हिंदी कविताएँ : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

Hindi Poetry : Praful Singh "Bechain Kalam"



सृष्टि का सृजन

घृत बनते हैं पुरुष बाती बनती हैं स्त्रियाँ तब जलते हैं दीप शब्द बनते हैं पुरुष भाव बनती हैं स्त्रियाँ तब बनते हैं गीत विश्वास बनते हैं पुरुष सम्मान बनती हैं स्त्रियाँ तब बनते हैं मीत और संरक्षण बनते हैं पुरुष समर्पण बनती हैं स्त्रियाँ तब होता है सौन्दर्य व गरिमामय सृष्टि का सृजन!

कविता का जन्म

एक हाथ में आग और एक में कलम लेकर जब कवि हवन करता है, तब कविता का जन्म होता है गद्य, छंद, लय, भेद, रस, श्रृंगार, भाव सब प्रचंड कर जब कवि हवन करता है, तब कविता का जन्म होता है रात, दिन, प्रेम, घर, त्योहार जैसी भौतिकता अमर कर जब कवि हवन करता है, तब कविता का जन्म होता है गाँव, शहर, धरती, नदी, झरने, पेड़, पहाड़ को नमन कर जब कवि हवन करता है, तब कविता का जन्म होता है। लूट, कत्ल, अपराध, क्लेश, भ्रष्टाचार की वेदना प्रकट कर जब कवि हवन करता है, तब कविता का जन्म होता है देह, कुल, भूख, प्यास, स्वार्थ, अहंकार सब भस्म कर जब कवि हवन करता है, तब कविता का जन्म होता है।

मेरा गम बोलता है

ये दिल मेरा जिसको सनम बोलता है वो अब मुझसे पहले से कम बोलता है। मैं उसको मिलाकर के मैं बोलता हूँ वो मुझको हटाकर के हम बोलता है। उन्हीं बातों पे बस भरोसा है मुश्किल जो बातें वो खाके कसम बोलता है। ये सीने में चुभती सलाखों सी बातें वो रेशम के जैसी नरम बोलता है।।

अप्सरा

तेरी कमर की ढाल से नदी मुड़ा करती है आँखों के चकोर में ही चंदा उगा करता है। तेरे केशों के घनाभ से बादल घिरा करता है आवाज़ की खनक से ही मयूर नृत्य करता है। तेरे अश्कों के भार से बारिश हुआ करती है आँखों की धार को ही चातक पिया करता है तेरे केशों के झकोरे से हवा बहा करती है सौंदर्य की तपिश में सूरज जला करता है नयनों के क्रोध से ही अग्नि जला करती है तेरी कदमों की ताल से धरती घुमा करती है आवाज की मिठास में कोयल कहा करती है तेरे हृदय के शीप में प्रेम मोती रहा करता है तेरी मर्यादा की डोर में आकाश रहा करता है मुस्कान की महक से प्रकृति सजा करती है तेरे हृदय की धीर में समंदर रहा करता है धड़कनों की गति में सुनामी बहा करती है तेरी नींदों के स्थिरता में ध्रुव रहा करता है पलकों की झपकियों में उषा बसा करती है तेरी अतिशयोक्ति मेरी कलम लिखा करती है अनुराग के जड़त्व में तु अपना दिखा करती है

प्रकृति

ईश्वर का दिया खूबसूरत उपहार प्रकृति स्वर्ग, श्रृंगार सृष्टि का अलंकार प्रकृति ।। पेड़ों पर विहंगम चहके, छायी हरियाली व्योम के खिड़की से झांके सूरज की लाली, बारिश की थिरकती रिमझिम बूंदे, कविता लहरें मारे पवन के झोंके पृथ्वी के गर्भ से निकली फसलें लहराए फूलों से खुशबू लेकर आये फिजाएं, सरिता के धुंघराले जुल्फों की कमल शोभा बढ़ायें ईश्वर का दिया खूबसूरत उपहार प्रकृति स्वर्ग, श्रृंगार, सृष्टि का अलंकार प्रकृति ।। झरनों की मुस्कराहट पर बिजली गिराये उथल पुथल करें सावन सरिता सरगम गाये देश का प्रहरी हिमालय प्यारा धरती पर टिका जग सारा, न करें भेदभाव किसी से स्वर्णिम साहित्य ओंस के मोती लुटाए, शिखरों से बहती दूध की धारा अंबर को अलंकृत करता चांद तारा, ईश्वर का दिया खूबसूरत उपहार प्रकृति स्वर्ग, श्रृंगार, सृष्टि का अलंकार प्रकृति ।।

इंतज़ार

बच्चे बड़े होने के इंतज़ार में हैं तो युवा सफ़र पर मंज़िल के इंतज़ार में मुसाफ़िर प्लेटफॉर्म पर ट्रेन के इंतज़ार में तो ट्रेन में घूमता चाय वाला ग्राहक के इंतज़ार में सरहद पार जाते सैनिक का परिवार उसकी वापसी के इंतज़ार में तो सरहद अपने सिपाही के इंतज़ार में दुश्मन ताक में है बस एक भूल के इंतज़ार में और सैनिक उसकी किसी हरक़त के इंतज़ार में जाड़ा घटता हुआ बसन्त के इंतज़ार में गरमी परेशान है बारिश के इंतज़ार में कर्ज़ में डूबा किसान सुरक्षित फसल के इंतज़ार में बेटी के माँ-बाप अच्छे वर के इंतज़ार में सज गया जनवासा बारातियों के इंतज़ार में भीगी आँखों से बैठी माँ, विदाई के इंतज़ार में कहीं कट नहीं रहा समय नव बधू के इंतज़ार में पूरा परिवार है खुश नई पीढ़ी के इंतज़ार में कुछ बुजुर्ग भी हैं अंतिम सफ़र के इंतज़ार में चाँद से सूरज तक का इंतज़ार नव जीवन से मृत्यु तक सब इंतज़ार में हैं..!!

तुम और मैं

जैसा होगा तुम्हारा व्यक्तित्व वैसा मेरा होगा चरित्र तुम राधा होगी मैं कृष्ण बन जाऊंगा अगर होगी आग तो मैं भस्म बन जाऊंगा वैसे ही लिखूंगा तुम्हें जैसी होगी तुम कथित जैसा होगा तुम्हारा व्यक्तित्व वैसा मेरा होगा चरित्र! तुम होगी रिवाज़ मैं रस्म बन जाऊंगा अगर होगी आत्मा तो मैं जिस्म बन जाऊंगा कलम स्याही से नहीं भीतर के एहसास से करूंगा रचित जैसा होगा तुम्हारा व्यक्तित्व वैसा होगा मेरा चरित्र..!!

जीवन रण

जब भाग्य हमें तैयार करे जीवन रण जब हुंकार भरे। जब शौर्य पताका गिर जाए परिणामों की मति फिर जाए। मुख सारे हलाहल चख लेगा अंतस में भरकर रख लेगा। रिपुदल शिविरों को लूटेंगे सब दाँव हाथ से छूटेंगे। लेकिन एक हाथ बचा होगा जिसने सौभाग्य रचा होगा। वो हाथ मुझे तुम दे देना और हाथ मेरा भी ले लेना। माथे से धूल हटा देना और खींच भुजाएं उठा देना। साहस का खूब असर होगा हथियार न एक मगर होगा। लेकिन संग्राम करेंगे हम मरके भी नाम करेंगे हम। परिणाम की चाह नही मुझको जय की परवाह नही मुझको। रथ लेकर आगे बढ़ना है और हाथ थामकर लड़ना है ।।

आध्यात्म हुआ आरंभ

सूर्य नभ में सारंग गोधूलि बेला आरंभ आध्यात्म हुआ प्रारंभ मत करो अब बिलंब तुम जोत कोई जला लो ईश्वर से हृदय मिला लो आसन को जरा संभालो मनमंदिर को भी सजालो ये कलयुग है मानव व्यस्त है अनेकानेक व्याधियों से त्रस्त है जो सन्मुख सबकुछ हो न सके भाव से मेल-मिलाप करो मन ही मन में तुम जाप करो कोई सामग्री नहीं अपने आप करो मन से व्याधि साफ करो बस ईश्वर को तुम प्राप्त करो. .!!

कल और आज

उनसे हास परिहास न जाने कब उनका उपहास हो गया कल पानी था उनके लिए मैं आज प्यास हो गया कल तक उनसे मिलना धरती के जैसा था आज उनको छूना भी आकाश हो गया..!!

माँ के हाथ का हलवा

ये जो माँ के हाथ का बना हलवा है इसका भी अलग ही एक जलवा है। पहले सूजी को अच्छे से साफ़ करती हैं किसी भी घुन को नही माफ़ करती हैं। फिर स्टोव पर कढ़ाई को चढ़ाती हैं भूरा लाल होने तक सूजी को पंकाती हैं। भीनी भीनी खुशबू आनी शुरू हो जाती है माँ फिर से रसोई घर की गुरु हो जाती हैं। पानी, घी सूजी में अच्छे से मिलाती हैं स्टोव को धीमी आंच में जलाती हैं। तब तक बादाम किशमिश भी काट लेती हैं गरी के खोपे को भी अच्छे से छांट लेती हैं। किशमिश बादाम को अच्छे से मिलाती हैं गरी से हलवे को फिर अच्छे से सजाती है। हलवा कटोरी में फिर हलवा परोस लाती हैं सबसे वाह मजा आ गया का घोष पाती हैं। सुबह हो या शाम हलवा जब मिल जाता है आत्मा होती है तृप्त और दिल खिल जाता है। माँ की बेमिसाल रसोई फिर से छा जाती है हलवे की आखिरी सूजी तक भा जाती है। ये जो माँ के हाथ का बना हलवा है इसका भी अलग ही एक जलवा है ।।

आँसुओं को गिरने दिया जाए

कभी कभी बिना किसी प्रत्यक्ष सुख या दुख के आंसू गिराना.. जीवन के लिए उतना ही जरूरी हो जाता है जितना कि सांस लेना सांसों के रुक जाने से मृत्यु होती है, यह शाश्वत नियम है और इसे कहते हैं प्राकृतिक मृत्यु किंतु आंसुओं को ना गिरने देने से जो मृत्यु होगी, वह कहलाएगी 'अप्राकृतिक' मृत्यु दोनों ही में होगी तो क्यों न फिर जीवन भर इस शरीर ने जिस प्रकृति की उपेक्षा की मृत्यु समय के लिए तो कम से कम, उसका संग पूरे मन से किया जाये तो चलो फिर.. शेष बची सांसो के जीवित रहने के लिए आँखों को उनकी खुद्दारी से नाउम्मीद किया जाए बिना किसी प्रत्यक्ष सुख या दुख के आंसुओं को सहजता से गिरने दिया जाए..!!

एक रिश्ते की मौत

एक रिश्ता जो तारीख से उपजा कैलेंडर पर बड़ा हुआ समय के साथ उम्रदराज़ हुआ.. एक रिश्ता जो मन की गहराइयों में उमड़ा सपनों में जवान हुआ उम्मीदों में पनपता रहा.. एक रिश्ता जिसमे न थी समय की बंदिश न दूरियों की परवाह और न ही भविष्य की फिकर.. एक रिश्ता जो बस प्यार में बना था प्यार में पला था और प्यार के लिए था.. एक रिश्ता जिसमें छांव थी तुम्हारी और धूप मेरी सुख थे तुम्हारे दुःख थे मेरे वर्तमान था तुम्हारा और भविष्य मेरा.. एक रिश्ता जिसमें जीना तो मुझे था तुम्हे तो बस टहलना था मार दिया तुमने मुझे मेरे अंदर ही कहीं रिश्ता जब मरता है कांथा नहीं दिया जाता अर्थी नहीं निकलती, न ही होता है राम-नाम सत्य वहां तो बस पिघलती है संवेदनाओं की चाशनी.. मैं भोर के तारे सदृश आकाश में टिक गया ये देखने को क्या होगा इस रिश्ते का पुनर्जन्म...!!

तुम्हारे चक्रव्यूह में

हे प्रिये मैं तुम्हारे प्यार में खुद को हमेशा अभिमन्यु की तरह पाता हूँ। जो की तुम्हारे द्वारा रचे उस चक्रव्यूह में जाना तो जानता है पर निकलना नही। तुम्हारी मुस्कुराहट, तुम्हारे नयन, तुम्हारे गुलाबी होंठ तुम्हारे खूबसूरत काले केश तुम्हारी बदन की कोमलता तुम्हारे मन की चंचलता तुम्हारे कंठ से निकली मधुर आवाज और तुम्हारे करीब आने की वो खुशबू, इन सारे हुश्न और श्रृंगार रूपी महारथियों के बीच मैं खुद को विवश निहत्था और असहाय खड़ा पाता हूँ और फिर खुद को पूरी तरह सर्वस्व तुम्हारे हवाले कर देता हूँ। क्योंकि मै इस प्यार के चक्रव्यूह और तुम्हारे हुश्न एवं श्रृंगार रूपी अनेक महारथियों के बीच से निकलने का मार्ग नही ढूँढ पाता हूँ। मैं कभी भी अर्जुन नही बन पाता जिसे चक्रव्यूह में जाना और वहाँ से निकलना दोनो आता हो। मैं तो बस चक्रव्यूह में जाने तक का ही ज्ञान रखता हूँ और निकलने के मार्ग का मुझे कोई ज्ञान नही, और इस तरह मै अभिमन्यु ही रह जाता हूँ। कदाचित मै सीखना भी नही चाहता उस ज्ञान को जो मुझे उस खूबसूरत चक्रव्यूह से बाहर आने का मार्ग बताए। सच तो यह है कि मुझे वहाँ तक जाना और बिल्कुल निहत्था हो जाने में ही आनन्द की अनुभूति होती है। मैं खुद को तुम्हे सौंपने रूपी अपने अधूरे ज्ञान में ही अपने प्यार की सम्पूर्णता देखता हूँ, मै तुम्हारे हुश्न और श्रृंगार रूपी महारथियों द्वारा वीरगति को प्राप्त करने में ही अपनी सफलता और सुख का मार्ग ढूँढ पाता हूँ। इसलिए अर्जुन न बनने और मेरे इस अभिमन्यु बने रहने में मेरा ही निज स्वार्थ है। इसलिए हे प्रिये तुम्हारा यूँ द्रोण बनकर चक्रव्यूह की रचना करना और मेरा अभिमन्यु बनकर उसमें उलझ कर रह जाना बहुत ही खूबसूरत प्रसंग है। अपने इस मोहब्बत के महाभारत का यह एक बड़ा ही आनन्दायक सुखद और खूबसूरत अध्याय है।।

मेरी नींद को आग लग गई

आज सोचा था कुछ नया कुछ सुकून लिखा जाए क़ैद एक कलम को फिर से रिहा किया जाए इश्क़ पर अब लिख नहीं पाऊंगा मज़हब पर लिखने को ज़मीर इजाज़त नहीं देगा राजनीति पर मैं लिखूंगा नहीं इंसान लिखने के लायक है नहीं और जानवर मेरा लिखा समझ नहीं पाएगा सोचते सोचते एक और रात गुज़र गयी एक बार फिर मेरी कलम मुझसे शिकायत करते करते सो गई पर मेरी नींद को आज भी आग लग गयी..!

एक सिक्के की आस में

एक सिक्के की आस में कब से भटक रहा है वो सिग्नल की बत्ती लाल देख गाडियों पे है झपट रहा वो मांग रहा हर एक से सिक्का लगाये हुए वो आस... कुछ उससे नज़रे चुरा रहे कुछ अपनी मजबूरी जता रहे आसानी से मिलता कहाँ सिक्का जिसकी उसे तलाश यह एहसास उसे भी है फिर भी कर रहा प्रयास.. जा रहा हर एक के पास अपनी मज़बूरी लिए हुए पसीज जा रहा जिनका सीना वो दे देते उसे सिक्का अपना कुछ असंवेदनहीन ऐसे भी है जो बेचारे को डांट लगाते चोर-चकार की संज्ञा देकर दूर से ही उसे भगाते... उस बदनसीब की नसीब कहाँ की कोई उसको प्यार दे उसको तो इतना भी न पता मातृ छाया होती है क्या... माँ के प्यार को तरसा तरस रहा है सिक्को को सिक्को से ही उसे रोटी है मिलनी और सिक्को से प्यार.. उसकी ये दुर्दशा देख उठते कई सवाल उसकी बेवसी क्या है ऐसी जो फैला रहा वो हाथ होने थी जिस हाथ किताबें क्यों उनको सिक्को की दरकार... बच्चे ही भविष्य हमारा हम सब ये जानते है फिर भविष्य का वर्तमान ऐसा क्यों इसे ऐसे स्वीकारते हैं ये कैसी है समस्या जिसे हम, सुलझा नहीं पाए..!

मुग्ध हो मेरी कविता पर

कभी मुग्ध हो मेरी कविता पर तुम अपने कहानी में जो मोड़ बनाओ कभी मान मेरी बातों को तुम अपने जीवन में जो नए अर्थ सजाओ कभी खोकर मेरी आँखों में तुम अपने ख़्वाबों में जो मुझे बसाओ हो सरस-सुफल मेरा यह जीवन तुम अपने हृदय में जो मुझे बसाओ..!

बचपन की बात

बचपन की बात है पांचवी से कविता का साथ है आंठवी में मित्र ने कहा था कलम जल्दी जल्दी चला तेरे नाम में भी लगेगा डॉक्टरेट पीएचडी फला फला जब सौ कविताएं होंगी पूरी उपाधि की खतम हो जाएगी दूरी बाल मन वो नादान हम भी बुद्धू जो दिल कहता गया हम मानते गए भावनाओं की कढ़ाई में तेल खौलाते रहे और कविताओं की जलेबियां छानते गए किसी ने कहा था, बहोत पैसा है कवियों की जेब, खजाना कुबेर जैसा है लालच तब हम में भी थी सिक्को की खनक में खींचे हम चल पड़े पीछे पीछे आठवी तक होश आ गया था न डॉक्टरेट है, न पैसा है ये तो सब भ्रम है ख़याली ख्वाब जैसा है पर तब तक हम पड़ गए थे प्यार में शब्दों और कविताओं के दुलार में खुद को ज़ाहिर करना रास आने लगा था ये बाल मन कवि हो चला था फिर लिखते गए लिखते गए ढेर हो गई कविता जिंदगी जब भी अंधेर हुई सवेर हो गई कविता...!!

श्मशान अंत नहीं जीवन की शुरुआत है

श्मशान की रात.. कैसी होती होगी श्मशान की रात जहां रोज़ जल जाते होंगे ना जाने कितने ख्याब जहां ठाठ से सब लेटकर जाते होंगे जहां लोग मातम कम वक्त ज्यादा देखते होंगे जहां माटी की कीमत इंसा से ज्यादा होती होगी जहां स्वयं शिव विराजते होंगे जहां अघोरी मानुज का भोग लगाते होंगे जहां प्रेत-पिशाच नित्य शिव आरती करते होंगे हां तो कैसी होती होगी वो श्मशान वाली रातें श्मशान की रातों में शोर नहीं शान्ति होगी आहट रूहों की बस थोड़ी आती होगी अघोरी उपासना करते होंगे जहां शिव भस्म की होली खेलते होंगे रूहें नई नवेली आत्माओं का अभिनन्दन करती होगी आपस मे मिलकर शायद वो कुछ संवाद करती होगी त्याग कर इस मायावी दुनियां को वो सब अब अमरत्व की ओर बढ़ती होगी हर रात वहां दरबार सजता होगा मोह-माया का ये बन्धन सचमुच अब खत्म होता होगा एक नए मार्ग की तरफ सब जाते होंगे जीवन-मरण के इस खेल से अब वो मुक्ति पाते होंगे हर रात वहां सत्य से सबका सामना होता होगा शायद इस कारण ही शख़्स श्मशान जाने से डरता होगा..!!

वो सार है मेरी मगर शीर्षक हो नहीं सकते

जो कहना चाहते उनसे वो भाव जुबां पर ला नहीं सकते मचलते है जो उनके ख़्वाब हक़ीक़त उनकी, उन्हें हम पा नहीं सकते बड़ा खूब है उनसे मेरा नए दौर का इश्क़ वक़्त से देर है दोनों, पर दोष किसी को दे नहीं सकते मुहब्बत निर्मोही जो रिश्तों में उन्हें बराबर लिख नहीं सकते… लुभाती है उनकी बातें उन्हें सुनने को जीते है पर वो जो कहना है उन्हें हमसे वो हमसे कह नहीं सकते उनकी आंखों में हर पल है पर दिल में हो नही सकते वो जो कहना चाहते उनसे वो भाव जुबां पर ला नहीं सकते.. नदी के किनारों सा है ये रिश्ता साथ तो है हर-पल में पर एक दूसरे से मिल नहीं सकते कृष्ण और राधा सी किस्मत जुदा जो हो गए कल में कम्बख़्त रो भी नहीं सकते क्या लिखूं उनपे मेरी कविता वो सार है मेरी मगर शीर्षक हो नहीं सकते...!!

आप सबके लिए आपके लिए कोई नहीं

आप सबके लिए हैं आपके लिए कोई नहीं। सब को प्यार देना, सबका ख़्याल रखना आपकी ज़िम्मेदारी। आपसे प्यार..? आपका ख़्याल..? ख़ुद आप करें। सब की ख़ुशी ही आपकी ख़ुशी सब की तकलीफ़ आपका दर्द आपकी ख़ुशी..? आपकी तकलीफ़..? ख़ुद आप ही सहें। तन्हा ज़िन्दगी में बटोर कर मुस्कान निभाते जाइए सारे रिश्ते सबको आबाद करते ख़ुद को ख़त्म होते देखिए कैसे मुस्कुराती है ज़िन्दगी....!

अब कुछ नहीं चाहिए

हम तो खुश हैं पढ़कर ज़िंदगी की किताब को पढ़ने को अब कोई किताब नहीं चाहिए ज़िंदगी से बढ़कर कोई ख़्वाब नहीं हमारा ज़िंदगी है तो और कोई ख़्वाब नहीं चाहिए महकती है हमारी ज़िंदगी दोस्तों के फूलों से दोस्त हों आपसे तो गुलाब नहीं चाहिए छुपा लेते हैं ग़म अपना मुस्कुराकर महफ़िल में हमें खिलखिलाता हुआ कोई नक़ाब नहीं चाहिए ख़ुश हैं अपना दर्द दोस्तों को सुनाकर महफ़िल में वाहवाही ज़नाब नहीं चाहिए..!!

अब दर्द नहीं होता

पहली बार जब मेरी पीठ में छूरा घोंपा गया मुझे बहुत दर्द हुआ दूसरी बार जब घोंपा गया और दर्द हुआ तीसरी और चौथी बार तक में दर्द सहनीय हो गया था पांचवी, छठी बार तक तो पीठ ख़ुद को तैयार रखने लगी अब तो अनगिनत बार छूरे घोंपे जा चुके हैं इस पीठ को दर्द नहीं होता, गुदगुदी होती है..!!

सात जन्मों का रिश्ता

एक कदम तुम आओ दो कदम मैं आता हूं तीन कदमों में मिलकर चार कदम का एक सफर तय करते हैं पांचवें कदम में एक दूसरे को समझते हैं छठवा कदम उठाते हैं सात जन्मों के रिश्ते के लिए नौनिहाल जिंदगी के लिए बस...... एक कदम तुम आओ दो कदम मैं आता हूं..!!

ज़ख़्म

अगर जख्म को वो हवा दे रहे हैं तो उनको कहो हम दुआ दे रहे हैं सुनो दर्द के हैं यूँ शौकीन हम तो है अच्छा कि वो दर्द नया दे रहे हैं घुटा रह गया मेरे अंदर का इन्सां मेरी रूह को यूँ.. हवा दे रहे हैं मेरी मौत मांगी दुआ में जिन्होंने मेरी चोट को वो.. दवा दे रहे हैं मेरे जीतेजी मुझको मारा जिन्होंने मेरी कब्र को वो क्या क्या दे रहे हैं खुदा मानकर था जिन्हें हमने चाहा वफ़ा की वो मुझको सजा दे रहे हैं शिकायत नहीं 'प्रफुल्ल' लोगों से मुझको दगाबाज़ हैं सब दगा दे रहे हैं..!!

सभी को तलाश है

कोई चुनाव लड़ने को टिकट तलाश रहा है कोई पत्रकारिता की साख तलाश रहा है कोई स्त्री घर में, घर के बाहर सुरक्षा तलाश रही है कोई लेखक पाठक तलाश रहा है कोई पाठक भटक रहा है मनचाही रचना की तलाश में कोई जीवन के अर्थ तलाश रहा है एक मौसम तलाश रहा है खिलखिलाकर झर जाने को आँचल एक मुसाफिर खो जाने को अजनबी रास्ता तलाश रहा है धरती पल भर को टिक सके ऐसा कंधा तलाश रही है मोहब्बत वफा तलाश रही है और मैं चाभियाँ तलाश रहा हूँ हमेशा की तरह जाने मैं चाभी खोना कब बंद करूँगा जाने कब दुनिया के सारे ताले गुम हो जाएँगे..!!

रच दें प्रेम कविता

जन्मों जन्मों तक तृप्त रहें, जब सारे बंधन घुल जाएँ दोनों आपस में खो जाएँ, और फिर रच दें प्रेम कविता जब कृष्ण पक्ष से नैन तुम्हारे अश्रु से आप्लावित हो सुवासित केश उघड़े छुपे वक्षों पर यूँ आच्छादित हो ये रेशम उँगलियाँ तुम्हारी चंद्र कटि पर नृत्य करें इन साँसों से उन साँसों तक रोम रोम उत्साहित हो तब भर कर तुमको बाहों में आग़ोश में अपनी लेकर के हम दोनों अपने होंठ मिला कर रच दें प्रेम कविता.. जब शर्म हया से प्रिये तुम्हारा अंग अंग सकुचाता हो सर्वस्व समर्पण भाव रहे यौवन खुद पे इतराता हो नख से शिख तक मोम देह पर तप्त अधर रख दूँ अपने आहों में मेरा नाम रहे जो प्रेम सुधा सुलगाता हो दो देह मिले इक रूह बनें अग्नि से अग्नि मिल जाए और चुम्बन की बौछारों से फिर रच दें प्रेम कविता..!!

मैं अक्सर

मैं बहुत ज्यादा सोचता हूँ अक्सर और करता हूँ बहुत शिकायतें चिलचिलाती धूप की कड़ाके की ठंड की गाड़ियों के शोर की आस पास फैली गंदगी की निम्न स्तर के राजनीति की चार लोगों के सोच की किसी के नैन-नक्श की और अपने मन की जो ये सब सोचता है! मैं कम सोचता हूँ अक्सर और करता हूँ कम ही चर्चा बरसों से सूखी पड़ी मिट्टी पर पड़ने वाली पहली बूँद की बादल के पीछे छुपे सूरज की छितराती किरणों की बदन को छेड़ती ताजी, ठंडी हवाओं की पेड़ की डाल पर कूकती कोयल की गोल गोल घूम आपस में खेलते धूल और पत्तों की नदी के किनारे फैले सन्नाटे को भंग करती लहरों की खुद की डायरी के फड़फड़ाते पन्नों की और अंततः अपने मन की जो ये सब सोचता है..!!

नया रिश्ता

एक नया रिश्ता एक पौधे की तरह होता है एक नया रिश्ता एक पौधे की तरह होता है जिसे भावों की उर्वर भूमि; समर्पण का बीज; लाड का जल; प्रीत का प्रकाश दुलार का पोषण; प्रतिदिन सामंजस्य की भांति देखरेख और माली सी निष्ठा चाहिए जो पौधे को अपनी संतान मान उसका पालन पोषण करता है इन सबका सुंदर समन्वय ही पौधे को वृक्ष बनाता है यही बातें रिश्तों पर भी लागू होती हैं वरना रिश्ते जितनी जल्दी बनते हैं, उपर्युक्त किसी एक कड़ी के अभाव में उतनी तेजी से धराशायी हो जाते हैं रिश्तों का गणित, माली सी कला पर निर्भर है..!!

अद्भुत मंजर

श्मशान पे बैठकर खुद को खत्म होता देखना धीरे-धीरे खुद को राख होता देखना जो पाया नहीं उसको भी यहाँ खो दिया होगा जो साथ था उसने भी कोई दग़ा किया होगा कोई शिकायत शायद तब ना होगी किसी को मुझसे सबके होंठो से सिर्फ़ तारीफ़े ही निकल रही होगी सारी दुनियां जैसे पलभर में ही खत्म होगी ख्वाहिशे भी शायद सारी दफ्न होगी एक लंबा रंगमंच खत्म हो रहा होगा एक नए अभिनय का किरदार कोई बुन रहा होगा आत्मा का सफर यूँ तो चलता ही रहेगा बस कुछ यादों का कारवां बिछड़ रहा होगा जिसका शायद थोड़ा दुःख मुझे भी हो रहा होगा पर उस एक दिन श्मसान पे बैठकर खुद को राख होता देखना अद्भुत होगा..!!

प्रेम सर्वोच्च है

सच प्रेम से परिपूर्ण रचना कभी लिखी नहीं जा सकी, ना लिखे जा सके प्रेम में ओझिल हुए दिवास्वप्न ही, अक्सर प्रेम में व्याकुल युगल मिले हमेशा एक पहर बाद ही, खोजा ना जा सका जिन्हें प्रेम की ना जाने कितनी ही कसमें देकर, नहीं समझ पाए वे उन अधूरी छोड़ी गई प्रेम से परिपूर्ण रचना को, ना ही उनको जिनको कभी स्वतः ही पूरा हो जाना चाहिए था, प्रेम की अनुभूति करना स्वाभाविक है, परन्तु प्रेम को जीवन बनाकर जी लेना निश्चय ही आत्मिक है, प्रेम अपूर्ण नहीं होता, प्रेम खुद में सम्पूर्ण है, हाँ निश्चय ही प्रेम में लिखी रचनाएं अपूर्ण रही हो, या अपूर्ण रहा हो मिलन उस अमावस काली रात का पूर्णिमा वाली रात से, पर अंततः प्रेम सम्पूर्ण है, प्रेम सर्वोच्च है।।

जब तुम्हें मोहब्बत होगी

जब तुम्हें मुझसे मोहब्बत होगी जब तुम मेरी आँखों में डूबकर उस पार जाओगे तो जरा संभलना दहलीज पर के उस क़ब्र से जहाँ कुछ ख़्वाब दफ़न हैं भूलकर भी! मत खोलना जाले लगे उस संदूक को जिसमें पुरानी तस्वीर पड़ी है मत जाना उस सूखी नदी की ओर मत डरना उस घनघोर अँधेरे से बस जलाये रखना अपने भीतर की रौशनी को वही लाएगी तुम्हें मुझ तक..!!

मैं दीप हूँ

मैं दीप हूँ, मैं हमेशा जलता हूँ यूँ ही जलते जलते मैं तम का विनाश करता हूँ। मैं दीप हूँ, ना मैं कभी पिघलता हूँ बुराइयों का अंत करके मैं हर घर को रोशन करता हूँ। मैं दीप हूँ, भटके को राह दिखाता हूँ निराशा को आशा में बदल खुशियों की बौछार करता हूँ। मैं दीप हूँ, बाती के संग में रहता हूँ बिन बाती मैं कुछ नहीं मित्रता का संदेश देता हूँ।।

तुम सब कुछ पढ़ लेना

सुनो! मैं नदी लिखूंगा तुम प्यास पढ़ लेना मैं आग लिखूंगा तुम उम्मीद पढ़ लेना में मृत्यु लिखूंगा तुम प्रेम पढ़ लेना मैं भूख लिखूंगा तुम स्वप्न पढ़ लेना मैं साँस लिखूंगा तुम अपना नाम पढ़ लेना मैं जीवन लिखूंगा तुम असंभव पढ़ लेना मैं कुछ नहीं लिखूंगा तुम सब कुछ पढ़ लेना !

स्वयं बुद्ध हो जाना

किसी मध्य रात्रि में अपनी सुप्त रस्वादों को मासूम मोह के धागों को छोड़ निर्बद्ध हो जाना विकल्प सारे तज देना एक संकल्प भज लेना पंचशील को अपना परम सिद्ध हो जाना स्वयं बुद्ध हो जाना प्रज्ञाशील करुण को धर हृदय में दयाभाव को भर मानव मूल्यों के प्रति तुम अनुबद्ध हो जाना स्वयं बुद्ध हो जाना बुद्ध को शरण मान लो धर्म ही शरण जान लो संघ की जो मिले शरण परम पवित्र शुद्ध हो जाना स्वयं बुद्ध हो जाना..!!

प्रकृति ही सृजन

जब से तेरी देह को छू आये हैं नयन भूल गया हूँ भोजन भूल गया शयन लगता है तेरी देह को छू आई है पवन महक उठी है साँसे बहक गया ये मन छूती मेरी उंगलियाँ जब भी तेरा तन लागे जैसे बाँसुरी को चूमते किशन वन में खोजे कस्तूरी भटक रहा हिरन लगाले तू गले और मिटा दे ये अगन भँवरे की छुअन से खिल जाने दे सुमन सृजन है प्रकृति प्रकृति है सृजन..!!

हासिल भी अप्राप्त सा लगता

कुछ कुछ बीज धरती में समाकर भी नहीं अंकुरित होते। कुछ अनुभव कभी कविता में नहीं ढलते। कुछ हरे पत्ते गिर सकते हैं किसी भी समय टहनी से वे पीले पड़ने और पतझड़ की ऋतु आने का इन्तजार नहीं करते। कुछ नदियाँ प्यासी ही दम तोड़ देती हैं कुछ पाखी बिना उड़ान भरे ही पूर्ण कर लेते है अपनी यात्रा। कुछ था मेरा बेशकीमती जो छूट गया था नदी के उस किनारे पर, कुछ था जो एक पूरे चाँद की रात अधूरा रह गया था इसलिए कुछ हासिल भी अप्राप्त ही लगता है आजीवन..!!

ज़िंदा हो लेकिन लाश में हो

झूठी खुशियों के आस में हो जाने किस गम की तलाश में हो। तुम क्यों ढूंढ रहे हो सुकून आखिर अब मान भी लो की शहर के पास में हो। कुछ सच्चे रिश्ते क्यों नहीं बना लेते साहब आखिर क्यों मोबाइल के मोहपाश में हो। आओ कभी जमीन पर तो एहसास होगा काँटा कैसे दिखेगा, तुम तो आकाश में हो। धूप भी शीतल लगती है पर तुम क्या जानो तुम तो अपने वही ac वाले आवास में हो। आईना खरीद क्यों नहीं लाते घर अपने आखिर तुम भी उसी अंधविश्वास में हो। झूठे उजाले की चकाचौंध में गुम हो साहब इसे अंधेरा कहते हैं, तुम जिस प्रकाश में हो। लो अब कह ही देता हूँ, जो सुन ना पाओगे तुम जिंदा हो साहब लेकिन एक लाश में हो।

क्यों माँगते हो

सूरज तारों से धूप नहीं मांगता और सागर नदियों से पानी कभी देखा है फूलों को तितलियों से सुगंध मांगते या पेड़ों को छाया मांगते राहगीरों से संसार कितना विचित्र है जो कुछ तुम मांगते हो उसे पहले ही ईश्वर ने तुम्हारे भीतर संचित कर रखा है।

आसान नहीं लक्ष्मण की उर्मिला होना

आसान नहीं है प्रेम में पगे खतों की प्रतीक्षा भी न करना आसान नहीं है प्रेम में विलग हो, प्रेम में व्याकुल रहना आसान नहीं है प्रेम को पूज्य मान उसकी इच्छा को शिरोधार्य करना आसान नहीं है अपने संग हुए अन्याय पर प्रश्नचिन्ह भी ना लगाना हाँ कठिन है मन की व्यथा को, कथा न बनने देना कठिन है नितांत एकल रहकर मन को छुब्ध न रहने देना बहुत ही कठिन है प्रेम में रहकर, प्रेम से दूर रह पाना और शायद कठिन ही नहीं दुष्कर है बिना किसी दोष के दंड पाना बड़ा ही कठिन है ये पड़ाव महसूस ना होने देना हाव भाव हाँ आसान नहीं है, असहमत होने पर भी सहमति में सिर हिला देना आसान नहीं है किसी का भी प्रेम में 'लक्ष्मण की उर्मिला' होना..!!

सात्विक प्रेम

सतत् निर्झर निर्मल प्रवाह है प्रेम यह उन्मुक्त होता है, स्वच्छंद नही दिल की गहराईयों से होता है प्रेम प्रेम स्वार्थी तो हो नहीं सकता विवेकपूर्ण होता है, सात्विक प्रेम चाहता है बस ये प्रेमी का भला लेना नहीं केवल देना जानता है प्रेम ईश्वर की स्वाभाविक कृति है प्रेम आग्रह नहीं करती वह परिधि है प्रेम सारे कष्टों को झेल कर भी प्रेमी का साथ चाहता है प्रेम व्यक्ति से सामूहिकता बन जाता है प्रेम नानक, महावीर, रहीम हो या राम ईसा, मूसा, गौतम हो या श्याम कबीर, सूर, तुलसी हो या मीरा सदियों से ह्रदय से छलक रहा है प्रेम!

चीखो दोस्त

चीखो दोस्त कि इन हालात में चुप रहना गुनाह है चुप भी रहो दोस्त कि लड़ने के वक्त में महज बात करना गुनाह है फट जाने दो गले की नसें अपनी चीख से कि जीने की आखिरी उम्मीद भी जब उधड़ रही हो तब गले की इन नसों का साबुत बच जाना गुनाह है चलो दोस्त कि सफर लंबा है बहुत ठहरना गुनाह है कहीं नहीं जाते जो रास्ते उनपे बेबस दौड़ते जाना गुनाह है हँसो दोस्त उन निरंकुश होती सत्ताओं पर उन रेशमी अल्फाजों पर जो अपनी घेरेबंदी में घेरकर, गुमराह करके हमारे ही हाथों हमारी तकदीरों पर लगवा देते हैं ताले कि उनकी कोशिशों पर निर्विकार रहना गुनाह है रो लो दोस्त कि बेवजह जिंदगी से महरूम कर दिए गए लोगों के लिए न रोना गुनाह है मर जाओ दोस्त कि तुम्हारे जीने से जब फर्क ही न पड़ता हो दुनिया को तो जीना गुनाह है जियो दोस्त कि बिना कुछ किए यूँ ही मर जाना गुनाह है...!!

खुशबू बनके

सुनो, तुम जानते हो ना मेरा मन भटकता रहता है हाँ अभी मेरे मन में एक गहरा विचार समाया है अगर चला जाऊँ तुमसे पहले तो एक काम तुम मेरा करना मेरी अस्थियों का विसर्जन गंगा में मत करना मेरा पिंड दान भी मत करवाना बस उन अस्थियों को थोड़ा संभालना और अपने आस पास कहीं एक छोटा सा पौधा लगा देना और उसकी खाद में मिला देना उन अस्थियों को खयाल रखना उस पौधे का बस इसी तरह जाने के बाद भी हमेशा रहूँगा तुम्हारे एक दम करीब खुशबू बनके..!!

हमेशा सोचता हूँ

कभी कभी सोचता हूँ क्यों न अपनी तकलीफों को कुछ शब्द दे दूँ। फिर कलम और कागज़ लेकर बैठ जाता हूँ इन तकलीफों को लिखने। कुछ शब्द ढूँढ कर कोशिश करता हूँ लिखूँ एक शायरी। लेकिन एक शेर में जिन्दगी की सारी तकलीफों को लिख पाना कहाँ सम्भव है। न जाने कब वह शेर कविता बन जाता है, फिर वह कविता कहानी और वह कहानी उपन्यास। लेकिन उपन्यास में भी कहाँ समा पाता है, तकलीफों का पिटारा। पन्ने पर पन्ने भरते जाते है लेकिन दर्द की बयानगी खत्म ही नही होती। काफी जद्दोजहद के बाद सोचता हूँ की एक निष्कर्ष दे ही दूँ, और यही सोचकर लिखने बैठ जाता हूँ उस उपन्यास का आखिरी पन्ना। लेकिन कमबख्त दर्द पन्नो में कहाँ समा पाता है। आखिरी पन्ना भरने से पहले ही ज़िन्दगी लेकर आ जाता है एक नया दर्द। एक ऐसा दर्द जो पहले नही मिला था जो अबतक का सबसे अलग और सबसे गहरा दर्द होता है। फिर शुरू हो जाता है एक नयी कहानी। खत्म हो रहा वह उपन्यास एक नया मोड़ ले लेता है कुछ गहरे सदमे के साथ। और इस तरह वह उपन्यास अधूरा रह जाता है। और यह हादसा बार बार हर बार होता है। जब भी वह उपन्यास खत्म होने को होता है, एक अलग दर्द और तकलीफ फिर से उसे एक नया मोड़ दे देता है। और इस तरह वह उपन्यास फिर से अधूरा हो जाता है। और यूँ ही अधूरा बना रहता है हमेशा के लिए अधूरा..!!

भीतर ही भीतर

कभी कभी बहुत खुशी भी अचानक उदास कर जाती है हमें हाँ खुशियों के नीचे जब दब जाता है ढेर सारा ग़म तो वह कराह उठता है दर्द से एहसास दे जाता है अपने दबे होने का यूँ भी खुशियाँ बहुत हल्की होती हैं कब छू जाती हैं पता भी नहीं लगता और ग़म भारी होने से दबता चला जाता है गहराई में, दिल के अन्दर बहुत अन्दर..!!

तुम वो चांद हो

तुम मेरा वो चांद हो जिसे जीवन की हर यात्रा में सहयात्री बनाना चाहता हूं। चांद जिसे देखता है गाड़ी में बैठा बच्चा और उमंग से मचलता रहता है उसे देखकर कि साथ चल रहा है मेरे। चांद के नखरे संपूर्ण पृथ्वी उठाती है मैं तो इस ब्रह्मांड की लघुतम इकाई हूँ।

चेहरे पर उतरता वसंत

अखबार में एक खबर छपी थी कि वसंत आने वाला है अब वसंत तो किसी भी रास्ते आ सकता है इसलिए मैंने घर के सारे खिड़की दरवाजे खोल दिये क्या पता जाने किस ओर से वसंत का प्रवेश हो शायद उस खिड़की से जिसकी तरफ से गांव की पगडंडी आती थी या फिर उस दरवाजे से जिधर से पक्की सड़क शहर को जाती थी रोज सुबह से शाम मैं इंतजार करता रहा वसंत और उसके आगमन का और आप अचरज करेंगे कि एक रोज सुबह जब मैं सोकर उठा तो मैंने पाया कि वसंत आ चुका है दबे पांव चुपचाप बिना हो हल्ला किये उसके चिन्ह हर तरफ दिख रहे हैं चेतन अचेतन दोनों में हवा मादक गंध बिखेर रही है सुबह की सैर में कुछ अलग ही नजारा था फूलों के चटक रंग आकर्षण की अलग ही कहानी कह रहे थे परागकण रस से सराबोर हो नव ऊर्जा से भरे भौरों से अठखेलियां कर रहे थे शाखायें मदहोशी से लहरा रही थी फुनगियां नयेपन से इठला रही थी मानो ज़र्रे ज़र्रे में वसंत उतर आया हो और धरती के समानांतर सुस्ता रहा हो फूल, पत्ती, पशु, पक्षी सब पर वसंत दिखा बस नहीं दिखा तो वो सिर्फ मनुष्य के चेहरे पर हालांकि मेरी प्रबल इच्छा थी.. कि वसंत को मानव के चेहरे पर भी उतरता हुआ देखूं..!!

24 कैरेट सोने सा प्रेम

जिन शब्दों में विदा कहा गया वे विदाई के शब्द नहीं थे: 'अपना ख्याल रखना'! जिन शब्दों में प्रेम प्रस्तावित किया गया वे प्रेम के शब्द नहीं थे उनमें निहित था साथ का स्वार्थ! पहली बार मिलन के बाद विदा के समय शब्दहीन आंसू शुद्धतम प्रेम थे जिन शब्दों में अंतिम विदा कहा गया वे प्रेम के सिवा कुछ नहीं थे! अंतिम विदा का चुम्बन 24 कैरेट सोने सा प्रेम होता है, जिसमें गहने नहीं बन सकते भाषा अभी ठीक से सीखी ही कहाँ मनुष्य ने..! !

ईश्वर को भी पूजो

अकेले इंसान विकसित नहीं होगा प्रकृति भी होगी अवरोध भी होंगे जैसे उम्मीदें जैसे सुविधाएं जैसे बीमारियाँ इन्हीं प्रतिरोधों से ईश्वर संकेत देते रहते हैं कि हमें भी पूजो न कि आपस में एक दूसरे को जिससे स्वार्थ हो..!!

तुम और मैं एक जैसी ही तो हैं

तुम और मैं एक जैसे ही तो हैं... आखिर मेरी ही तरह चांद को देख पिघल तुम भी जाते होगे। बच्चे के कस के उँगली पकड़ने पर दिल तुम्हारा भी हार जाता होगा। साइन-काॅस-थीटा देख एक बार सर तुम्हारा भी चकराया ही होगा। खूबसूरत लड़के(लड़की) को मुड़कर तुमने भी कभी देखा ही होगा। गुलाब को देख उसे तोड़ने का मन कभी तो किया होगा। सिग्नल पर रेड लाईट तोड़ कर भागने का मन भी किया होगा। खुले आसमान को घंटों तक निहारा कभी तुमने भी ज़रूर होगा छत पर बैठ कर तारे गिनने की कोशिश भी की होगी । प्यार और इज्ज़त के भूखे तुम भी तो होगे। फिक्र और डर से घिरे तुम भी तो होगे। इश्क़ का स्वाद कभी ना कभी तो चखा ही होगा। कुछ टूटे रिश्तों का बोझ भी लदा ही होगा। तुम्हारा भी कोई अजी़ज़ होगा। दिल टूटने पर दर्द तुम्हें भी होता ही होगा। कुछ ख़्वाब तुमने भी देखे होंगे। कुछ चाहतें तुम्हारी भी अधूरी होंगी। किसी नाम के ज़िक्र बस से सांस तुम्हारी भी थमती होगी। रिश्तों की गहराई कभी तुमने भी नापी तो ज़रूर होगी। मोम की तरह पिघले कभी ज़रूर होगे। गुस्से का घूँट कभी तुमने भी पिया होगा। सब्र का बाण कभी तुम्हारा भी टूटा होगा। बेवजह इल्ज़ाम कभी तुम पर भी लगाया गया होगा। किस्मत से धोखा कभी तुमने भी खाया ही होगा। टूटता तारा देख कभी दुआ भी मांगी ही होगी। दुआ कुबूल ना होने पर रब से शिकायत भी की ही होगी। अनचाही बेड़ियों मे कभी तुम भी फंसे होगे। उसूलों ओर फर्जो़ की सीमा को कभी तुमने भी लांघा ही होगा। तुमने भी यह सब ज़रूर किया होगा। आखिर तुम और मैं एक जैसे ही तो हैं।।

कभी सोचा है

कभी सोचा है गहराई से आख़िर क्यों...? न चाहते हुए भी तुम बार - बार अकेलेपन से घिर जाते हो वजह दो ही है , तुमने ग़लत लोगों को मन का सिहांसन और अच्छे लोगों को वहम् की कुटिया दे रखी है..!!

जब तुम कहते हो

तुम कहते हो कि तुम्हें बारिश से प्यार है लेकिन उसमें चलने के लिए तुम छाता इस्तेमाल करते हो तुम कहते हो कि तुम्हें सूरज से प्यार है लेकिन जब वह चमकता है तो तुम छाया तलाश करते हो तुम कहते हो कि तुम्हें हवा से प्यार है लेकिन जब वह आती है तो तुम खिड़कियां बंद कर देते हो इसलिए मैं डरता हूँ जब तुम कहते हो कि तुम मुझे प्यार करते हो !

मेरा शेष जीवन

मेरा शेष जीवन धरोहर है तुम्हारी अनवरत प्रतीक्षाओं की मैं जीवन भर तड़पता रहा हूँ तुम्हारे प्रेम को पाने के लिए लेकिन जीवनयात्रा के इस पड़ाव पर आकर मैंने जाना कि प्रेम का सबसे सुंदर पहलू है प्रतीक्षा यदि मैं वास्तव में प्रेम में हूँ तो मैं अब ठहर जाना चाहता हूँ जीवन में आगे बढ़ते रहना इतना भी आवश्यक नहीं मैं उस पिछले पड़ाव पर लौट कर जाना चाहता हूँ जिस पड़ाव पर मुझे तुमसे प्रेम हुआ मैं उस ठहराव को दोबारा जीना चाहता हूँ मैं प्रतीक्षारत हूँ और यदि इस प्रतीक्षा का कोई अंत निश्चित नहीं तो सम्भवतः मैं प्रतीक्षा को ही प्रेम मान लूंगा जन्मों बाद यदि तुम कभी मेरे समक्ष आ भी गए तो मैं तुम्हें अनदेखा करूँगा क्योंकि जब प्रतीक्षा ही प्रेम बन चुकी होगी तब हमारे मिलन का क्या मोल रह जाएगा..?

कुछ ख़त

कुछ खत लिखे रखे हैं उसी दराज़ में आज भी, जिसे भेजने से पहले ही उनके जज्बातों को जला देना पड़ा, कुछ इस तरह ही खुले आसमाँ के नीचे लेटे रहे रातभर, और उन सारे सपनों को अपने हाथों से तोड़ना पड़ा, अरे! देखो ना..उस तारे को भी आज बिन तुम्हारे ही देखना पड़ा, जो दूर कहीं सबसे कम टिमटिमाता था जिससे मैं तुम्हारी बाते अक्सर किया करता था, जिसे तुमने भी शायद एक रोज अपनी छत से देखा था, और कहा था तारों के भी कोई नाम रखता है क्या.. ख़ैर,आज सुनो... एक रोज़ वो तारा भी टूटेगा, एक रोज़ वो चाँद ज़मी पे भी आएगा, एक रोज़ तुम भी मिलोगे, एक रोज़ वो सपना भी सच होगा, पर उस एक रोज़ ये उम्र गुज़र चुकी होगी, और उस एक रोज बेशक़ तुम्हे मुझसे बेइंतहा मोहब्बत होगी..!!

मैं जी रहा हूँ तेरे बिन

तू मुझे अब धीरे धीरे भुला दे मैं जी रहा हूँ तेरे बिन तू भी बिन मेरे जी के दिखा दे तेरा मेरी ज़िंदगी में आना इत्तेफाक बेशक नहीं था हाँ ये सच है तुझ पे मेरा कोई कानूनी हक नहीं था जा ये हक तू अब किसी गैर को दिला दे मैं जी रहा हूँ तेरे बिन तू भी बिन मेरे जी के दिखा दे जानता हूँ तू आज भी मेरी तस्वीर संग बातें किया करता है स्याहकाली रात में छुपकर तू सबसे रोया करता है पर सुन ना, अब इन नुस्खों को पलकों के पीछे छुपा दे मैं जी रहा हूँ तेरे बिन तू भी बिन मेरे जी के दिखा दे हाँ तुझसे मोहब्बत मैं बेहिसाब करता हूँ पर अब मैं इकरार करने से डरता हूँ इस सच को भी अब तू कोई किस्सा बना दे मैं जी रहा हूँ तेरे बिन तू भी बिन मेरे जी के दिखा दे सफर ज़िंदगी का संग आसां होता न मैं तन्हा होता न तू परेशां होता देख अब इन ख्वाहिशों की गठरी बांध तू किसी दरिया में बहा दे मैं जी रहा हूँ तेरे बिन तू भी बिन मेरे जी के दिखा दे..!!

तुम पत्रकार हो

सच कहो, चाहे तख्त पलट दो, चाहे ताज बदल दो भले "साहब" गुस्सा हो, चाहे दुनिया इधर से उधर हो तुम रहो या ना रहो पर, जब कुछ कहो तो, सच कहो। सच पर ही तो, न्याय टिका है शासन खड़ा है, धर्म बना है हे लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ! सच से ही तुम हो तो, अगर कुछ कहो तो, सच कहो। तुम अपनी राय मत दो तुम किसी के गुलाम नहीं हो सिर्फ, सच दिखाओ आवाम को मरो-कटो-खपो, लड़ो-भिड़ो-गिरो पर, अगर कुछ कहो तो, सच कहो। ध्यान रखो, तुम न "साहब" के हो ना ही तुम "शहजादे" से हो तुम सिर्फ देश के जवाबदेह हो सच बोलने से जो दर्द हो, तो चीख लो पर, तंत्र को जिंदा रखो लोकतंत्र को जिंदा रखो सच झूठ के इस युद्ध को, रोक दो हे लोकतंत्र-स्तंभ! बस, सच बोल दो..!!

स्त्रियाँ

स्त्रियां अगर गवाही दें तो संसार के समस्त पुरुष कटघरे में खड़े होंगे स्त्रियां अगर अपनी जुबान खोल दें तो संसार के समस्त पुरुष चौराहे पर नग्न दिखाई देंगे पर पुरुष चतुर है उसने परम्परा की शुरुआत से ही स्त्रियों के मन में ठूंस दिया कि शुचिता ही स्त्री का स्त्रीत्व है कि पुरुष की विशाल छाती ही उनकी सुरक्षा है कि पुरुष की छाया में ही वो सुखी रह सकतीं हैं न जाने कहां से ये रहस्य फैला दिया कि स्त्रियां दुर्गा है काली है सृष्टि की रचयिता है और भी न जाने क्या क्या उस पर भी सबसे बड़ा आश्चर्य यह कि स्त्रियों ‌ने मान भी लिया जबकि स्त्रियों की जलती आंखों से आज तक कोई भी पुरुष भष्म नहीं हुआ दरअसल मन‌ से कमजोर स्त्री की अहं की तुष्टि के सिवा यह कुछ भी नहीं है मैं नि:संकोच कह सकता हूं कि स्त्रियां सदियों से चली आ रही सुनियोजित धार्मिक...और सामाजिक…. मोह की शिकार है जिसकी जिम्मेदार …. पुरुषों से कहीं ज्यादा खुद स्त्रियां ही हैं..!!

कवि हृदय

जीवन की हारों से व्यथित, हृदय कवि बन जाता है प्रेम-सुधा का चिरअभिलाषित, हृदय कवि बन जाता है प्रतिफल में जब मिले उपेक्षा, हृदय समर्पित करने पर भग्नस्वप्न से होकर विचलित, हृदय कवि बन जाता है..!!

यशोधरा की जागृत निंद्रा

मैं यशोधरा क्या करती.. जिस रात्रि उन्होंने त्यागा गृह उस रात्रि कहाँ मैं सोयी थी निद्रा के मिस दृग बंद किये, अति आकुलता से रोयी थी। अवलोक रही थी मैं उनको पक्ष्मों का अवगुंठन लेकर, सुन रही मौन, उनके व्याकुल अंतर तल की पीड़ा के स्वर। उनके नेत्रों से अश्रु बिंदु गिरते ही स्पर्श करते क्षिति को मानस पट से थे मिटा रहे वात्सल्य भाव, प्रणय स्मृति को। वे जाकर पुनः लौट आते, अपने प्रकोष्ठ के द्वारों से हम दोनों को लख हार रहे, निज अंतस् के उद्गारों से। मैं विक्षिप्तों सी लेटी थी, भीतर से शोकाकुल होकर उठ सकी नहीं, निश्चेष्ट रही आँसू के सागर में खोकर। 'मैं जाग रही, सब देख रही' यदि उन्हें ज्ञात यह हो जाता, तब उनके द्वारा हम सबका परित्याग न संभव हो पाता। मेरी आकुलता देख उन्हें रूकने की इच्छा आ जाती, उनके गतिशील चरण दल में संभवतः जड़ता छा जाती। उस रजनी, यदि मैं जग जाती, क्या "आर्य" स्वयं से जग पाते? क्या उनको मिलता वर-ज्ञान, या वे साधना सुभग पाते? मैं स्वेच्छा से सो गयी ताकि, सर्वदा मिले उनको जागृति आजीवन होता रहे प्राप्त, मुझको जड़ता उनको स्फुर गति। वे मुझको बेसुध जान, रात्रि में हो स्वंत्रत गृह त्याग गये, मेरी निद्रा सोपान बनी वे "बुद्ध" बने औ' जाग गये। "वे बिन पूछे ही चले गये" संसार समझता ही आया, पर वे माँगे थे "मौनाज्ञा" जो केवल मुझ तक ही आया। 'मैं मन ही मन 'अनुमति' दे दी' यह सत्य सृष्टि न जान सकी, मेरी उस "जाग्रत-निद्रा" का उद्देश्य नहीं पहचान सकी।

कवि का कविता से दूर होना

कविताओं में डूबे रहने वाले कवि का एक लंबे अंतराल तक कुछ न लिखना ऐसा प्रतीत होता है मानो आकाश में चमकते तारों ने खो दी हो अपनी रौशनी फूलों से छिन गयी हो सुगन्ध उनकी और मानो प्रकृति के यौवन पर लग गया हो "कलंक" कोई

पीपल की प्रतीक्षा

प्रतीक्षा तो केवल पीपल ही करता है उस पर बंधे मनौतियों के धागों के खुलने की ससुराल को विदा होती बेटियों के सावन में घर लौटने की परदेस में रोटी कमाने गये जवानों के घरों तक मनीऑर्डर पहुंचने की देश की सरहद पर गए गांव के फौजी बेटों की चिट्ठी संदेशों के आने की उसकी छांव में लगी पाठशाला में पढ़ाए पाठों के सफल हो जाने की शहर को पढ़ने गए बच्चों के उसी छांव में एक दिन वापिस लौट आने की हर शाम बच्चों के संग लुका छिपी खेलने की उसकी नई पत्तियों के फूटने पर खिली कविताओं के अमरत्व को प्राप्त हो जाने की उसके तने पर खुदरी, प्रेम में भरी गयी दर्जनों हामियों के अविस्मरणीय प्रेम कथा बन जाने की फ़िर एक दिन किसी महापुरुष के उसके नीचे बैठकर ज्ञान प्राप्त करके, "बुद्ध" बन जाने की..!!

तुम तक आने के लिए

तुमसे कहते हुए मुझे ज़रा भी हिचकिचाहट नहीं है कि तुम तक आने के लिए मेरी कविताओं ने आज तक जाने कितने ही गुण धारण किए पुष्पक विमान की भांति कभी ये प्रेम में लंबी हुईं कभी विरह में छोटी कभी क्रोध में असीमित कभी उड़ी कल्पनाओं में किसी दैवीय घोड़े सी लेकिन विफल रहीं पहुंचाने में सदैव ही यथार्थता को तुम तक जानते हो... यथार्थ में पहुंचना चाहती हैं ये तुम तक ऐसे ही जैसे एक मां की छाती अपने नवजात शिशु तक..!!

आँसू हूँ

मैं हर एक परिस्थिति में आँखों से छलकता हूँ मनुष्य की भावनाओं को मैं बखूबी समझता हूँ मनुष्य की भावनाओं का रूप बदलकर मैं आँखों में झलकता हूँ सामने वाले को समझाने की मैं हर बार नाकाम कोशिश करता हूँ आँसू हूँ जनाब मुझे कोई भी पसंद नहीं करता है हर बार हर कोई मेरा गलत अंदाजा ही लगाता है कभी शब्द कभी भावना बनकर आँखों से बहता हूँ बनकर पानी का एक कतरा दिल की बात कहता हूँ दु:खों में निकलना मेरा धर्म है, लेकिन ख़ुशी के मौके पर ख़ुद पर नियंत्रण नहीं कर पाता हूँ सुना है लोगों के द्वारा मैं सबसे महँगा लिक्विड कहलाता हूँ यहाँ किसी के लिए किसी की आँखो से निकलना मेरे लिए गर्व की बात है पर किसी की वजह से किसी की आँखों से निकलना मेरे लिए अभिशाप है अरे! कभी परिस्थितियाँ इतनी बढ़ जाती है कि बस आँखों के अंदर समा जाता हूँ तो कभी किसी परिस्थिति में मैं सौ बूँद लहू का एक बूँद बनकर छलक जाता हूँ कभी ख़ुशी कभी ग़म कभी वेदना कभी संवेदना बन आँखों को नम कर जाता हूँ अरे! मैं तो आँसू हूँ जनाब बस हर एक परिस्थिति में आँखों से छलक ही जाता हूँ आँसू हूँ जनाब हर बार हर किसी को समझा नहीं पाता हूँ हूँ तो मैं बहुत कुछ बस यहाँ अभागा आँसू ही कहलाता हूँ।

अहसास है कविता

कभी चेत के कबूतरों सी शांत है कविता कभी व्याकुल चिड़ियों का शोर है कविता कभी आसमान की आँखें बन पतंगों में नजर आती है कभी लंका से अस्सी होते हुए घाटों से गुजरती जाती है कभी हमारे शहर रहती है कठौता झील से गोमती नदी तक कभी हमारे किरदार का अन्तिम सत्य है कविता एक कविता है मेरे अन्दर जो समन्दर की लहर सी दिखती है जिसे मैं लिख नहीं पाता पर हर रोज़ जीता हूँ हमसे रूबरू एक अहसास है कविता।

एक धन से गरीब एक मन से गरीब

एक मखमली बिस्तर पे नहीं सो पाता था एक को फुटपाथ पे भी सपने दिखते थे एक सोचता था क्या क्या खाऊं ? एक सोचता था के क्या खाऊं ? एक के पास रेशमी कपड़े थे एक के पास फटी चादर थी एक कचरे में खाना फेकता था एक कचरे में खाना ढूंढता था एक की तिजोरी बहोत भारी थी एक की जेबें तक खाली थी एक के पास दोस्त नहीं थे एक की हर किसी से दोस्ती थी एक पैसे के लिए ही गिर गया था एक गिरे पैसों को भी नही उठाता था एक फिर भी नही हँसता था एक जोर के ठहाके लगाता था एक मन से गरीब था एक धन से गरीब था।।

मध्यमवर्गीय

जब जब भी तुम्हें ये लगने लगे मैं तुम्हारे करीब हूँ बात बतला दूँ, इश़्क तो धनवान है मैं बहुत गरीब हूँ । दुनिया घुमाने की ख़्वाहिश पूरी नहीं कर सकता हूँ अटूट वादा कर पूरी ज़िन्दगी बाहों में भर सकता हूँ । तुम्हारे हर छोटे बड़े फैसले में जरूर अपनी राय दूँगा सुबह अलसा कर तुम उठना, बनाकर तुम्हें चाय मैं दूँगा । खाना तो नहीं बनाना आता पर सब्ज़ी मैं काट लूँगा तुम्हारी छोटी मुस्कान के लिए हर दुःख मैं छाँट लूँगा । तुम खाना बनाना रसोईघर में हमेशा साथ मैं रहूँगा तुम्हारी बकबक सुन कर अपनी हर बात मैं कहूँगा । छुट्टी वाले दिन हम दोनों बाहर कहीं घूमने जायेंगे सिनेमा देखेंगे तुम्हारी पसंद की कुल्फ़ी भी खायेंगे । रात को मेरे कंधे पर ही सर रख कर तुम सो जाना हर सुख दुःख सांझा करेंगे तुम ख़्वाबों में खो जाना । "मध्यमवर्गीय" हूँ पर हर ख़ुशी देने का इरादा रखता हूँ धन दौलत नहीं ख़ूब मोहब्बत देने का वादा करता हूँ ।

प्रेम का स्वाद

मुझे प्रेम चखना है जब भी पकाया, कच्चा रह गया ज़रा बताओ ना, क्या है विधि पक्का प्रेम पकाने की। सुनो, अबकी लेना तुम धरती पर अविरल बहती नदियों जितना जल खेतों में लहलहाती फसलों जितना अन्न फूलों के मकरंद रस जितनी मिठास चिरकाल से मानव को पोषित करती गौ माताओं जितना शुद्ध घृत धरती पर स्थित वृक्ष वनस्पतियों जितने मेवा आकाश में उड़ते श्वेत बादलों जितना नारियल का चूरा भोर के सूरज की चमचमाती लाल किरणों जितने केसर के रेशे सब सामग्री एकत्रित कर उसे सागर जितनी बड़ी कढ़ाही में उड़ेलकर सूरज के ताप जितनी समायोज्य आंच पर भून लेना और फिर सौंप देना मिश्रण वातावरण में बहती ठंडी मधुर बयार को उसे ‘लड्डुओं’ में बांधने के लिए इस बार जो चखोगे तुम “प्रेम” वो लेशमात्र भी कच्चा नहीं प्रतीत होगा!

किसान

एक उमर गुज़ारी है उसने एक वक़्त सा है बीता वो कतरा कतरा मोम हुआ ऐसे लम्हा लम्हा जीता वो।। बारिश में भीगा करता है पूस में पूरा ठिठुरा वो गर्मी की लू में जला किया ऐसे लम्हा लम्हा जीता वो।। भूखा भी सो जाता है कर्जे में पूरा डूबा वो गाली थप्पड़ है मिला किया ऐसे लम्हा लम्हा जीता वो।। दहलीज से उठती डोली में उसने बेटी को विदा किया ना जाने कैसे - कैसे उसने दहेज़ भी सारा अदा किया।। डोली में उठती बेटी से इक और उधार में डूबा वो कर्जे में पुश्तें जिया किया ऐसे लम्हा लम्हा जीता वो।। खेत दरार से भरा हुआ और माथ पकड़ के रोता वो भगवान् भी मानो पत्थर हों बेकार में बीजें बोता वो।। पिछले साल के कर्जे हैं क्या होगा ये ही रोता वो चिंता में रातें जगा किया ऐसे लम्हा लम्हा जीता वो।। साँसे रब से मिलती हैं और सबको भोजन देता वो किसान है अपने भुजबल से मिट्टी को सोना करता वो।। मटमैले कपड़ों के अंदर मेहनतकश काया रखता वो खेतों में घाम बहा किया ऐसे लम्हा लम्हा जीता वो।। खून-पसीने का खाता है श्रम की नींद सोता वो पूरा जीवन खेतों में रहा किया ऐसे लम्हा लम्हा जीता वो।।

इंतज़ार

गोधूलि वेला में पेड़ इंतजार करते हैं चिड़ियों की वापसी का खूंटे इंतजार करते हैं धूल उड़ाती गायों के बंधने का और घर की देहरी पर अटकी तुम्हारी दोनों आंखें बड़ी बेसब्री से इंतजार करती हैं मेरे लौटने का किसी भी लिपि में वापस लौटने की क्रिया अत्यंत आह्लादकारी होती है।

वसंत और बारिश

मन वसन्त तन वसन्त जीवन वसन्त हो गया.. कोई निराला कोई पंत कोई दुष्यंत हो गया.. प्रकृति और संस्कृति से प्रेम अनन्त हो गया..!!

तपस्वी

नष्ट कर इच्छा हृदय की रे तपस्वी! क्या मिलेगा? क्या रखा इन प्रक्रमों में मोक्ष संबंधी क्रमों में चित्त तेरा मुक्त होकर, शून्यता में क्या करेगा? सत्य से इतने विलग क्यों वेग से सम्बद्ध अग क्यों सृष्टि से संयुक्त होना, क्या तुम्हारा छीन लेगा? लुप्त इच्छाएँ जहाँ पर शून्य है जीवन वहाँ पर कामना के ही धरा पर, पुष्प जीवन का खिलेगा। एकदा,करना प्रणय से प्रश्न यह अपने हृदय से मोक्ष भी तो कामना है, क्या इसे वह त्याग देगा?

सुकून

प्रिय सुकून, कैसे हो? उम्मीद है तुम्हें तो सुकून होगा नशे में चूर होगे जरूर कुछ जुनून होगा। तुम्हारी तलाश में कितनों ने जिंदगी गुजार दी तुम मिले नहीं जबकि अपने हिस्से की किस्तें उतार दी। भीतर, बाहर, खेत, खलिहान में जाकर देखा है ये सब झूठ, फरेब लगते हैं ये सब धोखा है। हम तरस जाते हैं पर तुम्हें तरस नहीं आता किसी चेहरे पर तुम्हारा चेहरा नज़र नहीं आता। घड़ी दो घड़ी मिल भी जाओ तो टिकते नहीं हो सब खरीदना चाहते हैं पर बाजार में बिकते नहीं हो। कुछ वक़्त के लिए मिलते हो या सिर्फ ख़्याल हो हर कोई तुम्हें ढूँढता है क्या तुम कोई सवाल हो?

नानक पाठ

नानक पाठ पढ़ाया, गोविंद नाम जपाया गुरु ग्रंथ साहिब का रज रज मान बढ़ाया। सेवा, सुमिरन, सत्संग में ख़ूब मन तपाया अकाल पुरख से सीख सिख कहलाया। तैयार हूँ मैं लाचारी घर घर अन्न बढ़ाया बंड लंगर दीन, हीन भूखे जन पेट भराया। सेवा भाव, धर्म लई नित नित शीश नवाया धर्म लई संतान बलिदान ख़ुद शीश कटाया। कीरत, कीर्तन, गुरवाणी से धन धान्य पाया सौ सौ मनुज पर भारी एक सिख कहाया।

असमर्थ हो तुम

संयमी सामर्थ्य यूँ संत्रस्त मुझसे, और अंतर्भाव में असमर्थ हो तुम। तामसी दृगकुंड के तम हो तपस भी, अश्रुमय पाषाण पर तुमसे परे हैं! जलसमाधि स्वयं में लेते निरंतर कूल पर मेरे तुम्हारे दायरे हैं। देखती हूँ लिप्त हैं धरती-गगन भी, चिर प्रणय की श्वास प्रलयंकर पवन में। किंतु दर्शक मात्र दोनों त्रासदी के, दूर तुमसे व्यर्थ हूँ मैं व्यर्थ हो तुम। संयमी सामर्थ्य यूँ संत्रस्त मुझसे, और अंतर्भाव में असमर्थ हो तुम! सत्व दारुण ही रहा गिरिवर तुम्हारा, देखकर भी युग-युगांतर की रुलाई। प्राण पारावार में भर पावनी के, हिम-हिमालय की हुई जग में हँसाई। और वह 'पथभ्रष्ट' संयमहीन धारा, निश्चयी गंतव्य को अन्वर्थ करती। तुम वही गंतव्य मेरे और मुझमें मैं स्वयं से अल्प ही,अत्यर्थ हो तुम। संयमी सामर्थ्य यूँ संत्रस्त मुझसे, और अंतर्भाव में असमर्थ हो तुम! (कठिनार्थ : संत्रस्त - भयभीत अंतर्भाव - एक-दूसरे में विलय होने का भाव तामसी - तमोगुण से संबंधित तपस - सूर्य सत्व - स्वभाव/अस्तित्व दारुण - कठोर पारावार - सागर पावनी - माँ गंगा अन्वर्थ - सार्थक अत्यर्थ - अत्यधिक)

कवि की वेदना

जीवन का आँचल मैला खाते माटी, पीते जल विषैला। कोमल हाथों से धरती का देते सीना चीर दो टूक की ख़ातिर, बहा देते लहू जैसे नीर। हर ऋतु का रख ध्यान, दे गेहूं, चावल, फसल, धान नहीं आभास अपने जीवन का, नहीं उन्हें कोई अभिमान। माटी से पैदा, माटी में गये बह, कलम उनकी जय कह। तन फटा, वस्त्र उधड़ा जीवन बिखरा, कफन गूदडा। सड़क, घर, कल कारखाने में शोर के बीच रात दिन खपते मुँह बंद रख और आँखें मींच। जान लगाकर, मन लगाकर पाट रहे बाज़ार संस्थान देश की उन्नति का मूल, मूल में छिपा जिंसके उत्थान। धारा का हिस्सा होकर गये रह, कलम उनकी जय कह। धरा भाँति धारण करती सूर्य, चंद्र डोले भुजा में प्रण भरती। लिखा भाग्य में उसके, मन देना, मनभर देना सुषमा जिसकी त्याग, करुणा, प्रेम उसका गहना। सारी सृष्टि, निखिल विश्व पर जिसका प्यार स्नेह भारी विपत्ति में खिली, विसंगति में पली, अश्रुजल से पोषित नारी। जिसके अंग-अंग में छिपा हुआ है नेह, कलम उनकी जय कह। युग युग कलम चलाकर धुंआ हुए लेखन दीप जलाकर। जो गहरे घुस जाएं , सागर, धरती, अंबर में जिनकी कल्पना का नहीं कोई सानी दिगंबर में। काल चक्र से मुक्त हैं भाँति धरा, धारा, दिशा, तारे और रवि आशा का पथ दिखलाते, अपनी आभा फैलाते समस्त कवि। बिन मांगे मोल लेखन हर चुप्पी सह, कलम उनकी जय कह।

एक पक्षीय प्रेम

व्यक्त कर पाऊँ नहीं मैं, 'स्नेह' जो हृदय में भरा है। जानकर के भाव मेरा क्या कहेगा चित्त तेरा? सोचकर यह तथ्य दृग से अश्रु का आसव झरा है। एक ही अभिलाष तुझसे किं तुम्हें भी स्नेह मुझसे स्वप्न का उपवन इसी से, शुष्क होकर भी हरा है। जब कभी दर्पण निहारूँ देखकर तव बिम्ब हारूँ औ' हसूँ यदि मुग्ध होकर, सृष्टि कहती 'बावरा' है। भाग्य ने जो पथ गढ़ा है हाँ उसी पर जग बढ़ा है 'एक पक्षीय प्रणय' मेरा, क्षीण स्तंभों पर धरा है। असमंजसता की स्थिति, स्वप्न देखने की प्रक्रिया, दर्पण देखने की क्रिया का समावेश इस कृति में किया है मैंने, एक पक्षीय प्रेम की व्यथा को व्यंजित करने हेतु। (कठिनार्थ: आसव - रस दृग - नयन, नेत्र तव - तुम्हारा बिम्ब - छाया, अक्स व्यंजित - अभिव्यक्त, प्रकट)

सारा जहान देखना

लड़की के सर पर दुपट्टा और होठों पर मुस्कान देखना, ऐसा ही है जैसे इन्द्रधनुष के बीच में साफ़ आसमान देखना, लड़के की आंखों में चमक होंठो पर मुस्कान देखना, जैसे दूर चमकते तारों में कहीं अपना जहान देखना।

श्रापित अप्सरा

श्रापित अप्सरा सदियों से आंसू बहाये नदी में निर्वस्त्र जल परी बन रह रही थी। ऋषि के सम्मुख जल से निर्वस्त्र निकल कर लुभाने की सजा थी। क्षमा याचना से पिघले ऋषि बोले कवि जब तुम्हें लिखेगा तुम श्राप से मुक्त हो स्वरुप में आ जाओगी। कवि ने अनिध्य सुंदर जल परी की कल्पना की अप्सरा मुक्त हुई श्राप से! कृतज्ञ हुई सूर्य के पार्श्व में बैठे कवि को हाथ हिलाकर और कवि ने ईश्वर को धन्यवाद दिया कल्पना साकार करने के लिए...!! [ रचना का मर्म कवि के कवित्व का संवर्धन करता प्रतीत होता! यह एक कवि के लिए अतिश्योक्ति तो नहीं.. ] (कठिनार्थ: अनिध्य - निर्दोष,अनिंदनीय पार्श्व - अगल बगल की जगह)

असहनीय

जब दर्द हद से पार हो जाता है तब नहीं सूझता कि क्या करूँ, या शायद कुछ ना हीं करूँ, तब करना-ना करना मेरे वश से कोशों दूर चले जाते हैं। और मैं बन जाता हूँ भुक्तभोगी अपने ही किये निर्णयों का या भटकन में चूर अनिर्णयों का और भोगता हूँ ऐसी व्यथा कि हार मान जाना बेहतर लगता है, नियति से संघर्ष करने से। थक जाता हूँ मैं नियति के क्रूर प्रहारों से, रुग्ण हृदय पर किये निर्मम अत्याचारों से जिजीविषा भी जीने की माँगती है दुहाई और मैं बेसुध पड़ा, मूर्छित हुआ माँगता हूँ चिर निद्रा की दवाई। और ये नचिकेता समर से माँगता है इक विदाई, और पीछे छोड़ देता है समर में शान से हारे हुये इक विजेता, इक अप्रतिम योद्धा की परछाईं ।।

एकांतता का बीज

चित्त में एकांतता का बीज बोना चाहता हूँ। तीक्ष्ण सी झंकार झंकृत कर्ण को करती अलंकृत पक्ष्म खुल जाते दृगों के, तदपि सोना चाहता हूँ। देव! इस विक्षिप्तता में भावना की रिक्तता में प्राप्त करके भी स्वयं को, अद्य खोना चाहता हूँ। प्रश्न कौतूहल भरा है कौन संसृति से तरा है? मैं इसी में एक उत्तर, को डुबोना चाहता हूँ। घेर ले चाहे सघन भ्रम किंतु तोड़ूँगा नहीं क्रम द्वैत से अद्वैत होकर, मुक्त होना चाहता हूँ। [संसार के कोलाहल से विलग स्वयं की उपस्थिति में एकांतता की अनुभूति कितनी नैसर्गिक होती है न। स्वयं को जानने का एक स्वर्णिम अवसर] (कठिनार्थ: कर्ण - कान पक्ष्म - नेत्र के पलक दृग - नयन तदिप - के उपरांत भी/तो भी विक्षिप्तता - पागलपन अद्य - आज संसृति- संसार)

मैं कौन हूँ

मैं वो हूँ जो वास्तिविक है, पर अस्तित्व में है ही नहीं! मैं वो नहीं हूँ जो अनास्तित्व है! अंततः अहं कः अस्मि कः नास्मि? मैं वो हूँ जो वर्तमान में है, पर भूत में है ही नहीं! मैं वो नहीं हूँ जो भविष्य में है! अंततः अहं कः अस्मि कः नास्मि? मैं वो हूँ जो अनन्त तक है, पर शाश्वत है ही नहीं! मैं वो नहीं हूँ जो क्षणभंगुर है! अंततः अहं कः अस्मि कः नास्मि? मैं वो हूँ जो प्रवाह में है, पर गति में है ही नहीं! मैं वो नहीं हूँ जो स्थिर है! अंततः अहं कः अस्मि कः नास्मि? मैं वो हूँ जो पारदर्शी है, पर रंगहीन है ही नहीं! मैं वो नहीं हूँ जो रंगीन है! अंततः अहं कः अस्मि कः नास्मि? मैं वो हूँ जो आंतरिक है, पर अंदर है ही नहीं! मैं वो नहीं हूँ जो बाह्य है! अंततः अहं कः अस्मि कः नास्मि? मैं वो हूँ जो स्वतंत्र है, पर स्वच्छंद है ही नहीं! मैं वो नहीं हूँ जो नियंत्रित है! अंततः अहं कः अस्मि कः नास्मि? [कितनी अचंभा होती है प्रकृति की भव-प्रणाली पर। एक भी क्षण अत्र से तत्र नहीं हो सकते। सबका निर्धारण मानों पूर्व में ही हो चुका है.]

उस रात मेरे आँसू

उस रात मैं तुम पर कविता लिखने का भरसक प्रयास कर रहा था, प्रेम!! लिखते लिखते, आँखों से झरते मेरे आंसू कलम की स्याही संग कागज पर काली घटा से फैलते गए मैं एक के बाद एक गीले कागजों को फाड़ता गया और गेंद बनाकर उन्हें टोकरी में फेंकता गया अगली सुबह उठकर जब मैंने घर का आंगन गीला पाया तो सोच में पड़ गया कि मेरी कागज़ की गीली गेंदें आकाश तक कैसे पहुँची ये ही तो हैं वो जो बादल बन बरस रही हैं प्रेम से मेरे प्रेम पर...!!

हे प्रिये तुम अप्सरा के समान हो

[ सौंदर्यपूर्ण एवं उपमित शृंगारिक आद्योपांत रीतिकाल के श्रृंगार को छंदोत्सर्गों सहित चरितार्थ किया है.. आशान्वित हूँ कि आप सभी शुधी एवं गुणीजन अंतिम पंक्ति तक बने रहेंगे ] तुम्हारी काया की चिक्कण रति रूप को लज्जित करे.. तुम्हारा कायिक रचाव अन्यतम, भुवन-भास्वर भी नत हो जाए.. गात का अनुपम संघात, एक चित्ताकर्षक दैवीय अनुष्ठान.. तुम तीनों रूपों में प्रिय हो मुझे.. नारी, महिला और स्त्री! प्रथम दो में असीम आदर है, सनातन निष्ठा है.. मुझे तो तुम्हारा तीसरा रूप रुचता है - स्त्री! तुम सद्यस्नाता जैसे पावस ऋतु की बदली.. जो स्पर्श मात्र से तरलायित हो जाए। छूने भर से बिखर जाने की सम्भावना.. कितना कोमलांग-वैभव! कुंतल-राशि ..विटप-वल्लरी सी. अश्वत्थ जैसी शीतल छाँव.. मेरी श्रद्धा, मेरा अन्तस् आश्रय-स्थल. नयन.. राजस्थानी-लोक जिसे मिरगानैणी कहता है. पलकों का अवगुंठन और पुतलियों का चञ्चला नर्तन.. लास्यमयी लोचन-संसार.. तीक्ष्ण दृष्टि.. सीधे उर-भेदन की क्षमता. नासिका कीर सी.. दाड़िम सी दंत-पंक्ति .. क्षीण-कटि पर दंतक्षतों की नीलकुसुम-माला कभी जो अंकित हो जाए.. आह्ह ..क्या स्वर्गीय आनंद. कपोल-लाल गुलाबी.. कानों पर बालों का घेरा.. बाली की चमक से दीप्त एक द्वीप जैसे.. अलक-पलक उत्थान-पतन.. चेहरा जैसे चक्रव्यूह.. अधरों पर विस्फारित मृदु हास, जैसे धरा के आँचल में बिखर गयीं हों पुष्प-पंखुरियाँ.. जमुना नदी का सा डेल्टा पड़ता है होंठों के बीच, जहाँ फिरती हुई जिव्हा कुछ क्षण ठहरती है.. उस कटाव पर थमी है साँसों की सम्पूर्ण रफ़्तार! अधरों में तुम्हारे घुली है शहद सी मिठास.. यह लावण्य है- ज्यूँ ज्यूँ पिए कोई प्यासा मरे.. तुम्हारे वक्ष में उतर आयी है चन्द्र की सम्पूर्ण ज्योत्स्ना.. शीतलता, मादकता सब! उन्नत ललाट सम स्कंध में कसावट.. स्कंध से वक्ष-स्थल तक की फिसलन मुग्ध करने को आतुर.. अंशुक-स्पर्श से सहमी हुई लता सी कोमल बाँह... गौरवर्णी... बाँह में सिमटने वाले की साँसें उलझती अवश्य होंगी.... वह बड़भागी होगा जिसके शयन को ऐसा तकिया नसीब होता है। हे कामकला-निपुणा! तुम्हारा नाभि-देश चम्पकहेमवर्ण है. चंचा श्वेत और हेम पीताभ होता है.. श्वेतिमा और पीतिमा के मिश्रण से एक सम्मोहक कांति उत्पन्न होती है... नाभिस्थल चम्पा के फूल सा है. गहराव-ठहराव ! रतिसुखाकांक्षिणी आलिंगन को सद्य उत्प्रेरित करने वाला तन लेकर बैठी है.. प्रीति-वचन सुनने को आतुर कान क्लांत हो कई बार सोकर जगते हैं। चलन में मृग सी चौकड़ी भरती जाती है। पीछे मुड़कर जो देख ले तो प्रकृति के सञ्चालन-क्रम भंग हो जाता है.. उसका प्रवाह अनुपम! धरा पर पड़ते पाँव से किंकिण-क्वणन उच्चरता है, अलिगुंजित पद्मों की किंकिण सा.. मन का व्यामोह रुक जाता है. हृदय में तरल सा कुछ उतर आता है. अंग-प्रत्यंग में भर आतीं हैं अनंत तरंग! चितवन से अभिराम मुक्ताहल बिछा देने वाली मैं तुम्हारा सौंदर्य क्या लिख पाऊँगा.. बस इतना ही पर्याप्त है..!!

सत्यमेव जयते

सोम सरीखा नीर नदियों का, उत्कृष्टओं में उत्कृष्ट सकल, छह ऋतुओं भौतिकता से धनी, प्रेम बहे प्रतिक्षण अविरल, समावेश विविधताओं का, इतिहासों का भीषण नाद यह, वर्तमान का प्रतिनिधित्वकर्ता, तत्समता का यह पूजास्थल, लोकतांत्रिक गणतांत्रिक, यहाँ हर धर्म भाषा को समता, प्रभुत्व-सम्पन्न समाजवादी, न्याय को मिलती प्राथमिकता, स्वतंत्रता सुनिश्चित जन-जन को, प्रतिष्ठा अवसर में समान, अधिकार है कर्तव्य भी, नैतिक संविधान की सृजनात्मकता, कुंदन सी युवाशक्ति यहाँ, जिसे हर क्षेत्र ने अद्भुत जाना है, मेरे भारत की प्रतिभाओं का, सकल विश्व ने लोहा माना है, शौर्य की यह पराकाष्ठा, संस्कृति संस्कार हैं करते विस्मित, स्मरणीय रत्न दिए वसुधा को, सोन चिरैया हमें पहचाना है, इतिहासों के रचयिता हम, हम साहित्य का प्रथम कदम, मनुस्मृति उपनिषद पुराण गीता, स्वयं देववाणी सार सम, धर्म अर्थ काम और मोक्ष, जीवन का लघुतम सारांश कहते, हम कहे अतिथि देवो भवः, वाद हमारा वसुद्धेव कुटुंबकम, संलग्न सदा सत्य पथ पर, यह अवनि देवभूमि कहाई, कृष्ण राम की जन्मभूमि, रही अहिल्या राधा सीता माई, सप्तऋषियों की पावन धरती, यही मनु क्षतरूपा पधारे, सृष्टि का आरम्भ इति यहीं, ब्रह्माविष्णुमहेश में यह समायी, गोराबदल राणाप्रताप, यहाँ चम्बल का वृतान्त अमर है, त्याग है पन्नाधाय हाड़ीरानी सा, गूँजता पद्मिनी का जौहर है, अशोक का शांतिसन्देश, यह बुद्ध महावीर की भूमि, चंद्रगुप्त कृष्णदेवराय से नृप,रामा कौटिल्य विद्वान प्रखर है, सूर तुलसी कबीर नानक, देव रसखान से गूंजे अम्बर, रहीम मीरा रविदास बिहारीलाल, रचनाएँ सुंदर अविरल, वेदव्यास और वाल्मीकि, साहित्य के दीप्तिमान नक्षत्र, दिनकर की रचनाओं में प्रस्तुत, शब्द जाते स्वयं निखर, स्वतंत्रता संग्राम लड़े, उन युवा बलिदानों को प्रणाम, हर विषय के विख्यात सुर, कृतज्ञ उनके हम हर याम, जो संसाधन बने, बने गौरव उनको प्रतिक्षण नमन, प्रणिपात हर उस व्यक्ति को, जो सेवा करते निष्काम, हर कण में ईश्वर का वास, मानवता नैतिकता आदर प्रधान, क्षमा दया करुणा कुंदन है, यही कहता यहाँ का विधान, कर्तव्यनिष्ठ अनुरागपूर्ण यह, वर्णनातीत है अपना आर्यावर्त, विश्वगुरु गौरव धरती का, सत्यमेव जयते मेरा भारत महान!!

झोपड़ी महल को देती चुनौती

मॉल के बिल्कुल बगल में चाय की गुमटी निराली। महल को देती चुनौती झोपड़ी अब तक न हारी। आधुनिक तनया-तनय सब चिप्स, बर्गर खा रहे हैैं। हो रही है बोझ काया हाँफते से जा रहे हैं। फटी-चिथड़ी जींस पहने रूप से अभिनव भिखारी। महल को देती चुनौती झोपड़ी अब तक न हारी। निम्न-मध्यम वर्ग वाले जा रहे पिकनिक समझ कर। हँस रहे वातानुकूलित भवन का आनंद लेकर। चाय की चुस्कियाँ लेनें आ रही है भीड़ सारी। महल को देती चुनौती झोपड़ी अब तक न हारी। पुराना पतलून पहने चाय रामू दे रहा है। देख कर नव-वस्त्र चिथड़े मजे वह भी ले रहा है। सोचता मन मुदित होकर पैंट अच्छी है हमारी। महल को देती चुनौती झोपड़ी, अब तक न हारी। तेल की चिंता न उसको मूल्य यदि आकाश छू ले। पाँव में है शक्ति अद्भुत मन पवन के साथ झूले। कार एसी को चिढ़ाती साइकिल की है सवारी। महल को देती चुनौती झोपड़ी अब तक न हारी। सभ्यता के भोग नद में रुग्ण हो सब गिर रहे हैं। क्रुद्ध होकर काम-आतुर मोह, मद से घिर रहे हैं। नव्यतम विज्ञान की ये खड्ग लगती है दुधारी। महल को देती चुनौती झोपड़ी अब तक न हारी। संस्कृति का सार अक्षुण्ण भारती के भक्त कर लें। मन, वचन, सत्कर्म से सब साधना कर सुखद वरलें। सरस सलिला हो प्रवाहित सनातन सरिता हमारी। महल को देती चुनौती झोपड़ी अब तक न हारी ।।

प्रकृति की अद्भुत यात्रा

सुनो मैंने एकटक होकर तुम्हें निहारा है रात की पहली गन्ध को तुझमें ही झारा है अनगिन तारों को चिट्ठियाँ सौंपी हैं शब्द साधे हैं, नाम पुकारा है और जो अविकार है, उसे ही निहारा है वह जो प्रत्यक्ष है सच है : मेरे व्यतीत का ध्यान है वह जो दीखता नही वह क्यों है, कितना उसका भान है ? यह वह है जिसे कि तुझको सौंप चला हूँ अब जो भी है वह तुम में ही गतिमान है ! अकेलेपन को कोई ध्वनि टेरती है सागर को पार करता सूरज काँपता है किनारे पर के तरङ्ग बौछार उतारते हैं रेत कनखी मारे बीच को ताड़ती है हर परिवर्तन में जो स्थायी है ; वह अपरिचिता है, दूर तक पसरी खाई है चूमता हूँ उस वाष्प को जो छोड़कर उठता है सहराता हूँ वह स्पर्श जो भाव को मनाने लौटा है यह समूचा रङ्ग है जो उतरते हुए भी अपने जितना ही रहता है अगणित हैं द्वार चुप हैं बोलियाँ, चुप से हैं मन के तार वह इस पार है या कि उस पार : टटोलता हूँ रुक रुककर बारम्बार जाग्रत है वह जो नींद को बुलाता है कि इतना ही है वह प्रतिपल, इतना ही अपरम्पार ! मैं पीछे खड़ा हूँ तुम सुनो मुझे आगे से कहते हुए मैं मुड़ता हूँ तुम और बढ़ चलो कि देश छूटता है क्यों अकेला है मेरा बीतता रुका हुआ यह घर या कि मेरा वह निःसङ्ग जो कि तुझमें ही हारता है चारो दिशाओं को लपेटती यह बाहें तुम्हें भी सँग-सँग पचाती हैं दिगन्त को फेरती यह राहें तुम्हें भी चेहरा दिखाती हैं खिलता सूरज इस प्रतिबिम्ब को रखता है और बदल जाता है धरती पर नाचता सूरजमुखी वही जो मुझमें आयत है निर्विषङ्ग है, निर्लक्ष्य है वह जो पीत पटल से बरसती है; मेरे सिक्तता की अनुमात्रा है ओ प्रेम से आँख मिलाते रात के उजले भोर देखो कितनी सुन्दर यह चलती हुई यात्रा है।

सृष्टि के संचालक

हे इस सृष्टि के संचालक, जन्म विधाता और भू पालक, प्रलयकारी और विनाशकर्ता, हे सुखकर्ता और विघ्हर्ता। अजर अमर अविनाशी तुम हो, भू के घट घट में निवासी तुम हो, विकृतियों का करो पलायन, प्रेम भरो हर पीर में, ईश्वर में खोजे हम अल्लाह, साधु खोजे फकीर में।। संस्तुतियां नही विषमता बने, धन ऐश्वर्य न दरिद्रता बने, पद शक्ति नही क्रूरता बने, पशुहत्या नही शुद्धता बने, भावी पीढ़ी मार्ग न भूले, विकृत्यों की ओर न झूले, मीन के लोचन ही साधे अब, हर एक अर्जुन तीर में, ईश्वर में खोजे हम अल्लाह, साधु खोजे फकीर में।। हर भाषा का मान हम करे, वृद्ध जनो का सम्मान हम करे, लोभी मंशा का त्याग हम करे, मर्यादा का ध्यान हम करे, भेद भाव से ऊपर उठाले, किसी कर्ण को न धिक्कारे, द्रोणाचार्य भी तो करुण बन, एकलव्य को शिष्य बनाले, गंगा यमुना सी पवित्रता, हो हर नदिया के नीर में, ईश्वर में खोजे हम अल्लाह, साधु खोजे फकीर में।। नव इतिहास के हम रचिता हो, वाणी में आदर मृदुता हो, कुदृष्टि का सदा स्कंद हो, सब पर समृद्धि की वर्षा हो, मानवता का गुण भी जागे, भूतकाल के पीछे न भागे, वर्तमान को सहज बनाये, दया श्रद्धा को आगे लाये, वात्सल्य का करे आगमन, चरित्र न खोजे चीर में, ईश्वर में खोजे हम अल्लाह, साधु खोजे फकीर में।।

मानव पहले तुम इंसान बनो

विस्मित हो जन-जन नवाचार से, कुछ ऐसी तुम पहचान बनो, जाति, धर्म, मुद्रा, कहते क्या, तुम सर्वप्रथम इंसान बनो। तुम धर्मज्ञाता तुम कर्तव्यनिष्ठ, तुम आदर्शों के वंशज हो, क्यों घृणा आपस में रखते, तुम भी किसी के पूर्वज हो, एकता विविधता में युगों से, गौरव बना इस धरती का, कीर्ति कभी न हो धूमिल, कर्तव्य यह हर व्यक्ति का, भावी पीढ़ी हो गौरवान्वित, लोगों के लिए वरदान बनो, जाति, धर्म, मुद्रा, कहते क्या, तुम सर्वप्रथम इंसान बनो। जहाँ हर प्रसंग करता विस्मित, कितनी मिथ्याओं को भ्रष्ट किया, फिर क्यों हमने अज्ञान को चुन, उस आर्यभूमि को नष्ट किया, नियमित नियमों को करे भंग, वह जब कहलाता उद्दंड है, पर औचित्य क्या मर्यादा का, जब मनुष्य का मनुष्य से द्वंद्व है, पतन के मार्ग से आसक्ति क्या, तुम कीर्तिमान उत्थान करो, जाति, धर्म, मुद्रा, कहते क्या, तुम सर्वप्रथम इंसान बनो। इतिवृत्त वात्सल्यपूर्ण कहो, तुम प्रतिक्षण अनुराग सजाओ, आदर की वर्षा, प्रेम ऋतु हो, जीवन में ऐसी ऋद्धि लाओ, पुनः उभरे एकता, सद्भाव तुम बनो जनक नैतिकता के, हो अवरोह घृणा के सोपान से, आरोह करे ओर उत्कृष्टता के, देह एक सी आत्मा एक है, तुम ज्ञान के उपमान बनो, जाति, धर्म, मुद्रा, कहते क्या, तुम सर्वप्रथम इंसान बनो।

अभिलाषा

अप्रतिम इस वृत्त पर प्रभु, आमरण जगती आशा है, हर हृदय तल में बसती जो, कोई न कोई अभिलाषा है। बालकाल से वृद्धान्त तक, मन संस्तुतियों का निकेतन है, हर व्यक्ति विशेष का आज प्रभु से, कोई न कोई आवेदन है, बढ़ती जाती है पल प्रतिपल, अभिलाषाओं की यह डगर, क्या चल पाएगी ये वसुधा, आशाएँ क्षीण होगयी अगर, आशाएँ स्वयं एक निधि है, चलती जिनसे जीवन परिधि है, जीवन के इन लघु क्षणों में, कभी विजय तो कभी निराशा है, हर हृदय तल में बसती जो, कोई न कोई अभिलाषा है। बचपन मे क्रीड़ा सहभागी, अध्यन तो अति बड़भागी, मन्द मन्द भीतर से निकली, चेतना बनी इनकी कठपुतली, किशोरावस्था में फिर रूप निखारा, स्वप्नों ने जब दिया सहारा, एड़ी चोटी का जोर लगाया, तब जाकर लक्ष्य को पाया, पर समंत न होता है इनका, ये ही प्रेम यही मंशा है, हर हृदय तल में बसती जो, कोई न कोई अभिलाषा है। जब यौवन के द्वार पे पहुँचे, कोई किरण फिर हुई सुनहरी, वैभव साम्प्त्य की होड़ ने, फिर बजायी मन मे रणभेरी, स्वयं स्वयं से द्वंद हुआ, इस होड़ में कितना स्कंद हुआ, फिर दायित्व न पैर पसारा, सुखों की आशा ने दिया सहारा, कब होगा समंत इनका, कुछ उलझन में अब मन की दशा है, हर हृदय तल में बसती जो, कोई न कोई अभिलाषा है। साँझ ढल रही थी जीवन की, वृद्धावस्था में जब स्वयं को पाया, मनोवृत्ति होगयी उजागर, तब समझे ईश्वर की माया, कोई लक्ष्य अब रहा कहाँ, कर्म धर्म हठ योग काम, अब बस एक उसकी इच्छा है, जीवन समंत में राम राम, नही होता अंत जिसका, वही है माया वही आशा है, हर हृदय तल में बसती जो, कोई न कोई अभिलाषा है।

वृद्धाश्रम

मकरन्द बिना सुगंध बिना, क्या पुष्प पुष्प रह जाता है, पात जब तरु से करे पलायन, सूख के मृत होजाता है, भरत भूमि आदर्श बनी, संस्कार प्रतिष्ठा सम्मान की, निज संस्कृति ने हमको सिखाया, रक्षा करो वृद्धो के मान की, आधुनिकता के इस दौर का, कैसा है ये नया आगम, कृतघ्न होगया है मनुष्य, रह गए तो केवल वृद्धाश्रम। सत्य झूठ की परख न रही, दायित्वों की तड़प न रही, जिन चरणों मे वात्सल्य था, उनकी किसीको खबर न रही, जीवन शैली शिखर पे रखनी, दौर है ये निजस्वार्थ का, भावो की अस्थियां उठ गई, उन्माद है केवल व्यर्थ का, आदर मृदुता का भाव, हे प्रभु ये कितना बड़ा है श्रम, कृतघ्न होगया है मनुष्य, रह गए तो केवल वृद्धाश्रम। संस्तुतियों की तृष्णा न बुझती, संपदा सब कुछ स्थगित न करती, समय का सदा अभाव रहता है, फिर भी माँ की ममता नही मरती, मित्रो के लिए है नव आयोजन, जन्मदाता के मुख में न निवाला है, लोचन क्यों मूँदे बैठे सब, कितना मनुष्य मतवाला है, पूजा अर्चना व्रत व्यर्थ है उनकी, जो करते अनादर ईश्वर का हरदम, कृतघ्न होगया है मनुष्य, रह गए तो केवल वृद्धाश्रम।

वेदना चंद्रमा की

कृष्ण होगया स्तीर्ण व्योम और, कालिममयी रजनी तन आयी, जब एकांत चंद्रमा ने फिर , वेदना सबको अपनी सुनाई।। असंख्य तारों के बीच मे, परित्यक्त मैं हो जाता हूँ, इसीलिए हर रजनी तुमको, अपनी वेदना सुनाता हूँ, समझ नही पाता हूँ मैं, ये हृदय वेदना कैसी है, रूपवान मैं कृतियुक्त मैं, फिर ये खिन्नता कैसी है, सौंदर्य का मैं पर्याय, फिर ये वेदना क्यों मैने पाई, कृष्ण होगया स्तीर्ण व्योम और, कालिममयी रजनी तन आयी। सबके बन्धु सखा होते है, कहीं एकांकी मैं रह जाता हूँ, हाँ ये सत्य है मैं अद्वितीय हूँ, फिर पीड़ा क्यों मैं पाता हूँ, मानव ही मानव का सखा है, पशुओं का सबका अपना पता है, पंछी भी रात्रि में गुप्त होजाते, सब कुटुम्ब में अपने सुख पाते, पूरा विश्व सुख से है सोता, ये असह्योगिता क्यो मैंने पाई, कृष्ण होगया स्तीर्ण व्योम और, कालिममयी रजनी तन आयी।। सरिता का लक्ष्य है सागर तक जाना, लक्ष्य मनुष्य का समृद्धि पाना, बगुले को मछली की तलाश है, पौधों को आतप जल की आस है, सबके पास अपने होते है, पर क्या कोई मेरे पास है, लगता सबको मैं अभिमानी, पर कभी क्या मेरी वेदना जानी, आजीवन किरणों से अपनी, मैंने सबको राह दिखाई, कृष्ण होगया स्तीर्ण व्योम और, कालिममयी रजनी तन आयी।। पूजनीय मैं वंदनीय मैं, शीतलता को मैं दर्शाता हूँ, भोग का सुख नहीं, बस अपनापन मैं चाहता हूँ, कोई मित्र हो मेरा भी, कथा जिसको मैं अपनी सुनाऊँ, उसको अपने साथ रखूँ, गंतव्य तक किरणे पहुंचाऊं, प्रसन्न मैं भी रह सकूँ, इस वेदना की मैं करूँ विदाई, कृष्ण होगया स्तीर्ण व्योम और, कालिममयी रजनी तन आयी, जब एकांत चंद्रमा ने फिर , वेदना सबको अपनी सुनाई।।

शब्द सृजन

शब्द समर के हेतु बने हैं संधि-पत्र भी शब्दों का। शब्दों से विच्छेद हुए हैं प्रणय-पत्र भी शब्दों का। शब्दों से ही स्नेह हमारा रार हमारी शब्दों से। शब्दों से ही जीत हमारी हार हमारी शब्दों से। शब्दों से ही सत्ता चलती संविधान भी शब्दों का। मूल समस्या शब्दों की ही समाधान भी शब्दों का। शब्द पतित पावन होते हैं कदाचार भी शब्दों से। शब्दो से शुचि ब्रह्मचर्य है सदाचार भी शब्दों से। शब्द चेतना संवाहक हैं करें ललित विन्यास जहाँ। रिद्धि-सिद्धि अनुगामी इनकी योग-क्षेम, संन्यास वहाँ। शब्दों का ही रुदन यहाँ पर गान यहाँ पर शब्दों का। शब्दों के सब धर्मग्रंथ हैं गिरा-ज्ञान सब शब्दों का। शब्दमयी यह वसुंधरा है आसमान भी शब्दों का। शब्द जीव है शब् ब्रह्म है विधि-विधान सब शब्दों का। अक्षर-अक्षर शब्द बने हैं शुद्ध व्याकरण शब्दों का। शंकर का दर्शन है इसमें बुद्ध-आचरण शब्दों का। हो जाते नि:शब्द कभी हम तब भी शब्द बोलते हैं। सूक्ष्म तरंगों के माध्यम से विष, पीयूष घोलते हैं। अपशब्दों के तीर चलें तो ढाल बना लें शब्दों को। जीवन का सुर भंग लगे तो ताल बना लें शब्दों को। 'सरस' शब्द के सुर-सरिता की धार बना लें शब्दों को। माणिक, मुक्ता को चुन कर तुम हार बना लें शब्दों को। भाव-सुमन-दल सुरभित कर व्यापार बना लें शब्दों को। जीवन की समरसता का आधार बना लो शब्दों को।।

पितृ दिवस

मैंने देखा है एक दीपक बिन तेल जलते हुए, बाती खाक होते हुए घर रोशन करते हुए, खुद में राख होते हुए एक दरख्त देखा है साया विशाल बने हुए, घर की ढाल बने हुए कभी न बूढा होते हुए, सालों साल बने हुए मैंने देखा है एक इंसां दिन रात कमाते हुए, रुखा- सूखा खाते हुए नंगे पैर चलते हुए, बच्चे की साइकिल लाते हुए सदा रास्ता बनाते हुए, चलना सिखाते हुए छोटे - छोटे से कदमों पे, फूला न समाते हुए देखा है एक विशाल हृदय एक टुकड़ा जुदा करते हुए, बेटी विदा करते हुए अपनी वर्षों की पूंजी को, पल में फिदा करते हुए छालों को समेटे हुए, एक गमछा लपेटे हुए चेहरे से शिकन छुपाते हुए, थक करके लेटे हुए ठिठुरती सर्द रातों में, चिलचिलाती धूप में हम सब ने ईश्वर देखा है, अपने पिता के रूप में

प्रिय तुम मेरे लिए न रोना

प्रिय तुम मेरे लिए न रोना नयननीर से दृग मत धोना।। आँसू आहें व्यथा वेदना मुझको दे दो मैं सह लूँगा दीप्त ज्योति आलोक तुम्हें दे गहन कालिमा में रह लूँगा। जीवन सरिता के सुरम्य तट तुमको अर्पित तुम्हें समर्पित मेरा क्या है इक यायावर हूँ मझधारे में बह लूँगा। घनीभूत निज पीर ह्रदय की स्वयम् सुनूँगा मैं कह लूँगा कटु स्मृतियाँ देकर मुझको तुम स्वप्न सलोने लेकर सोना प्रिय तुम मेरे लिए न रोना।। जीवनपथ के शूल चुन लिए फूल तुम्हें अर्पण कर आया जो भी सुखद प्राप्य है मेरा सहज समर्पण मैं कर आया। जीवन के सुरभित उपवन की मधुर मृदुल मोहक स्मृतियाँ ह्रदयपटल पर अंकित हैं जो नाम तेरे क्षण क्षण कर आया। प्रेम तेरा पाथेय मेरा है हर सुख तेरा ध्येय मेरा है प्रिय सहेज रखना इनको तुम विस्मृत कर इनको मत खोना प्रिय तुम मेरे लिए न रोना।।

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