हिन्दी कविता नीरज कुमार
Hindi Poetry Neeraj Kumar



1. सिंहासन

भीड़ चीख़ रही है चिल्ला रही है शोर मचा रही है सिंहासन बेसुध है मदहोश है मगन है मस्त है आश्वस्त है शायद सिंहासन भूल गया है इसी चीख़ ने उसे सिंहासन दिया है

2. मैं, तुम और हम

जिसके लिए हम लड़े कटे मरे आज वो बंद है काश हम लड़े होते रोटी कपड़ा मकान के लिए काश हम लड़े होते स्वास्थ्य शिक्षा रोज़गार के लिए काश हम लड़े होते स्कूल कॉलेज अस्पताल के लिए फिर हम ज्यादा खुश होते ज्यादा सम्पन्न होते ज्यादा एकत्रित होते ज़्यादा संगठित होते कब समझेंगे हम कब मानेंगे हम कब जानेंगे हम क्या जरूरी है क्या ऐसे ही हम मंद बने रहेंगे क्या ऐसे ही हम मूक बने रहेंगे क्या हम ऐसे ही मूर्ख बने रहेंगे कब उठाएंगे आवाज मानवता के लिए कब बंद करेंगे लड़ना मैं और तुम के लिए कब लड़ेंगे हम, हम के लिए कब लड़ेंगे हम सब के लिए कब लड़ेंगे रोटी कपड़ा मकान के लिए शिक्षा, स्वास्थ और विज्ञान के लिए स्कूल, कॉलेज, अस्पताल के लिए विकसित, शिक्षित, स्वस्थ संसार के लिए या बस लड़ते रहेंगे मंदिर, मस्जिद और देवस्थान के लिए लड़ते रहेंगे सिर्फ और सिर्फ भगवान के लिए

3. किसान

ग़रीब हूँ, गँवार हूँ अनपढ़ हूँ, अंजान हूँ मजबूर हूँ, लाचार हूँ बेचारा हूँ बेसहारा हूँ मेरा सिर्फ़ इतना पाप है मैं भी एक किसान हूँ मेरी कोई आन नहीं मेरा कोई मान नहीं मेरी कोई पहचान नहीं मेरा कोई सम्मान नहीं मेरा बस इतना पाप है मैं स्वाभिमानी हूँ मैं भीख नहीं माँगता मैं हाथ नहीं फैलाता किसी के आगे नहीं गिड़गिड़ाता मैं ज़हर खा लूँ कुएँ में कूद जाऊँ आग लगा लूँ फाँसी चढ़ जाऊँ न मेरे जीने से फर्क पड़ता है न मेरे मरने से फर्क पड़ता है न मेरे जीने से विकास दर बढ़ती है न मेरे मरने से जीडीपी घटती है मैं तो एक वस्तु हूँ कही नहीं बिकता हूँ मेरी ज़िंदगी का कोई मोल नहीं मैं अमीरों की तरह अनमोल नहीं ख़ुद भूखा रह जाता हूँ दुनिया की भूख मिटाने को सबको रोटी खिलाने को सबको सुख-चैन दिलाने को रहता हूँ दबा दबा मैं बेटी के पिता होने से बीमार माँ के बेटा होने से बूढ़े बाप का सहारा होने से मेरा बस इतना पाप हैं मैं बैंको के पैसे नहीं लूटता लोगों की जेबे नहीं काटता अनाज की दलाली नहीं करता फिर भी दबा दबा रहता हूँ अपने क़र्ज़ के भारी बोझ से कभी क़र्ज़ बैंक का कभी बाज़ार का कभी सरकार का कभी साहूकार का कहूँ किसे अपना कहूँ किसे पराया कहने को सब अपना देखे तो सब पराया कहने को सारी दुनिया है हमारी चर्चा है चारों ओर भलाई की हमारी चिंता है हमारी सबको हमें दुःख न होए सुख चैन से हम जिये दुखी कभी न होए लम्बी चौड़ी होती बहस वतानुकूलित हवाओं में विद्वानो के, बुद्धिजीवियों के लम्बे लेखों और किताबों में चर्चा तो होती हमारी लुटियन के भी अहाते में नेताओं की रैलियों में, राजनीति के गलियारो में नौकरशाहों की फ़ाइलो में और सरकारी वादों में फिर भी मर रहे हैं हम अपने बंजर अहातो में दुनिया यही कहती है दुनिया यही समझती है तुम्हें किसकी फ़िक्र तुम्हें किसकी चिंता न टैक्स का झंझट न सुविधावों का अभाव कभी सरकार मेहरबान कभी बाज़ार का एहसान समय समय पर मिल जाता है सम्पूर्ण क़र्ज़ माफ़ी का ईनाम दुनिया को मालूम नहीं असल में हमारी हक़ीक़त जीवन कैसे खेलती हमसे हम कैसे जीते जीवन दिन रात महीने साल गरमी ठंडी बसंत बरसात हर पल हर क्षण घुट घुट के जीते कब बाढ़ आ जाए कब सुखा पड़ जाए कब भला हो कब बुरा हो जाए यही सोच सहमे रहते है यही सोच घुलते रहते यही सोच जलते रहते इसी घुलने जलने में वह दिन भी आ जाता है जब मैं और मैं की लड़ाई में मैं, मैं से हार जाता हैं और वह स्वाभिमानी अभिमानी निरभिमानी ‘मैं’ फाँसी पर झूल जाता! दुनिया चलती रहती है अपनी गति में क्या फर्क पड़ता है मेरा कोई मोल नहीं मैं तो अनमोल नहीं मैं तो एक पापी किसान हूँ!

4. जनता

डर तो उनको भी लगता है सब कुछ तो हैं उनके पास सत्ता की ताक़त राजनीति की ताक़त कूटनीति की ताक़त और उससे भी बढ़कर धर्म की ताक़त जात-पात की ताक़त ऊँच-नीच की ताक़त बड़े-छोटे की ताक़त वो अपने आप को शिक्षित मानते है विद्वान मानते है सभ्य मानते है बुद्धिजीवी मानते है और हाँ उनके पास सेना, पुलिस और मिलिट्री है गोली और उसको चलाने के लिए बंदूक़ भी है अरे हाँ ! उनके पास टैंक और तोप भी तो है रौंदने के लिए हमारे अधिकारो को हमारे हक़ को हमारी आवाज़ को हमारे जज़्बे को और हमारी आज़ादी को! लेकिन फिर भी उनको डर लगता है क्योंकि उनको पता है किसी भी दिन यह अनपढ़, नासमझ, डरपोक भूखे, नंगे, ग़रीब उठ खड़े होंगे क्योंकि डरने की भी एक हद होती है एक सीमा होती है एक मर्यादा होती है!

5. सच

सच सब जगह बिकता है लेकिन बिकने के बाद वह झूठ हो जाता है झूठ कहीं नहीं बिकता है लेकिन बिकने के बाद सच हो जाता है सच हर कोई बेचना चाहता है लेकिन बेंच नहीं पाता झूठ कोई नहीं बेचना चाहता है फिर भी ख़रीदार मिल जाता है

6. बोझ

हम पैदा ही क्यों हुए जिस दिन बीज पड़ा उसी दिन से मजदूर हो गए कर्जदार हो गए ज़ालिम इस दुनिया में पता ही नहीं चला कैसे हम जवान हो गए कठिनाइयों के बोझ से बचपन मे ही कंधे झुक गए कब बचपन बीता जवानी आ गई पता ही नही चला बोझ बढ़ता ही गया जिस अरमान से माँ-बाप ने पैदा किया था बेटा हमारा कर्ज उतारेगा हम सब को ख़ुशियों से ताड़ेगा हमारे लिए धरती पर स्वर्ग उतारेगा लेकिन बेटा तो कोख में ही ऐसे क़र्ज़ के बोझ से दबा भरी जवानी में बुड्ढ़ा हो चला अपनी भाग्य की रेखाओं को देखते स्वर्ग के सपने संजोते संजोते सुख का सपना देखते देखते माँ छोड़ गई पिता जी चले गए शायद जब से होश संभाला था तब से मेरे साथ भी तो यही हुआ मेहनत करते करते भाग्य की रेखाएँ घिस गई फिर सुख कैसे मिले स्वर्ग कहा से पाए सुख और स्वर्ग तो उनके लिए है जिनके हाथो में रेखाएँ होती है भाग्य की रेखाएँ सुख की लकीरें हमारे भाग्य में तो भूख ग़रीबी ग़ुलामी शोषण बीमारी और मृत्यु होती है

7. इज़हारे मुहब्बत

वह आए पास बैठे नज़रें मिलाए मुस्कुराए और चल दिए हम इतने नादान निकले कि उनके मुस्कान को प्यार समझ बैठे आज जब पैर क़ब्र में है दम निकला जा रहा है साँस छूटी जा रही है सामने अंधकार बढ़ता जा रहा है फिर भी हम उम्मीद लगा के बैठे है वो आएँगे और इजहारे मुहब्बत कर जाएँगे!

8. कलयुग का आग़ाज़ !

कैसा ये अंधकार है कैसा ये अनाचार है कैसा ये अहंकार है कैसा ये कु-संस्कार है कैसी ये अफ़रा-तफ़री है कैसी ये लूट-खसोट है कैसा ये भ्रष्टाचार है कैसा ये दुर्व्यवहार है घमंडियों की सभा है दुष्कर्मी का बोल-बाला है दुराचारियों का राज है सृष्टि के प्राणियों शर्मसार संसार है तुम समझ क्यों नहीं रहे ये कलयुग का आग़ाज़ है