कश्मीरी कविता हिन्दी में : रहमान राही
Kashmiri Poetry in Hindi : Rehman Rahi


कविता

अनजाने में उतावला हो कूद पड़ा मैं निगल गयी आलोक गहनता प्रकाश समा गया अँधियारे में और अन्त में देखा मैंने तलातल में ज्योतिर्मय वह एक अकेला शब्द एक अकेले मुक्ताहल के अन्तर में दुलराया जाता ज्वाला, सरोज और वानर संज्ञा-संज्ञा को छल गयी राख! तुम्हारे दाँत भी थे तेज़ चमकीले नुकीले थे नाखून मेरे भी रक्त भी मल लिया औ' किया नृत्य भी घुमर-घुमर लहर-उफान और तट पर धूप सेंकी ख़ूब रसीली तन्द्रा भरपूर सोये पीठ, पहाड़ी पर कुहरा खिला कि पद-तल भूल गये, ऐसा; मैं खोजता क्या? पूछता नाम किससे? फ़रिश्तों ने क्रोध मेरा चबा डाला द्वेष दफ़नाया और फिर जब चिलचिलायी धूप परिवेश या रिक्तता, जो चूक गयी थी और अब है यह एक अदृश्य बंसी, और उसी का अदृश्य काँटा, किसी अजाने हाथ के खींचने से मेरा टेंटुआ जैसे कुरेदे जाता फरिश्तों के क्या उग आएँगे खंजर-खंजर दाँत, मनमूरत के क्या बढ़ आएँगे नख नेज़ों की सूरत? खीझ-खीझ खून के फव्वारे छुड़ाता मैं घृणा-घृणा! मैं जंगल-जंगल करता पागल-नर्तन ज्वाला को, सरोज बनते-बनते, वानर करता ग्रास सागर-तल में फिर पा लेता वही चमकता शब्द!

हन्दिफानूस

मुझे फूंक न मारना अति कोमलतम हूँ इतना कोमल कि (रंग धवल रूई खंड पर पड़ा आटे का पराग) स्वरूप गोलाकार सूर्य बाहर से रेशम का फुंदना अन्तस्तल से कलापूर्ण तिलिस्म से आश्चर्य ब्रह्मांड का बोलहीन उत्तराधिकारी फूट पड़ा माटी से, वर्षा से उभरा, धूप से शैशव पकड़ा सुनी चहकारें और झरनों का झरझर भूधर की चोटियाँ और आकाश देख लिया सूझा दिन में हर एक रहस्य को जान पाऊँगा निशा की अँधियारी में याद ही नहीं पड़ा आया किस देश से और जाना किधर है एक नज़र अपने को देख पाया था पर फूंक न मारना मुझे हूँ मैं अतिकोमलतम इतना कोमल कि...! (हन्दिफानूस=एक प्रकार की वन्य घास जिसमें छोटा छत्र-सा बीज रूप में उग आता है तथा जो हवा के हल्के झटके से बिखरकर सर्वत्र फैल जाता है।)

बात वहशी की

हरे वन की स्वर्णिम सिंहनी 'हरमुख' पर्वत-सी गम्भीर दूर घनेरे वन से लायी कोई गुजरिया दूध मृगियों का 'नील' के तट पर सूर्यास्त की थाह निहारती दहकती 'क्लियोपेट्रा' वन की ज्वाला में चमचमाता हिम को उग्र देवदारु के शीश पर बैठा युवा उकाव गम्भीरता से थाह ले रहा अपने चहुँओर क्षितिज तक फैले वैभव की हरे वन की स्वर्णिम सिंहनी विश्वमोहिनी और फूली साँस लिए वह आतुर-सा घोड़ा आँखों में भय की छाया, चाह की चिंगारियों का संगम लिये लहर तट की ओर दौड़ती दौड़ते ही पलट आ लौटती ज्योति के निर्मल पतंग चूम लेता बन्दवी प्रहरियों के अग्निवत भालों का घेरा देख कर पगलाया मजनू तजते कैसे और आहार करेगा मेरा क्या! जहाँ भागूं लौटा दिया जाता हूँ फिर यहीं कैसे भागूँ? नज़रों की बाँहें लम्बी हो गयीं उसकी नख से शिख तक काया मेरी सिहर उठी दाँत तारे पूवास सागर का उफान नाख़ून कटार कैसे जाने दूँ चिपक रहूँगा मुख के रोओं पर गर्म लहू...!

क्या कीजिए

ज़बान खोलने का न मिले मौक़ा तो क्या कीजिए दिल ग़म का बोझ न सह सके तो क्या कीजिए ग़ुलाब की झाड़ी पर ही कपड़े चाक हो गये सिर पर उनके रक्त से रंगा आसमान है तो क्या कीजिए चैत की हवा ओस की बूंदों को ठंडक पहुँचाती है वही हवा हममें ज्वाला भड़का दे तो क्या कीजिए वे सूखी नदी में डूब गये, किसको क्या बतायें हम भूख में ज़हरीली घास चबा गये तो क्या कीजिए राख मले साधु के बगल में छुरी है मुल्ला की दुआ में है बददुआ तो क्या कीजिए मासूम बच्चे, पत्थरों पर दम तोड़ गये दुष्टों की सन्तानों के होते हैं चालीसवें तो क्या कीजिए अपने भी साये को अब तो है घूरते रहना यह ज़हरीला अजगर अगर करवट बदल ले तो क्या कीजिए है तो वह रखवाला शान्ति और अमन का बौद्धों से पैसे बटोर गया तो क्या कीजिए जब रखवाला ही सेंध लगाये खज़ाने पर और घर का चिराग़ घर को जला दे तो क्या कीजिए

सिरे मिलाते हुए

दूरदर्शनी नाटक था- दोनों प्रेम का मचलता संगीत दोनों रूप का स्वप्न बोल-बोल कहकहे उड़ान भरते कबूतर हाथ को हाथ छूता हुआ झाड़ी पर कलियों की चटक उतावलापन पास आ गया समन्दर लहरों-लहरों उछला होठों ही होठों पर नर्तकी बिजलियों की मुद्राएँ ऐसे में अचानक कुछ हो गया कार्यक्रम में रुकावट- फिर देर तक दिखते रहे चमकते चित्र खंडहरों के प्राचीन काल, बरतनों पर उकेरे चित्र क़दावर पांडवों की बिना हाथ-पाँव मूर्तियाँ- फिर आ गया ढोल बजाता बड़ा समाचार बुलेटिन : ईरान का युद्ध पोलैंड की घुटन गोलान पहाड़ियों पर जीत का झंडा यू.एन.ओ. का शोर मासूम बच्चे का माँ के दामन तले से ग़ायब हो जाना!

बैसाख और रफ़ूगर

आया वसन्त, खिले पुष्प, पर्वत रोमांचित हुए प्रकट हुआ आकाश इक आइना-सा उल्लसित पवन ने मृग-गन्ध फैला दी चहुँ-दिशा सरई के झुरमुटों में कोयलें कूकती हैं कुहुक-कुहुक मुख दिखाया सूर्य ने स्वागत किया फुलवाई ने पक्षियों का झुंड आया जागृत करने सुहेली प्रहर आयी फिर बैसाखी, पिछले बरस-सी अभिलाषाओं का स्पन्दन लिये आज खुलेंगे द्वार निशात के, आबशार मचलने लगेंगे शालिमार के धारण किये वस्त्र नये शिल्पी ने टाँगा फिर लगाया कोचवान ने कल का शुक्कर आज होता हाय अगर! हाय इन उत्तरियों पर कितने लम्बे और भारी नक्श बैठाते हैं नक़्शगर हाय यह धागा उलझा हुआ है हर तरफ़

इस समय में

देखा लोगों ने इक दिन इक लोवा अकुलाया, अचिराया दौड़ रहा गिरते-पड़ते आहत होकर जान बचाने की चिन्ता में वन से निकल, मैदान लाँघता भागा-भागा बाज़ार से निकला देखा लोगों ने, रोका, पूछा : लोवे! सब ठीक तो है ना? थर्राया घबराया तू किधर जा रहा जुल्मी कोई पीछे है क्या? दम ले कर, देख इधर-उधर लोवे ने मुँह अपना खोला बोला : मेरे प्यारे मित्रो! यूँ ही नहीं हड़बड़ में हूँ उड़ती-सी इक ख़बर सुनी है बस तब से यह हाल हुआ है मुल्क़ में अब बेगार लगी है हाकिम का ऐलान हुआ है 'जहाँ कहीं भी ऊँट मिलेगा करवा लो सामान ढुलाई' यही सुन-सुन सहम गया हूँ ऊँटों की बेगार शुरू है मूर्ख बातें लोवे की सुन लोगों ने अट्टहास लगाया कहा, यह मतिभ्रष्ट हुआ है हम समझे थे कुछ बुरा हुआ है तुम तो सच में ही पागल हो ऊँटों की बेगार, तुझे क्या तू मुश्किल से गीदड़ जितना तू कैसे है ऊँटों जैसा तू फिरता क्यों मारा-मारा बोलो क्या है, क्या चिन्ता है ऐसी सूक्ष्म बातें सुन कर लोवा जीभ दबा के बोला : हे मित्रो! इस समय की बात अजब है, ढूँढ़ निराली झल्लाहट में यदि कोई आया और बताया यह है ऊँट के बच्चे जैसा तब कोई ना क़द देखेगा रंग देखेगा मैं भी बेगार में जुट जाऊँगा जब तक सच प्रकट हो सारा तब तक जाने क्या हो जाए! (गुलिस्तान-ए-सैदी से प्रेरित)

अधकही बात

बस के अड्डे पर बने बेजान बेहरकत बाम पर जाने कब उतरी थी वह मैंने जब देखा उसे उस बाम पर वह खुरचती जा रही थी फ़र्श के सीमेंट को अपनी सुन्दर चोंच से। दौड़ती चिंघाड़ती सड़कें थीं चारों तरफ़ और आवाज़ों की निरन्तर उमड़ जिसमें हर आवाज़ गुम थी बात को काट रही थी बात था धुआँ हर तरफ़ घेरे हुए उस समय पूछती वह सूरज से अगर तो बता देता उसे : "अपनी हद में रख ज़बान मत समझ इनको कि आदमज़ाद हैं इनको पंछी जान मत ये सभी हैं देवता! तेल पानी की परत पर तैरे, बहे लहरों के संग नाचता है भँवर के बीच में और पत्थर डूब जाते हैं सदा यह वह दुनिया है कि जिसमें खत्म हो दर्द का अहसास और दामन तर न हो दिल न ख़ुद समझे किसी आवाज़ को और न ख़ुद कुछ कहने को आतुर हो" पर न जाने उसको क्या धोखा हुआ मेरी ओर देखा और दी बददुआ मेरे कानों ने गूंज उसकी सुनी कह रही थी वह : सुनो... लोगो, सुनो... मैंने सोचा, कह दूँ उससे -ठहर जा और हमारे यहाँ भी कुछ पल गुज़ार याद कुछ पड़ता नहीं किस तरह की तुझमें और तोते में प्रीत थी मैंने सोचा उससे कह दूँ -अगर नहीं है तुझे यक़ीन हम भी दिखला दें तुझे अपने दिल की बेआवाज़ वीरानियाँ रूठ कर मुझसे जाने गया कहाँ मेरा प्रिय, तोता मेरा तुमने तो नहीं देखा? न वह आवाजें अब न वह फुर्र-सी उड़ान और न ही बाक़ी है वह दर-द्वार हाँ, हर-एक में बस फरमाइशी गीतों की लय

पुल के पाये पर

सुबह के समय सुंबुल पुरवैया में झूमता हुआ शाम के समय बादल गोद में आग सम्हारता हुआ घाव-लाल और ताज़ा दाग़-मिटता हुआ एक दरिया बहता हुआ भागता हुआ *** बचपन की तितली खो गयी द्वीपो में जलपरियों से पूछा बोलीं : चोटियों पर की बर्फ पिघला करती है एक दरिया बहता हुआ भागता हुआ *** तलवे जलाते रहे सहरा-सहरा अरे हैरान हिरणियों के मतवाले! नजद की पहाड़ी पुकार-पुकार गूंज रही है एक दरिया बहता हुआ भागता हुआ *** टिमटिमाते दीपक की कहानी सुनाई जा रही थी कथा सुनाने वाले की आँख लग गयी उपरली टहनी का तोता भी गूंगा होना चाहता है एक दरिया बहता हुआ भागता हुआ *** गाँव की गचदार रंगीन कोठरी बारिश तले फँस गयी शहर की धूम मचाती मस्तियाँ ताबूत में दुबक गयीं अरी ओ कान की बाली! तू भी हिलती-झुलती हुई ! एक दरिया बहता हुआ भागता हुआ *** हाय रंग-रूपों की लीला वृत्त में आ कर नाचने में मग्न हो जाये! होठों पर मुस्कान खिलाता हुआ और दिल को जलाता हुआ एक दरिया बहता हुआ भागता हुआ *** खुली नाव में बैठे-बैठे तेरा भी कुछ चप्पू चलाना मेरा भी घाट-घाट को टकटकी लगा कर देखना वारी जाऊँ, यहाँ तो अपने को आप झुलाना है एक दरिया बहता हुआ भागता हुआ *** शून्य में अजनबी पुकार-पुकार किस-किस की करे अनसुनी क्या-क्या सहते रहें दिन ढले की झकड़ ने देवासुर वृक्ष डगमगाते देखे एक दरिया बहता हुआ भागता हुआ (नजद=अरब में एक पहाड़ी का नाम)

स्वर्णद्वीप

सूरज आज जल्दी डूबा। सुनहरी आभा चीड़वन की बुझती आग की तरह बुझ गयी। शाम की परछाइयों के लम्बे, काले बाल फैल गये। पहाड़ के पीछे से चाँद निकल आया और तारों की नशीली आँखें चमकने लगीं। सुहानी हवा ने कुछ विचित्र होते देखा तो झील के कानों में फुसफुसा कर उसने राज़ की बात कह दी। वहाँ एक लहर उठी, और यहाँ एक कमल ने आँखें खोलीं। शालीमार के पीछे का पहाड सपनों में खो गया। आओ! एक पल के लिए इस द्वीप पर और मेरे साथ देखो। शहर का शोरोगुल यहाँ आ कर कम हो जाता है। सुनो! मीठा संगीत धरती से स्वर्ग तक की हवाओं में भर रहा है, मानो उत्साह से भरे लोग हरसू जलतरंग बजा रहे हों। मैंने सोचा सुख की एक और नाव तेलबल से आ रही है पुल के पास डोंगी से अभी भी रौशनी आ रही है। नसीम बाग़ में कितने सुख के खोजी हैं चिनार की ठंडी मद्धिम हवा ने ज़रूर उन्हें नींद की आगोश में सुला दिया होगा! चिन्ता मुझे पागल कर देती है, ख़्याल की लकीरें माथे पर ऐसे उभर आती हैं जैसे दहकते अंगारे सोचो यहाँ कितने आये हैं सुख की खोज में इस झील की सम्मोहक खूबसूरती से पगलाये पगलाये, ललचाये और फिर भूल गये! सोचो, कितनी सुन्दर औरतों ने अपने चाँदी जैसे बदन इस स्याह जल में धोये होंगे! कितनी प्यासी आत्माएँ यहाँ जुटी होंगी और आबद्ध हुई होंगी इसी चाँद की रौशनी के नीचे! कितने प्रेमियों ने कितनी-कितनी प्रतीक्षा की होगी अपने पहले प्यार की उस दूर तट पर। कितने महाराजाओं को ऐसा सम्मोहन महसूस हुआ होगा बेचारे, अपनी तमाम दौलत के बावजूद! कितनी प्रेमिकाओं की जादुई आँखों ने कमल के इन हरे पत्तों पर अनमोल मोती गिराये होंगे! कितने बहादुर लोगों को इन पहाड़ों ने प्यार और शाबाशी के भाव से देखा होगा और महान संकल्पों के ऐश्वर्य का आशीर्वाद दिया होगा कितनी बेचैन आत्माओं ने अपना दुख उँड़ेला है तारों भरे इस आकाश के सामने, अपने एकमात्र दोस्त के सामने! नशे में डूबी शामें स्वर्ण द्वीप की इसने पहले भी मुझसे अनेक पागल कवियों को सम्मोहित किया है इतनी मीठी गले वाली बुलबुलें और कहाँ उड़ती हैं ? सूरज की गर्मी पहाड़ों की बर्फ़ को पिघला देती है और पतझड़ बसन्त के रंगीन कपड़ों पर राख छिड़क देता है। आह, जो भी गया हमेशा के लिए चला गया, और कोई चिड़िया वहाँ से उड़ कर कभी वापस नहीं आयी! क्या मौत की अटल बाढ़ एक दिन मुझे भी अपने साथ बहा ले जाएगी? क्या मैं कभी नहीं लौट पाऊँगा? इस स्वर्णद्वीप पर एक शाम बिताने कभी नहीं आ पाऊँगा? क्या मौत की गुफ़ा की कोई खिड़की आधी भी खुली नहीं रहती? क्या मौत की पत्थर-दीवारों में कभी दरार नहीं आएगी? इस रहस्य से परदा कब उठेगा, जीवन-मृत्यु का सत्य कब जाना जाएगा? क्या मृत्यु रेशम के कीट की तरह कभी अपने जाल में ख़ुद नहीं उलझ जाएगी? कब जीवन-जय होगा और इनसान अमरता प्राप्त करेगा? (तेलबल=श्रीनगर के पूर्व में डलझील के किनारे एक स्थल) (अंग्रेज़ी से अनुवाद : प्रभात रंजन)

बूढ़ी औरत का एकालाप

कितना छोटा है इनसान का जीवन पूर्णिमा की तरह सम्मोहक इस संसार में! कुछ पल ओस के कुछ गुलाब के इससे पहले कि हम अनिश्चित रास्ता पकड़ें क़ब्र का, और चिता किसी की दोस्त नहीं होती। जवानी आती है बचपन के बाद फिर उड़नछू हो जाती है, और कितनी जल्दी चिड़चिड़ेपन की उम्र आ जाती है। कितना संक्षिप्त है हमारा जीवन मगर कितनी असीम हैं हमारी इच्छाएँ! अगर कोई अपने संकल्प के दबाव से इस त्रासद संक्षिप्तता को और छोटा कर दे अहले सुबह हवा को पिंजड़े में बन्द कर दे ओस को गिरने से रोक दे खिलने से पहले ही गुलाब को लूट ले जब प्याली में देने को महज़ कुछ घूँट ही हों लालच का पत्थर उसके भी टुकड़े-टुकड़े कर देता है- जीवन का शहद कड़वे-कसैले अनुभव में बदल जाता है सचमुच मौत भी मुश्किल लगने लगती है। आह मैंने जन्नत के वे सारे अफ़साने बार-बार सुने हैं! अनेक मधुमक्खियाँ स्वर्ग का मोह रचते-रचते ग़ायब हो गयीं। अनेक व्यापारियों ने यहाँ का नकद चुकाया यहाँ के अलावे के उधारखाते में। मेरा जीवन क्या है—मेरे पंखों पर बर्फ का बोझ बढ़ रहा है, जबकि अन्दर-अन्दर जीवन भर मैंने ग़रीबी के घावों की सश्रृषा की है। मेरा सूरज, उदास और थका-हारा, अब डूबने को है। मौत की टकटकी कितनी ठंडी होती है! ऐ संगीतकार दिल! अपने साज़ छेड़! अपने डूबने का समय नज़दीक जान कर सूरज पश्चिम के आकाश में फैल गया है। तुम्हारी शादी अभी नहीं मेरी चिंकारा-आँखों वाली लड़की! मेरा बेचारा बेटा, बेरोज़गारी से टूटा-हारा! बरसात के साथ ढहती इस दीवार को देखो और देखो उस बेचारी बिल्ली के विचित्र लगाव को! ऐ दिल! ऐ बेवकूफ़ दिल! बेक़ाबू! मेरी जवानी के दरवाज़े पर दस्तक दो! उसे वापस बुलाओ! मैं रात की गहरी चादर धो कर साफ़ कर दूँगी सूरज के पहनने के लिए किमख़ाब भेज दो और कलगी, उसके सिर पर लगाने के लिए झील में चलते हुए झुमाने वाली तानें छेडो मेरे अहाते में बस पानी से ही हरियाली है। अब अगर मौत को आना ही है तो उसे ज़्यादा समेटना नहीं पड़ेगा- और मुझे कोई परवाह नहीं अगर वे स्वर्ग के सारे दरवाज़े बन्द कर दें। (अंग्रेज़ी से अनुवाद : प्रभात रंजन)

संकेत

सितारे आकाश में मोतियों की माला बना रहे हैं या तुम अपनी लालसाओं की लड़ी बनाती बाहर निकली हो? चाँद ने पहाड़ पर काले बादलों को मात दे दी है- लगता है जैसे पुराना कोई दोस्त तुम्हारा मेरे पास आ रहा हो! सुबह के वक़्त बुलबुलों ने गाना शुरू कर दिया लगा जैसे तुम मेरे लिए मीठी प्रभाती गा रही हो। हवा के झोंके से तरोताज़ा, डाल पर खिला अनार जैसे तुम्हारा प्यार भर दिन आग बरसा रहा हो। झील काँपी, लहरें बेचैन हो उठीं जैसे किसी पुरानी ललक की बेचैनी दिल में उभर आयी हो। लोग घाट पर प्रतीक्षा कर रहे हैं नाव की जैसे दूर गाँव से कोई पुकार सुनाई दे। किसान खेतों में बीज ले कर निकल पड़े हैं- तुम छोटे बच्चे को अपनी बाँहों में झुला रही हो। फेरीवाला आवाज़ लगाता मेरे दरवाज़े से गुज़र रहा है मुझे तुम्हारे नये रेशमी लिबास की सरसराहट सुनाई देती है। बच्चा लटू के लिये रो रहा है- तुम्हारी अपनी बेलग़ाम इच्छाएँ नाच रही हैं? दुल्हन का हँसमुख चेहरा, काजल और कुमकुम से सुन्दर लग रहा है मुझे लगा जैसे तुम यौवन के चमकीले रूप गढ़ रही हो। जब मैंने एक नौजवान को लाम पर लड़ने जाते देखा मैं जानता था तुम अपने बगीचे के दीवार की मरम्मत कर रही थी। कितने अच्छे हैं जीवन के रंगबिरंगे रंग! कितने दिलकश हैं वे संकेत जो तुम मुझसे कहती हो! (अंग्रेज़ी से अनुवाद : प्रभात रंजन)

दुआ

सुनते ही मैंने कहा, शायद शहद की मक्खी भिनभिना रही है। बे-यक़ीन दिल ने कहा, नहीं दूर कोई कच्चे सुरों में बीन बजा रहा है। खिड़की खुली थी...थोड़ी-सी। बहुत ही तंग आँगन, ठिठुरी हुई ज़मीन कि जिसमें धूप से कभी भी मेरी मुलाक़ात नहीं हुई उसी आँगन में मिट्टी की बनी कच्ची निराश दीवार के पार देखा मैंने रौशनी की उस मासूम किरण को जिसे 'जिगर' कह कर बुलाना, बाप कहलाने के लिए काफ़ी नहीं। क़लम लगा रही थी ज़मीन में। बिना किसी खटके के। (मुझे ऊपर से सेब की टहनी लगी) ...लगा रही थी...और जैसे लगाते-लगाते गूँगों को बोलना सिखा रही थी। बाग़ में दाखिल होते हुए मैंने चम्बेली की जड़ों के ऊपर खुरच-खोद कर मिट्टी डाल दी बेख़बरी में, मैंने दुआ माँगी...!

मसख़रा

इस दुनिया में जहाँ हर कोई लल्ला, हुब्बाख़ातून यज़ीद, यहूदा बहती रेत पर नाचने में मग्न पीड़ित होते हुए भी मसख़रा लगे जहाँ हर चीज़ की एक आँख मुस्कराती हुई आँसू बहाती हुई जहाँ अफ़लातून अनाड़ियों का दरवेश लगे जहाँ ज़रतुश्त का आतिश-क़दा पानी उगले; उसी दुनिया में नफ़रत का तेज़ाब चूसना हीरक की क़ै करना सिमरन को सँभाले रखना, तस्बीह को जला डालना आँगनों के बीच सख्त, काँटेदार तार कस देना काले की पराजय और गोरे की जीत शाबाश! अपना ही खून उछाल कर पागल कुत्तों को भड़काते जाओ। (लल्ला, हुब्बाख़ातून=कश्मीर की कवयित्रियाँ।)

शेर और समुद्र

दूध चूल्हे पर आग तेज़ होती जाती चोर को देंगे फाँसी या बच निकलेगा समय यह बेमौसम कहाँ जाओगे? यहीं बैठ जाओ मेरे निकट! आधी रात जब खिड़की बन्द थी द्वार भी बन्द काले कागों ने पर्वत शिखरों के ऊपर भरी उड़ान बहुत लम्बी सड़क पदचिह्नों से उगलता विष हमारी भी माँ हमारा भी पिता तुमने भी पत्तों में से लौ देखी मुझे भी उस पदचिह्न ने डंसा क़ाफ़िला दौड़ा, कोहरा, गुब्बार कभी-कभी मुझे भी खिली घोड़ों की टापों में बिजली कभी-कभी तेरी ऊँटनी ने मेरे खजूर के तनों को छीला समय यह बेमौसम कहाँ जाओगे? शेर के सर के बाल उड़ रहे हैं समुद्र रात्रि दहाड़ता है अभी यहीं बैठ जाओ मेरे निकट! यहीं चिल्लाएँ क्या? कठफोड़वा को ढूँढ़ें ? सर पर नहीं टिकती है चुनरी पकड़े रख अश्रु-बूंदों से खिलती है हँसी खिलाये जा हब्शी पक्षी सरसों के फूलों के बदले अब भोग रहे हैं बर्फ एक... एक... एक यहीं विराजो मेरे निकट! दूध चूल्हे पर आग तेज़ होती जाती। (कश्मीरी से अनुवाद : सतीश विमल)

बात में बात

वातावरण अँधेरे कुँए में चुप्पी ओढ़े एक श्वेत पत्थर हवा खंभे पर रेशमी रस्सी की उलझी गाँठ ध्वनि घोड़ी से आती शेरनी की बू वासना साँप सेब की सुर्थी चाट रहा क़दम धुनकी तले की रूई थोड़ी-सी खोलती आकाशीय आयाम प्रश्न रक्त का उबल कैसे सुलगाये गुलाब? उत्तर छिड़काव से तावीज़ चमके हीरक की धार आदि कंटक-डाली पर खुली धागे की गुत्थी अन्त मृत्यु, वैराग्य, मनोरम मनहर नृत्य क्षण है कि हवा की लचक गवाक्ष में क्षण है कि धातु को काट कर गुज़रेगी पत्ती फूल की भर आयी धरा पर फूटा तारक नभ हर रास्ता चीखा-चिल्लाया 'त-न-ना-या-हू, त-न-ना-या-हू' हाथी की आँखें छलकीं, अंगूरी बेला रस से तर कुत्ते भौंके, चभा डाले चकोरों ने पत्थर के टुकड़े उफनती नदी में हाँफता हुआ दीप पाँचों समुद्रों की लहरें हुईं पुलक कनखींचन से बेंत का पिंजरा टूट गया एक दुधीली हंसनी नीले नभ में अपनी उड़ान पर इतराती मुक्ति की घड़ी कल की लौ-धार आज की हँसी, भौहों का पसीना कल की शीतल छाया चश्मे-सी सिंह-गर्जन, समुद्र का तटों को काटना, ओस का हाँपना सब मिलाकर पत्थर से निकलता हीरा। (कश्मीरी से अनुवाद : सतीश विमल)

उसी कमरे में

उसी कमरे में जहाँ मुझे इतने दिन गये बिस्तर में ठंड झेलते देखी मैंने दिन ढलते समय नन्ही मुन्नी चुपचाप सूर्य की एक किरण द्वार की ओट में सीमेंटी फ़र्श पर कटे-फटे जूते के फुसफुसे फुन्दे उजालते हुए सेंडली काँटों के गर्द में अटे ढाँचे जगमग जगमग होते। (कश्मीरी से अनुवाद : सतीश विमल)

दो कविताएँ

(1) पूरे जंगल को आग ने भस्म कर डाला भेड़ों की चर्बी जली, चरागाह राख हुआ निपट मूर्ख गड़रिये की न साँस रुकती है न उसने अपने नाखून कुतरे। (2) संसार की तोप के मुख पर रखा कबूतर का अंडा हाँ, पर कश्मीरी कवि, संगीतज्ञ गा रहे हैं 'हमारा वतन, सबसे प्यारा वतन' मनुष्य समय के चक्करों में, दन्त-चक्रों में फँसे हाँ, यदि आपका अनुरोध है तो मैं भी मना लूँगा ख़ुद को निशात बाग़ के कोमल पुष्प लिये इतराता आऊँगा। (कश्मीरी से अनुवाद : सतीश विमल)

छबील, नदी के तल में (कआरे दरिया सलसबील)

असली छबील नदी के तल में होती है ऊपर की तह पर तो होती आग बसी -ग़ालिब तेरी ज्वाला भड़कती रहे, बढ़ती रहे प्यास है साँस तेरी गुलाब आँखें तेरी मदिरा मदिरा याद तुम्हें है, उस पठार पर मैंने क़िस्मत में थी जो कितनी रेत खँगाली उँगलियों से मेरी बेकल नज़रों ने तुमको काला संदेश सुनाया था बहुत अविश्वासी है देखो यह अनादि सागर अनजाने में ऐसे ही छल गया मुझे भी खेल खेल में मुझे अंधे तूफ़ान ने घेरा कहाँ जानता था मैं बुलबुल ही हुदहुद बन मेरे सीने को ऐसे कुरेद डालेगी ! संतुष्ट हिरण था एक सघन जंगल में खुली धूप में फूदका करता, और खेलता छायाओं से उसको अपनी नज़र छल गई जब सोते के पानी ने उससे पूछा तू कौन, देखता क्या हैरान नज़रों से ? मन था जिज्ञासु, सवालों की बरछियाँ चुभोता किसके न्यौते पर यह वसंत वल्लरी आई ? क्या लगती चाँदनी सूर्य की ? भुक्खड़ कीड़े को किसने दे दिया गुलाबी कोटर ? कहाँ सिकंदर चला गया, कब्र के अंदर ? फुफकार रहा सागर, उस पर नाव एक निर्बध चले अनजाने माँझी की सोच बहुत है धुंध से भरी जो भी लहर उठे, काटने को दौड़े उभरा जो बुलबुला, उभरते ही फूटा चंचल शिशु का मिट्टी का था एक खिलौना टूट गया दरवाज़े दीवारें उस पर विहँस पड़ीं फाँसी उसकी गर्दन में लगी, आँखें उसकी फूट आई न ही उसे माँ मिली न उसने बापू को ही देखा यहाँ निराशा छाई, ठंडक, वीरानी ने घेरा है कोई अज़ान देने वाला बांगी भी नहीं कि रात को रोशन करता नहीं देवता कोई देवालय को बसाए मन में आशीर्वाद नहीं आँखों में कोई प्रत्याशा हिरण जंगली है पठार पर जाने किसे तलाश रहा न ही धूप में गर्मी है, ठंड़क छाया में नहीं रही नहीं खिला घास का ही तिनका काँटा भी कहीं नहीं फूटा लटकी हुई धूल है प्यासी चारों ओर ऐसे ही धूसर में तूने एक बार फिर जन्म लिया तेरा मन था मेरी ओर खुला-सा, मैंने पहचाना तूने जो ज्यों, वही सेब शाखा से तोड़ा वहीं खु़दाई ज्यों हो मैंने तुम पर वारी यह तूफ़ान नहीं ‘नूह’ के तूफ़ां सा था जिसे पार करने को देते पैसा पैसा हमें पार करना था बस ‘सिरात’ का पुल, अलग अकेले उस पर तुझको नहीं रार थी कोई मुझको भी थी नहीं शिकायत अरे आज हम खेल खेल में कहाँ आ गए मेरे दिल में जनम रहा है आज वासंती कलरव वह बाग़ सलामत रहे बेदाग़ फ़रिश्तों को मेरे लिए बना रहे वह अंगराग सेबों के रंग का तुम पर अब कुछ बाधा नहीं, उठाओ नज़रें सीधी मेरा ‘आदि’ मेहरबान मुझ पर, बस में तेरे है ‘अनंत’ पास वक्ष से वक्ष सटा खोलो रहस्य सब अपने प्यार से सना है आज यह समाँ, खुदाई स्नेह सिंची है तेरी ज्वाला भड़कती रहे, प्यास रहे बढ़ती साँस साँस तेरी गुलाब है आँखें मदिरा मदिरा अनुवादक : मोहन लाल ‘आश’ (वही सेब=पश्चिम एशियाई ‘आदम-हव्वा मिथक में हव्वा ने पेड़ से वर्जित सेब तोड़कर पहला पाप किया था, जिसके फलस्वरूप वह आदम की यौन आकांक्षाओं के प्रति समर्पित हुई थी; सिरात=इस्लामी विश्वास के अनुसार वह नदी, जिसे पार करके ही मृतात्माएँ जन्नत या जहन्नुम में जाती हैं।)

अंधकार में ही खुलता है रहस्य (पय छु जुल्मात् वुज़ान)

कल रात नींद मेरी टूटी, विचारों का धागा भी टूट गया सोच की वन छाया में मँडरा रहे बाज़ को मैंने पहचाना सुलग रहा था चोंच में उसकी आज भी वही ख़ू कबूतर का होता हुआ चोटियों से, झाड़ता जा रहा था पंख खुले आकाश में। सिरहाने पर सिर फेरा मैंने करवट बदली तो गहरा काला खड्डा दीखा टेक लगाकर खंभे से मैं बैठा मेरे सीने में पैठ गया था माघ, होंठ सूखे खिड़की के बाहर कानाफूसी सुनी गिर रही बर्फ़ थी, फाहे ढूँढ़ रहे थे छिपने की जगहें दीवार-दरारों में। भंडार कोष्ठ की ओर चढ़ी ‘फिरन’ की जगह लटक रहा था एक बिलाव अलगनी के ऊपर आँखें मलीं, रज़ाई को अपने ठंडे काँधों तक ऊपर खींच लिया हिल गई कांगड़ी, ऐसे समय गिरी राख ठंड़ी मेरे पैरों के ऊपर तभी सुनाई उल्लू की आवाज़ मू -दू - हू मन देता मेरा साथ उस समय तो मैं जोर से रो पड़ता अचानक याद आया मुझे मरे जिगर का टुकड़ा कल रात कहानी सुनने मेरे पास बड़े शौक़ से आ बैठा था सुनाई मैंने उसे सीपी की दुःख कथा सुनी उसने मगर आधी ही कि मीठी निंदिया ने उसे घेरा- बौखलाया, उठा मैं, बिजली की जलाई बत्ती देखा, कोने में पड़ा सोया था, नहीं कुछ ओढ़ना लेकर अभी फूटी हो कि ज्यों ताज़ा खुम्मी खिल रहीं उसके होठों पर कई सुगंधित कलियाँ बीच माथे पेर, एक बूँद पसीने की हुआ था अरूणोदय सपने में वह शायद देख रहा था आधी सुनी कहानी का शेष भाग शायद बहुत जूझकर आखि़र एक मोती सीप में जन्म चुका था अनुवादक : मोहन लाल ‘आश’

धन्य हो प्रभु! (हमुद)

उसने चारों ओर नज़र दौड़ाई भभक रहा था ओर छोर हीन मरूस्थल हज़ारों लाखों सालों से/लक्ष्यहीन सरोकारहीन जब से धधक रही आँधी में अपनी दिशाहिनता समेट रहा है गिरगिट को अपने होने का हर संभव मर्म आज़माना पड़ा उसकी जीभ के धागे पर उभर आया काँटा भी आग भी जाग पड़ी जठर के साए में- काश कि धुंध ही बाधित करती बूँद भर कहीं दिप उठती कोई कीट कहीं लेता करवट गिरगिट को परखना पड़ा अपना होना अनहोना उसने दिशाएँ आँखों में भर लीं अपने माथे पर उभरे पसीने की नमी आँकी जीभ का प्यासा काँटा भिगोया अपनी ही दाढ़ों से अपनी केंचुल उतार दी और किया आहार धन्य हो प्रभु ! इस अनस्तित्व में भी कोई अस्तित्व बस रहा है किसी को कोई अभाव नहीं खलता। अनुवादक : मोहन लाल ‘आश’

मुक्ति (नजाथ)

गुंबद वाली एक गुलाम गरदिश वह जिसमें जम रही ठिठुरती छायाएँ और पिघलते शैल, सागर को मरूस्थल की लय में बाँधकर सन्नाटे की रात में चिनार की टहनियों पर उद्विग्न सोच का विस्फोट-फाटक३३ गुबंद वाली गुलाम गरदिश कदमः जलते बुझते चिराग़ों की भभक नजरेंः लौ में, लपटों के बीच उड़ रहे भुनगे बढ़ी भ्रांति तो टूट पड़ी अपनी छवि पर काले पारदर्शी पत्थर पर ही मुधमक्खी स्वैरी फ़ौजें सीमा से लौट आई पर रोने लगे पेड़-पौधे हर ओर गुंबद मुझमें गूँज उठा और भँवर नाचने लगे चल रही साँस गुलाम गरदिश की नहीं खुली कोई खिड़की किसी रंग महल की न बजी कोई साँकल किसी प्रेमद्वार की बाहर, नहीं कोई ध्वनि तरंग उठने वाली है भीतर, नहीं कोई स्त्रोत पैरों तले फूटने वाला धूमिल-धूमिल-सा चरखा घूम रहा है प्रभात और दोपहर, मध्याहृ और रात पड़ रहा कदम दर कदम कड़ी में कड़ी अड़ रही गुलाम गरदिश, धूमिल से धूमिल भेंटा छनन छना छन, छनन छना छन स्नेहहीन संगीत अरूप् मुद्र न ‘वाक’ का सा अर्थ न ही ‘वचुन’ का-सा आशय छनन छना छन, छनन छना छन ज़मीन धँसी और ज़ाहिर हुई सुरंग अस्तित्व रे ! सत रे ! असत पा गए !! बधाई है ! यह अधरचा, अधबीच छूटा नर्तक कैसे बन पाता गोदी में सोया सुखसिंचा हीरा कैसे यह बंदी छूटता नहीं यदि होता इसके पाँव तले अविश्वासी यह खड्ड। (गुलाम गरदिश=मुग़ल दुर्गो में मुख्य प्राचीरों और उनके साथ खड़ी अंदरूनी दीवारों के बीच की गली, जिसमें गुलाम पहरा देते घूमते रहते और प्राचीर को दरारों के बीच से दुश्मन की फ़ौज पर नज़र रखते थे। प्रस्तुत कविता में जिन्दगी की बेबस गति की विडंबना के लिए रूपक के तौर पर) अनुवादक : मोहन लाल ‘आश’