हिन्दी कविताएं : नरेश मेहता

Hindi Poetry : Naresh Mehta


आग्रह

द्वार पर जो भी गुहार देता है। वैष्णव है। अयाचित अतिथि यह करपात्री है। किंतु दाता है, न जाओ किसी के स्वरूप पर। स्वागत करो, इस यायावरी, संकीर्तन करती हुई असंग वैष्णवता का स्वागत करो आँगन को बुहारो मत कल ही कीर्तन-पुरुष के ये पदचिह्न द्वार के स्वस्तिक कहलाएँगे।

आश्वासन

बड़ी देर तक हवा और वृक्ष बतियाते रहे। हवा की हर बात पर वृक्ष पेट पकड़-पकड़ कर हँसता रहा। और तभी हवा को ध्यान आया अपनी यात्रा का; और वह हड़बड़ाते हुए बोली, —“हटो, तुम हमेशा देर करा देते हो।” अपने धूप के वस्त्र व्यवस्थित करते हुए वृक्ष बोला, —“मैं देर करा देता हूँ या तुम्हीं...” —“अच्छा, अब रहने दो, तुम्हें तो कहीं आना-जाना है नहीं।” हवा को जाते देख वृक्ष उदास हो गया। हवा— इस उदासी को समझ तो ले गई। पर केवल इतना ही बोली, —“अच्छा अब मुँह मत लटकाओ मैं तुम्हारे इन बाल-गोपालों को लिए जा रही हूँ और हुआ तो लौटते में... वृक्ष ने देखा, कि सामने के मैदान में हवा को घेरे पत्ते। चैत्र-मेला घूमने के उत्साह में कैसे किलकारियाँ मारते चले जा रहे हैं।

उत्सव-नक्षत्र

कहाँ है? अन्यत्र कहाँ है?? इस पृथिवी से बड़ा उत्सव-नक्षत्र और कहाँ है??? गायत्री वर्ण वाली उज्ज्वल दिशाओं के, वेद औषधियों के आगार-अरण्यों के, उपनिषद ऊर्ध्व-रेतस वाले पर्वतों के, शतपथ ब्राह्मण सर्वगम्या, सर्वसुलभा नदियों की, संहिताएँ। एकाग्रमनस ब्रह्मचारियों जैसे प्रतापों के, स्तोत्र सामयिक चारणों जैसी मेघों की, स्तुतियाँ श्वेत-केश वाले संन्यासी-समय के, पुराण हस्तामलकवत निद्राजयी समुदों के, भाष्य और हरीद्र दूर्वाकुंरों जैसी आकुल, मानवीय प्रार्थनाएँ तथा जिसे अनंत काल से सूर्य के जलों चंद्रमा के अमृत और ग्रहों-नक्षत्रों के हिरण्य-पात्र अभिषेकित कर रहे हैं, जिसे घटनाओं और कथानकों के वस्त्र धारण कराते हुए काल का कृष्ण द्वैपायन स्वयं एक चरित्र बन जाता है— उस पृथिवी-पार्थिव से बड़ा उत्सव नक्षत्र और कहाँ है?? अन्यत्र कहाँ है? आदित्य की इस धर्मपत्नी पृथिवी से बड़ा उत्सव-नक्षत्र और कहाँ है?? कहाँ है?? कहाँ है???

कृतज्ञता

धूप और गरमी में तपता पसीने से लथपथ वह उस वृक्ष की छाया तले पहुँचा। छाया क्या थी। जल था, टिका दी तने से कुल्हाड़ी और गमछा बिछा लेट गया निश्चिंत। नींद जब खुली पहर ढल रहा था, वह हड़बड़ाता उठा और लगा पेड़ काटने।

कातरता

जब भी कहीं किसी वृक्ष को पूर्णता देता वर्णप्राप्त फूल खिला होता है उस वृक्ष की वनस्पति प्रियंवदा नारी-सी सिर ढँकती आनत नेत्र हो जाती है और मुझे लगता है— मैं ऐसी मानुषी पूर्णता को वहन करता वृक्ष क्यों न हुआ? मुझे भी मिल जाती। वनस्पतियों वाले गुलाल-व्यक्तित्व की कृतार्थता। क्यों न हुआ? मानुषी काव्य-फूल की ऐसी पूर्णता को वहन करता वृक्ष क्यों न हुआ? क्यों न हुआ?

केवल हिम

हिम, केवल हिम- अपने शिवःरूप में हिम ही हिम अब! रग-गंध सब पिरत्याग कर भोजपत्रवत हिमाच्छादित वनस्पित से हीन धरित्री- स्वयं तपस्या। पता नहीं किस इतिहास-प्रतीक्षा में यहाँ शताब्िदयाँ भी लेटी हैं हिम थुल़्मों में। शिवा की गौर-प्रलम्ब भुजाआें सी पवर्त-मालाएँ नभ के नील पटल पर पृथिवी-सूक्त लिख रहीं। नीलमवणीर् नभ के इस बर्ह्माण्ड-सिन्धु में हिम का राशिभूत यह ज्वार शिखर, प्रतिशखर गगनाकुल। याक सरीखे धमर्वृषभ इस हिम प्रदेश में

चंद्रोदय

जाऊँगा, चंद्रोदय हो लेने दो— वन में नदी को ऐसे अकेले छोड़कर कैसे चला जाऊँ? जाऊँगा, पर चंद्रोदय हो लेने दो। चंद्रोदय होते ही देखना— बाँसों के पीछे से टिटहरी बोलेगी जिसे सुन पगडंडियाँ थोड़ी-सी निर्भय हो जंगल में भटके पशुओं-सी चलने लगेंगी बस्तियों की ओर। सरपतों में दुबके ख़रगोशों को लगेगा— टिटहरी ही सही पर अब वे अकेले नहीं हैं, इन सरपतों पर विश्वास किया जा सकता है। हवाएँ भी पेड़ों से कूदकर नदी में अबाबीलों-सी पंख गीले कर टीलों के कानों में बजने लगेंगी। अभी यह जो निरभ्रता का सन्नाटा है। जिसमें पेड़ क्या जंगल तक आसन्न है चंद्रोदय होते ही देखना— तारों को भी नदी में उतरने में संकोच नहीं होगा क्योंकि मछलियाँ गहरे जल की चट्टानों में चली गई होंगी और आकाश दृष्टिसंपन्न हो जाएगा। इस पार से उस पार तक अँधेरे में किसी नाव के चप्पुओं की आवाज सुनाई पड़ना ही काफ़ी नहीं होता बल्कि ज़रूरी होता है दिखना भी, कि पेड़, पेड़ ही हैं। और दूरियाँ अभी भी जंगलों के पार जा रही हैं। जबकि जंगल हिंस्र पशु-सा झुका हुआ है नदी पर और वह कैसी कपिला-सी थरथरा रही है। नहीं, वन में नदी को ऐसे अकेले छोड़कर कैसे चला जाऊँ? चंद्रोदय में जंगल को पहले वन हो जाने दो तब जाऊँगा, चला जाऊँगा पर चंद्रोदय के बाद ही जाऊँगा।

दैवीय-पुकार

कितना आश्चर्य है कि देवता अहोरात्र मनुष्य की पुकारते हैं, कि— आओ, धरती के कार्मिक मनुष्यो! यहाँ आओ। आकाशों की इस अपरिमेय ग्रहीय प्रशांतता और नक्षत्रीय शून्यता में आओ और हमारी मैत्री तथा भ्रातृत्व स्वीकारो। कभी हमारी इन आकाशगंगाओं तक आकर देखो— मनुष्य के बिना। हमें भी इस कालहीन अनंतता में कितना आदिम सखाहीन अकेलापन लगता है। जिस प्रकार ब्रह्मांड का प्रकाश धरती पाकर नानावर्णी धूप बनता है उसी प्रकार तुम्हारे आकाशों में पक्षी बनकर उड़ने नदियों का लालित्य बनकर चलने और छोटे-छोटे दूर्वा-अक्षरों में पद लिखने के लिए हमारा देवत्व भी कैसा विवश आकुल है। आओ, धरती के कार्मिक बंधुओ! वैराट्य स्वयं कभी अभिव्यक्त नहीं होता इसलिए हमारे माध्यम बनने के लिए आओ और हमारी मैत्री तथा भ्रातृत्व स्वीकारो। मिट्टी, प्रतिमा बनती ही तब है। जब वह धरती पर आकाश का प्रतिनिधित्व करती है, मनुष्य, देवता बनता ही तब है। जब वह व्यक्ति का नहीं वैराट्य का प्रतीक होता है। देखो, यह पृथिवी। कभी अंधकार में डूबी कैसी उजाड़ थी इंद्र और वरुण जैसे मेधावियों ने इसे हिमाँधियों और अतिवृष्टियों से मुक्त किया, आंगिरसों ने। इसके ठिठुरते अंगों को ऊष्णता दी और सूर्य ने इस पर चलकर वन, पर्वत, नदियों और वनस्पतियों के सृष्टि-श्लोक लिखे और धरती कैसे खिलखिलाते मुखवाली कहीं माधवी-प्रिया तो कहीं उदात्त अन्नपूर्णा हो गई। इसी प्रकार हम भी तुम्हें प्रकाश, सुगंध और भास्वर-वाणी के अंगराग और अंगवस्त्रों से भूषित कर मंत्र-देवता बना देना चाहते हैं। इसलिए आओ, धरती के कार्मिक बंधुओ! यहाँ आओ और हमारी मैत्री तथा भ्रातृत्व स्वीकारो। आश्चर्य मत करो— हमारे लिए न दिन है न रात्रि न देश है, न काल न सृष्टि है, न संहार हम तो इस अपरिमेयता में केवल एक स्थिति हैं। हम नित्य हैं। हमारी कोई छाया नहीं होती इसलिए काल भी हमें व्यतीत नहीं बना पाता। इसीलिए देवता ही अहोरात्र मनुष्य को पुकार सकते हैं। और वे ही समस्त प्रहरों, आठो यामों में पुकार रहे हैं, कि— आओ, धरती के कार्मिक बंधुओ! यहाँ आओ और हमारी मैत्री तथा भ्रातृत्व स्वीकारो।

धूप की भाषा

धूप की भाषा-सी खिड़की में मत खड़ी होओ प्रिया! शॉल-सा कंधों पर पड़ा यह फाल्गुन चैत्र-सा तपने लगेगा! केश सुखा लेने के बाद ढीला जूड़ा बना तुम तो लौट जाओगी, परंतु तुम्हें क्या पता, कि तुम— इस गवाक्ष आकाश और बालुकणों जैसे रिसते इस नि:शब्द समय से कहीं अधिक मुझमें एक मर्म एक प्रसंग बन कर लिखी जा चुकी हो प्रिया! इस प्रकार लिखा जाना ही पुरालेख होता है हवा, तुम्हारा आँचल मुझमें मलमली भाव से टाँक गई है जैसे कि पहली बार मेरे आकाश को मंदाकिनी मिली हो भले ही अब यहाँ कुछ भी न हो फिर भी तुम्हारी वह चीनांशुक-पताका कैसी आकुल पुकार-सी लगती है जैसे कि उस पुकार पर जाना इतिहास में जाना है— जहाँ प्रत्येक पत्थर पर अधूरे पात्र और आकुल घटनाएँ अपनी भाषा की तलाश में कब से थरथरा रही हैं इससे पूर्व, कि यह उजाड़ रूपमती महल लगे समेट लो अपनी यह वैभव-मुद्रा इसलिए धूप की भाषा-सी खिड़की में मत खड़ी होओ प्रिया! इतिहास में जाकर फिर लौटना नहीं होता!

नाम-वृक्ष

मैं तो अनाम था प्रिया! तुमने ही मुझे अपने नेत्रों के रुद्राक्ष की यह माला पहना दी। और एक दीक्षा-नाम दे दिया; वृक्ष था— कदंब बना दिया। तुम चाहोगी। तो धूप का पीतांबर धारण कर उत्सव-वृक्ष भी लगूँगा ताकि रास संभव हो सके। स्पर्श का वह कैसा अलौकिक आह्लाद था प्रिया! कि अब जब भी कोई पत्र अंकुरित होने को होता है— तो, कीर्तन का महाभाव पद का लालित्य गुलाल की रंगमयता— प्रिया! पूरी देह रास-स्थली संकेत-मंडप लगने लगती है। मत बाँधो अपनी बाहुओं में मेरी यह कदंब संज्ञा भी झर जाएगी और मैं तब केवल नाम-वृक्ष रह जाऊँगा। प्रिया! केवल तुम्हारा नाम-वृक्ष!!

पताका

बालक के हाथ में पहुँच वह फटी पतंग बन गई है पताका। कितने प्रसन्न हैं दोनों— धूप में चिटख आया है रंग हवा में लहरा रहे हैं अंग-अंग दोनों के। पतंग ने उसे बालक से बना दिया है विजेता और बालक ने उसे अपने गर्वोन्नत हाथों की विजयनी पताका।

प्रतीति

कोई आने को है इस संभावना मात्र से तुम— हरिण-सी चौंक कर अपने एकांत में हठात् स्मृति-सी लौट जाती हो। कुछ क्षण को परदे के घुँघरू बलात् कुछ बोलने लगते हैं और फिर नीरव हो जाते हैं अभी-अभी का तुम्हारा होना— हवा में केवल एक क्षीण सुगंध-सा कहीं थरथरा रहा होता है, बस— और सब शांत हो जाता है। लेकिन— ऐसी भी क्या चौंकना प्रिया! कि मेरे वक्षस्थल पर अपने नयन तक छोड़ गईं। ये मिथुन-नयन मेरी आँखों में मेरे व्यक्तित्व में समय के मेरे समस्त आकाशों में विवश पाखी से तिरने लगते हैं और अपनी और ताकते हुए रसलीन के दोहे वाले ये नेत्र पहली बार मुझे भी कविता लगते हैं।

भ्रम

तुम्हें भ्रम है, कि ये कविताएँ मेरी हैं; नहीं, ऐसा नहीं है। शायद यही हुआ होगा कि मैंने तुम्हें अपनी भाषा में रखकर देखा होगा और मुझमें ये कविताएँ वैसी ही फूट उठी होंगी जैसे फूल, वृक्ष में प्रस्फुटित हो उठता है। वस्तुतः तुम्हारी ही नहीं वरन मनुष्य, प्रकृति, जीवन, जीवन ही क्या समस्त सृष्टि की ये छंद हैं। आज तो नहीं पर कल तुम अपने को। निश्चित ही इन कविताओं में वैसे ही पाओगे जैसे आकाश, नदी या फूल देखते हुए तुम अपने को उपलब्ध करते हो। कल इसलिए कहा, कि कल जब मैं नहीं रहूँगा और ये कविताएँ प्राकृतिक सत्ता-सी हवाएँ बनकर तुम्हारे कमरे के पर्दे हिलाएँगी। या तुम्हारी खिड़की में प्रातःकाल बनकर एक दृश्य लगेंगी। तब निश्चित ही, न तुम्हें और न कविताओं को ही मेरा स्मरण रहेगा इसलिए मुझे भी उसी कल की प्रतीक्षा है जब मेरे अनुपस्थित होते ही ये कविताएँ— वृक्ष, आकाश ही नहीं। स्कूल जाती तुम्हारी बेटी बन जाएगी। या और भी कोई आत्मीय क्षण।

महायोनि

एक अश्व है जो द्यौ और पृथिवी के बीच सिंह बना क्षितिज पर खड़ा कैसे पुरुष-भाव से ब्रह्मांड का अवलोकन करता हिनहिना रहा है। प्रातःकाल की हवा में उड़ती। उसकी लाल-वासंती अयाल से पूर्व दिशा रक्ताभ हो उठी है। उसके पैरों से बँधी गतियाँ। हवा में उड़ती हुई दिखती हैं और आकाश में टकराती शब्द करती सुनाई भी देती हैं। उसकी तैलाक्त स्वर्णिम देह पर न पानी न दिन और न दृष्टि कुछ भी तो नहीं ठहरता। यह आत्मजन्मा प्रजापति अश्व अपनी इस देवता-देह से इंद्र के हरित, नील, लोहित और ताम्रवर्ण के कोटि-कोटि घृत्स्नु-अश्वों को जन्म दे रहा है। यह कैसा मातृमनस वाला पिता है जो अपनी प्रजा की देहों को चाट-चाट कर उन्हें उनके वर्णों में चमका रहा है, और ये नवजात घृत्स्नु-अश्व चारों दिशाओं में मरुतगाति से हिनहिनाते भागने लगे हैं। ये घृत्स्नु-अश्व कामोद्दीप्त साँड़ों की भाँति दिशाओं की देहों को, योनियों को सूँघ रहे हैं और उन्हें गर्भवती बनाने के लिए कैसे आकुल हैं। विद्युत-खुरों के इन अश्वों से आकाश थरथरा रहा है नहीं, खुँदा पड़ रहा है और मंडलाकार लाल धूल ही धूल भर उठी है। आओ— ओ प्रकाश के घृत्स्नु-अश्वो! आओ, अपने आदि पिता—अश्व के साथ आओ जिसने पुरुष-भाव से आकाश को पितृत्व प्रदान किया और तुम इस भाषा जैसी पृथिवी को गर्भवती बनाओ प्रकाश के घृत्स्नु-अश्वों के पुरुषत्व के लिए यह पृथिवी ही महायोनि है।

मंत्र-गंध और भाषा

कौन विश्वास करेगा कि फूल भी मंत्र होता है? मैं अपने चारों ओर एक भाषा का अनुभव करता हूँ। जो ग्रंथों में नहीं होती पर जिसमें फूलों की-सी गंध और बिल्वपत्र की-सी पवित्रता है, इसीलिए मंत्र केवल ग्रंथों में ही नहीं होते। धरती को कहीं से छुओ एक ऋचा की प्रतीति होती है। देवदारुओं की देह-यष्टि क्या उपनिषदीय नहीं लगती? तुम्हें नहीं लगता कि इन भोजपत्रों में एक वैदिकता है जिसका साक्षात् नहीं किया गया है? ये प्रपात स्तोत्र-पाठ ही तो करते हैं। यह कैसी वैश्वानरी-गंध गायत्री छंदों में धूप के पग धरती वनस्पतियों पर उतर रही है। सावित्रियों के इस अरण्य-रास का वर्णन किसी शतपथ में नहीं मिलेगा। इसीलिए मैं एक भाषा का अनुभव करता हूँ जो ग्रंथों में नहीं होती पर प्रायः जिसे मैंने भाषाहीन वनस्पतियों में सुना है। मैंने इस भूमि को जब भी देखा है गायत्री ही देखा है। कभी नदियों को उनके एकांत में देखो— औषधियों का आचमन करती हैं। पेड़ों के फलों। गायों के दूध, और मनुष्य मात्र की दृष्टि किसी को भी सूँघो— सूर्य की सुगंध मिलेगी। कहीं भी जाओ एक संपूर्ण अनुष्टुप इस पृथिवी पर लिखा मिलेगा। इसीलिए मैं एक भाषा का अनुभव करता हूँ जो ग्रंथों में नहीं होती पर प्रायः जिसे मैंने एकांत और कोलाहलों में सुना है। रात और दिन के कृष्ण-शुक्ल स्वरों में ये सूर्याएँ यजुर्वेद हो जाती हैं। प्रत्येक क्षण एक मंत्र वनस्पति में परिणत होता है जिसकी गंध फूल मात्र में होती है। नाम, सीमा का होता है असीम का नहीं, तब भला उस गंध को क्या नाम दोगे जो फूल मात्र में होती है? हमारी सारी भाषाओं से परे वह एक साक्षात् है जो केवल एकांत की मंत्र-गंध होता है और वह केवल अवतरित होता है। इसीलिए मैं एक भाषा का अनुभव करता हूँ जो ग्रंथों में नहीं होती क्योंकि उनमें फूल, मंत्र नहीं होता, जबकि कौन विश्वास करेगा कि फूल भी मंत्र होता है, क्योंकि फूल एक शब्द ही नहीं संपूर्ण भाषा है।

यह सोनजुही-सी चाँदनी

यह सोनजुही-सी चाँदनी नव नीलम पंख कुहर खोंसे मोरपंखिया चाँदनी। नीले अकास में अमलतास झर-झर गोरी छवि की कपास किसलयित गेरुआ वन पलास किसमिसी मेघ चीखा विलास मन बरफ़ शिखर पर नयन प्रिया किन्नर रम्भा चाँदनी। मधु चन्दन चर्चित वक्ष देश मुख दूज ढँके मावसी केश दो हंस बसे कर नैन-वेश अभिसार रंगी पलकें अशेष मन ज्वालामुखी पर कामप्रिया चँवर डुलाती चाँदनी। गौरा अधरों पर लाल हुई कल मुझको मिली गुलाल हुई आलिंगन बँधी रसाल हुई सूने वन में करताल हुई मन नारिकेल पर गीत प्रिया वन-पाँखी-सी चाँदनी।

यायावर से

ले गए तुम कई बार साथ में हमें अपनी यात्राओं पर चित्रकूट, वृंदावन, सौराष्ट्री सागर-तट या कहीं और भी, पर यह कौन-सी यात्रा है यायावर! जहाँ तुमने अकेले ही असंग जाने का निर्णय लिया, और चल भी दिए?

विलयन

शब्द मुझ तक आया और बोला, —मुझे अपनी भाषा नहीं स्वत्व बनाओ। और वह अपने भाषा-व्यक्तित्व पर से अर्थ उतारने लगा। जैसे अर्थ केंचुल था। मैं नहीं समझ पा रहा था, कि क्यों वृक्ष, सहसा अपनी छालें उतारने लगे थे। क्यों नदी, अपनी देह पर से जल निहारती लग रही थी और फूल, वर्ण-गंध के अलंकार। आकाश ने अपनी शालीन तथा उद्दंड हवाएँ उतारकर समुद्रों में रखनी चाहीं तो वे अनायास ही ज्वारों से भर उठे। अर्थ से मुक्त शब्द— तत्त्व बन गया था, तभी अक्षरभाव से वह एक क्षण के लिए प्रकाशित हुआ और क्षणांत में मुझमें लीन हो गया। अब जब कभी मैं शब्द होता हूँ तो यह सृष्टि मेरा अर्थ और जब कभी सृष्टि शब्द होती है तो मैं उसका अर्थ।

सम्राज्ञी का आगमन

प्राची के दुर्ग-कपाट खोलकर आकाश के नीलम-प्रासाद में यह कौन गंधर्व-व्यक्तित्व भैरवी-राग-सा आकर खड़ा हो गया है? याम और पल की छोटी-छोटी संगमरमरी सीढ़ियाँ चढ़ते इस वसंत-वर्णी राग-कन्या की समुद्रों पर परछाईं पड़ रही है। और उफनाता समुद्र-जल गुलाल ही गुलाल हो उठा है। पक्षियों को देखो— सम्राज्ञी के इस आगमन को वृक्षों से आकाश। और आकाश से वृक्षों में उड़ते हुए— पंखों से पहुँचा रहे हैं, शब्दों से लिख रहे हैं। कैसा है यह प्रकृति का भाषाई उत्साह, कि पूरा प्रातःकाल पाठशाला बन गया है। कितना विशाल है। दैवीयता का यह केतन कि— आकाश छोटा पड़ गया है और क्षितिज के वहाँ यह चीनांशुक राजस असावधानी में समुद्र में गीला हुआ जा रहा है। सम्राज्ञी! पूरे दिन यह पृथिवी। तुम्हारी इस भूषा को शाद्वल मैदानों, वृक्षों और पर्वतों पर फैलाकर सुखाएगी ताकि तुम्हारे लौटने की वेला तक इन्हीं वर्ण-गंधों में तुम्हें यह राजवस्त्र क्षितिज पर रखा मिले और तुम पश्चिम के कपाट बंद करते समय भी आद्यंत गरिमापूर्ण सम्राज्ञी ही लगो। भव्यता की यही प्रकृति होती है कि— होती वह सुदूर आकाश में है पर प्रतिफलित निकटतम पृथिवी पर होती है।

सशंकित

उसे देख— वन के वृक्षों का मृगों की भाँति सशंकित होना स्वाभाविक था पर वनों में भीतर दौड़ जाना तो नहीं; क्योंकि वह मनुष्य कहाँ था वह तो कुल्हाड़ी था।

साक्षात् के लिए

हवाएँ पीपल पर अपनी प्रार्थनाएँ टाँग सूर्यास्त का पीछा करते हुए आकाश के भी आकाश में गरुड़ों सी चली गई हैं। देखना, अभी वे लौटेंगी क्योंकि पृथिवी ही। सबको अर्थ और संदर्भ देती है। यह पृथिवी ही है। जो शून्य को आकाश की संज्ञा देती है, यह पृथिवी ही है। जो प्रकाश को धूप की संज्ञा देती है। केवल हवाओं को लौट आने दो— ये सारे के सारे वन; कानन और अरण्य जो अभी भाषाहीन लग रहे हैं आकंठ प्रार्थनामय हो जाएँगे। सारी सृष्टि संध्याकालीन प्रार्थना-पुस्तक-सी पवित्र हो जाएगी। एक-एक पत्र संकीर्तन करता हुआ वैष्णव लगेगा केवल हवाओं को लौट आने दो— यही पीपल पत्र-प्रार्थनाएँ करता हुआ चैतन्य लगेगा, सारी वनस्पतियाँ माधव-गान करती हुई प्रभु के वन-विहार के अनुष्ठान-सी लगेंगी। महाभाव और क्या है?? प्रार्थना का। सुगंधोत्सव के रूप में जन्म ही महाभाव है। केवल हवाओं को लौट आने दो— अरण्यों में जो मंत्रों के वाद्य श्लोकों के वस्त्र और प्रार्थना की वंशियाँ हवाएँ टाँग गई हैं देखना सायंकालीन इस आकाश के गुलाल मंदिर में संकीर्तन का कैसा रासोत्सव होता है। हवाएँ— पीपल पर अपनी प्रार्थनाएँ टाँग सूर्यास्त का पीछा करते हुए आकाश के भी आकाश में गरुड़ों-सी जो चली गई हैं। केवल उन्हें लौट आने दो, क्या इस वैष्णवता से साक्षात् के लिए तुम हवाओं के लौट आने की प्रतीक्षा भी नहीं कर सकते?

स्वभाव

कुत्ते— सिर्फ़ क्वाँर में ही हो पाते हैं आदमी जब कि आदमी वर्ष भर क्वाँर में ही बना रहता है।