हिंदी कविताएँ : राजकुमार जैन राजन

Hindi Poetry : Rajkumar Jain Rajan

1. समर्थन

यह जो मील के पत्थर
महज पाषाण नहीं है
गति है, लय है
हमारे चलने के साथ
जीवन के साक्षी भी बनते हैं

जीवन में कुछ पल
अपने अस्तित्व बोध में
ऐसे भी होते हैं
जिनमें हम बुद्ध बन जाने को विवश होते हैं

खामोशियों में ही
मन के सुने गांव में
शब्दों को अर्थ बदलते हुए देख
दिशाहीन इस जीवन में
विक्षिप्त-सी यह काया
कंधों पर चढ़कर
पहाड़ों को रौंदने का समर्थन करती रही

मील के पत्थर को साक्षी मान
असहायता से अतृप्त
मुट्ठियाँ मुड़ती है अपने आप ही
भींचने लगती है
आंधियां इसी तरह उठती है
और न जानें कितने हिस्सों में
बंट जाता है व्यक्तित्व

आंधियों को मिटने दो
कोई तो दिन होगा
जो हमारी मुट्ठी में होगा
प्रकाश देगा ।

2. सपनों के सच हो जाने तक

कई सपने
बांध कर रखे हैं
जीवन की कुटिया में
रौशनी की छाँह तले
जिसमें संजो रखा था हौसला
नव उत्कर्ष के लिए

पानी के बुलबुलों -सी
उठती हैं छिटपुट स्मृतियां
क्या होगा कविताएं लिखकर
जिंदगी के अहम सवाल जब
शब्दों में ढलते ही नहीं
अक्षरों की कैद से
अर्थ कतराते हो जहाँ

उठो,
बंधे हुए सपनों को
आज़ाद हो जाने दो
मौसम को करवट लेने दो
मुरझाये चेहरों पर
सपनों के इंद्रधनुष तराशो
आशाओं का सूरज उग जाने तक

अतीत की वादियों में भटकता हुआ
मौसम बेअसर
और उग आए हों पंख पैरों में
उम्मीदों के शिशु थामे हुए
चलते जाना है...चलते जाना है
सपनों के सच होने तक!

3. बदली मंजिल

लिखना चाहूँगा
तुम्हारा इतिहास
अतीत से जुड़े पलों को
कुछ इस तरह पत्थर पर उकेरूँगा
कि तुम आज भी हो मेरे अहसासों में

मन के रेगिस्थान में
कुरेदे गए मेरे जख्मों को
तुमने ही सिया था प्रेम के धागे
और विश्वास की सुई से
मैं पिघलता रहा पल दर पल
तुम्हारे समर्पण से

तुम्हारे हर सवाल का जवाब
मेरी आंखों में था
और तुम
जमाने भर का दुःख ओढ़े
करती रही इंतज़ार
अपने अस्तित्व बोध में

छन जाता है सुख
समय की छलनी में
साथ चलते चलते
अचानक तुमने दिशा मोड़ ली
रास्ता बदल लिया
मुझे भ्रमित कर
और मैं व्यथित, थका हुआ
बैठा हूँ
रेगिस्थान- सी चिलचिलाती धूप में

कब तुमने शामियाना उठा लिया
और चलती बनी
न जाने किस मंजिल मानकर
रास्ता तुमने बदला था
मंज़िल मेरी भटक गई।

4. उम्मीद का छोर

अहसासों को
अंजुली में भरकर
थामे रखने की कोशिश
हाथ से रेत की मानिंद फिसलती है

औरत- पुरुष के सम्बंध
रिश्तों की खूबसूरती
इस जहान की पूर्णता है
ये रिश्ते दुनिया में
सुगन्धित, शाश्वत माहौल
का सृजन करते हैं

आशा भरे सपने
संजोये औरत इस जहान में
उम्मीदों से भरी
आत्म सम्मान की अभिलाषा लिए
सर्वस्व समर्पण करती है
सृष्टि के लिए

मतलबी दुनिया
उसे देवी कह
बहलाती है, पूजती है
सृष्टि की सृजक के सम्मान से
नवाजती है
वही दुनिया
औरत के साथ
ख़ौफ़नाक हादसे करती है
तब मानवता शर्मसार हो
रोती है

आशा थी कि औरत को
उसका सही स्थान मिलेगा
उसकी बांहों में होगा आकाश सारा
बदलेगी उसकी भी तकदीर
एक दिन
आएगा सुनहरा दौर भी

मुक्कमल जहान पा भी लिया
पर कितनी कीमत चुकाती है वह
पल -पल
भूखे भेड़ियों से उस
पर टूटते है वही मनुज
जिन्हें वही तो जन्म देती है
अपनी कोख से

औरत को देवी नहीं
इंसान ही रहने दो
ताकि उसकी भावनाओं को
दबाया न जाये
मर्यादाओं की सख्त जंजीरों में
झकड़ा न जाये
उसे उड़ने को खुला आकाश दें
दे सकें तो उसे सही-गलत की तालीम दें

आज भी हम
औरत की उम्मीदो के
उस छोर से कितनी दूर हैं
उसकी हस्ती यही रही कि
वो अपनो पर मिट गई
पर अपनों ने उसको मिटा डाला।

नहीं, अब और नहीं….।

5. अनाम रिश्ते

भावनाओं में बुना
एक दर्द
जो सालता है
धीरे-धीरे मुझे
वक्त, उम्र और सम्वेदनाओं
के द्वार पर

दूरियों को पार कर यह मन
तुम तक पहुंच ही जाता था
बार बार
खुशी मिलने, सपने बुनने
आत्मीय अहसासों के
बनते बादलों
और सम्बल बनने के वादों को
फलते- फूलते देखने के भरम में
सच समझ
कुलाचें भरता रहा मन
मृग- मरीचिका-सा

ख़ुशियों का ताना -बाना बुनते
यौवन के कंधे चढ़ आया
मन के किसी कौने में छिपा प्यार
मुझे शापित कर गया
खुशियों को ढहा दिया
रेत महल की तरह

सच ही तो कहा था
उस महापुरुष ने-
जीवन के रेगिस्तान में
भटकते-भटकते
मिट जाओगे
कस्तूरी पाने के भरम में

यह जीवन
ये अनाम रिश्ते भी तो
नदी के दो किनारे हैं
जो साथ- साथ चलते हैं
बंधे हुए हैं
अपने -अपने गुरुत्वाकर्षण से
फिर भी दोनों के बीच
खालीपन है
धरती और आकाश के मिलन की तरह
जो दिखते तो हैं, पर
कभी मिलते नहीं !

6. पीड़ा का उत्सव

सुन दोस्त!
मौसम बदल रहा है
हमारे संघर्ष की धार
पैनी हो रही है
सूर्योदय की प्रथम किरण के साथ

कब मिलेगी जिंदगी
हम खोजते रहे
एकाकीपन की छाया थी
मानस के सूने अम्बर में
समय की धार से जब भी
पहाड़ की तरह टूटना पड़ता है
सपनों के कटाव से
एकएक सैलाब
मेरे भीतर भी बहता है
नई क्रांति उगाने के लिए

मन के सुने गांव में
पतझड़ को देकर विराम
संकल्पों का इंद्रधनुष
मेहनत का पानी
और जुगनू जैसी चमक
राह दिखा देती है

अपने पदचिन्हों को देखते हुए
आनन्दित होता हूँ
और अपनी पीड़ा का उत्सव मनाता हूँ
जीवन के सफर में
खुद से खुद की लड़ाई
जितने के लिए

7. नया उत्कर्ष

मेरी आँखों में
उतर आया है एक चाँद
व्यस्तताओं के बावजूद
यादों के मौसम को तलाशते
जीवन की जगह जलन
और प्रगति की जगह
भटकन ढ़ोता हुआ

जिंदगी देने की कोशिश में
इतने मिले ज़ख्म कि
रिसते है घाव आज भी
अरसा बीत गया
संवेदनाएं चुप हो गई
अभिव्यक्ति भी मौन हो
बिखर गई
अपनापन सब खो गया
डरा-डरा सा अंतर्मन
सिहर उठता है बार- बार

बहुत दिनों बाद
मेरी जीजिविषा ने
मेरे उगते हुए सपनों के
अहसास को छुआ
मन के समंदर में
आशा की पतवार थामें
गंतव्य तक पहुंचने की चाह में
अपने अस्तित्व को खोजता
बढ़ चला

रिसते हुए घाव
मेरी तरफ देखकर मुस्कराए
संवेदनाएं चेतन हो उठी
सुख गया था जो दुःख का बिरवा
बहुत दिनों बाद
फिर हरियल होने लगा
हौसलों की सर्थक हवा
और मेहनत की दिशा पाकर

विश्वास बांहें फैलाकर
स्वागत कर रहा
फिर नये उत्कर्ष का!

8. खोज

खोजता हूँ
आसमान में कहीं
सम्वेदनाओं के वो बादल
जो बरसे तो आ जाये
पतझड़ में सावन
छा जाए प्यार का मौसम
हमेशा -हमेशा के लिए
सम्वेदना से शून्य
इस भाव भूमि पर
उगने लगे
परम्परा, संस्कृति और संस्कार
की फसल

खोजता हूँ
किसी मरुस्थल में
अमृत जल का ऐसा झरना
जिसका जल कर दे
बेजान तन, मन को तृप्त
मौन की दीवारें गल जाएं
और जंग लगे रिश्तों में
मुस्कराहट छाये
दिलों में महकने लगे
आशा की किरण

खोजता हूँ
धर्म सभाओं में
गुरुओं की ऐसी वाणी
जो दिशाहीन इस जीवन को
नव विहान दे
ऊंची हो गई स्वार्थ की दीवारों को
पिघला दे प्रेम की ऊष्मा देकर
पुलकित हो जाये जीवन!

9. भाग्य

जिंदगी
खण्ड- खण्ड होती
संस्कृति की चित्कार
फैलने लगता है भीतर ही भीतर
ज्वालामुखी

कीचड़ में धँसते जा रहे
रथ के पहिये को
कर्ण द्वारा निकालने का प्रयत्न
जैसे दोहराया जा रहा हो
फिर से
पुरुषत्व का दस्तावेज

चक्रव्यूह के सातवें द्वार में
उलझे- जूझते
अभिमन्यु-सी स्थिति है
या सम्मोहन के आवेश में
लिपटा
एक भयावह सच
अपना वजूद फैला रहा है
और हम
मूक दर्शक बने हुए हैं

मील के पत्थर
हजारों गिन चुका हूं
क्रूर विपदाओं के आक्रोश में
मेरा टूटता बिखरता व्यक्तित्व
समय के तनावों को भोग रहा है
जीवन ऐसे ही चक्रवात में फंसा है

अस्फूट स्वर…
भावना कब मनुज को
मुक्ति देगी
जिंदगी की मृच्छकटिका
कौन जाने कब रुकेगी

भाग्य पटकता है
पछाड़ता है बार-बार
और हरबार अपनी दृढ़ता में
खड़ा हो जाता हूँ
शरशैय्या से बिंधे भीष्म-सा।

10. निराश नहीं है वह आदमी

अनाज मंडी में
कंधे पर बोरियां ढोता
बीड़ी के कश से धुआं उड़ाता
पसीने से तरबतर
वह आदमी
अपने सपनों के खो जाने से
निराश नहीं है

उसे दिखाई देती है-
टूटी खटिया पर लेटी
खांसती हुई बूढ़ी माँ की
दवा की खाली बोतल

वह देखता है
अपनी सयानी हो रही मुनिया को
जिसकी आंखों में पलने लगे हैं
भविष्य के सुहाने सपने

फट गई किताब और टूटे पेन को
बदलने की जिद करते
थक कर सो गया प्यारा मुन्ना और
करवट बदलते हालात

लोडिंग गाड़ियों के हॉर्न
अनाज के ढेरों पर बोली लगते दलाल
नोट गिनता मुनीम
और हँसते - खिलखिलाते जमींदार
उसके उदास क्षणों को नहीं देख पाते
नहीं पहचान पाते
उज़की सिसकती आत्मा को

नोन, तेल,लकड़ी की चिंता
वह फिर बीड़ी के कश में भुला देता है
जिजीविषा उसे
ज्यादा बोरियां ढोने को
मजबूर करती है
ख्वाबों के झोंके खो जाते हैं
भूख और रोटी की जंग में

निराश नहीं है वह आदमी
जिंदगी से
न कोसता है कभी विधि के विधान को

अपनी प्यारी आंखों से
अपने दोनों हाथों को देखता है
फिर पूरे जोश से ढोता है
एक नई बोरी
कुछ नए सपनों के साथ।

11. नई पीढ़ी

सुबह से शाम तक
यंत्रवत्त
कम्प्यूटरों में दिए सिर
जिंदगी की मृगमरीचिका में
भटकते रहते हैं
यश और धन की चाह में
आज के नवयुवक

दर्द के सरोवर में
एक एक अंग से निकलती है
अतृप्त इच्छाएं
की-बोर्ड और माउस से
करती रहती जो अटखेलियां
जीवन संग्राम के लिए

दर्द तो जागता रहता है
अंधेरी रात में उल्लुओं की तरह
लेपटॉप, मोबाइल पर फिसलती
अंगुलियां बुनती हर पल
कोई सुनहरा ख्वाब

स्क्रीन पर आंखें गड़ाए
रचाई गई इस छद्म दुनिया में
तैरता - उतराता
आहत, चिंतित होता

साइबर दुनिया ने लील लिया
इस युग की
नई पीढ़ी को!

12. नये युग की वसीयत

मुर्दों की भीड़ में
अचानक हलचल हो गई
एक उठकर चिल्ला पड़ा-
'बिके हुए ईमान
न्याय पथ से डिगा हुआ धर्म
जहां रक्षक ही भक्षक बने
परीक्षक बिकाऊ
रिश्तों की पावनता पर लग गई नज़र
खो गया है सत्य कहीं
समय हुआ बहरा'

किससे कहता अपनी व्यथा
फैल रही इन विद्रूपताओं
और
कर्जदारों के डर से
मैंने अपने आप को
मुर्दा घोषित कर दिया

हाँ, मैं मुर्दा नही हूँ
मैं जिंदा हूँ
मैंने सिर्फ एक ढोंग रचा था
नये युग की इस वसीयत से
बचने के लिए
ओ दुनिया वालों
क्या तुम्हें मालूम नहीं था
जैसे तुम भी
जिंदगी से लाचार
मुर्दा होने के बावजुद
जीने का रचते हो ढोंग??

यह अर्थयुग का है चमत्कार
जहाँ कर्ज़ सिर पर
हाथ गिरवी
पांव घायल
सांस रोगी
मन मरा -सा
आंख व्याकुल बन गई

धोखा यहां परम्परा
झूठा गढ़ा इतिहास ही अब
हमारी संपदा है

क्या मान्यताओं की झूठी लक्ष्मणरेखा
अब टूटेगी
मुक्त होंगे इनकी कैद से हम
उग रहा है नया सूरज
नया प्रकाश फैलाने को!

13. पीड़ा

तुम्हारे प्यार की आँच में
सीधे- सीधे ही
पूर्णता पा लेना चाहता था
पूनम के चाँद- सा

वक्त से आये फासले
नहीं भूले हथेलियों की गरमाहट
खामोशियों में ही
जिंदगी बसर होती रही हमारी

कभी कभी
जज्बात के ताने- बाने समेट कर
नर्म, रेशमी, मुलायम चाँद जैसे
सपने बनता
तो कभी
समय की उधेड़बुन में
अपने लिए स्वयं ही चुनता दर्द
कुछ दर्द बहते नहीं
दिल से
रिसते रहते हैं किरच- किरच

समझनी पड़ती है
उम्मीदें और परेशानियां भी
किसी असम्भव को संभव करने की
किसी हमदम की ख्वाहिश
पूरी करने के लिए
टूटना, बिखरना भी अच्छा लगता है

तुम औरत थी
औरत ही बनी रही
मैं पुरुष था
पुरुष ही रह
न तुमने कदम बढ़ाया
न मैंने रेखा पर की

देह का अभिमान
और मन का दरकना
प्रतीक्षा अन्तहीन
भोग रहा पीड़ा
समय की!

14. बाढ़

टूटी हुई खिड़कियां
हवा की हर आहट पर
शोर मचाती है
बेशर्मी के साथ खड़ा नँगा दरवाजा
मेरे अभावों का उड़ाता है मज़ाक

अभावों की रेत और
गरीबी की मार
कभी भी घायल कर सकती है मुझे
क्योंकि प्रकृति ने भी
मेरे साथ धोखा किया है
दुःख के झंझावात में
जलती रहती है अंतड़ियां
परत दर परत
अंधेरे को घूरती है भूख

उस काली रात
आये तूफान व बाढ़ ने
उजाड़ दी मेरी जिंदगी की झोंपड़ी
और फैला दी है
मेरे आस- पास
आँसुओं की बाढ़
अब मैं मजबूर हूँ डूबने को

मन की अथाह पीड़ा को सहते
घने अंधेरे के बाद
सुबह सूरज की रौशनी
जीने का हौसला फिर बढ़ा देती है

एक नन्हीं चिड़िया
अपनी चोंच में छोटा-सा दाना दबाए
आंगन में फुदकती
सुबह की शुभकामना देती है
डूबते हताश मन को
एक नया हौसला मिलता है
जिजीविषा फिर जाग उठती है।

15. प्रश्नों की परछाइयाँ

सिमटते जा रहे हैं दिल
और……
जज्बातों के रिश्ते
जिनके परिभाषित हो जाने पर
अकारण का आरंभ
असमय का अंत
दोनों ही व्यर्थ हो जाते हैं
सौदा करने में जो माहिर है
बस वही कामयाब है

हमारे आस- पास भटकते
शब्दों के बादल
टेडी - मेडी आकृतियों से
बिछ जाते हैं
मरुस्थली सन्नाटों में
मुझ तक आकर लौट जाता है
तब-
प्यार का लहराता समुद्र

अपनी अतल गहराइयों के साथ
द्वेष का दावानल थामें
प्रश्नों की परछाइयाँ
पांवों में लिपट जाती है
एक बेसहारा, कमजोर
लता की तरह
हवा के हर प्रहार से
झुक जाती है
कभी टूट जाती है
कितना कठिन है
उन हालात से पार पाना

विवशता की ये चरम सीमा
भले ही भीतर तक
तोड़ना चाहती है
गाहे-ब-गाहे
जीवन के खेल में
पराजित भी कर जाती है
जाते-जाते कितने प्रश्न
उछाल जाती है
विचलित से इस संसार में
इंसान को जूझना और जीतना भी
सिखा ही जाती है।

16. सम्वेदनाओं की फसल

मैं पी लेना चाहता था
सारा का सारा समुद्र
उसके खारेपन के बावजूद
किंतु
अपने मे ही पराजित हो
मृदुजल की एक बून्द भी देना
तुमने ठीक नहीं समझा

गुजरता था मैं
झूठे वायदों और
आश्वासनों के बीच
आक्रमकता की
खुली खिड़कियों से
झांकता क्रूर चेहरा और
उसकी एक जोड़ी उदास आंखें
बराबर मेरा पीछा करती

स्वार्थ की की कुचियों से
रंग देना चाहता था वह
अम्बर को
नफरत के कई शेड्स में
और बोना चाहता था
सम्वेदनाओं की फसल
कुछ चिंगारियां
सुलगना चाहती थी
रात्रि के घोर अंधियारे में
जगमगाते हुए जुगनुओं ने
अंधरे के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी
और इस तरह कई घर
उझडने से बच गए

जमाने भर का दुख ओढ़े
डाल दी हंसी की सांकल
मेरे भीतर का समुद्र
सूर्योदय की
प्रथम किरण के साथ ही
समय से हारे मूल्य
और मान्यताओं के कोढ़ को
बहा ले जाएगा
उत्तुंग लहरों के साथ।

17. मानवता का पुनर्जन्म

आत्मा के अंधेरे कोनों में
चेतना की लौ
कहीं धुंधली हो गई है

मंदिर में बज़ते
ताल मजीरे के स्वर
कुछ पीड़ा देने लगे हैं
पत्थर के भगवान भी तो
कुछ देखते - सुनते नहीं
हमें तो जो रिक्त - तिक्त
जीवन मिला है
उसे हम जी रहे हैं
और कभी आँसू
कभी धुँआ पी रहे हैं

धर्म, नीति, आदर्श, आस्था
प्रेम और प्रेरणा
खोखले शब्द हे मात्र हमारे लिए
जो गूंजते है यदा -कदा
मन के सुने खंडहरों में
समाज की उझाड़ घाटियों ने
राजनीति के बीहड़ जंगलों में
पर इनसे मिलता नहीं
कोई अर्थ, कोई हुलास
सिर्फ एक स्वार्थी आवाज़
जो हमें बना देती है उदास

आंखों में उभर आता है
महाभारत का एक चित्र
कुरुक्षेत्र, युद्ध, चक्रव्यूह
और अभिमन्यू का अंत
आज भी जिंदा है
कई अभिमन्यू
जो हर लड़ाई
अकेले ही लड़ते हैं
व्यूह भेदते हैं और
असमय ही मर जाते हैं
पर
यह हमारा आत्म हनन नहीं
चिंतन - मनन है

निर्वासित कर दिया गया है जो
अनुत्तरित प्रश्न
वही जागरण की भोर बन
उभरता है
फूल बन खिल जाता है
सूरज बन चमकता
मानवता का जैसे
हो गया हो पुनर्जन्म।

18. अंधकार के बीज

ज्योतिपर्व पर
जला रहे हो पीड़ा के दीप
लील चुका है तम
परम्परा, संस्कृति और संस्कार

ज्योति - पर्व के अस्तित्व बोध में
अंधकार से लड़ना चाहते हो
तो आओ
जलालो अपने भीतर की मशालें
संजो लो अंतर्मन में
अस्तित्वबोध का दीप

मन मे जब जलती हैं मशालें
तब खुद ब खुद बदलने लगती हैं
इतिहास की इबारतें
कटने लगती है संम्वेदना की फसल
अपने अभिमान में
खण्ड -खण्ड होते आदमी हो तुम
समय के चित्र फलक पर
गलत तस्वीर मत खींचो
ज्योति पर्व पर
अंधकार के बीज मत बोओ
तुम्हारे भीतर
एक सर सब्ज़ बाग है
उसे सींचो
जो प्रकाश मौन और
म्लान हुआ है
देवदूत की तरह
अंधकार को काटो

तुमपर समूचे भविष्य की
आस्था है
और जिंदगी
महज़ अंधरे का घोषणा - पत्र नहीं
रूप है, रस है,गन्ध है, उजास है
आदमी आत्मा का छंद है।

19. ऐसा एक दीप जलाऊं

हर बरस की तरह
स्मृतियों को स्पर्श करती
चुपके -चुपके
आएगी दिवाली की रात
देने अंधकार को फिर मात

इच्छा है इस दिवाली
जलाऊं एक ऐसा दीप
जिसकी बाती मिटे नहीं
जिसका तेल कभी रीते नहीं
और वह अखंड दीप
प्रकाशित करता रहे
दिल की धरती को
मौन से गहराते
नीरव अंधियारे में
हमारे भविष्य का उजाला है

स्वार्थ, असहिष्णुता से
लकवाग्रस्त हुए
अपाहिज समाज में
हर चेहरे के पीछे
एक शैतानी चेहरा है
हर एक 'राम' के भीतर
छिपा है एक 'रावण'
जिनसे दरक रही है
इंसानियत

अंधेरे का हाथ थामकर
फिर एक दीप जलाऊं
जिसका प्रकाश करे
प्रेम का ऐसा अंकुरण
प्रस्फुटित हो जिससे
और यह दुनिया
फिर से प्यारी लगने लगे

जिजीविषा फिर कहीं
हार नही माने
फिर किसी स्त्री की सिसकियाँ
विडम्बना न बन जाये
नीरव अंधकार में
बहे रस की धार
ऐसा एक दीप जलाऊं

20. समाधान

पीड़ा के दस्तावेजों पर
फिर मौन ने
हस्ताक्षर कर दिए
और
हसरतों की आँच पर
उबलती जिंदगी
बनकर रह गई
किसी सूखे वृक्ष के
ठूंठ की भांति जहां
कभी नहीं उग पायेगी
ख्वाहिशों की नवीन फसलें
संघर्षों के ताप से
जिंदगी मोम की तरह
पिघलती रहती है
दांव पर लग जाती है
इंसानियत
किस - किस से कहता फिरूं
अपना दुःख
चलते - चलते
सूरज भी हारा
सारी उम्र लगा दी माँ ने
तब जाकर इंसान बना
पावन गंगा जल -सा
जरूरत नहीं थी
संयोगों के जुड़ने की
बारिश में जैसे
रेत के घर का बिखर जाना
सिसकियों में
दरकता रहता हरदम अक्स
वक्त की सिलवटों में
उभर आये हैं
स्वप्न जीवन की प्रगति के
सवाल बस
समाधान का है
यह संकट इस सदी की
जिंदगी का है
स्मृतियों की घाटियों से
उगने लगता है एक सूर्य
फिर समाधान का
संत्रास में जीता मन- पंछी
पंख फड़फड़ाता है
आसमान की किताब पर
स्वर्णिम अक्षरों में लिखता है
खूबसूरत होने की उम्मीद!

21. उदास शहर

याद है मुझे
वह खुशहाल दिन
डाल दिये गए
मेरे जीवन की गुल्लक में
शुभकामनाओं के
खनकते सिक्के
और बांटते रहे
हर पल हंसी
जिसमे खोजनी है मुझे
संवाद की पगडंडियां
इस विकल्पहीन समय में
उदास पड़े शहर में
हर तरफ छिड़ी है
अस्तित्व की जंग
पता नहीं
शब्द क्यों मौन हो गए
शीशे के घरों में रहने वाले भी
पत्थर की जुबान हो गए
कितनी खाली -खाली
हो गई आत्मा
रची जाती हरदम साजिशें
घोल दिया जाता
अफवाहों का जहर
जैसे पड़ जाते हैं
उसकी रूह में छाले
शुभकामनाओं का
भार ढ़ोते
बांटते रहे
तजुर्बों के इश्तिहार
सद्भावना और संवेदनाओं से
देते रहे एक सम्बोधन नया
विश्वास, प्रेम, सहिष्णुता
बिंधते रहे गीत प्यार का
उदास शहर के
अभिशापित प्रहरी
उड़ चले परिंदों से
सुना है शहर फिर से
मुस्करा रहा है।

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