हिंदी कविताएँ : शैलेन्द्र चौहान

Hindi Poetry : Shailendra Chauhan



1. उदासीनता

क्या मुझे पसंद है व उदासीनता क्या तटस्थता और विरक्ति ही है उपयुक्त जीवन शैली क्या निष्क्रियता है मेरा आदर्श ? थमी हुई है हवा निर्जन एकांत में ध्वनि, नहीं महत्वहीन न नगण्य और न असंगत |

2. विरक्ति

कदापि उचित नहीं दिगंत के उच्छिष्ट पर फैलाना पर शमन कर भावनाओं का मनुष्य मन पर प्राप्त कर विजय उड़ भी तो नहीं सकते अबाबीलों के झुंड में ठहरी हुई हवा बेपनाह ताप बहुत सुंदर हैं नीम की हरी-हरी पत्तों भरी ये टहनियाँ अर्थ क्या है पत्तों वाली टहनियों का न हिलें यदि उमस भरी शाम विरक्त मन, फैल गई है विरक्ति बुगनवेलिया के गुलाबी फूल करते नहीं आनंदित यद्यपि खूबसूरत हैं वे |

3. तड़ित रश्मियां

पेड़ पर टंगी उदासी पूर्णिमा के चाँद की तरह झाँकती है स्पष्ट कोहरे में छुपी धूल में लिपटी बारिश में भीगी मेघ गर्जन सी तड़ित रश्मियाँ एकाएक छिटक जाती हैं देश-प्रदेश के सीले भू-भाग पर कौंधती हैं स्मृतियाँ बीते युगों की |

4. स्वप्न

अच्छा होता विस्मृत हो जातीं सारी परिकथाएँ, चमचम मनोहर वे स्वप्निल द्वीप ! यथार्थ चीर देता तलवार की धार से विगत और वर्तमान को दो भागों में ठहर जाती हवा छुप जाता चाँद हँसते रहते हम |

5. सुगंध

पानी का बुलबुला था प्यार, कब बरसा पानी, कब बन गया बुलबुला कैसे भरी हवा, कैसे गया फूट! सारा खेल क्या मौसम का था? या प्रकृति का वायुमंडलीय दबाव, निर्वात, डिप्रेशन, किस्मत और संयोग ही था यह, रोज भर जाती हवा, रोज उठते बुलबुले, रोज जाते फूट क्या सचमुच, बुलबुला ही था प्यार? क्यों मौसम-दर-मौसम घट रहा है वायुमंडलीय दबाव, बढ़ रहा है निर्वात फूटते जा रहे हैं बुलबले नित्य निरंतर बढ़ता जा रहा बुलबुलों का आकार, फैलती जा रही है कसमसाहट बढ़ती जा रही है टीस, ईर्ष्या की आग फैल रही विषबेल-सी, खत्म भी होगी अन्ततः यह प्रक्रिया, मुरझा जायेंगे खूबसूरत मौसमी फूल। कितने दिन होता है फूलों का जीवन भी! अभी रच-बस गयी है सुगन्ध जो मन में नहीं रहेगी जब, याद आयेंगे तब वे फूल, बिखरने तक बिखेरते रहे जो पावन-रस-भीनी सुगंध।

6. एक घटना

उत्ताल तरंगों की तरह फैल गया है मेरे मन पर सराबोर हूँ मैं उल्लसित हूँ झाग बन उफन रहा है जल की सतह पर धरा के छोर पर छोड़ गया है निशान क्षार, कूड़ा-करकट अवांछित यही है फेनिल यथार्थ गुंजार और हुंकार बन बिखर गया है तटीय क्षेत्र में एक प्रक्रिया, एक घटना, एक टीस बन ऋतुओं की तरह बदल रहा है चोला बैसाख सा ताप आषाढ़ की व्यग्रता भाद्रा की वृष्टि शरद की शीत और शिशिर की कंपकंपी बन जन्मा है धरती पर अकलुष प्रेम |

7. लैंडस्केप

हाशिये पर लिखे शब्द अचानक उछलकर हो गए हैं बाहर पृष्ठ से कैनवास सांध्य बेला की तरह है उदास छिटक गए हैं रंग लैंडस्केप पर बेढंगे फिर भी नहीं है कहीं कुछ अप्राकृतिक अस्वाभाविक |

8. यात्रा

इक दर्द को अहसासती तुम साथ मेरे चल रही हो जुड़ गई हर मुस्कान मुझसे तुम्हारी नींद में अलसाती मदमाती बेख़बर फिर भी जुड़ी हो इस तरह जैसे फूलों में महक चमक तारों में आहिस्ता-आहिस्ता पाँव घिसटाती चल रही हो तुम... धूप,रात,माटी और मौसम कितने सलौने सब ठुकराती चल रही हो तुम साथ मेरे चल रही हो |

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