पकड़ने के सिवाय तुम्हारा कोई धर्म नहीं है, सिर्फ़ सीने पर कुठार सहन करने के सिवाय पाताल का मुख अचानक खुल जाने की स्थिति में दोनों ओर हाथ फैलाने के सिवाय तुम्हारा कोई धर्म नहीं है, इस शून्यता को भरने के सिवाय। श्मशान से फेंक देता है श्मशान तुम्हारे ही शरीर को टुकड़ों में दुः समय तब तुम जानते हो ज्वाला नहीं, जीवन बुनता है जरी। तुम्हारा कोई धर्म नहीं है उस वक़्त प्रहर जुड़ा त्रिताल सिर्फ गुँथा मद्य पीकर तो मत्त होते सब सिर्फ़ कवि ही होता है अपने दम पर मत्त्त।

जल

क्या जल समझता है तुम्हारी किसी व्यथा को? फिर क्यों, फिर क्यों जाओगे तुम जल में क्यों छोड़ गहन की सजलता को? क्या जल तुम्हारे सीने में देता है दर्द? फिर क्यों, फिर क्यों क्यों छोड़ जाना चाहते हो दिन रात का जलभार?

जन्मदिन

तुम्हारे जन्मदिन पर और क्या दूँगा इस वायदे के सिवा कि फिर हमारी मुलाक़ात होगी कभी होगी मुलाक़ात तुलसी चौरे पर, होगी मुलाक़ात बाँस के पुल पर होगी मुलाक़ात सुपाड़ी वन के किनारे हम घूमते फिरेंगे शहर में डामर की टूटी सड़कों पर दहकते दोपहर में या अविश्वास की रात में लेकिन हमें घेरे रहेंगी कितनी अदृश्य सुतनुका हवाएँ उस तुलसी या पुल या सुपाड़ी की हाथ उठाकर कहूँगा, यह रहा, ऐसा ही, सिर्फ़ दो-एक तकलीफ़ें बाक़ी रह गईं आज भी जब जाने का समय हो आए, आँखों की चाहनाओं से भिगो लूँगा आँख सीने पर छू जाऊँगा उँगली का एक पंख जैसे कि हमारे सामने कहीं भी और कोई अपघात नहीं मृत्यु नहीं दिगन्त अवधि तुम्हारे जन्मदिन पर और क्या दूँगा इस वायदे के सिवा कि कल से हर रोज़ होगा मेरा जन्मदिन।

कलकत्ता

हे बापजान कलकत्ता जाकर देखा हर कोई जानता है सब कुछ सिर्फ़ मैं ही कुछ नहीं जानता मुझे कोई पूछता नहीं था कलकत्ता की सड़कों पर भले ही सब दुष्ट हों ख़ुद तो कोई भी दुष्ट नहीं कलकत्ता की लाश में जिसकी ओर देखता हूँ उसके ही मुँह पर है आदिकाल का ठहरा हुआ पोखर जिसमें तैरते हैं सड़े शैवाल ओ सोना बीबी अमीना मुझे तू बाँधे रखना जीवन भर मैं तो अब नहीं जाऊँगा कलकत्ता।

बौड़म

ख़ूब भले बचे अपन क़िस्मत ही अच्छी है, धोखे की दुनिया में आँखों पे पट्टी है। किसी को छू लेता हूँ, पूछता हूँ यारा, “गली-गली फिरता है क्यों मारा-मारा? इससे भला था, सब परपंच भुलाकर एक बार बेपरवा’ हँसता ठठाकर।“ सुनकर वे कहते हैं “कौन मनहूस है? छुपा-छुपा फिरता है निश्चय जासूस है।“ हद्द ! बोले कल के वो छोकरे चिल्लाकर ‘बौड़म’, हमाई ओर उँगली उठाकर। बस, तब से बौड़म बन श्याम बाज़ार के आसपास रहता हूँ वही रूप धार के।

मुखौटे

तब, जब सब सो जाते दु:खीजन जग उठता। आसमान आँखों के आगे झूले नीचे शहर झूलता, और मकान तारों जैसे एक दूसरे से मिलते हैं – रात्रिकाल का निर्जन रस्ता, गालों पर आँसू की लम्बी रेखा जैसा समय तैरता जलस्रोत पर, और सब कोई जब सोते हों, तब दिन के मुखौटे उतारकर रख हिम्मत करके सच्ची-सच्ची बोल।

अकेला

कितनी उम्र थी, दिल भी क्या था पद्मा नदी ने जब दे दी थी मुझे विदा ! आज मन ही मन जानता हूँ कि तुम नहीं, तुम नहीं, मैं ही ख़ुद को छोड़ आया था आधी रात। उसी अपराध का फल है, नूरुल, कि तू अकेला मेरे बग़ैर ही लड़ाई को चला गया उसी अपराध के कारण आज बैठा-बैठा देख रहा हूँ तुझ अकेले का दु:ख, मृत्यु, विजय।

बना दो भिखारी पर ऐसी गौरी तो नहीं हो तुम

मुझे हासिल करना है? इतनी ज़री बिखेरती, ओ सुन्दरी, झालरें गिराती दोनों हाथों से! ग्रहण करोगी मुझे? कभी न देखा इन आँखों ऐसा अतुल्य प्रेम। तुम्हारा मृदु हास मेरे लिए दुनिया पाने के आसपास, तुम्हारे होठों में आणविक छटा की ऊष्मा। ले जाना है मुझे? किस सूने खेत से? तुम बनीं आज अन्नपूर्णा, हाय! समर्पण चाहिए बस तुम्हें, बारी-बारी सब निकालना है – मेद, मज्जा, दिल, दिमाग़। उसके बाद चाहती हो मैं घुटने तोड़ सरेआम रास्ते पर बैठूँ हाथ में अल्मुनिए का कटोरा लेकर. लपेट लो रेशमी रस्सी, ख़ूब बिखेरो ज़री, सुन्दरी, रोज़-ब-रोज़ मुझे अपने पैरों के तले लाना चाहो। बना दो भिखारी, पर तुम्हारे मन में कभी यह ख़याल नहीं आया कि ऐसी गौरी तो नहीं हो तुम !

मूल बँगला से अनुवाद : नील कमल


यौवन

दिन और रात के बीच परछाइयाँ चिड़ियों के उड़ान की याद आती हैं यूँ भी हमारी आख़िरी मुलाक़ातें ।

तुम

उड़ता हूँ और भटकता हूँ दिन भर पथ में ही सुलगता हूँ पर अच्छा नहीं लगता जब तक लौट कर देख न लूँ कि तुम हो, तुम ।

अख़बार

रोज़ सुबह के अख़बार में एक शब्द बर्बरता अपनी सनातन अभिधा का नित नया विस्तार ढूँढ़ता है ।

सपना

ओ पृथ्वी ! अब भी क्यों नहीं टूटती मेरी नींद सपनों के भीतर ऊँचे पहाड़ों की तहों से झरती हैं पंखुरियाँ झरती हैं पंखुरियाँ पहाड़ों से और इसी बीच जाग उठते हैं धान के खेत जब लक्ष्मी घर आएगी घर आएगी जब लक्ष्मी वे आएँगे अपनी बन्दूकें और कृपाण लिए हाथों में, ओ पृथ्वी ! अब भी क्यों नहीं टूटती मेरी नींद ।

नीग्रो दोस्त के नाम एक ख़त

रिचर्ड ! रिचर्ड !! रिचर्ड तुम्हारा नाम मेरे लफ़्ज़ों में है । कौन रिचर्ड ? कोई नहीं । रिचर्ड मेरा लफ़्ज़ नहीं है । रिचर्ड ! रिचर्ड !! रिचर्ड तुम्हारा नाम मेरे सपनों में है । कौन रिचर्ड ? कोई नहीं । रिचर्ड मेरा सपना नहीं है । रिचर्ड ! रिचर्ड !! रिचर्ड तुम्हारा नाम मेरे दुख में है । कौन रिचर्ड ? कोई नहीं । रिचर्ड मेरा दुख नहीं है ।