प्राणेन्द्र नाथ मिश्र की मनपसन्द कविताएँ
Hindi Poetry : Pranendra Nath Misra



पहला अधिकार

दरवाज़े पर भिक्षुक बन कर जब मृत्यु अटल सी खड़ी रहे तब उसको भिक्षा देने का पहला अधिकार मुझे देना। जब गीतों की गिरती लड़ियां बिखरें आंसू की बूंदों सी, तब हर मोती को चुनने का पहला अधिकार मुझे देना। हे प्रिये! देव वरदानों को वापस सहर्ष मैं कर दूंगा, अपनी सांसों में घुलने का पहला अधिकार मुझे देना।

अंतिम संध्या

अश्रु दिख जाते क्षितिज के पार क्यों? खिलखिलाहट गूँजती है आर्त बन कर, क्या कोई अपना, छुड़ाकर हाथ को स्मरण करता मुझे, उस पार जाकर। साथ मेरा छोड़ कर तुम बीच मे उम्र को आघात देकर चल पड़ोगी, पूछ भी इतना न पाऊँगा कि, हे ! जा रही हो? फिर बताओ कब मिलोगी ?

पीपल, मानव से

तुम हेमसुंदरी पाकर भी सुख से न रह सके, रे मानव! मैं निर्जन जंगल में एका पत्तों को लेकर चलता हूं। तुम शिखर छू रहे पर्वत की मेरे पथ की कोई दिशा नहीं मैं पीपल वृक्ष हूं ठहरा हुआ आह्लादित, हिलता डुलता हूं। तुम हो ज्ञानी, तुम बुद्धिमान तुम नष्ट मुझे कर सकते हो फिर भी छाया देता तुमको नहीं अपना रूप बदलता हूं। मानव! मानव तुम रहे बहुत पर कभी शांति नहीं मिली बन जाओ प्रकृति आनंदित हो यह बात तुम्हें मैं कहता हूं।

क्या छूटा, क्या है आगे.......???

छोटे घर थे, परिवार बड़ा अब घर हैं बड़े, परिवार नहीं, हो गयी तीक्ष्ण बुद्धि सबकी आचार नहीं, व्यवहार नहीं...... औषधि के दाम बढ़े जितना हो रहा स्वास्थ्य उतना ही कम, विद्या का स्तर जितना बढ़ा संस्कृति का निकला उतना दम...... ज्ञानी बन कर सब घूम रहे पर मेधा, विकसित हुयी नहीं, बढ़ गए प्रेम, संबंध बढ़े पर सच्चा प्रेम है कहीं कहीं....... बढ़ गए बंधु और फ़ालोवर पर दूर सभी, और हैं अदृश्य किसे सच्चा मित्र कहा जाये किसे कहूँ मैं अपना पथ सदस्य..... मैं पिछली पहर का राही हूँ, परिवार का देखा वरद हस्त अब त्याज्य पुत्र और त्यक्त पिता अब वर्तमान से हो गया त्रस्त.... फिर भी मैं अब भी स्वयं मे हूँ पर तुम आगे क्या पाओगे ? इस तरह दूर यदि होते रहे अनभिज्ञ स्वयं हो जाओगे.......

शाम के नाम : अंतिम बेला

अब खेल खतम है मदारी का, तुम पैसे फेंको, ना फेंको चल पड़ा, दूसरे ठौर पे मैं मेरी गति देखो, या न देखो। मैं मुड़ के नहीं अब देखूंगा जो बीत गया, वह भस्म है अब उसको भी तिरोहित कर देना ऐसी समाज की रस्म है जब।

शंखध्वनि

ईशान कोण से शंखध्वनि जब गुंजित कानों में होती, तब लगता, कोई बुलाता है जाने क्यों आंख ये नम होती? उच्चारित चंडी पाठ हो जब हर दिशा को पावन कर देता तब लगता, मन की पीड़ा को अनजाना कोई, हर लेता। जब मां के नव रूपों की छवि आह्लादित कर के छू जाती, तब विह्वल मन हो जाता है वाणी अवरुद्ध सी हो जाती। जब संस्कृत के छंदों से बद्ध गूंजता "नमस्तस्यै" घर घर जाने क्यों मेरी आंखों से आंसू बहते हैं झर झर झर। किस अपने से मैं छूटा हूं रह रह के बुलाता कौन मुझे? क्यों मन पवित्र जब होता है कोई अदृश्य करता मौन मुझे? यह देह पांच तत्वों से बनी धरती की है, धरती लेगी, पर कौन हूं मैं, अब तक न पता मां कौन सी, मुझे शरण देगी? कात्यायनी! तुम ही मां का रूप क्या कुछ पहले तुम आओगी? नवरात्र में रह कर साथ मेरे मुझे अपने संग ले जाओगी?

बुझा दीपक और मैं

एक दीप जला दो मेरे लिए एक वर्ष और मैं जी लूंगा, दीपक की थिरकती लौ की तरह मंदिर का प्रांगण छू लूंगा। देखूंगा कि मेरी मिट्टी में कुछ शेष बचा है या कि नहीं काली बाती की खुरचन में इतिहास लिखा है या कि नहीं। क्या याद करूं पिछले पल को मैं एक अकेला, माटी था, पानी से जुड़ कर बंधन में परिवार सदृश परिपाटी था। कई बार मैं घूमा एक धुरी टूटा कई बार, जुड़ा फिर फिर आकार लिया सुंदर मैने जब बादल प्रलय से आए घिर। फिर तपा आग में अनुभव के पड़ गए बदन में धब्बे भी कभी हवा ने प्राण दिया मुझको कभी टूटा प्रतिशत नब्बे भी। जल गई है पूरी बाती अब रह गया शेष थोड़ा सा तैल पहले सा पवित्र नही है दिया चढ़ गई बहुत बाहरी मैल। इस मैल में दम घुट घुट कर छोड़ेगा प्राण यह दिया कभी, हर साल ही नई दिवाली थी हर साल मिले मुझे लोग सभी। इस तरह पार करता जीवन मैं उस डेहरी पर आया हूं, था कभी अकेले आया मैं संबंध आज कई पाया हूं। मैं मिट्टी का हूं इक प्रदीप मेरे तल में भरा है अंधकार बस इक दिन ही सत्कार मेरा बस इक दिन है लाड़ प्यार। पूरे वर्ष न करता याद कोई रहता मैं पड़ा कोने में कहीं मैं स्थिर, समय बदलता है मेरा शुरू जहां, मेरा अंत वहीं। आलोकित उत्सव करते हो मेरे हृदय पे आग जला करके, फिर मुझे फेंक देते यों ही कूड़े करकट में जा करके। जो संचित रहा जला डाला अब पड़ा हुआ हूं कोने में खाकर जैसे अब खतम हुआ जो रखा हुआ था दोने में। मैं पांच तत्व से बना हुआ हे विघटन ! मुझको सता नही, अगली दिवाली क्या फिर मैं मिल पाऊंगा सबसे पता नही?

आत्ममुग्धा ऊषा से

होकर के आत्ममुग्धा, ऊषा! क्यों अपनी छवि बिगाड़ रही, तुम दिन को रोक नहीं सकती फिर क्यों सूरज को आड़ रही? आभास हो तुम, दिन आने का तुम नही हो सूर्य का प्रखर रूप तुम, तम से बाहर निकली हो तुम नही रश्मि की नरम धूप। पश्चिम की दिशा से, ऐ ऊषा! तुम राह कभी न पाओगी, पूरब उत्थान, पुनीत दिशा दिखना है तो पूरब आओगी। क्यों श्वेत केश बादल के, ले लोहित रंग, धूमिल कर डाला? क्यों किरण समझ कर लाली को पूरे आकाश को भर डाला? सम्पूर्ण नही है कोई यहां इस बात का मन में ध्यान रखो मत समझो तुम हो, प्रकृति पूर्ण नियमों को समझ अभिमान रखो। हर कोई सीख देता है यहां यह ईश्वर का विद्यालय है, मानो तो पत्थर चार हैं ये या मानो तो देवालय है।

जीवन-परिचय

जीवन, सौ वर्षों की परिमिति जिसका आधा सोने मे गया बचपन औ’ बुढ़ापे मे मिलकर बाकी आधा भी निकला गया। चौथाई जीवन मे भी तो दुख, वियोग और व्याधि रही जो बचा, वही सार्थक जीवन विद्वानों ने यह बात कही। भाषा से पता चलता है देश आदर सत्कार से प्रेम भाव, स्वास्थ्य से भोजन और संयम आचरण से दिखता कुल प्रभाव। यह जीवन, जल तरंग जैसा कभी उठता है, कभी गिरता है, आचरण अगर अच्छे रखें तब जीवन परिचय मिलता है।

एक गीत

तुम पिछले कल को याद करो मैं अगली सुबह खोजता हूं, तुम सांध्य प्रीति में रमे रहो मैं सूरज की बाट जोहता हूं। मन, कितना पागल हुआ है रे! क्यों बात नही सुनता मेरी? रसधार रही नदियां कल तक पर आज भरीं, जलती ढेरी । सावन रहने दे सावन तक हर समय प्रकृति तो हरी नहीं रोया तू आधे भादों तक क्या अभी तबीयत भरी नहीं? यह प्रेम प्रकृति, मौसम जैसी हर समय बदलती रहती है, जीवन की गति आगे की तरफ आगे ही चलती रहती है। मत पीछे मुड़ कर देख कभी अन्याय, न्याय किसने है किया, किससे क्या मिला, ये सोच नही यह सोच, कि तूने क्या है दिया।

अंतिम स्वर

जब आर्तनाद की अंतिम ध्वनि टकराए स्वयं, अंतर्मन में, जब विकल सांध्य के गीत, टूट बिखरें अवशेषित जीवन में। जब सूर्य रश्मि काली होकर रातों की घातक धार बने, जब पूरा जगत सिमट कर के अंधेपन का संसार बने। अंतिम सोपान की पीढ़ी पर जब राह सामने हो अदृश्य हो ध्वनि, करुण विलाप लिए सम्मुख हो अमावस का रहस्य। एका आना, एका जाना जीवन की यही तो पद्धति है, यदि कहूं कि साथ मेरे आओ तब तो यह भ्रमित,मेरी मति है। तुमने है साथ दिया जितना जीवन मेरा सम्पूर्ण हुआ, अब मुझे अकेले जाने दो बहुजन संग चलना पूर्ण हुआ। ईश्वर! आदेश मुझे दो या करो सबल, मुझे खुद आने दो जीवन भर तरसा हूं जिसको अब तो वह दर्शन पाने दो।

चौथा प्रहर

जिन्हें गोद में रखा बरसों तक अपने दुलार के आंगन में, वे गृह - बंदी कर, छोड़ गए, इस जन - अरण्य के कानन में। तुम भी तो नहीं हो, हे भार्या! जो भार मेरा, आधा सहती, उन दुर्बल हाथों से ही सही पर हाथ मेरा थामे रहती। दीर्घायु कामना, भेजा है मेरे पुत्रों, मेरे मित्रों ने, पर सांस मेरी जीवित रखी बासी वे, तुम्हारे पत्रों ने। जर्जर हैं कागज़ के टुकड़े पर लिखी पंक्ति तो दिखती है, काया है ध्वस्त, मेरी जैसे पर रक्त - वहन तो करती है। अब यही धरोहर है मेरी अवशेष यही मेरा संसार गिरकर कागज़ पर अश्रु बिंदु हर अक्षर पढ़ता बार बार। कुछ धब्बे हैं धुंधलाए से - तुमने भेजे होंगे संदेश! आऊंगा मैं भी, जल्दी ही तुम बिन निर्जन लगता है देश।

सांध्य राग

यह जीवन पथ, किस ओर चला मैं दीप जला कर खोजूं पथ, जीवन को और वृहत करने बढ़ चला श्वास का निर्बल रथ। क्या दीप बुझा कर संध्या का मैं तम - छाया की ओर बढूं निर्बल प्रकाश की रश्मि लिए अंतिम सोपान की ओर चढ़ूं। दोनो प्रकरण तो एक ही हैं एक आशा, एक निराशा है, दो तल के पथ पर चलना ही शाश्वत, जीवन परिभाषा है।

प्रणय - निवेदन: फिर उपजेगा अधिकार नया

मैं टूटे फूटे शब्द लिए, कुछ इस कवि के, कुछ उस कवि के, लाया हूँ अपने छंदों में, अर्पित करता फिर एक बार, स्वीकार करो तो अच्छा है, स्वीकार न हो, तो !! रख देना अपने पास उन्हें पैरों के पीछे, रद्दी में, यदि वापस कर दोगे मुझको, फिर शब्द चुराकर लिख दूंगा, फिर उपजेगा अधिकार नया.. कुछ भूले भाले संस्मरण, थोड़े सच, थोड़े सपने हैं, लाया हूँ अपने होंठो पर, अस्फुट शब्दों में रख दूंगा, यदि समझोगे तो अच्छा है, यदि ना समझो तो !! हँस लेना मेरे जाने पर कहकर, उन्मादित है कोई! यदि हंस दोगे मेरे आगे, प्रतिदान समझ कर रख लूंगा, स्मरण कभी फिर होगा यह, फिर उपजेगा अधिकार नया.. अंतिम साँसें आते आते, यदि कभी देखने आये तुम उखड़ी साँसों को वहीं रोक आँखों आँखों में पूंछूंगा, हाँ बोलोगे तो अच्छा है, ना बोलोगे तो !! फिर लेना होगा जन्म मुझे, फिर प्रणय-निवेदन करने को, फिरना होगा गलियों गलियों, फिर तुम्हे कहीं पाना होगा, और मेरी कहानी सुनने को, तुमको फिर आना होगा, फिर उपजेगा अधिकार कहीं, फिर उपजेगा अधिकार नया..

मैं पुरुष हूं......रोना, है निषिद्ध

मैं पुरुष हूं, रोना है निषिद्ध मैं अंतर्मन में, रोता हूं, पुरुषत्व - प्रकृति, मर्यादित है मैं अंतस्थल को भिगोता हूं। मेरी कोख नहीं, माना मैने संवेदना मगर, कोई कम तो नहीं! शारीरिक बल, ईश्वर प्रदत्त कोमल मन मेरा, विषम तो नहीं! बचपन में मां ने सिखलाया तुम पुरुष हो, कोई नारी तो नही! ये आंसू, कायर लोगों के दुख तुम्हे कोई, भारी तो नही! हर बात पे मां यह कहती थी बिन रोए दुख सहना सीखो, पी जाओ आंसू की धारा अंदर अंदर बहना सीखो। मैं प्रकट नहीं कर पाता हूं अपने संवेदन का उछाल, मेरी बंधी हुई सीमाएं हैं पर चेतनता, गहरी, विशाल। संवेदन सीमा, अंतहीन मेरा धैर्य है छूता अंतरिक्ष, परिवार का हूं मैं मूल बीज मेरी छाया, जैसे अटल वृक्ष। मैं पिता, सृष्टि का प्रथम पुरुष मेरा पुरुषत्व है, एक बिंदु, इस संतति का कारण, मैं हूं हे पृथा! ऊर्जा का मैं सिंधु। मेरे कारण ही, मातृत्व तुम्हे हे नारी!, मां कहलाती हो, एक त्यागभरी,एक स्नेहमूर्ति संतानों से बन पाती हो। मेरे कारण, है यह वंश वृहत पलता है कोख में अंश मेरा, मैं नहीं, तो नारी मरुभूमि संतानहीन, भूतों का डेरा। मैं हूं कठोर, पर स्वार्थहीन मैने त्यागे हैं सारे सुख, अपना परिवार बचाने को अपमान सहे और सहे हैं दुख। कैसी विडंबना, हे ईश्वर! संवेदक बना के छोड़ दिया, बाहर आवाज नही आई भीतर, पत्थर को तोड़ दिया। हर पुरुष का हाल मेरे जैसा पर्वत सा दुख, सह जाता है, पर हृदय बरसता है उसका और रो भी नही वह पाता है। नारी दोषित करती है हमें देते हैं दोष, पुरुष को पुरुष सब सुख त्यागे, पर श्रीहीन मैं हतभागा, श्रापित हूं नहुष।

बदली रुचि, बदली आशाएं

हो गई शमित वह सूर्य - रश्मि थम गया है जीवन का प्रवाह, रुक गए शब्द, बन काल - बद्ध हर अक्षर करता, आह, आह! रुचि बदल लिया है प्रकृति ने अब कांटों की बिछावन, पथ पथ है, भेड़ों का प्रदर्शक, भेड़ अगर फिर नेष्टि! तेरा ही स्वागत है। कुछ बिंदु निकल कर सागर से मीठा जल नहीं बनाते हैं, गिरते हैं भूमि पर जहां जहां उसे मरूभूमि कर जाते हैं। रक्तिम रेखा, प्राची की ओर ! वह उदय नही, कोलाहल है, हे पथिक! देख दक्षिण, रुक जा श्रृंखला नहीं, वह सांकल है। रुचि बदल गई, बदली आशा बदले संस्कृति के द्वैपायन, हो गया शिथिल भास्कर, निरीह है लंबी अवधि का दक्षिणायन।

सूखता पानी

पानी तो रखो आंखों में पानी न सुखाओ धरती से, यह देह भी है पानी से बनी पानी न बहाओ, बेदर्दी से। मरुभूमि बनाओ मत जंगल मत मानव को कंकाल करो, मत इतनी बढ़ाओ लोलुपता मत धरती मां, बदहाल करो। अगली पीढ़ी का ध्यान रखो मत जलती धरा उन्हें दो, तुम ये बच्चे, कल की दुनिया हैं मीठा जल पीने दो तो, तुम। जंगल पर्वत यदि काट काट तुम ऊंचे महल बनाओगे, तो याद रखो, भुगतोगे तुम जब जन्म ले, वापस आओगे।

छोटी कविता

‘हे ! प्रेम तुम्हे मैं करता हूँ ‘ कितने भारी, ये शब्द सरल, जिह्वा,तालू सब एक हुयी जब सोचा कह दूँ, तुम से मिल.. वाणी में शक्ति नहीं इतनी यह खुद कम्पित, उत्कंठा से आँखों से प्रणय-निवेदन कर स्पर्श करूं इस कविता से….