हिन्दी कविताएँ : राजपाल शर्मा 'राज'

Hindi Poetry : Rajpal Sharma Raj


शब्द रंग

आज जो उमंग है प्रिय, खेल रही हो तुम होली। लाल, हरे, पीले रंगों से, सुर्ख़ चटखीले रंगों से। वैसे ही, मैं प्रतिदिन खेलता हूं, शब्दों की होली। ये ही गुलाल, अबीर हैं, पानी भी, पिचकारी भी। ये कलम का सामर्थ्य, स्वाभिमान हैं, कभी मानव की लाचारी भी। ये रंग मैंने कभी- प्रेयसी के गालों पे लगायें हैं। पानी में भिगोया है उनको, कितने ही मनोभाव पन्नों पर आये हैं। इन रंगों से बचपन और जवानी खेली है, वस्ल और हिज़्र की कहानी खेली है। प्रिय! ये रंग मैंने लगायें हैं- बच्चों के कोमल हाथों पर, जवानी के जज्बातों पर। पेड़ो को, पंछियों को, नदियों को, इस युग को और बीती सदियों को। मुझे जो मिला मैंने कोशिश की है, उसे अपने रंगों से सींच दूं। मेरी चाह कि एक रेखा आज तुम्हारी सोच में भी खींच दू़ं। मेरे ये रंग कभी गरीबों और ग़मगीनों पे लगे हैं। युद्ध में मरे जवानों के सीनों पे लगे हैं। कभी रोते अनाथ बच्चों, अबला नारियों पर, कभी किसान, मजदूरों की दुश्वारियों पर। लगायें हैं मानव की उमंगों और मजबूरियों पर, जब तुझे न लगा सका तो बीच की दूरियों पर। कभी दिखाए सब्ज बागों, जन्नतों, हूरों पर, कभी घुटती सांसों, बहते हुए नासूरों पर। इसी राह पर मुझे यूवा बेरोजगार मिले, नशे में उजड़े हुए घर-बार मिले। अटालिका के वजन से धसती झोपड़ियां, बारूद से उड़ती हुई खोपड़ियां। अस्पतालों में बीमारों की कतार मिली, कुछ बिन मां के तो कहीं मायें लाचार मिली। मंजर वो भी थे जो यहां बताये न गये, कुछ जगह ऐसी भी कि रंग लगाये ना गये। मैं जैसे-जैसे बढता गया, ये सुर्ख रंग स्याह होते गये। जो खेले जाने थे तरानों के संग, वो मेरी आह होते गये। आज इन रंगों से सब को दिक्कत है, मेरे तो यही रंग हैं और यही हकीकत है। मेरे ये रंग- कभी उमंग जगाते थे, अब हुड़दंग मचाते हैं, कभी विनोद करते थे, अब आक्रोश लाते हैं। पर जैसी भी हो मैंने हर तस्वीर बनाई है, प्रिय! मैंने इन्हीं रंगों से ही होली मनाई है।

मां की प्रतीक्षा

एक पेड़ चिड़िया का डेरा, नव तृण निर्मित नया बसेरा। दो जीवन थे एक नीड़ में, साथ खुशी में साथ पीड़ में। ऊषा रश्मियों में जो गाते, जीवन कलरव आनन्द पाते। हुई कनक की कनक सी बाली, पुष्प पिरोए इक इक डाली। ऋतुराज में तन मन महके, और नीड़ में चुजे चहके। छोटे, नाजुक, मणी रत्न से, चिड़िया पाले बड़े यत्न से। लाख बार आती और जाती, मां का फर्ज वो खूब निभाती। दाना लाते कभी न थकती, नन्ही आंखें रस्ता तकती। सब कर्मों में कर्म बड़ा‌ है, मातृत्व का मर्म बड़ा है। पालन, पोषण, दाना लाना, बुरी नजर से उन्हें बचाना। जब बात बच्चों पर आती है, बाज़ से चिड़ी लड़ जाती है। कुछ गुजरे दिन बादल से छाए, बड़े हुए बच्चे पर आये। वक्त ने पंछी ऐसे उड़ाए, लौट के धर वापस ना आए। बूढ़ी चिड़िया कहां सर फोड़े, किस्मत ने कैसे पर तोड़े। माता जिनको तन से सींचे, चल पड़ते हैं आंखें मीचे। पर आते ही यूं उड़ जाये, पर पीड़ा में काम क्या आये? साथी भी एक रोज खो गया, कितना तन्हा जीवन हो गया। चिड़िया रह गयी बहुत अकेली, भूल गयी सारी अट्ठखेली। बूढ़ी चिड़िया दाना लाती, मोल सांस का खूब चुकाती। पड़े प्रतीक्षा में रंग काले, अब देव आये या जाने वाले।

वो बात नहीं आ पाती है

सुंदर सुमनों की क्यारी में, फूलों की इस फुलवारी में। एक मधुर महक मंडराती है, यौवन की याद दिलाती है। यूं लगे की भंवरे बहकेंगे, ये फूल सदा ही महकेंगे। पेड़ों पर पंछी रहते हैं, क्या मधुर शब्द ये कहते हैं। यहां मधु कामिनी खिलती है, कलियों से शबनम मिलती है। कब कहां कुमुदिनी सोती है, जब निशा चांदनी होती है। हर फूल ये बात सुनाता है, जैसे जन्मों का नाता है। ये रंग सदा ही चटकेंगे, राही के चक्षु अटकेंगे। कुछ कांटों की शैतानी है, लेकिन ये गंध तो आनी है। पर जब कोई तूफां आता है, कुछ शाख उड़ा ले जाता है। तब इन घावों के भरने में, उपवन के सजने संवरने में। फिर एक उम्र लग जाती है, वो बात नहीं आ पाती है।

सावन

नील गगन घनश्यामाच्छादित, तेज तड़ित की दमक उठे। जो संग पवन के द्रुत गति वो, अगले बादल चमक उठे। मेघ उच्च जो श्यामवर्ण हैं, मंद चाल विचरण करते। जीत समर को निकले हों ज्यों, गहरे गर्जन स्वर भरते। ऐसी श्यामल पृष्ठभूमि में, हर एक दृश्य अति सुंदर। हरे-भरे तरु, ताल, सरोवर मानव-रचित ये श्वेत घर। अहा! जल की नन्हीं सी बूँदें, धरती पर इठलाई हैं। अल्हड़-सी छोटी बिटिया ज्यों, नानी के घर आई है। उर अम्बर से धरणी तक इक, श्वेत वसन-सा लटका है। मोहक भीनी महक उठी है, पुष्प-धरा का चटका है। पौधों की कोमल पोशाकें, मोती बूंदें लिए हुए। जैसे सीपी गहरे जल में, स्वाति पानी पिए हुए। एक नदी-सी जलधारा की, इस वर्षा से तेज बही। जलचर, थलचर, नभचर की अब, खुशी न वरणी जाए कही। हर एक घटा घनघोर उठी, हर एक छटा मनभावन। शिव को करता जल अर्पित सा, मेघ-वसन शोभित सावन।

कर्म

सौ वर्षों की बातें सोचें, तब तो व्यर्थ आज की बारिश। आज धरा का रूप अलग है, कल सूरज ये जल हर लेगा। मिट्टी तो कल सूख जाएगी, मेघ आज का, क्या कर लेगा? ये किसलय जो नव रंगों के, कल को पीले हो जाएंगे। अगले वर्ष तक ये घन गर्जन, हर स्मृति से खो जाएंगे। नव मेघों का जिक्र रहेगा, सब जोहेंगे उनकी राहें । उनके लिए गाएंगे पंछी, फैलेंगी धरती की बाहें। तो क्या सच में कर्म मेघ का, व्यर्थ कर्म है ये जल धारा? ये मिट्टी की मीठी खुशबू, ये मयुरों का नृत्य प्यारा? अगर मेघ ये कर्म न करते, अकर्मण्यता में समय गंवाते। आज मिटे जो बरस-बरस के, बिन बरसे ही वे मिट जाते। मिटना सबको है इस जग में, बरस मिटे, बिन‌ बरस मिटे। क्यों रूखा, कड़वे सा जाए, सौरभ, सजल, सरस मिटे।

आत्म संवाद

वैसे तो गुजरे हैं वर्षों एक सफ़र के हम दो राही काट रहे थे रस्ता अपना। करतल कभी मिलें हों पहले, मन कुसुमित दल नहीं खिले हैं। हां, हम पहली ‌बार मिले हैं। उथल पुथल पथ की भ्रमाती कभी न रखा तुझे नजर में मैं पागल मन की ही माना कहना तो चाहती थी तुम भी लेकिन कब ये होठ हिले है हां, हम पहली ‌बार मिले हैं। मैं केवल नहीं साथ तुम्हारे मैं तेरे अन्तर की वासी मैं ही तो वैसे हूं सब कुछ मन के पांच तुरग और देखो मेरे तो ये हाथ कीले हैं हां, हम पहली ‌बार मिले हैं।

ग़ज़ल-मंजूर नहीं जो तुम को ही

मंजूर नहीं जो तुम को ही, छोड़ो ऐसे क्यों ख्वाब करें। तुम क्यों रिस्तों का बोझ रखो, क्यों हम भी आंख ख़राब करें। ये हुस्न-ए-मह तो ख़ूब सही, पर कुछ तो वफ़ा के हैं मा'नी। किस-किस शब को कब-कब आया, इस चाँद से पहले हिसाब करें। इस शहर-ए-गुलिस्तां में जानां, पतझड़ ने पैर पसार लिए। हम झूम के सावन से रोएं, कुछ ज़र्द शजर शादाब करें। हमें जो भी मिला इस दुनियां में, सौ-सौ चेहरों के साथ मिला। अब किस-किस पर्दे में झांकें हम, किस-किस को यां बे-नकाब करें। वो‌ जो‌ भी कहें गुस्सा खा कर, बस सर को झुकाए रखना है। ऐसे नाज़ुक से मौसम में, ये ठीक नहीं कि ज़वाब करें। ये काला है कि पीला है, एक बार जरा तुम पूछ तो लो। अब 'राज' तुम्हें वही कहना है, जैसा भी हुक्म जनाब करें।

ग़ज़ल-किसी का आसमाँ

किसी का आसमाँ, किसी के तारे खा गया, ये शहर चाँद रात के नज़ारे खा गया। ये खा गया वो बाग़ जो जवान थे कभी, गुज़िश्ता बहते दरिया के किनारे खा गया। जवान बेटे पढ़ के फिर न लौटे गाँव को, ये इल्म बूढ़े बाप के सहारे खा गया। बचा नहीं कोई भी ज़रिया जब कमाई का, ज़हर ग़रीब इश्तिहा के मारे खा गया। ख़िताबों में बहुत दिखाए जिसने हक़ के ख़्वाब, सुना है के वो आदमी इदारे खा गया। वो रैल थी कि आग मेरा गाँव ले गई, धुआँ गुज़रने वालों के इशारे खा गया। न बातचीत है न बच्चे खेलते दिखें, बुरा हो, फोन लुत्फ़ कितने सारे खा गया। बदल गया वो दोस्त जो बे-हद अज़ीज़ था, दिए थे कुछ उधार, वो उधारे खा गया।

दक्षिणा रहस्य

अम्बर रक्तिम वर्ण हो चला रथ रवि का अस्ताचल को लौट रहा हलधर का टोला, पुष्ट स्कंध पर धरि हल को गोखुर से उड़ती रज रम्या, खग-मृग सब चले नीड़ को गुरु माता बैठी आंगन में, अभ्यन्तर लिए पीड़ को तभी द्रोण आये कुटिया में दिखी निस्तब्धता छाई गुरु माता इतनी तन्मय थी, आहट तक ना सुन पाई निज नारी देख विषण्णानन द्रोणाचार्य अधीर हुए मन में कर अनर्थ आशंका उद्वेलित, गंभीर हुए हस्त धनु इक ओर रख दिया, निकट किया भार्या आसन अश्रू पूरित कपोल कृपि के, देखा मन दुख का शासन तब निज कर ले दारा कर को, कुरु-गुरु ने दो हस्त गहे "किस संताप संतप्त देवी तुम?", धीरे से मधुवचन कहे कर स्पर्श विस्मित, विकंपित कृपि की कृश कोमल काया ज्यों रमणी पुष्पलता कम्पित, कानन मलयानिल माया "क्षमा नाथ आगमन आपका कैसे मैं ना जान सकी" कह इति वचन अर्घ्य अर्पण को, कृपि तत्क्षण हो‌ गई खड़ी बैठो प्रिय! क्यों विषाद विदिरण आज तुम्हारा मुख मंडल किस पीड़ा प्रदग्ध हुई तुम, क्यों बहता नयनों में जल किस पापी की मृत्यु निकट है, किस मानव की मति डोली "ऐसा कुछ भी नहीं नाथ है" कृपि स्वर मंद-मंद बोली सोच रही, कैसा एकलव्य गुरु भक्ति का था पायक गुरु प्रतीमा चरणों में रह साध रहा अपने सायक कितनी लगन, रत दृढ प्रतीज्ञा, निज साधन पर था निर्भर सीखा उसने वो भी सब था जो अर्जुन को भी दुष्कर गुरु श्रद्धा, जिज्ञासा, चेष्टा, विषय त्याग, एकाग्र ध्यान ब्रह्मचारी, निद्रा निग्रही, कह वेद विद्या विज्ञान विरंची रचित ये अनुशासन, लगन जहां है ज्ञान वहीं एकलव्य सर्वगुण विभूषित, ज्ञान पिपासा उर गहरी ‌ दक्षिण हस्त अंगुष्ठ मांग कर कैसी ये दक्षिणा पायी निर्धन और निर्बोध बाल पर तनिक दया न मन आयी श्रद्धा सुमन सुसज्जित अनुचर देह काट के दान दिया उस एकलव्य अनुगामी पर कैसा अनर्थ हे नाथ किया कोटि धन्य दीक्षा दुर्गम्य, शिष्य अर्जुन-सा धनुर्धर पर मेरा मन उद्वेलित है, आता स्मृति वह रह रह कर पिच्छ किरीट, तन वसन विदिरण, सोष्ठव बदन तनय निषाद दृठ बाहु धनु, वदन विभासित, विवश दृग देते विषाद इतना कह निर्वचन हो गई कृप स्वशा, शरद्वान सुता गगन कलश कर अंधकार ले उडेल रही अपार निशा चमक रहे केवल तारा गण अतिश्याम पटह प्रक्षिप्त स्तब्ध पवन निःशब्द दिशा दस ज्योति स्त्रोत इक दीप दिप्त बीती निशा अभी तीन घड़ी लगता जैसे एक अयन निज नारी सुन‌ वचन करूणमय हुए आचार्य स्तिमित नयन श्वेत श्मश्रु उद्भासित तुषार, कठोर कवच तन मुक्त केश भुज दण्ड कठिन, तूणीर स्कंध, धर मंत्र पूत शर विशेष गई स्मृति समय देशाटन को, अश्वत्थामा छवि छाई पय गोक्षीर अलभ्य बाल को दुर्धर दीन दशा आई पीष्टक पानी मिला पिला कर सुरभि दुग्ध बता रहें है कैसे इस निर्बोध बाल को बाल सखा चिढा रहें हैं स्त्री सहित सुकुमार स्वयं का पांचाल प्रदेश प्रस्थान स्मृति पटल पर टहल गया वो द्रुपद द्वारा मर्दन मान निर्धनता से विवश ज्ञान को मिला जगति में तिरस्कार कांपी स्मरण से श्वास समीर छाया आनन पर विकार दिखा कुरु गृह, भीष्मपिता ने सोंप दिये सब सुकुमार द्रोण रहेगा कुरु कुल कृतज्ञ जागा अन्तर में विचार कौंतेय ने ही गुरु प्रतीज्ञा पूर्ण का संकल्प ठाना श्रद्धा, लगन, सब श्रम साध कर धनुर्ज्ञान को पहचाना हैं प्रिय मुझे मेरे सब शिष्य, लेकिन धनंजय धनुर्धर लाघव कौशल धनु पारंगत, ज्ञाता है दीव्य ब्रह्मशर तनय सुलेखा एकलव्य भी मेरे हृदय जितना पार्थ मांगी थी जो कठिन दक्षिणा, जग खोज रहा उसमें स्वार्थ? यह सोच हुए गुरु द्रोण विकल, चंचल होते द्वि स्थिर नयन एक क्षण उर सव्यसाची है, क्षण द्वितीय सुलेखा रत्न कहीं दूर तभी तरु शाख पर बोला कोई रात्री खग प्रज्वलित ज्योति, कम्पित प्रकाश, मंथर मंथर खुले द्रोण दृग है निशा निस्तब्ध नभ तिमिर तुमुल दीप्त तारागण चलते होले ले स्मिति अधर, कर वल्लभा कर, आचार्य मंद स्वर बोले सुनो कृपि! मैं करता हूं इस ममता को शत बार नमन किन्तु मैंने भी तो किया है निज मर्यादा उचित वहन मैं नहीं चकित उस विद्या से कि श्वान स्वर संधान किया मैं अतिद्रवित अन्तर गदगद जैसे उसने सम्मान दिया जिसके गंगापुत्र पितामह उस अर्जुन को अलभ्य क्या आचार्य स्वयं शरद्वान सुत सुरपति जिससे था डरता ब्रह्मशक्ति जिसको वरण करे कठिन नहीं स्वर भेद बाण एकलव्य की दुर्देय दक्षिणा हेतु थी उसके ही त्राण जब राजकुँवर वन से लौटे पार्थ ने सब वृतांत कहा 'वह कहता है मैं शिष्य द्रोण, गुरु चरणों में नित्य रहा' श्रद्धा उर एकलव्य अतीव मैने जा देखी वन में गुरु सम्मुख विनित विनम्र और कोई भाव नहीं मन में ऐसा एकलव्य अनुयायी, उससे छल हो सकता क्या? शिक्षक क्षेम चाहे शिष्य की, सूर्य रश्मि खो सकता क्या? मैं कहता ‌हूं सत्य वचन क्यों मांगी दक्षिणा दुर्देय सुनो प्रिया! हो प्रशमन शायद तुम्हारा यह प्रदग्ध हृदय निष्कपट नहीं हैं कुरु नंदन अभ्यंतर धृणा अनंत दुर्योधन राजतिलक चाहे एवम् पांडव पुत्र अंत दुर्योधन की दुर्बुद्धि यही देख रहा हूं छाएगी वो दिन दूर नहीं जब कोई विनाश विपत्ति आएगी एक ओर धनंजय, युधिष्ठिर, बलवान भीम अति शक्तिघन एक ओर धृतराष्ट्र पुत्र शत कुरु दुश्शासन, दुर्योधन सबने देखा ही तो था वह रंगभूमि में क्रुद्ध कर्ण क्षिप्र हस्त, दुर्योधन मनहर, नित चाहता कौंतेय मरण आए हैं भू भार हरण हरि, माधव सुदर्शनचक्रधर पापी का नाश करेंगे ही अद्भुत कोई लीला कर नियति गति मैं देख रहा हूं महाघोर इक होगा रण चारों ओर काल का तांडव वीरों का चहु ओर मरण सहस्त्र सम्मुख शक्ति से शक्ति, उगलेंगी ज्वाला प्रचंड मुद्गर, मुशल, गदा, शूल, खड़्ग, मल्ल युद्ध प्रबल भुज-दण्ड रथी, महारथी, अश्व, कुंजर अति विशिष्ट व्युह संरचना समर भूमि रही रक्त पिपासु नीति, अनीति, छल, वंचना भीष्म, द्रुपद, कर्ण, शल्य जहां विराट, जयद्रथ जाएंगे वहां एकलव्य जैसे बालक कहां मान फिर पाएंगे शब्द भेद विद्या से केवल जीता जा सकता नहीं समर आग्नेय, ब्रह्मशक्ति, पर्जन्य, वह्नि विच्छुरित करते शर ऐसे वीर भी हैं धरती पर रखते निषंग तीन बाण किन्तु चराचर में द्रोही के स्मर्थ हत करने को प्राण माना बनता वो एकलव्य वीर धनुर्धर अतिभारी पर माधव से बचा नहीं था कालयवन सा वरधारी धनुधरों के भार से अब तो धरती ये अकुलाती है अपने युग में कुछ ही योद्धा संसृति हृदय लगाती है श्री न वरण करती एकलव्य जान गया था इस रण में पर मैं चाहता था शिष्य की रहे चमक रज कण कण में इसीलिए मांगा अंगूठा विचारित दक्षिणा प्रसाद अमर रहे वह हिरण्यधनु सुत, रहे ज्योति नित निर्विवाद एकलव्य का अंगुष्ठ दान, प्रसिद्धि वो पा जाएगा शीश कटा जो महायुद्ध में धनुर्धर नहीं पाएगा‌ ये मत सोचो अहित किया है, कुकृत्य किया है अनय का देखो गुंजित नाम आज है, निषाद सुलेखा तनय का

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