हिन्दी कविताएँ : पूरन मुद्गल

Hindi Poetry : Puran Mudgal


इतिहास

वक़्त की रेशमी रस्सी मेरे हाथ से फिसल रही थी इतिहास का घोड़ा उसे विपरीत दिशा में खींच रहा था तुम्हें यह कितना बड़ा मज़ाक़ लगता था जब मैं उसे अपनी तरफ़ खींचता था रस्सी का छोर छूट गया और इतिहास से मेरा रिश्ता टूट गया दरअसल वह मेरा इतिहास था ही कहाँ! उसे तुम लिखते रहे और हर पृष्ठ पर मेरे हस्ताक्षर करवाते रहे। तुम ने सूर्य-वायु-अग्नि की पूजा का आदेश दिया मैं उनका स्तुति-गान करता रहा। तुमने उन शक्तियों के नियंता की बात कही मेरा सिर सिजदे में झुकता रहा। तुमने राजा को दैवी अधिकार दिए मैं गर्व से सैनिक बनकर धरती को अपने ख़ून से रंगता रहा। तुम ने मुझे प्रजातंत्र दिया— मैं मतदाताओं की क़तार में खड़ा हो गया शीघ्र वह क़तार राशन की क़तार में बदल गई… इतिहास को पलटने की आदत है— इतिहास का अश्व लौट आएगा मैं फिर से रेशमी रस्सी को सम्भालूँगा क़तार में खड़े लोग उसे अपने हाथ में थामेंगे। अब मैं ख़ुद इतिहास लिखूँगा तुम उस पर हस्ताक्षर नहीं करोगे उस पर नत्थू और अब्दुल की मोहर लगेगी। लेकिन अपनी गवाही दर्ज करने से पहले वे/इतिहास के पृष्ठ को सूँघकर देखेंगे/कि उससे वह गंध आती है या नहीं जिसे उनकी कमीज़ पर बने पसीने के सफ़ेद निशान हर रोज़ चारों तरफ़ बिखेरते हैं!

एक चिड़िया उसके भीतर

कैसे रहे होंगे वे हाथ जिन्होंने चिड़िया का चित्र बनाया बहुत बार उड़े होंगे / आकाश की ऊँचाईयों में कितनी बार सुनी होगी चिड़िया की चहक बच्चे की तुतली मिठास में और सारी उम्र किया होगा चिड़िया-सा घोंसला बनाने का जतन उड़ती चहकती तिनके चुनती घोंसला बनाती चिडि़या घोंसले से गिरते कुछ तिनके वह उठाता सहेजता और करता रहता चिडि़या-सा घोंसला बनाने का अभ्यास क्योंकि रोज़ आ बैठती एक चिडि़या उसके भीतर ।

क़िताबी पनघट

क़िताब में रंगीला पनघट था छोटी-लंबी डगर और गोरी सिर पर घड़ा उठाए घड़े पर चित्रकारी सब कुछ सजीव बस पानी नहीं था पुस्तक के पन्नों के भीगने का डर था ।

खजुराहो कथा

खजुराहो की उम्र उतनी जितनी धरा पर आदमी की सृष्टि के आरंभ से मन में मनसिज बन व्याप्त रहा खजुराहो जब तक नहीं उकेरा गया पत्थरों में ! मानुष ही जहाँ अनेक रूपा कंदर्प महादेव न पुजारी की घंटा ध्वनि न ही कथा व्याख्यान देह का निर्व्याज आख्यान मूर्तियों में शिल्पित अनंग-राग स्वरों की मीड़ का रोमांच एक अनहद संगीत आराधक स्वयं बना आराध्य देव योग का चरमोत्कर्ष ययाति के सपनों का अनुवाद! आदमी पढ़ता पवित्र पुस्तकें नाना धर्मों की किंतु बाँचता बिना पोथी देह धर्म की खजुराहो कथा !

जीवाश्म होने तक

तुम मोहंजोदड़ो हो गए तो क्या हुआ वक़्त ने धूल के दुशाले डाल दिए तुम पर इससे क्या ! वर्षों तक मैंने तुम्हारा पीछा किया तुम उठे तो- किंतु संवाद की कोई नदी हमें छूकर नहीं गुज़री- तुम्हारे साथ दफन भाषा का कोई व्याकरण नहीं रचा गया तभी तो तुम दिखाते हो- एक चिड़िया का चित्र किसी मछली की आकृति या टूटे बर्तन का किनारा- चिड़िया वैसी ही जो आज भी मेरे कमरे में घोंसला बनाने के लिए तिनका उठाए है मछली वही जो पानी के बिना तड़पती है टूटे प्याले पर प्यास के निशान हू-ब-हू वैसे जो आज भी मेरे होंठों पर अंकित हैं इसलिए तुम मरे नहीं तुम मुझ में जीवित हो जब तक कि मैं मोहंजोदड़ो नहीं बन जाता इससे पहले कि मैं जीवाश्म बनूं मैं देखना चाहता हूं- चिड़िया का एक सुरक्षित नीड़ साफ पानी में तैरती मछली और एक भरे प्याले से छलकती तृप्ति का अहसास

तुम्हारे मेरे बीच

तुम्हारे और मेरे बीच की दूरी एक वेदना थी एक टीस मैंने तुम्हें तीर्थ माना दूरी यात्रा बन गई ।

धार

तुमने उस छुरी की धार इतनी तेज़ क्यों कर दी जिससे कट गया गला गला कटने की शिकायत कौन करता- रोज़ कटते हैं गले लेकिन वह धार इतनी पैनी थी कि उससे कट गए सपनों के रूपहले तार ! चाकू हो या ख़ूनी तलवार या फिर कोई भी हथियार सभी चाहते हैं तेज़ धार तुम्हारा क्या बिगड़ता लोग इतना ही कहते धार तेज़ नहीं थी। बस इतनी-सी बात से डर गए घुमा दिया सान का पहिया और कर दी इतनी तेज़ उस छुरी की धार ! काट दिया किसी का सिर, कर दी कोई उंगली घायल, सिर केवल सिर नहीं होता उसके साथ एक विचार कटता है उंगली अकेली नहीं कटती उसके साथ दिशाबोध का ख़ून होता है! धार तेज़ करना मेरा पेशा है मेरी रोज़ी है क्या काटना उनका भी पेशा है ? वे अपना पेशा क्यों नहीं बदल लेते? मैं तो ढूँढ़ लूँगा कोई और काम !

पहली वर्षा

मौसम की पहली वर्षा पर कुछ तुम लिखो इससे पहले बूँदें कुछ बेहतर लिख जातीं अक्षर-अक्षर जोड़-जोड़ कर धरती की कोरी तख़्ती पर बूँदों ने हरियाली लिख दी धरती की सोई सोंधी ख़ुशबू उठ बैठी ले अंगड़ाई चातक का सस्वर स्वाति-पाठ वन-प्रान्तर का आतप हरती शीतल फुहार पहली जलधारा के स्वागत में मल्हार राग के स्वर जागे वीणा झंकृत नाना रंगों के स्वप्न हुए साकार ।

फिर भी

पाती थी न कोई न कोई संकेत था अभिसार का बहुत पहले सुनी-पढ़ी-सी तूफ़ानी रात की सूनी डगर थी चल पड़ा मैं मिलन की आस में फिर भी । गीत मैं लिखता रहा बिन छंद के / बिन ताल उन्हें न कोई दे सकेगा स्वर मुझे यह ज्ञात था फिर भी । उम्र की लंबी सड़क पर मुड़ चला वापिस जानता था नहीं मिलेंगे घर-गली-कूचे / पुराने लोग / कोई दोस्त यादों का पाथेय था फिर भी ।

भीतर की लड़की

उसका नाम कुछ भी हो सकता था और / मैं हो सकता था परिचय से प्रेम तक की यात्रा का हमसफ़र क्योंकि / वह चाहे कोई भी हो मैंने उसके भीतर बैठी लड़की को पहचान लिया जब तुम किसी भीतर की लड़की को पहचान लेते हो तो फिर / जानने को शेष कुछ भी नहीं रहता सिवाय इसके कि तुम्हारी कल्पना में उभरे वर्षा में धरती से स्वयं फूट पड़ी दूधिया खुंभी या अंगड़ाई लेती विमुग्धा नायिका या नबोकव की लोलिता ।

रंगी चादर

उनके उपदेश के बावजूद चादर सफ़ेद नहीं रही मैं उसे मैली भी नहीं कह सका उसे रंगता रहा अनेक रंगों में अच्छा लगता था उसका रंगीन होना उसके सफ़ेद रहने में वे किसी रहस्य को तलाशते मैं उसके ताने-बाने में सुनता रहा आरोही-अवरोही स्वर उस पर बनाता रहा देवों के धरती-चरित रवि वर्मा के मिथक चित्र उनकी चादर भेदभरी थी जो मैंने बुनी उसमें लिपटी थी तेरी बात मेरी बात ।

सत्य

मैंने आँखें बन्द कर लीं / हर तरफ़ से कि / अभी नज़र आया सत्य कहीं बिखर न जाए रूपांतरित हो अदृश्य न हो जाए पल भर में / यूँ ग़ायब हो जाना क्या सत्य का धर्म है नहीं न किंतु सत्य को पकड़ने के क्षण का यही धर्म है सुरक्षित रखने हेतु उस क्षण को आँखें सहज ही मुंद जातीं ताकि आँख खुल सके ।

सपने

मैंने सपनों के गुब्बारे उड़ाए वे / आकाश में विलीन हो गए फिर इतना संतोष / कि वे कभी कहीं तो उतरेंगे ।

उस वर्षा के सपने

कैसे होते हैं वे सपने जो रच देते एक नई दुनिया कभी / नंगे पाँव दौड़ पड़ते कृष्ण की तरह सुदामा के स्वागत में- रातों रात बना देते / सचमुच के महल कभी / मरुथल की तपती रेत में बन जाते शीतल पानी का चश्मा जहाँ रुकता कुछ देर मंज़िल की तरफ बढ़ता कारवां सपनों में जीवित रहता है / बेहाल कवि लेकिन सपने बहुत देर तक नहीं रह सकते / बेहाली में वे ढूंढ लेते / नया घर अदृश्य हो जाते अणु में / परमाणु में उन्हें तलाश लेता कोई अहं के रथ पर सवार शहंशाह तब / उसके आधीन वे नंगे पाँव नहीं दौड़ते दीन सुदामा की सहायता को रेगिस्तान में नहीं होते नमूदार ठंडे पानी के चश्मे वे ढूंढते / कोई हिरोशिमा या नागासाकी जहाँ बच्चों के खिलौने बन जाएं / जलती राख के कुकुरमुत्ते पलभर पहले पार्क में खेलते बच्चे सुन रहे थे कुकनू* का आखिरी गीत देखते-देखते राख हो गया कुकनू अगली वर्षा में / वह राख से जीवित हो उठेगा लेकिन कुकुरमुत्ते की राख में जले खिलौने झुलसे बच्चे तरसते रहेंगे उस वर्षा को जिसके लिए अभी तक किसी ने नहीं देखा कोई सपना बच्चे पूछते रहेंगे कुकनू से- कब होगी वो वर्षा जब हम जी उठेंगे तुम्हारी तरह और / खेलने लगेंगे पहले जैसे अपने खिलौनों से ! (*कुकनू/कुकनूस/Phoenix : एक मिथकीय पक्षी जो गाता है तो उसकी चोंच के छिद्रों से आग निकलती है और वह जल मरता है। वर्षा होने पर वह फिर जीवित हो जाता है ।)

तुम्हारी आँखों से

तुम्हारी आँखों तक जाकर आँखें लौट आतीं ले आतीं अपने साथ तुम्हारी चहक चमक तुम्हारी आँखों तक जाकर लौट आतीं आँखें देखतीं चिड़िया को हिलती शाख को सुनतीं चहकती चिड़िया को पत्तों की मर्मर ध्वनि को आकाश पर घुमड़ने लगते बादल ! तुम्हारी आँखों से देखतीं मेरी आँखें हरी घास पर शबनम को चूमती किरण को तुम्हारी आँखों से एकाकार हो जाती आँखें !

फ्रीज़ हुए दृश्य

अनुभव जो एक-एक कर हुए संचित धीरे-धीरे झर गए समय की मुट्ठी से बचे कुछ रह गए सुरक्षित तेरे-मेरे पत्रों में फ्रीज़ हुए दृश्यों से तुम्हारे छुअन से भीगे हुए अक्षर सूखने पर हो गए शिलालेख जो पढ़े जाएँगे हर युग में ठहरी पलकें रुकी हुई प्राणों की धड़कन मोहक रूपाकार नखशिख वर्णन- महाकाव्य की कथा-कहानी क्या होती है कभी पुरानी वृक्ष से लिपटी लता को अलग करने का जतन एक नादानी !

रात की रात

रात जहन में रची कविता प्रातः नहीं है कहीं आस-पास बीते दो पहर ही खड़ी हो गई समय की दीवार मेरे और कविता के बीच किले की प्राचीर सी दुर्लंघ्य क्या वह छिछले भावों की सहोदरा थी या कोई दुर्बल विचार था हवा के धूल भरे झोंके सा आया चला गया छोड़ गया धूल कण भावहीन क्षण दूध सूखी छातियों से

दीप पूजा से पूर्व

हर वर्ष समय की मुँडेर पर दीवाली संजोती दीया तेल बाती हर वर्ष इनका संयोजन और इनको रोशनी का दान हर वर्ष तय होता लक्ष्मी पूजन का मुहूर्त आज पूजा से पहले मेरे सामने आ खड़े हैं दीया - तेल- बाती के सर्जक जिनके / श्रम सने हाथ-धुंधियाई आँखें सदियों से कर रहे हैं इंतज़ार रोशनी का दीये की निष्कम्प लौ का !

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