हिंदी कविताएँ : प्रशांत पारस

Hindi Poetry : Prashant Paras

1. चुभन से भरी

चुभन से भरी,
अपनी दुनियाँ में मुग्ध,
ह्रदय को सीतल करने के लिए,
कुछ तुकबंद पंकितियों का सहारा लिए,
चला जा रहा था,
अचानक किसी ने पुकारा की,
कितनी भरी है,
तेरी आवाज़।

यह आवाज़ किसी मानव का नहीं,
बल्कि मेरे ही सामान उस प्रशांत का था,
जो हमेशा मेरा साथ निभाती है,
भले ही सुर गलत थे
ताल नहीं मिल रहे थे
फिर भी मेरे चंचल ह्रदय और मन को,
एक नया यौवन दे रही थी,
मेरी आवाज़।

आज मेरे स्वर कभी मध्य सप्तक,
तो कभी तार सप्तक,
मेरे मुख ने तो सिर्फ साथ,
निभाने का काम किया था,
क्योकि स्वर तो सीधा वक्ष से,
उत्पन्न हो रहे थे,
मित्र तो मित्र शत्रु के ह्रदय में भी,
प्रलय ला देने वाली थी,
मेरी आवाज़।

2. बड़े बड़े इमारतों के बीच

बड़े बड़े इमारतों के बीच,
गुहार लगाती इक मरीज,
मरीज किसी बीमारी का नहीं,
गरीबी ही उसकी बीमारी सही,
दिया उसे किसी ने न भीख,
बड़े बड़े इमारतों के बीच।
हाथ फैला वह लोगों से माँग रहा,
किस्मत को अपने धिक्कार रहा,
ईमारत से ईमारत, दुकान से दुकान,
दिनभर उसका एक ही काम,
पर मिलता न उसे भीख,
बड़े बड़े इमारतों के बीच।
शाम हर रोज उसके जिंदगी में आता,
सवेरा न कभी उसको भाता,
दिन तो रोटी की तलाश में बीत जाता,
पर रात बीतता हमेशा पेट सहलाता,
इमारतों के आगे पड़े झूठन पर भी,
हो जाती कुत्तों से मुठभेड़,
रोटी कुत्तें उनके हाथों से लेते खींच ,
बड़े बड़े इमारतों के बीच।

3. बंद हो पिँजरे मेँ हम

बंद हो पिँजरे मेँ हम,
आजादी के सपने जीते,
अपनी मीठी स्वर से हम,
इंसानो पर भी रौब जमा जाते,
हम है गगन के वाशिंदे,
कहलाते है हम परिंदे।

मग्न हो अपने धुन में,
आसमान मे हम उङते,
बहती धारा चीर के,
हम नदी में मोती चुगते,
न अल्लाह, न भगवान
हम हैँ मंजिल के बंदे,
हम हैं गगन के वाशिंदे,
कहलाते है हम परिँदे।

सागर से सागर, देश से परदेश,
मंजिल की तलाश मेँ उङते जाते,
या तो मंजिल मिलती,
या मौत को गले लगा लेते,
लक्ष्य के लिए ही जीते हम,
लक्ष्य के लिए ही कूर्बानी देते,
हम है गगन के वाशिंदे,
कहलाते है हम परिदेँ।

4. खुले आसमाँ में आजादी के पंख

खुले आसमाँ में आजादी के पंख,
फरफरा लेने दे मुझको,

कठपुतली बने महीनो बीत गये,
अब तो आकाश का साफा बांध, उड़ लेने दे मुझको
खुले आसमाँ में आजादी के पंख फरफरा लेने दे मुझको,
पेड़ों के झुनझुने, सुन लेने दे मुझको,
साहस की हरेक अरदिल, जीत लेने दे मुझको,
छितिज का मिलन, देख लेने दे मुझको,
खुले आसमाँ में आजादी के पंख,
फरफरा लेने दे मुझको,

कुछ हरी, कुछ पिली, कुछ नीली,
वो देखो उड़ रही एक और उजली,
उनके बीच जाकर, दोस्ती का संबंध,
बढ़ा लेने दे मुझको
खुले आसमाँ में आजादी के पंख,
फरफरा लेने दे मुझको
कभी दांये, कभी बांये, उड़ लेने दे, मस्त गगन में मुझको,
खुले आसमाँ में आजादी के पंख,
फरफरा लेने दे मुझको

5. पेड़ो से फूल निकलते

पेड़ो से फूल निकलते,
तितलियाँ उनपर मंडराते, भौरों को उनपर उड़ते,
ख़ुशी से फूल को ऐठते,
मैंने देखा है।
लगी थी एकमात्र फूल पेड़ पर,
खुशी से झूम रहा था पेड़ भी, पेड़ को इतराते,
फूल को खिलखिलाते,
मैंने देखा है।
आखिर किसकी नजर, लगी इस ख़ुशी को,
आ अचानक एक दिन, निचे वो फूल गिरा,
फूल से बिछड़ने पर, पेड़ का दू:ख,
मैंने देखा है।
पैँरो तले रौंदा वो फूल जाने लगा,
अपनी बदकिस्मती पर,
रोते फूल को,
मैंने देखा है।
अगली सुबह हुई, निकली एक फूल नयी,
पेड़ सोच बैठा था नहीं हसूँगा, दोबारा कभी,
क्योकि फूल से बिछड़ने पर, खुद का दुख,
मैंने देखा है।

6. देख मेरे भाई कलयुग आया

देख मेरे भाई कलयुग आया
इंसानो ने अपना मर्यादा भुलाया,
अमीरो ने अपना राज चलाया,
गरीबो को रोटी के लिये तरसाया,
देख मेरे भाई कलयुग आया।
नेताओ ने अपना राज चलाया,
गरीबो को रोटी के लिये तरसाया,
राजनीती का पाठ पढ़ाया,
महंगाई को आसमान चुम्बया,
देख मेरे भाई कलयुग आया।
बेटे माँ -बाप पर कर रहे अत्याचार,
मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम को मिटटी में मिलाया,
लोग झूठ का ले रहे अब सहारा,
सच को दुनिया में मिटाया,
देख मेरे भाई कलयुग आया।
लोग बन रहे स्वार्थी,
जला रहे रिस्तो की आर्थी,
क्या राम, क्या कृष्णा, क्या विष्णु,
वेद को दुनिया में झुठलाया,
देख मेरे भाई कलयुग आया

7. देर होती है नद को

देर होती है नद को,
सागर से मिल जाने में,
बूँद-बूँद व्यर्थ नही होता,
सूरज की तप से सूख जाने में,
कोटर से पंछी निकलता है,
क्षितिज में समा जाने को,
व्यर्थ नही करता वह जीवन,
साहस की सीमा लाँघ जाने में
वीर तू क्यों डरा है,
सहम कर क्यो मौन खड़ा है,
जब तक न मिले मंज़िल तुझे,
तब तक न तेरे कदमो को विराम है
नव किरण है ये नया नाम है
नई आगाज है ये नया अंजाम है
गिर पड़ा तो क्या रोता है
उठ दौड़ देख क्या होता है
तेरे हौसले से हालात का वक्ष,
छलनी छलनी होता है
तू जोर लगाता होती सुबह
तू जोर लगाता होती शाम है
नई आगाज ये नया अंजाम है

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