हिन्दी कविताएँ : सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

Hindi Poetry : Sarveshwar Dayal Saxena


अँधेरे का मुसाफ़िर

यह सिमटती साँझ, यह वीरान जंगल का सिरा, यह बिखरती रात, यह चारों तरफ सहमी धरा; उस पहाड़ी पर पहुँचकर रोशनी पथरा गयी, आख़िरी आवाज़ पंखों की किसी के आ गयी, रुक गयी अब तो अचानक लहर की अँगड़ाइयाँ, ताल के खामोश जल पर सो गई परछाइयाँ। दूर पेड़ों की कतारें एक ही में मिल गयीं, एक धब्बा रह गया, जैसे ज़मीनें हिल गयीं, आसमाँ तक टूटकर जैसे धरा पर गिर गया, बस धुँए के बादलों से सामने पथ घिर गया, यह अँधेरे की पिटारी, रास्ता यह साँप-सा, खोलनेवाला अनाड़ी मन रहा है काँप-सा। लड़खड़ाने लग गया मैं, डगमगाने लग गया, देहरी का दीप तेरा याद आने लग गया; थाम ले कोई किरन की बाँह मुझको थाम ले, नाम ले कोई कहीं से रोशनी का नाम ले, कोई कह दे, "दूर देखो टिमटिमाया दीप एक, ओ अँधेरे के मुसाफिर उसके आगे घुटने टेक!"

अंत में

अब मैं कुछ कहना नहीं चाहता, सुनना चाहता हूँ एक समर्थ सच्ची आवाज़ यदि कहीं हो। अन्यथा इससे पूर्व कि मेरा हर कथन हर मंथन हर अभिव्यक्ति शून्य से टकराकर फिर वापस लौट आए, उस अनंत मौन में समा जाना चाहता हूँ जो मृत्यु है। 'वह बिना कहे मर गया' यह अधिक गौरवशाली है यह कहे जाने से -- 'कि वह मरने के पहले कुछ कह रहा था जिसे किसी ने सुना नहीं।'

अक्सर एक व्यथा

अक्सर एक गन्ध मेरे पास से गुज़र जाती है, अक्सर एक नदी मेरे सामने भर जाती है, अक्सर एक नाव आकर तट से टकराती है, अक्सर एक लीक दूर पार से बुलाती है । मैं जहाँ होता हूँ वहीं पर बैठ जाता हूँ, अक्सर एक प्रतिमा धूल में बन जाती है । अक्सर चाँद जेब में पड़ा हुआ मिलता है, सूरज को गिलहरी पेड़ पर बैठी खाती है, अक्सर दुनिया मटर का दाना हो जाती है, एक हथेली पर पूरी बस जाती है । मैं जहाँ होता हूँ वहाँ से उठ जाता हूँ, अक्सर रात चींटी-सी रेंगती हुई आती है । अक्सर एक हँसी ठंडी हवा-सी चलती है, अक्सर एक दृष्टि कनटोप-सा लगाती है, अक्सर एक बात पर्वत-सी खड़ी होती है, अक्सर एक ख़ामोशी मुझे कपड़े पहनाती है । मैं जहाँ होता हूँ वहाँ से चल पड़ता हूँ, अक्सर एक व्यथा यात्रा बन जाती है ।

अजनबी देश है यह

अजनबी देश है यह, जी यहाँ घबराता है कोई आता है यहाँ पर न कोई जाता है जागिए तो यहाँ मिलती नहीं आहट कोई, नींद में जैसे कोई लौट-लौट जाता है होश अपने का भी रहता नहीं मुझे जिस वक्त द्वार मेरा कोई उस वक्त खटखटाता है शोर उठता है कहीं दूर क़ाफिलों का-सा कोई सहमी हुई आवाज़ में बुलाता है देखिए तो वही बहकी हुई हवाएँ हैं, फिर वही रात है, फिर-फिर वही सन्नाटा है हम कहीं और चले जाते हैं अपनी धुन में रास्ता है कि कहीं और चला जाता है दिल को नासेह की ज़रूरत है न चारागर की आप ही रोता है औ आप ही समझाता है ।

आए महंत वसंत

मखमल के झूल पड़े हाथी-सा टीला बैठे किंशुक छत्र लगा बाँध पाग पीला चंवर सदृश डोल रहे सरसों के सर अनंत आए महंत वसंत श्रद्धानत तरुओं की अंजलि से झरे पात कोंपल के मुँदे नयन थर-थर-थर पुलक गात अगरु धूम लिए घूम रहे सुमन दिग-दिगंत आए महंत वसंत खड़ खड़ खड़ताल बजा नाच रही बिसुध हवा डाल डाल अलि पिक के गायन का बँधा समा तरु तरु की ध्वजा उठी जय जय का है न अंत आए महंत वसंत

आज पहली बार

आज पहली बार थकी शीतल हवा ने शीश मेरा उठा कर चुपचाप अपनी गोद में रक्खा, और जलते हुए मस्तक पर काँपता सा हाथ रख कर कहा- "सुनो, मैं भी पराजित हूँ सुनो, मैं भी बहुत भटकी हूँ सुनो, मेरा भी नहीं कोई सुनो, मैं भी कहीं अटकी हूँ पर न जाने क्यों पराजय नें मुझे शीतल किया और हर भटकाव ने गति दी; नहीं कोई था इसी से सब हो गए मेरे मैं स्वयं को बाँटती ही फिरी किसी ने मुझको नहीं यति दी" लगा मुझको उठा कर कोई खडा कर गया और मेरे दर्द को मुझसे बड़ा कर गया। आज पहली बार।

आश्रय

पेड़ों के साथ साथ हिलता है सिर यह मौसम अब नहीं आये गा फिर

ईश्वर

बहुत बडी जेबों वाला कोट पहने ईश्वर मेरे पास आया था, मेरी मां, मेरे पिता, मेरे बच्चे और मेरी पत्नी को खिलौनों की तरह, जेब में डालकर चला गया और कहा गया, बहुत बडी दुनिया है तुम्हारे मन बहलाने के लिए। मैंने सुना है, उसने कहीं खोल रक्खी है खिलौनों की दुकान, अभागे के पास कितनी जरा-सी पूंजी है रोजगार चलाने के लिए।

एक छोटी सी मुलाकात

कुछ देर और बैठो – अभी तो रोशनी की सिलवटें हैं हमारे बीच। शब्दों के जलते कोयलों की आँच अभी तो तेज़ होनी शुरु हुई है उसकी दमक आत्मा तक तराश देनेवाली अपनी मुस्कान पर मुझे देख लेने दो मैं जानता हूँ आँच और रोशनी से किसी को रोका नहीं जा सकता दीवारें खड़ी करनी होती हैं ऐसी दीवार जो किसी का घर हो जाए। कुछ देर और बैठो – देखो पेड़ों की परछाइयाँ तक अभी उनमें लय नहीं हुई हैं और एक-एक पत्ती अलग-अलग दीख रही है। कुछ देर और बैठो – अपनी मुस्कान की यह तेज़ धार रगों को चीरती हुई मेरी आत्मा तक पहुँच जाने दो और उसकी एक ऐसी फाँक कर आने दो जिसे मैं अपने एकांत में शब्दों के इन जलते कोयलों पर लाख की तरह पिघला-पिघलाकर नाना आकृतियाँ बनाता रहूँ और अपने सूनेपन को तुमसे सजाता रहूँ। कुछ देर और बैठो – और एकटक मेरी ओर देखो कितनी बर्फ मुझमें गिर रही है। इस निचाट मैदान में हवाएँ कितनी गुर्रा रही हैं और हर परिचित कदमों की आहट कितनी अपरिचित और हमलावर होती जा रही है। कुछ देर और बैठो – इतनी देर तो ज़रूर ही कि जब तुम घर पहुँचकर अपने कपड़े उतारो तो एक परछाईं दीवार से सटी देख सको और उसे पहचान भी सको। कुछ देर और बैठो अभी तो रोशनी की सिलवटें हैं हमारे बीच। उन्हें हट तो जाने दो - शब्दों के इन जलते कोयलों पर गिरने तो दो समिधा की तरह मेरी एकांत समर्पित खामोशी!

एक सूनी नाव

एक सूनी नाव तट पर लौट आई। रोशनी राख-सी जल में घुली, बह गई, बन्द अधरों से कथा सिमटी नदी कह गई, रेत प्यासी नयन भर लाई। भींगते अवसाद से हवा श्लथ हो गईं हथेली की रेख काँपी लहर-सी खो गई मौन छाया कहीं उतराई। स्वर नहीं, चित्र भी बहकर गए लग कहीं, स्याह पड़ते हुए जल में रात खोयी-सी उभर आई। एक सूनी नाव तट पर लौट आई।

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