हिन्दी कविताएँ : रोहित सैनी

Hindi Poetry : Rohit Saini


एक दो-दिन का है ख़ुमार, बस, और-ग़ज़ल

बहर- 2122/ 1212/22 एक दो-दिन का है ख़ुमार, बस, और, सोचा थोड़ा-सा इंतिज़ार, बस, और। भूल जाने में कौन मुश्किल है, चार-छै उम्र का क़रार, बस, और। मुझे पहले-पहल यही लगा था, मुझे खा जाएगा क्या प्यार, बस, और। नदिया, सहरा, पहाड़, फिर जंगल, मुझमें उग आया इंतिज़ार, बस, और। बस यही चाह थी तुम्हारी, अब, हो गए तार-तार, यार, बस, और।

जो बचाना चाहते हो बच भी जाएगा मगर-ग़ज़ल

बहर- 2122/2122/2122/212 जो बचाना चाहते हो बच भी जाएगा मगर, एक दिन मौसम सुहाना दिल जलाएगा मगर। मान लो के ज़ख़्म दिल के भर भी जाएँगे सभी, एक दिन फिर दर्द ना होना रुलाएगा मगर। जानता हूँ दर्द-रस है तू मगर कह-सुन ले कुछ, कहना-सुनना बात भी शायद बढ़ाएगा मगर। ये अगर गफ़लत नहीं है तो भला क्या है बता, प्यार सबको होगा, कोई-कोई पाएगा मगर। एक दिन फिर रौशनी होगी तेरे ही नाम से, एक दिन आँसू तू घर-भर से छुपाएगा मगर। लौट कर आती नहीं उम्र-ए-गुज़श्ता फिर कभी, याद आएगी, मौसम-ए-बाराँ न आएगा मगर।

अजब सी टीस उठती है याँ सीने में-ग़ज़ल

बहर- 1222/1222/1222 अजब सी टीस उठती है याँ सीने में लगी है आग-सी दिल-आबगीने में मेरी साँसों की ये पतवार ज़ख्मी है यहाँ इक छेद है मेरे सफ़ीने में पुराना दर्द आँखों में चमकता है मुझे अब काम लो, या'नी क़रीने में मेरा तर्ज़-ए-सुख़न भी काम आया नहीं बहुत मुश्किल है, या'नी यार जीने में मुहब्बत की क़फ़स में रूह प्यासी है मुझे तुम ओस भर के ला दो मीने में

नहीं था जो, वो रिश्ता नहीं छूटा-ग़ज़ल

बहर- 1222/122/1222 नहीं था जो, वो रिश्ता नहीं छूटा हमीं से बस ये रस्ता नहीं छूटा बहुत चाहा उसे छोड़ दूँ लेकिन नहीं है वो, नहीं था, नहीं छूटा मुहब्बत की क़सम कुछ नहीं इसमें मग़र मैं था अभागा नहीं छूटा वो पक्का रंग है ये, जो लग कर बस है दीवारों से उखड़ा, नहीं छूटा मुझे अब भी है उम्मीद आएगा अभी हाथों से धागा नहीं छूटा न बन्दा था न थी जात बन्दे की न जाने कौन था, क्या नहीं छूटा खुदा भी क्या खुदा है अगर उससे मेरे करके दुपट्टा नहीं छूटा रही है ज़िंदगी हादिसा आख़िर इसी से मेरा डरना नहीं छूटा भरम या'नी बहुत ही हसीं, या'नी मुझे तो छोड़ना था, नहीं छूटा समंदर प्यास से हो गया बे-हाल मग़र सहरा से दरिया नहीं छूटा मुझे तुम पूछते हो कि क्या छूटा तुम्हीं बोलो कि क्या-क्या नहीं छूटा रखूँ आख़िर कहाँ खुद को मैं "रोहित" कहाँ, कुछ भी किसी का नहीं छूटा

आ रहा है वो और जा रहा है-ग़ज़ल

बहर- 2122/1212/22 आ रहा है वो और जा रहा है या'नी दरिया नज़र में वा रहा है आँख होने लगी है आईना एक तस्वीर दिल बना रहा है कोई अपना उदास है शायद आसमाँ में धुँआ-सा छा रहा है मैं समंदर यहाँ पे प्यासा हूँ अहद सहरा से वो निभा रहा है खुश-ओ-बेज़ार एक साथ हूँ मैं साल ज्यूँ आ रहा है जा रहा है ज़िंदगी-ज़िंदगी रही, यानी अच्छा-अच्छा, बुरा-बुरा, रहा है एक ही थे हम और तुम "रोहित" आइना बस यही बता रहा है उफ़ उदासी बदन से लिपटी हुई हाय! इक पेड़ सूखे जा रहा है

समय

समय ने कहा... समय के साथ चलो, शिक्षित बनो... शिक्षित हुए, समय से तेज चलने की कोशिश की। भ्रष्ट हुए, हत्या की जो-जो नहीं करना चाहिए, सब किया। संविधान ने कहा जो नैतिक नहीं है सब जुर्म है, हत्या- जुर्म है, भ्रष्टाचार- जुर्म है ये, वो सब जुर्म है जुर्म की सजा मिलेगी... बचाव के उपाय कर लिए गए... जुर्म ने सहायता की। .... डॉक्टर ने कहा तनाव है ज्यादा से ज्यादा नींद लो... नींद की गोली खाई और सो गया। शांत हुआ... फिर उठा, फिर उसी तरफ दौड़ा..! ... धर्म ग्रंथो ने कहा ईश्वर से डरो सदाचारी बनो, बुरा मत करो... डरा नहीं! ईश्वर को हथियार और धर्म ग्रंथों को प्रमाण बना लिया।

प्यारी लड़की

प्यारी लड़की! हम तुम्हें फूल-सी कोमल कहते हैं, और... कभी-कभी प्रकृति भी! यह सहज है, स्वाभाविक भी। सहज है... क्योंकि, तुम गुणों से कोमल भी हो, प्रेम, करुणा, दया... तुम्हीं से जनम पाते हैं, और... तुम्हीं में लौट आते हैं। यह स्वाभाविक है... क्योंकि, प्रकृति का विनाशकारी रूप भयावह है। प्यारी लड़की! तुम्हें सिर्फ़ कोमल कहने पर... तुम्हारा विरोध भी, सहज है, स्वाभाविक भी। सहज है... क्योंकि, तुम्हीं में शक्ति है... विद्या, त्रिशूल, सुदर्शन तीनों को धारण करने की। यह स्वाभाविक है... क्योंकि, तुम्हीं ने राक्षशों से देवों का उद्धार किया था। प्यारी लड़की!

मैं कौन हूँ

सारे राम! वनवास पर हैं पैदा होते के साथ... प्रत्येक सीता! अंतर्द्वंद्व की अग्नि में परीक्षा दे रही है। प्रत्येक राधा! विरह में बर्फ़ हो गयी है... सभी कृष्ण! कठोरता से दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं। प्रत्येक बुद्ध! विचलित मन लिए भटक रहा शांति की तलाश में। प्रत्येक यशोधरा! बुद्ध के शुभ की कामना कर रही है महावीर बैठें हैं कहीं आहत! तुलसी! ईश्वर को विनय के पत्र लिख रहे हैं... कबीर! हाँक रहै हैं रूढ़ियों को जंगल की ओर... मैं कौन हूँ, जो बंधा हूँ अनदेखी बेड़ियों से... मैं कौन हूँ जो कहता हूँ- अपने अंतर्द्वंद्व से मुक्ति ही वास्तविक मुक्ति है! मैं कौन हूँ, जो मीरा नहीं हो पा रहा हूँ... मैं कौन हूँ...?

स्वाह हूँ!

काल की कठोरता से, उत्पन्न बुद्धि का प्रवाह हूँ! हृदय की विकल आह हूँ! इस खंडित-मंडित शून्य में स्वाह हूँ, स्वाह हूँ। शुष्क क्षीर सिंधु में धरा के केंद्र बिंदु में अस्तित्व खोजती अपना एक बूँद जल ढाह हूँ! मैं खुद अपनी बाधा हूँ अगर चल पडूँ तो राह हूँ मैं खुद अपना नाह हूँ मैं खुद अपनी गाह हूँ इस खंडित-मंडित शून्य में स्वाह हूँ, स्वाह हूँ! विस्मृत अतीत हूँ, मैं भविष्य का आगाह हूँ क्षण भर है वर्तमान यह मैं अथाह हूँ अथाह हूँ ले ज्वाला अंक में मुझे तारती है माँ गोरी पुत्र कह पुकारती है स्वयं शंकर का मेरे हृदय में वास है किंतु स्वयं में मैं गुमराह हूँ। इस खंडित-मंडित शून्य में मैं स्वाह हूँ, स्वाह हूँ!।

दशरथ

प्रत्येक क्षण! एक नए युग का आरंभ है। हर क्षण... एक युग का अंत। अंत और आरंभ के बीच... राम बनवास पर है युगों-युगों से, युगों-युगों से सीता बैठी है; प्रतीक्षा में घुली हुई; रूढ़ियों को तिनका मान! क्षण-क्षण महाभारत है स्वयं से अपरिचित... हर कोई अपना ही संधान करता है स्वयं ही ढेर होता है। प्रेम आता है... बेरोजागर पर किसी के विश्वास की तरह! मरीज को हॉस्पिटल से मिलने वाली छूटी की तरह! मजदूर को मिलने वाली ध्याड़ी की तरह! भूखे को रोटी की तरह! बुड्ढी आँखों में रौशनी की तरह! पिता की गली हड्डियों में ताकत की तरह माँ की आँखों में सुख के आँसूँ की तरह जेठ में बारिश की तरह! कितने ही रूपों में... हर मर्ज़ की एक दवा, एक मलहम बन। प्रेम आता है... जीवन में; दीपावली की तरह अमावस्या की रात; एक पक्ष के लिए। फिर रूढ़ियाँ आती है मंथरा की तरह...! और प्रेम चला जाता है वनवास पर राम की तरह...! जीवन साथ-साथ जाता है... सीता की तरह..! दुःख पहरा करता है; लक्ष्मण की तरह। प्रेमी वन से ही देखते हैं राज-काज! भरत की तरह...! मैं दशरथ को ढूंढ रहा हूँ; इस पूरी रामायण में मैं देखना चाहता हूँ.... दशरथ किस रूप में मरे इस बार!

  • मुख्य पृष्ठ : रोहित सैनी - हिंदी कविताएँ
  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कविता वेबसाइट (hindi-kavita.com)