मलयाली कविता हिन्दी में : ओ.एन.वी. कुरुप
Poetry in Hindi : O. N. V. Kurup



अपराधों का बयान

आज राह चलते दिखाई दी दीनता और सुनाई पड़ा रुदन मेरा पीछा करती है जो अब भी मेरे दिल में हैं वह पीड़ा शायद अदृश्य सलीब है मेरी आत्मा की स्वर्णिम मूर्ति उसे वहन करती हैं इस दोरुखी जीवन में मुश्किल रास्तों से गुज़रते हुए मुझे दिल की बात सुनाई देती है दूसरों के दर्द में तेज़ होती है मेरे दिल की धड़कन शायद यही है मेरा बल और मेरी दुर्बलता मै अच्छे दिनों और अच्छे लोगों का स्वप्न देखता हूँ शायद यही है मेरी बीमारी क्या इसका कोई इलाज है छूने पर बजते तार-सी कस गई हैं मेरी नसें मेरे मन से रिसते हैं गीत जैसे घाव से रिसता है ख़ून

आज भी

आज भी आकाश घना है कहीं सलीब पर आज भी हमें प्यार करनेवाला छटपटा रहा होगा आज भी किसी रईस के भोज में ग़रीब के मेमने को छीनकर कोई वध कर रहा होगा उसका आज भी कहीं अपनों के ख़ून से कोई आँगन की लीपा-पोती कर रहा होगा आज भी आकाश घना है कहीं एक बेचारी बहन पर कोई अत्याचार कर रहा होगा आज भी पड़ोसी के अंगूर के बाग को कोई तबाह कर रहा होगा आज भी हज़ारों गालों पर खिलनेवाले केसर के फूलों को कोई हड़प रहा होगा आज भी थोड़ी-से मृत सपनों के लिए किसी के सीने में जल रही होगी चिता आज भी ख़ुशी से उड रहे नन्हे कपोत को कोई बाण से गिरा रहा होगा आज भी एक अधनंगे बूढ़े को नमस्कार कर कोई गोली चला रहा होगा आज भी आकाश घना होने पर मेरा मन अँधकार से भर जाता है क्या आज सूर्यास्त के बाद सूरज फिर नहीं उगेगा ।

तू

यहाँ पहुँचते वसंत की जीभ को तूने उखाड़ दिया और चिड़ियों के चोंच से कोई आवाज़ नहीं निकलती तूने वसंत के सौभाग्य को हड़प लिया देख अब यहाँ गंधहीन फूल खिले हैं नदी में तैरते मछली-परिवार को तूने तबाह कर दिया नदी भी तेरे द्वारा तोड़े गए दर्पण के टुकडों-सी बिखरी पडी हैं तू मनुष्य को धीमी गति से मरने की गोलियाँ बेचकर धनी बना और अब ख़ुद दवा के इंतज़ार में है तू साँस लेता है हवा में और पेयजल में और इनमें मृत्यु का चारा टाँगता है जिस टहनी पर बैठा हुआ है उसी को ख़ुद काटता है तू आँखें मलते उठते शहर को विषैली-गैस का कफ़न ओढ़ाकर हमेशा के लिए सुलाता है अगली शताब्दी का इंतज़ार करती काली चिडिया का गला घोंटता है तू निषाद ! बंद कर यह सब !

बारिश की बूँदें

गर्मियों से मुग्ध थी धरती पर बारिश की बून्दें पड़ते ही तुम बुदबुदाईं — बारिश कितनी ख़ूबसूरत है ! क्या तुम्हारा मन मिट्टी से भी ज़्यादा ठण्ड को महसूस करता है तभी तो बारिश में विलीन हो गए छलकते हुए आनन्द को स्वीकार न कर तुमने आहिस्ता से कहा — बारिश कितनी ख़ूबसूरत है ! तुम्हारे आँगन में बून्द-बून्द में अपने अनगिनत चान्दी के तारों में सँगीत की सृष्टि कर बारिश जिप्सी लड़की की तरह नाचती है तुम्हारी आँखों में ख़ुशी है, आह्लाद है और शब्दों में बच्चों-सी पवित्रता बारिश कितनी ख़ूबसूरत है ! अपने इर्द-गिर्द की चीज़ों से अनजान तुम यहाँ बैठी हो नदी तुम्हारी स्मृतियों में ज़िन्दा है अपनी सहेलियों के सँग धीरे से घाघरा उठाकर तुम नदी पार करती हो अचानक बारिश गिरती है लहरें चान्दी के नुपूर पहन नाचती हैं बारिश में भीगकर हर्षोन्माद में हंसते हुए तुम नदी तट पर पहुँचती हो बारिश में भीगे आँवले के फूल पगडण्डी पर तुम्हारा स्वागत करते हैं तुम्हारे सामने केवल बारिश है, पगडण्डी है और फूलों से भरे खेत हैं ! मेरी उपस्थिति को भूलते हुए तुमने मृदुल आवाज़ में कहा — बारिश कितनी ख़ूबसूरत है ! फिर तुम्हें देखकर मैंने उससे भी मृदुल आवाज़ में कहा — तुम भी तो कितनी ख़ूबसूरत हो !

संदेश

तुम बहुत दूर हों और मैं यहाँ हमारे बीच की इस लंबी दूरी को गुज़ार रहा हूँ रात और दिन को विदा करते हुए पीड़ा से दिल दुखता है । अपने इस दुख को भूलाने, चुपचाप तुम्हारे पास पहुँचने और फिर फुसफुसाते हुए तुमसे साँत्वना के कुछ शब्द कहने के लिए मैने आकाश में एक बादल को खोजना चाहा लेकिन आकाश में धधकता हुआ सूरज ही दिखाई दिया मैंने मोर को ढूँढ़ा तो दिखाई दिए उसके पंख किसी ने उसकी हत्या कर दी थी कहानियों को सोचकर एक तोता गुनगुना सकता मैंने एक तोते को ढूँढा अनाजहीन खेत रो पड़ा हरे पेडों के झुंड ने कहा-- वह नहीं आएगी लेकिन तुम अगर उससे मिलो तो बताना उसे गुलदाउदी भी अपने अंतिम समय में उसका इंतज़ार कर रही है फिर बिलखते हुए मैं आगे बढ़ा... तुम बहुत दूर हो और मैं यहाँ रात और दिन को विदा करते हुए पीड़ा से गुज़रते हुए कोई नहीं है तुम तक मेरा संदेश पहुँचानेवाला कोई नहीं है ।

रात की ट्रेन में

रात को रेलगाड़ी में मैं अपनी सीट पर लेटा हूँ रात के बारे में सोचता हुआ कि एक राक्षसी अपनी लटें बिछाकर लेटी हुई है उसके आकर्षक रूप के अनंत वितान में हड़बड़ी के साथ गुज़रते हुए मैंने महसूस किया उसके शारीरिक ढाँचे को और यह रेल लगती उत्साह भरे प्रेमी की उँगली कच्ची नींद में मै बेचैन हूँ यह कामोन्माद की बेचैनी है और उसकी हँफनी से मैं उड़ जाता है

धरती के नाम एक शोकगीत

हे धरती ! तेरी मृत्यु अभी नहीं हुई तेरी आसन्न मृत्यु पर तूझे आत्मशांति मिले ! तेरी और मेरी भी होनेवाली मृत्यु के लिए मै यह गीत अभी से लिख रहा हूँ मृत्यु के काले फूल खिले हैं उसके साए में तू कल मर जाए तेरी चिता जलाकर रोने के लिए यहाँ कोई नहीं बचेगा मैं भी ! यह गीत मैं तेरे लिए लिख रहा हूँ हे धरती ! तेरी मृत्यु अभी नही हुई है तेरी आसन्न मृत्यु पर तेरी आत्मा को शांति मिले प्रसव की पीड़ा सह तूने बच्चों को जन्म दिया अब ये आपस में लड़ते-झगड़ते हैं वे एक दूसरे को मारते-खाते हैं दूसरों से छिपकर तू रोती है फिर थोड़ा-थोड़ा करके वे तुझे भी खाते हैं वे उछल-कूद मचाते हैं वे शोर मचाते हैं तब भी उन्हें रोके बगैर तू सब कुछ सहती है उनके साथ खड़ी रहती है ! अपनी हरी मृदुल कमीज़ पहनकर तूने उन्हें स्तन-पान कराया पर तेरा दूध पीकर बड़े हुए जो वे तेरा पवित्र रक्त पीना चाहते हैं बहुत प्यास लगी है उनको तू वधू-सी प्यारी है सूरज ने तुझे जो कपड़े पहनाए उन्हें चीर-फाड़कर तेरे नग्न शरीर को अपने नाखूनों से काट कर उन घावों से निकले ख़ून को पीकर उन्माद-नृत्य करनेवालों की हुंकारों से मुखरित हो उठती है मृत्यु की ताल ! अनजाने में युवक की अपनी ही माँ से शादी करने की कहानी1 पुरानी हो गई आज धरती की ये संतानें नई कहानियाँ रच रही हैं धरती के वस्त्र उतारकर, उन्हें हाट में बेचकर वे मदिरा पान कर रही हैं कुठारों का खेल जारी हैं ! सूरज की आँखों में भभक उठता है गुस्सा मेघों का झुंड पानी ढूँढ़ रहा हैं श्रावण नन्हें फूल खोज रहा है नदियाँ अपना प्रवाह तलाश रही हैं सारा संतुलन बिगड़ गया है जीवन का रथ-चक्र नाले में धॅंस गया है जब तक मेरी चेतना में थोड़ी-सी ज्योत्स्ना रह जाए तब तक तुझ में जन्म ले तेरा ही हिस्सा बनने की स्मृतियाँ मुझमें जीवित रहेंगी ! तू मेरी जीभ पर मधु और वचा लेकर आती पहली अनुभूति है तू मेरे प्राणों के बुझते पल में तीर्थ कण बन विलीन होती अंतिम अनुभूति है तुझमें उगती दूबों की कोरों में ढुलकते तुहिन-कणों में भी प्रकट होते नन्हें सूरज को देखकर मेरे दिल में विस्मयित सवेरा उदित हुआ है ! तेरे पेड़ों की छाँव में हमेशा मेरी कामना गाएँ चरती हैं तेरे समुंदर से होकर प्रवाचक के आगमन-सी हवा चल रही हैं सब कुछ मुझे मालूम है हज़ारों नन्हे बच्चों के लिए पालना और लोरी संजोकर तेरा जागना हज़ारों ग्रामीण आराधनालयों में झूला डालना पीपल के पत्तों के छोर पर नाचना पंचदल फूल बन इशारा देना मंदिर का कबूतर बन कुर-कुर रव करना हज़ारों नदियों की लहर बनकर आत्महर्ष के सुरों में सुर मिलाना शिरीष, कनेर और बकुल बन नए रंग-बिरंगे छातों को फहराना घुग्घु का घुघुआना बन सबको डराना कोयल की आवाज़ बनकर सबका डर दूर करना अंतरंगों की रंगोलियों में रंग भरने सौ वर्णों की मंजुषाएँ संजोकर रखना शाम को साँझ से सुनहला बनाना संध्या को लेकर वन की ओर ओझल हो जाना फिर उषा को कंधों पर लादना मुझे जगाने मुझे पीयूष पिलाने के लिए वन के दिल के घर में अंडे सेकर कविता को प्रस्फुटित करना जलबिंदु-सा तरल मेरे जीवन को कमलदल बन आश्रय देना तेरे इन कामों से मैं परिचित हूँ तू मुझमें समा जाती है तेरी स्मृतियाँ ही मेरे लिए पीयूष धारा है ! हे हंस तुम पंखों से संगीत भरते हो तेरे नन्हें पंखों की नोक पर क्षण-भर के लिए क्षण-भर के लिए ही सही मेरे जीवन का मधुर सत्य प्रज्जवलित हो उठता है ! यह बुझ जाए! तू अमृत है जिसे मृत्यु के बलि के कौए ने चुगा मुंडित सिर से, भ्रष्ट बन तू जब सौरमंडल के राजपथ से होकर बच्चों के पाप के मैले वस्त्रों की गठरी ढोकर अधसूने दिल में दहकनेवाली पीड़ाओं की ज्वाला बन चली जाती है ऐसे में तेरे शिराओं से कहीं छन-छनकर तो नहीं आ रही कराल-मृत्यु हे धरती तेरी मृत्यु अभी नहीं हुई है लेकिन यह तेरी मृत्यु का शोकगीत है ! तेरी और मेरी भी होनेवाली मृत्यु का यह गीत मैं अभी से लिख रहा हूँ तेरी चिता जलाकर रोने के लिए मैं यहाँ बचा नहीं रहूँगा इसलिए बस इतना ही उल्लेख कर रहा हूँ हे धरती तेरी मृत्यु अभी नहीं हुई है ! तेरी आसन्न मृत्यु पर तेरी आत्मा को शांति मिले तुझे आत्मशांति मिले ! (1 इडिपस की कहानी)

ईश्वर की मृत्यु

कल सड़क पर दिखाए दिए भूखे भाई को एक कौर चावल देने के लिए मैं अनाज पैदा नहीं कर सका उसने नग्न शरीर को ढकने के लिए कपड़ा नहीं दे सका न रहने के लिए झोपड़ी बनवा सका कल आँगन में कोई भीख माँगने आया तो कोई कपड़ा माँगने कल मैंने दोनों को भगा दिया आज उसका अनाथ शव दूकान के बरामदे में पड़ा है क्या कल मेरे ईश्वर की मृत्यु हुई

मूर्तियाँ दुख की

बंडुरशिला के मंदिर में वधुएँ संतान-प्राप्ति के लिए प्रार्थना करती हैं यहाँ की देवी बहुत सुंदर है माथा चुड़ामणियॉं और नवरत्नों से सजी है उसके कानों में मोती जटित बालियाँ हैं व्रत लेकर पवित्र होकर वधुएँ देवी के आगे हाथ जोड़कर एक नन्हें बच्चे के लिए दिल से प्रार्थना करती हैं घर की ये देवियाँ अपनी दुख को देवी के अलावा और किसे बताएँगी ! हाथों में फूल लेकर यह वधुएँ सिर झुकाए खड़ी हैं मानो ख़ुद को अर्पित कर रही हैं बगल के पीपल के पेड़ की छाँव में बैठ वे अपने दुख आपस में बाँटती हैं पति-घर में इन्हें बाँझ कह पुकारा जाता है और वे नौकरानी के रूप में जीने को मज़बूर हैं वे अपने पति को अपनी छोटी बहन से शादी करने के लिए प्रेरित करती है तब पति की संपत्ति दूसरों की नहीं हो जाएगी क्योंकि दूसरी औरत से शादी करने पर संपत्ति किसी और की हो जाएगी बगल के कमरे से लोरी सुनाई देने पर वे वहां झाँकती है ऐसे में ननद कहती है , बाँझ पर नज़र रखना वह बिना डर के दूसरे संबंधों की खोज में जा सकती है यह सुनकर पति "मैं तुझे सभी चीज़ों से ज़्यादा प्यार करता हूँ" कह उसे छाती से लगाता है पर पति के निगूढ़ रिश्तों के बारे में जानकर उसका दिल दुखता है वह एक जवान बेटा चाहती है आधी रात को नशे में धुत्त होकर आया एक आदमी बेशरम होकर कहता है "तू बांझ है" वह हर दिन ऐसी बातें सुनकर ही सोती है वह कुछ कहती नहीं सब कुछ सहती है वह इतिहास के गलियों में कहीं उतरकर आती चिरंजीवी नारियों-सी है आज भी नारी की स्तुति कर हम उनको धोखा दे रहे हैं और वे एक नारी का ही आश्रय ले रही हैं श्री गौरी का ! दिल की पीड़ा इनके अलावा किससे कहें वे ! वधुएँ देवी के सामने फूलों के साथ दिल के दुखों को भी अर्पित करती हैं जो ढेर बन जाते हैं क्या शिवपत्नी ने भी लंबी साँस ली जुबान से जो बात कही नहीं पाई क्या वह आँखों में प्रकट हुई

कुमुद बेचती बच्ची

पुराने मंदिर के प्रांगण में कुमुदकमल का फूल का तालाब है रास्ते के किनारे पूजा के सामान बेचते हैं लोग यहाँ देवता पर कुमुद के फूल चढ़ाए जाते हैं... गाइड जानकारी देता है एक कोने में खड़ा कुछ लोग कुमुद-फूल बेच रहे हैं जिनके लटके हुए डंठल काले नाग-से दिखाई देते हैं मेरे सामने सूखे फूलों के डंठल-सी एक छोटी बच्ची खड़ी है ’मुझसे ले लो, मुझसे ख़रीद लो...’ कहती हुई धीमे स्वर में विनती करती है वह उससे फूल लेकर मैं उसे एक छोटा सिक्का दे देता हूँ फिर उसकी तरफ़ देखता हूँ और उन बाक़ी फूलों की तरफ़ भी जो उसने अपने हाथ में पकड़ रखे हैं दोनों ही मुरझा रहे हैं रे फूल ! तू इस बच्ची का पेट पालता है यह पुण्य का काम है तुझे देवता पर चढ़ाकर भला, मैं क्या पाऊँगा... !! मैं खाली हाथ लौट आता हूँ उस बच्ची की आवाज़ अब कम सुनाई पड़ती है मेरे हाथों से मेरा फूल...

मेरी मिट्टी में

यहाँ के समुद्र की हवा में कौन रो रहा है ? यहाँ की काली मिट्टी किसका दुख है ? नारियल के पेड़ का ख़राब ऊपरी हिस्सा किसकी दीनता है केकड़ों के पैरों में किसने धोखा देनेवाले यंत्र को बाँधा है? चंदन के पेड़ में किसका विषैला फण है झाड़ियों में किसका भय बसेरा डाले है ? कौनसी गाय के गले में प्यास काँटा बन रही है ? केवड़ों के हाथों में नुकीले नाख़ून हैं । यहाँ की मिटटी में धंसी हुई है क्या स्वर्गिक ख़ुशी अभी तक नहीं मिली है जो जब थककर मैं लौट आया वहाँ से तो दीया बुझ गया वहाँ पड़े रह गए बस सफ़ेद फूल

फिंके हुए सेब

हम कश्मीर में हैं । हमने देखा बच्चे कैसे बेच रहे हैं सेब अवन्तीपुरम् के रास्ते में । मेरे सेब लीजिए, ले लीजिए सेब मेरे, जनाब कह रहे हैं बच्चे सड़े-गले सेब, गन्दे से सेब पड़े हुए थे उनकी पुरानी-धुरानी टोकरियों में । सड़े-गले ये सेब उठाए थे उन्होंने कूड़े के उस ढेर से सेब के बगीचे से निकला था जो । बच्चों के चेहरे सुन्दर थे उन सेबों से लेकिन बेहद गन्दे थे उनकी लम्बी कमीज़ें भी गन्दी थीं बेहद दाग-धब्बों से भरी । ये बच्चे भी फिंके हुए सेब हैं फेंक दिया गया है जिन्हें लोगों से भरी इस दुनिया से बाहर...! उन की आवाज़ अब भी गूँज रही है कानों में -- सेब लीजिए, ले लीजिए सेब मेरे, जनाब !

तेरा प्यार

तेरा प्यार जैसे हवा हवा का कोई झोंका जैसे नदी बहती हुई नदी जैसे समुद्र शान्त और तूफ़ानी समुद्र तेरा प्यार दिखाई देता है जो ख़ामोश गहराइयों में भी ।

धूप का रंग

धूप का रंग कैसा होता है ? बच्चे ने पूछा हरा होता है कहा उसके पिता ने तुम्हें कैसे पता? बच्चे ने सन्देह व्यक्त किया । पिता ने दिखाया आम का पेड़ और कहा यह खिली हुई नर्म मुलायम पत्तियाँ धूप का रंग पीती हैं और हो जाती हैं हरी इसलिए धूप का रंग भी हरा होता है । नहीं, पीला होता है धूप का रंग उसकी माँ ने कहा। उसने दिखाया उसे आमों का गुच्छा पेड़ से लटका हुआ और कहा इन नर्म हरे आमों को देखो जो धूप की किरणों को पीकर पके पीले रंग में बदल जाते हैं, सोने के रंग में । बच्चे ने सोचा ठीक कह रहे हैं ये दोनों लेकिन यह पूरा सच नहीं है फिर उसने देखा कैसे फ़र्श पर गिरे शीशे के टुकड़े से झलक रहे हैं धूप के सात रंग जैसे इन्द्रधनुष !

चुनाव

कुछ औरतें खड़ी थीं गाँव की गली में गुज़रा वहाँ से एक राहगीर प्यासा था बड़ा पीने के लिए उसने माँगा जल पहली औरत पानी लेकर आई सोने के गिलास में दूसरी भी लाई शीशे के गिलास में लेकिन तीसरी ले आई उठाकर मिट्टी की सुराही राहगीर ने ले ली सुराही और पी गया जल सारा मालूम था उसे कि पानी पैदा होता है ज़मीन से इसलिए सबसे साफ़ पानी होगा उस मिट्टी की सुराही में

तेज़ शराब

कौनसी शराब होती है तेज़ ? बहस उठी यह मधुशाला में फिर जाम भरे गए और उन्हें पिया गया जाम फिर भरे गए बहस बढ़ती गई ज्यों-ज्यों तेज़ होता गया नशा और जब मैं घुसा उस मधुशाला में अपनी सूखी रोटी के साथ सब मुझसे पूछने लगे — अच्छा भाई,तू ही बता कौनसी शराब होती है सबसे तेज़ ? मैंने कहा तुरन्त ही उनसे — जीवन की शराब वह जीवन जो कभी किसी का ग़ुलाम नहीं रहा ।

फ़ीनिक्स

चिता से फिर से जी उठूँगा पँख फूलों की तरह खोलता उठूँगा । मैं एक दिव्याग्नि का कण हो किसी मरूभु के गर्भ में प्रविष्ठ हुआ । एक मूँगे के बीज को दो पत्तियों की तरह स्वर्णपँख डोलता मैं ऊपर उठता गया ज्वालामुख खोल जगे हिरण्यमय नाल की तरह अग्नि से अँकुरित हुआ । निदाघपुरुष एक व्याघ्र की तरह तीर मारता, रक्त का प्यासा बन जिस धरती पर चल रहा है उसमें मैं छाया व प्रकाश फैलाता उड़ता हूँ । क्या जगह-जगह हरे बीज उगे ? रेत के पाट में क्या फूल खिले ? क्या मरुस्थली सूर्य-महाराज की तरफ़ उठता स्वर्णमुख राग बन ज्वलित हो उठी ? मैं उन दलों से उठता उन्मत्त मधु शलभ होकर जब उड़ूँ गाता उड़ूँ, दोनों पँखों से अपारता को नापने की कठोर साधना जारी रखूँ तब मैं झुलस जाऊँगा । पंखों की सारी बत्तियाँ जलेंगी — मृत्यु के हाथ में अनन्तता की आरती करता दीपदान बनूँगा । मृत पक्षी के चिताकण लेकर आँसू टपकाते, हे काल ! मैं चिता से फिर से जी उठूँगा अपने पँख फूलों की तरह खोलता उठूँगा ।

थोड़े से प्यार के अक्षर

एक चिड़िया अपने परों में से एक पँख मेरे सामने डाल उड़ गई — यह तुम ले लो । कदली-कुसुम के पौधे ने अपने फल का दाना मेरी ओर बढ़ाया और कहा — तुम इसका रंग ले लो । एक भुर्ज वृक्ष ने मुझसे कहा — मेरी चिकनी छाल का एक छोटा सा टुकड़ा लो ! मैं अनजाने में पूछ बैठा — बोलो ! मैं कवि हूँ, तुम्हें क्या लिखकर दूँ ? जवाब मिला — लिख छोड़ना, थोड़े से प्यार के अक्षर हमारे लिए । आख़िरी पक्षी भी जाने कौन सा तीर खाकर मेरे हृदय के नभ-तल पर तड़प-तडपकर गिर पड़ा ! इस पाठ के किनारे कदली-कुसुम के पौधे का स्थान भी विस्मृति में लीन हो गया ! प्रिय भुर्ज वृक्ष भी किसी पूरण के दीमक खाए किसी पृष्ठ पर गल गया ! अब मेरे पास सोने का पंख कहाँ ? स्याही कहाँ ? कागज़ कहाँ ? अब मैं किस के लिए क्या लिखूँ ? कहीं से मुझे यह उत्तर सुनाई दे रहा है — इतना सा प्यार देकर सब कुछ फिर से पा सकते हो ।

कुमुदिनी बेचने वाली लड़की

(मूल कविता : आम्पलप्पू विल्क्कुन्न पेण्कुट्टी) पुराना मंदिर, उसके पास है कुमुदिनी - तड़ाग; रास्ते में हैं, विक्रेता पूजा-द्रव्य के; "इधर देवता का इष्ट नैवेद्य हैं कुमुदिनी फूल" मार्गदर्शक के इस कथन के अर्थ-स्वरूप एक ओर हैं, मृत जल- नाग की तरह लटकते लंबे डंठलों के छोरों पर खिली सफेद कुमुदिनियाँ बेचने वालियाँ; "मेरे हाथ से, मेरे हाथ से " कहकर मेरे सम्मुख एक छोटी लड़की आई मुरझाए फूल के डंठल जैसी । उसने दीन स्वर में प्रार्थना की, तो ..................

आरण्यक

........... मुनि कैसे अंकित कर सके ? माँ की आँखों के गीलेपन की रौनक में जो बच्चे स्नेहसिक्त हो जाते हैं। उनके लिए औरों का दुख क्या पराया होगा ? तप्ताश्रु में अपनी मुख - छाया निहारती - सी वह बैठी रही । गीतालाप हुआ समाप्त, पीछे से चाँदनी आकर सहलाने लगी निशीथिनी को । अपने सम्मुख प्रिय पुत्रों के आगमन की बात उनके पुकारने तक नहीं जानती है वह माँ । पुत्र माँ को कल सुबह साकेत जाने का सुनाते हैं गुरु - निर्णय । पूछते हैं- " माँ भी संग चलेंगी न ?" ऐसा बाल सहज सवाल सुनकर उन्हें गले लगाकर चूमती हैं माँ और कोई उत्तर नहीं देतीं। माता की आँखों में आँसू क्यों हैं ? उनको इसका पता नहीं चल सका । उनके लिए तो माता का मतलब है सदा अश्रुपूरित आँखें और स्नेहार्द्र मौन वात्सल्य दुलार ! रात बीत गई; अरुण - किरणें नभ में प्रकट हुईं ............................

ग्रीष्म को एक प्रेम-पत्र

(मूल कविता : वेनलिनोरु स्नेहक्कुरिप्पु ) ग्रीष्म हुआ ! शिरीष के पेड़ झुक गए हैं लाल फूलों से सजकर । सोना पिघलाता है कर्णिकार किसी कन्या के लिए गहने बनाने हेतु । 'यह तो महालक्ष्मी का मंगलसूत्र ! ' - फुसफुसाता है कोई कान में ! बच्चे कहते हैं अपनी चाहत स्थानीय काकों तथा गिलहरियों से, तब हवा का अतिचार होते आम के पेड़ के नीचे पके फल गिरते - फटते हैं । किसी ने कर- तल पर रखकर कपूर जलाया है क्या ? पौध तो झुलस गई हैं। बूँदा बाँदी भी न होते आसमान को देखकर तिल के फूलों की हँसी मिट जाती है। ग्रीष्म का मुख क्रूर है, तो भी याद करता हूँ स्नेह से । लाड़ली, उसका कारण सोचने को हैं हम दोनों मात्र ! कड़ी गर्मी में थककर पैर उखड़ती हवा ज्यों ........................

और एक अवतार हो तो !

(मूल कविता : इनियुमोरवतारमुण्टेंकिल्) एक और अवतार हो तो कृष्ण ! तू ग्वाल के ही कुल में जन्म ले । दूर हस्तिनापुर की सभाओं में जुआ खेलते हैं राजा । छल से अक्ष चलाने में समर्थ आज भी जिंदा हैं शकुनी अनेक, अट्टहास करते हैं जो विजय पाकर खेल में । अनुचित सभी चीज़ों को दाँव पर रखने को आदेश देते हैं वे धर्मराज को । धर्मराज तो पूरे जनपद तथा अर्द्धांगिनी को दाँव पर रखकर भी हारता है खेल । उस पर क्रुद्ध के पास खड़े अनुज प्रकट करते हैं विरोध । वे हैं अतिकाय, अतिशक्त तथा सव्यसाची, मन मसोसकर खड़े रहते वक़्त, आगे क्या करना है, इस असमंजस में खड़े रहते वक़्त यहाँ की ग्वाल-कुटियों में किसी से उठ रहा है कृष्ण का रुदन । गूँथे बाल खुलकर, पहना हुआ वस्त्रांचल खुलकर कृष्णाएँ रोती हैं एक सौ । शोहदे कुत्तों के भौंकने की आवाज़ बढ़ती है। .........................

फूल

(मूल कविता : पूवुकळ्) मेरे सामने खिले हुए जो फूल हैं ये किसकी बधाइयाँ हैं ? पीड़ा सहकर जन्म दिए मातृ वल्लरियों के अंतरंग की भावभंगिमा हैं ! मिट्टी में कभी से लौटे हुओं के मौन, सुंदर स्नेह संदेश के लेख हैं ! मत तोड़ो, इन फूलों को! इन फूलों से घर का आँगन सजाया जा सकता है, अपनी प्रिय कन्या के घुँघराले बालों में स्नेहार्द्र होकर रखा जा सकता है, तुम्हें झूठे वादे देकर इस रास्ते से पधारने वाले नेता को सौंपा जा सकता है, जिंदगी में प्यार न मिले मृत व्यक्ति के जड़ शरीर में चढ़ाकर तुम प्रणाम कर सकते हो, किंतु मत तोड़ो, मत तोड़ो तुम इन फूलों को, इन्हें हँसने दो। ज़रा देखो, तुम्हारे प्यारे बच्चों जैसे ही हैं ये फूल भी । (ज्ञानग्नि, पृ.सं. 93)

किराये का घर

आखिर आ बसा यह किराये का घर भी हमें पूर्ववत् पसंद आया. उसके अहाते में एक शेफालिका हमने लगाई, सींचकर हमने बढ़ाया उसे, कोंपले आईं, पत्ते आए, फूल लगे, गंध आई शेफालिका के अपना जूड़ा खोलते ही छाया में बैठ उसकी गंध का पान करते समय बोली तू धीरे से : ‘‘यह किराये का है घर— पता नहीं कब खाली कर जाना होगा.’’ सही है, ऐसे कितने ही घर हम खाली कर आए होंगे; हमारे अपने निर्मित निर्वृति के दुपहरी क्षणों में.— फिर नित्य विस्मृति!— दुबारा एक किराये के घर में आ बसने का नया उत्सव मनाते समय; किसी कारण नई एक फलों लदे पौधे की छाया बनाते समय, एक बात भूल जाएं किराये का घर यह भी— यह दुःख! हमारे लिए यहीं आ बसना मात्र सत्य है.