हिन्दी ग़ज़लें : प्रेम वारबर्टनी
Hindi Ghazals : Prem Warbartani


कभी तो खुल के बरस अब्र-ए-मेहरबाँ की तरह

कभी तो खुल के बरस अब्र-ए-मेहरबाँ की तरह मिरा वजूद है जलते हुए मकाँ की तरह भरी बहार का सीना है ज़ख़्म ज़ख़्म मगर सबा ने गाई है लोरी शफ़ीक़ माँ की तरह वो कौन था जो बरहना बदन चटानों से लिपट गया था कभी बहर-ए-बे-कराँ की तरह सुकूत-ए-दिल तो जज़ीरा है बर्फ़ का लेकिन तिरा ख़ुलूस है सूरज के साएबाँ की तरह मैं एक ख़्वाब सही आप की अमानत हूँ मुझे सँभाल के रखिएगा जिस्म-ओ-जाँ की तरह कभी तो सोच कि वो शख़्स किस क़दर था बुलंद जो बिछ गया तिरे क़दमों में आसमाँ की तरह बुला रहा है मुझे फिर किसी बदन का बसंत गुज़र न जाए ये रुत भी कभी ख़िज़ाँ की तरह

हो गया हूँ हर तरफ़ बद-नाम तेरे शहर में

हो गया हूँ हर तरफ़ बद-नाम तेरे शहर में ये मिला है प्यार का इनआम तेरे शहर में जब सुनहरी चूड़ियाँ बजती हैं दिल के साज़ पर नाचती है गर्दिश-ए-अय्याम तेरे शहर में इस क़दर पाबंदियाँ आख़िर ये क्या अंधेर है ले नहीं सकते तिरा ही नाम तेरे शहर में अब तो यादों के उफ़ुक़ पर चाँद बन कर मुस्कुरा रोते रोते हो गई है शाम तेरे शहर में कब खुलेगा तेरे मय-ख़ाने का दर मेरे लिए फिर रहा हूँ ले के ख़ाली जाम तेरे शहर में एक दीवाने ने कर ली ख़ुद-कुशी पिछले पहर आ गया आख़िर उसे आराम तेरे शहर में 'प्रेम' यूसुफ़ तो नहीं लेकिन ब-अंदाज़-ए-दिगर हो चुका है बार-हा नीलाम तेरे शहर में

कभी खोले तो कभी ज़ुल्फ़ को बिखराए है

कभी खोले तो कभी ज़ुल्फ़ को बिखराए है ज़िंदगी शाम है और शाम ढली जाए है हर ख़ुशी मोम की गुड़िया है मुक़द्दस गुड़िया ताज शोलों का ज़माना जिसे पहनाए है ख़ामुशी क्या किसी गुम्बद की फ़ज़ा है जिस में गूँज के मेरी ही आवाज़ पलट आए है ज़िंदगी पूछे है रो कर किसी बेवा की तरह चूड़ियाँ कौन मिरे हाथ में पहनाए है दिल किसी जाम-ए-लबालब की तरह लहरा कर फिर तिरे दस्त-ए-हिनाई में छलक जाए है कौन समझे मिरे इख़्लास की अज़्मत को भला मैं वो दरिया हूँ जो क़तरे में समा जाए है 'प्रेम' देखो तो सही ज़ख़्मों के ज़ेवर की फबन शाएरी बन के दुल्हन और भी शरमाए है

सलीक़ा है मुझे तारों से लौ लगाने का

सलीक़ा है मुझे तारों से लौ लगाने का कि मैं चराग़ नहीं दाग़ के घराने का वो देख बर्फ़ के फूलों में जागती है सहर यही है क्या तिरा अंदाज़ मुस्कुराने का ख़ुलूस शर्त है पी लूँगा ज़हर भी ऐ दोस्त तो पहले सीख मुझे ढंग आज़माने का लिया जो शाख़-ए-गुल-ए-तर को झुक के बाँहों में वो इक बहाना था तुझ को गले लगाने का चली जो याद तुम्हारी अलख जगाती हुई भटक गया कोई जोगी किसी ठिकाने का उड़ूँ तो चूम लूँ तुझ को कि एक जुगनू हूँ तू ख़्वाब है किसी पर्बत के शामियाने का मिरी लगन का सफ़ीना न डूब जाए कहीं तिरा वजूद भँवर है किसी बहाने का तिरे कलाम तिरे जाम तेरे नाम से 'प्रेम' चमक रहा है सितारा तिरे ज़माने का

काग़ज़ी हाथ हमें रास न आएँ शायद

काग़ज़ी हाथ हमें रास न आएँ शायद अब के मिट्टी से ग़ज़ल कोई उगाएँ शायद उन हसीं झील सी आँखों का फ़ुसूँ क्या कहिए शे'र पहनेंगे परिंदों की क़बाएँ शायद पहले ईसा ही को मस्लूब किया था लेकिन अब के मरियम को भी दें लोग सज़ाएँ शायद उस ने खोले हैं शब-ए-वस्ल घनेरे गेसू आज बरसेंगी धुआँ-धार घटाएँ शायद संगसार आज सर-ए-आम जो करते हैं हमें कल वही हाथ जनाज़ा भी उठाएँ शायद न कोई फूल न आँसू न लरज़ता जुगनू मेरी झोली में हैं बे-कार दुआएँ शायद 'प्रेम' क्या दौर है दिल से भी गिराँ हैं पत्थर हसरतें शीशे के घर और बनाएँ शायद

गुफ़्तुगू क्यूँ न करें दीदा-ए-तर से बादल

गुफ़्तुगू क्यूँ न करें दीदा-ए-तर से बादल लौट आए हैं सितारों के सफ़र से बादल क्या ग़ज़बनाक थी सूरज की बरहना शमशीर काले मुजरिम की तरह निकले न घर से बादल रात की कोख कोई चाँद कहाँ से लाए ये ज़मीं बाँझ है बरसे कि न बरसे बादल बर्फ़ से कहिए कि सौग़ात करे उन की क़ुबूल लाए हैं आग के दस्ताने सफ़र से बादल मैं कि हूँ धूप का आज़ाद परिंदा लेकिन बाल क्यूँ नोच रहे हैं मिरे पर से बादल आख़िरी ख़त तो लिखूँगा मैं लहू से ख़ुद को अब भी मायूस जो लौटे तिरे दर से बादल न किसी जिस्म का जादू न घटा गेसू की 'प्रेम' क्यूँ रूठ गए प्रेम-नगर से बादल