हिन्दी ग़ज़लें और कविताएँ : प्रकाश सानी
Hindi Ghazals and Poems : Prakash Saani


ये बेख़बरी नहीं तो और क्या है

ये बेख़बरी नहीं तो और क्या है ये हर सू क़त्ल-ओ-ग़ारत शोर क्या है जलाई जा रही बस्ती की बस्ती यहाँ पर पासबाँ का ज़ोर क्या है क्या अहल-ए-उल्फ़त से कहें हम ये ज़ेहनी नफ़रतों का दौर क्या है सुने फ़रियाद किसकी कौन आक़ा इस ख़ूँ रेज़ी की जानिब ग़ौर क्या है सुनहरे ख़्वाब की ताबीर सानी बताएँ क्या सुहानी भोर क्या है ।

ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा जाना नहीं

ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा जाना नहीं मौत को इन्सां ने पहचाना नहीं फ़स्ल-ए-गुल के बाद है दौर-ए-ख़िज़ाँ पेड़ पर पत्ता हरा पाना नहीं चार दिन की चाँदनी हुस्न-ओ-जमाल इस हक़ीक़त को कभी माना नहीं वक़्त ठहरा है न ठहरेगा कहीं लौट कर माज़ी कभी आना नहीं दास्तान-ए-दिल अधूरी रह गई हो सका पूरा ये अफ़साना नहीं देख सानी मसलहतों के संग-ए-ग़म हर कदम पै ठोकरें खाना नहीं ।

लोभी का संन्यास क्या

लोभी का संन्यास क्या भोगी का उपवास क्या मन का मोर सावन में मीन जल में प्यास क्या साधना संयम की सीमा है अटल विश्वास क्या बूंद मोती सीप में कब बने है आस क्या काव्य कोरी कल्पना है नहीं प्रयास क्या मन का मीत प्यार में दूर क्या और पास क्या चेतना दीपक की लौ कब बुझे है साँस क्या

भेद जिया के

भाव भरे शब्दों के द्वारे भेद जिया के कह दूँ सारे जिस तन लागे वो ही जाने पीड़ पराई कौन विचारे भाव भरे शब्दों के द्वारे प्रीत नवेली बनी पहेली चंचल चितवन भावुक शैली चाव रूपहला पहला पहला मन का पंछी पंख पसारे भाव भरे शब्दों के द्वारे मधुर मिलन की आस अधूरी मन की मन में हुई ना पूरी नैन निहारें आँसू तारे बिखरे मोती कौन सकारे भाव भरे शब्दों के द्वारे देख लिया संसार सुहाना सब सपनों का ताना बाना खेल नया नहीं बहुत पुराना आखिर जीती बाजी हारे भाव भरे शब्दों के द्वारे भेद जिया के कह दूँ सारे।

बड़ी बेमुर्व्वत , बड़ी बेवफ़ा है

बड़ी बेमुर्व्वत , बड़ी बेवफ़ा है कहां रस्मे दुनिया में रस्मे वफ़ा है । मिटाने से हस्ती मिटे क्या मोहब्बत ये ज़ालिम ज़माने की फितरत जफ़ा है जुनू जां निसारी का सरचढ़ के बोले कि दीवानगी का अजब फ़लसफ़ा है मुरादों के मायूस टूटे इरादे मुकद्दर के मारों से मंजिल ख़फ़ा है करें क्या शिकायत भी सानी किसी से दुआ में असर है न दस्ते शफ़ा है

मोहब्बत के कैसे चलन हैं निराले

मोहब्बत के कैसे चलन हैं निराले अहद की ज़ुबां पर वफ़ाओं के तालेh रहे चूमते दार को जो दीवाने मिटे शौक़ से नौजवां वो जियाले ये देखे हैं कुदरत के हमने करिश्मे अहल - ए - हुनर को भी रोटी के लाले सलामत रहे कोई कैसे अमन से फ़ज़ाओं ने बारूदी शोले उछाले हक़ीकत कहें क्या ज़माने से उनकी अंधेरों में भटका किये जो उजाले शहर - ए - मोहब्बत में नफ़रत की आतिश सुलगते हैं सपने तो रोते हैं छाले ।

मौला की मौज को सदा ही सर झुकाइए

मौला की मौज को सदा ही सर झुकाइए जिस हाल में भी रखे खुशी से बिताइए दो दिन की जिंदगी को मुहब्बत में ढाल के , दूई मिटा के आप भी नेकी कमाइए । माना के आदमियत से बाला है आदमी, गो आईना - ए - हक़ से नजर तो मिलाइए । जो लोग मर के ज़िंदा रहे इस जहान में तारीख़ - ए - वक्त से उन्हें कैसे मिटाइए देखे हैं सानी पीरों फ़क़ीरों के करिश्मे , नानक - रहीम - राम को कैसे भुलाइए ।