हिन्दी कविताएँ : प्रदीप सिंह ‘ग्वल्या’

Hindi Poetry : Pradeep Singh Gwalya


दोस्ती

दोस्ती ! जीवन भर चलने वाली एक प्रक्रिया हर मोड़ पर मिलते हैं पर गुम हो जाते हैं धीरे–धीरे जैसे उजाला दूर जाता अंधेरा होता है वैसे दुख होता है कुछ क्षण मन झुंझला उठता है प्रश्न पूछता है,आखिर क्यूं? क्या ये सिर्फ मेरे साथ होता है? क्या मैं अच्छा नहीं? या मुझमें उनकी बराबरी की क्षमता नहीं? फिर अगल बगल झांकता हूं देखता हूं,अनुभव करता हूं जीवन के कुछ पड़ाव तक महसूस करता हूं शायद मन को शांति भी मिली है जानकर कि इस दोस्ती के कांच के घेरे में मैं अकेला नहीं जो क्षणिक भर में टूट जाता है।।

आठ पहर

एक पहर खुली आंखों से सपना तुम्हारा अगले पहर यादों की झांकियाँ, एक पहर शुद्ध लिखता जाता तुम्हें अगले पहर ढूंढू उसमें गलतियाँ। एक पहर तुम्हें पढ़कर खुश होता अगले पहर अपनी तेज धड़कनें गिनता मैं, एक पहर मन की गहराई में ले जाता तुम्हें अगले पहर वहीं बसाने तुम्हें सोचता मैं। ये हैं मेरे आठ पहर अब इससे ज्यादा क्या मैं करूं क्या तेरी ही याद में लिप्त रहूँ या फिर अगले आठ भी ऐसे करूं।।

सिर्फ मुझे पता है

प्यार कितना है तुमसे, तुम्हें खोने के डर से ये चेहरा नहीं जताता है चाहेंगे कई तुम्हें या चाहते होंगे, पर मेरे लिए आपका मोल सिर्फ मुझे पता है,,,,, तुम हंसती हो तो कितनी प्यारी लगती हो शायद ये तुम्हें खुद नहीं पता है तारीफ करेंगे झूठी हजारों लाखों पर तुम्हारी हंसी का असली मोल सिर्फ मुझे पता है,,,,, कभी बिखरे कभी सुलझे कभी हवा के साथ बहती वो लटें वो बाल जिन पर मेरी ये मता है कि इन्हें संजोने के ख्वाब देखते होंगे कई पर इन बालों की खुशबू और इनकी छांव की अहमियत सिर्फ मुझे पता है,,,,, दिल में गुदगुदी करती बड़ी होती जो तुम्हारे लिए मेरे दिल में ये प्रेम लता है किसने बोई,किसने रोपी ,किसने सींची नहीं खबर ,पर कितनी सुंदर ये सिर्फ मुझे पता है,,,,, तुम्हें पाने के लहजे से तुम्हारे प्यार का शब्दकोश इतने वर्षों से जो मैंने रटा है कितनी मेहनत लगी , कितना समय यह सिर्फ मुझे पता है,,,,, अब अंतिम गुहार, विनती तुझी से है है ! खुदा हमें एक राह दिखा दे ना अन्यथा दुःख दर्द या सजा दे क्योंकि जिंदगी उसके बगैर कितनी बैरंग होगी ये सिर्फ मुझे पता है,,,,,

टी वी और साहब : एक कटाक्ष

हंसूं, रोऊं या चिल्लाऊं यह भाव ही मन से जाता है जब कोई साहब टी.वी. पर आता है। आँखें चमक उठती हैं मन शांति की ओर जाना शुरू होता ही है पर फिर उथल पुथल शुरू होती है जब कोई साहब टी. वी.पर आता है। कहता है ; यह वक्त हर वक्त जैसा नहीं इस वक्त कुछ नया नियम शख्त होगा पर फिर पुराने से बद्तर होता है ज्यों ही कोई साहब टी.वी. से जाता है। फिर जब बद्तर होता है कमवक्त साहब फिर टी.वी. पर होता है दुखड़े सुनाता, सख्त हिदायत देता, और कुछ को गरियाता है जब भी साहब टी.वी. पर आता है। पर अब साहब टी.वी. पर कम ही आता है सुना है वही भ्रष्टियों से मिलाता है ओ हो! क्या हुआ, क्या करें बस विद्यार्थी देखते रह जाता है फिर भी साहब बेशर्मों की तरह टी.वी. पर आता है। अब क्या ,वही पुराना टी.वी. वही पुराना विद्यार्थी,वही दौर,वही संघर्ष बस टी.वी.पर दृश्य अलग होता है और साहब भी बदला हुआ होता है।।

प्यार का सपना या सपने में प्यार

सुरम्य की तलाश में मैं था चला थका हारा चुपचाप चलता रहा उस दिन बिलखती धूप में सुंदर से रूप में दिखी एक मधुबाला। जब रुका तो देखा उसके बाल खुले थे गर्मी से उसके गाल,लाल हुए थे, मैं ख्वाबों में चला गया तो पाया कि मुझसे भी आगे मेरे खयाल खड़े थे। उसकी गर्दन पर नदी सी धार बनाता पसीना कुछ कह रहा था कमवक्त उसने वो पसीना पोंछ दिया, कि जैसे मेरे अरमानों को उसने नोंच दिया। उसकी बड़ी–बड़ी और नीली आंखें जो झील सी प्रतीत होती थी इधर–उधर फिरती थी अरे वाह! यही तो मेरे मन की कृति थी। मैं कुछ तो था सोच रहा शायद किस्मत को था कोस रहा कि भाई! बड़े दिन लगा दिए, पता है अब तक मैंने कितने सपने बहा दिए मैं और पास गया,वो मुस्कुराई लगा जैसे मोतियों की खान है दिखलाई उसने कहा क्या देखते हो साहब, कुछ कहना है या हो मुसाहब? तुरंत पीछे पलटा और सोचा कि क्या कहूं अब क्या सोचना यार,कह ही दूं ज्यों मैं वापस मुड़ा वो जा चुकी थी, दुःख हुआ पर क्या करूं अब वो मन को भा चुकी थी। मैं हताश निराश खुद को धिक्कार रहा था बस उसी के बारे सोच रहा था, कि यदि कभी मिले तो जरूर कहूंगा वह आप ही का हुस्न था जो मन को भाया था। कि अचानक नींद खुली तो पाया कि यह सब सपना था वह सपने में थी जिसे अपनाया था, अभी मुख पर नादान गुस्सा और अंतर्मन में हंसी थी कि वाह रै प्यार, सपने में ही सही अहसास तूने सच्चे वाला करवाया था।

कुछ शब्द

फूलों की शोभा बगीचे में, इन्हें मत चुनो चुनना है तो कुछ शब्द चुनो माला बुननी है तो शब्दों की बुनो बुनो तो माला जो सशक्त रहे रहे उत्साह लोगों में ऐसे विचार रखो कुछ शब्द बुनो। फूलों की माला कुछ वक्त रहे हर वक्त रहे वो बात कहो जिसमें प्रेरणाओं की बयार हो और भटके,अज्ञानियों के काम आए उसमें ऐसा सार रखो कुछ शब्द बुनो ।।

फिसलती जवानी संग संवाद

ऐ जवानी जरा रुक तो अभी तो तेरी आहट गूंजी ही है, कहना तो बहुत कुछ है तुमसे मन की बात मगर..... अभी तू कहां राज़ी है। ये इल्म तो था कि तू अभिमानी है कदम रखते ही रंग दिखाती है, भूल जाती है कि तेरा फर्ज़ है क्या ..... और कौन तेरा यथार्थ साथी है। सुना है स्वर्ग सी अनुभूति है तेरी तुझे,हमें कब सैर करानी है, हम कहते –कहते थक चुके या फिर.... तू सुनती आत्म रूहानी है। माना कि तू इस्फानी है क्या ही तुझ बिन कहानी है, सब नीरस है इस सफर में मगर..... शायद तू अकेली रासधानी है। लगता तो है कि तू फूल सदाबहार है असल में बरसाती पर सुगंध तेरी नशीली है, उग आती है वक्त पर हर किसी के आंगन में बता मुझे..... क्या मेरी जमीन हुई अब पथरीली है। न मोह सका किसी अजनबी को न कर सका इश्क जवानी में, मांगा तो था समय कई बार मैने तुझसे ऐ जवानी.... क्या तू इससे अनजानी है। मुझे भी घर बसाना है मुझे भी लक्ष्मी लानी है, तू अलविदा कह दे अगर मुझे तो यह केवल मेरी..... कल्पना मात्र रह जानी है। एक ख्वाब बचा है मेरा जिस पर सजग बुद्धि, देह अब भी मेहनतानी है, जिसे पाने की इच्छा में तू सिमट गई शायद तुझे..... मुझ पर बदगुमानी है। तय लक्ष्य था मेरा बचपन से उसमें न किसी की मदद, न रहनुमाई है, वैसे जानती तू सब है ऐ मेरे दोस्त..... अब क्या तुझे नित्य कथा समझानी है। पाना है सच को मुझे झूठ की ब्यथा दरकिनार करनी है, बगैर तेरे यह कार्य मुमकिन नहीं यह तू समझ ले..... क्या अभी तेरा जाना जरूरी है। कुछ बरस ठहर जाए तो अगर तू बस कथा अब पूर्ण होनी ही है, दुखों का बोझ यूं ना बढ़ा एकदम से..... भई तू इतना भी क्या विधानी है। माना कि तेरी अहमियत मैं समझा नहीं पर किस्मत ने की बेईमानी थी, भटक गया था गलियों में मैं उस वक्त भीड़ में ..... जब तू मेरे चौखट आई थी। अब दिल पर पत्थर रखूं तो कितने सपनों की बची कई झांकी है, जाने की बात न कर जवानी समझा कर..... मेरी कहानी तो अभी बाकी है। मेरी कहानी तो अभी बाकी है।।

आसान नहीं होता!

मैं बिकने तक को राजी था उसके प्यार के बाजार में नजरें लड़ने तक की तो आस थी ही पर कमवख्त उसने नजर तक नहीं फैरी शायद उसे नहीं खबर कि हमेशा एक जैसी आस लगाए रहना आसान नहीं होता।। उसने तो यूं ही ‘ना’ में अपनी गर्दन हिला दी उसके दिल में क्या है एक झटके में जाता दी शायद उसे नहीं मालूम कि उसके बाद भी दो पल और जीना है ऐसी प्रेरणा रखना भी आसान नहीं होता।। कारण क्या था या क्या है उसकी ‘ना’ का ये प्रश्न दिल में अब कम आता है पर जब भी आता है यकीन मानो उस पल ये दिल कुछ पल रुक सा जाता है और उसे तो क्या ही पता कि रुके हुए दिल से प्यार की उम्मीद करना आसान नहीं होता।। इससे पहले लगता था कि मैं किसी प्यार के मैले में खोया हूं पर अब खुद में खोए रहने की खबर अक्सर मिलती है माना कि सुरूप पहले भी नही था मैं पर अब शक्ल शीशे में ओर बदतर मिलती है और उसे पता हो या ना हो पर निराश शक्ल को बार बार शीशे में देखना आसान नहीं होता।। तारीख: 03/02/2024

एक कला है

खुद के लिए ठहरना खुद का इंतज़ार करना खुद से बातें कर फिर खुद को पहचानना एक कला है ।। मैं सबसे अलग हूँ सक्षम हूँ इस दुनिया में फिर खुद की प्रशंशा कर खुद को बताना एक कला है ।। भागदौड़ भरी इस जिंदगी में तनाव, चिंता और भय से जकड़े खुद के चेहरे पर हल्की ही सही मुस्कान लाना एक कला है ।। खुद मंजिल तय करना खुद से सलाह सम्मति लेकर अच्छा-बुरा खुद का खुद तय करना एक कला है ।। खुद की गलती पर गुस्सा करना खुद को डांटना फिर खुद से रूठकर खुद को मनाना एक कला है ।। बुरे से बुरे दौर में भी खुद की तारीफ करती वो खुद से प्रेरित खुद पर कविताएँ लिखना एक कला है ।। तारीख:- 13 feb, 2024

नये कवि की नई रचना

एक दिन वह था सोच रहा समय का कुछ उपयोग करूँ कविता जैसा कुछ तो रचूँ काग़ज में खुद को ब्यक्त करूँ जो अंतर्मन यूँ ढूंढ रहा उसको भी मैं पहचान सकूँ।। कभी पहले उसने लिखा नहीं तो काब्य चक्षु अभी खुला नहीं जब लगी छलाँग तो पता चला गहराई तो सागर की पता ही नहीं।। न छंद सही ना रस सही न अलंकार और ना लय सही अभी जो लिखना शुरू किया है तो फिर कैसे होंगे भाव सही।। महसूस किया लेखन को जब कुछ एक काब्य पाठ सुने कम शब्द चुने शसक्त चुने कुछ पंक्तियाँ पूर्ण प्रवाह बुने फिर काम किया तुकबंदी पर जो कविता की रसधार बने।। अब हुआ कार्य इस कविता का तब कवि था चौदिश झूम रहा कि कहाँ प्रस्तुत कहाँ रखूँ किस मंच और महफ़िल इसे पढ़ूँ यह रह ना जाए मुझ तक सीमित कैसे इसका मैं उद्धार करूँ।। जब मंच दिखे कोई बड़ा इसे तब शायद इसको जगह मिले पड़ी रही इक कोने में मानो उठने की ना वजह मिले।। ये सब मंझे हुए खिलाडी हैं तू कुछ तो टक्कर दे रहा है क्यूँ अभी से थककर बैठा है अभी अभी तेरी सुबह हुई है तू बस उठकर ही तो बैठा है।। फिर सोचा दिल पर हाथ रखा समझाया खुद को बना सखा ये इन मंचों पर क्या ही रखा तू कर अब काब्य अलंकृत इतना कि करे इशारे होए बखान।। पर यहाँ हर मोड़ पे असुर खड़े हैं और आलोचक भी भरे पड़े हैं उन सबसे हमको बचना है क्योंकि..... यह नये कवि की नई रचना है।।

पथ और पथिक: एक पलयानी पीड़ा

ऐ राह के बटोही खबरदार रहना बरसों से जनशून्य हूँ जरा संभलना।। नुकीले काँटों ने पत्थरों के बीच जगह बना ली है उसमें हरी घास रास्ता छुपा रही है चाह नहीं मेरी, मेहमान दुखी जाये राह के कीट उसे सताये इन कोमल पैरों को जरा संभलकर उठाना। ऐ राह के बटोही खबरदार रहना बरसों से जनशून्य हूँ जरा संभलना।। जिस मिट्टी की लोग मिसाल दिया करते थे वो आज नरम पड़ी है वही मिट्टी किसी बटोही को तरस पड़ी है रात चाँद दिन सूरज के सिवा कुछ दिखता नहीं आज कोई दिखा है तो अपना परिचय देते जाना। ऐ राह के बटोही खबरदार रहना बरसों से जनशून्य हूँ जरा संभलना।। खिदमत की जिनकी वो तो आज भूल गये इंतजार उनका परंतु आ तुम गये कोशिश पूरी रहेगी तुम्हें मंजिल दिखाने में पर बदमाश मौसम का कुछ कह नहीं सकता। ऐ राह के बटोही खबरदार रहना बरसों से जनशून्य हूँ जरा संभलना।। मंजिल को अगर तुम चले हो तो कामनाशक्ति न बदलना परस्थिति कठिन देख पीछे न मुड़ना क्योंकि कंटीली झड़ियाँ मुझे अदृश्य कर रही हैं वो अभिमानी हैं तो क्या न कभी कमतर आंकना। ऐ राह के बटोही खबरदार रहना बरसों से जनशून्य हूँ जरा संभलना।। हिमपात हो या सूर्यताप न भेदभाव किया ना किसी का किया जाप तटस्थ रहा हूँ जब से बना हूँ साथ में तुम भी ये सीख बटोरे ले जाना। ऐ राह के बटोही खबरदार रहना बरसों से जनशून्य हूँ जरा संभलना।। न लोभ न लालच न बुनता कोई ताना बाना मैं तो धरोहर भी नहीं हूँ ऐ पथिक मध्यस्थ हूँ मैं दो क्षितिज का तो मन अवधारण रखना, यूँ न मुझे भुलाना। ऐ राह के बटोही खबरदार रहना बरसों से जनशून्य हूँ जरा संभलना।। बहुत लालायित था किसी के आहट के लिए तुम्हारे आने से मन को शांति मिली है अब तो इंतजार है उस दिन का जब हर वो साथी आयेगा, चलते चलते गीत गुनगुनायेगा बस ये दिली इच्छा मेरी उनको बताना। ऐ राह के बटोही खबरदार रहना बरसों से जनशून्य हूँ जरा संभलना ।।

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