हिन्दी कविताएँ : डॉ. मुल्ला आदम अली

Hindi Poetry : Dr. Mulla Adam Ali


काश.! मैं वृक्ष होता

रंग बिरंगे पुष्प खिलाता मन भावन खुशबु फैलाता। बिन मांगे ही फल देता कुछ ना अपने लिए बचाता। परोपकार में होता दक्ष काश! मै बन जाऊँ वृक्ष। प्रेम सुधा बरसात सब पर चाहें खग हो, चाहे चौपाया। नव जीवन भर देती सब में मेरी ठंडी, शीतल छाया। करता न्याय होकर निष्पक्ष काश! मै बन जाऊँ वृक्ष।

रुदन करता पेड़

मैनें पेड़ को रोते देखा उसका सब कुछ खोते देखा। भुजा समान उसकी डाली को उससे अलग होते देखा। सिसकी हर पत्ता भरता है मुंह से आह! भी ना करता है। जडों से आंसू बहते हैं दुख की कहानी कहते हैं। अब! तो छोड़ो हमे सताना अब! ना मिलेगा मौसम सुहाना। अपने बच्चों के लिए मैंने, मानव को, दुख का बीज बोते देखा। हां! मैंने पेड़ को रोते देखा उसका सब कुछ खोते देखा।

बूढ़े पेड़ का दुख

छांव में जिसकी खेले बचपन, जिसकी छाया में बीते जीवन, आज वही पेड़ खड़ा अकेला, बता रहा है अपना मन का ग़म। टहनी-टहनी बिखरी स्मृति, पत्तों में छुपी हैं कहानियाँ कितनी। कभी था वह गाँव की शान, अब अनदेखा, जैसे अनजान। जड़ें कहती हैं, “मैंने सींचा, हर धूप-छांव में तुमको सीखा। फिर क्यों आज तुम भूल गए, मुझसे मुँह मोड़ दूर हो गए?” न खेलते अब बच्चे झूले, न कोई थक कर आ बैठता है। कभी जिस तने से लगते थे दिल, अब उसी पे कुल्हाड़ी चलती है। कहता है पेड़ — "मैं बूढ़ा हूँ, पर जीवित हूँ, हर पत्ता अब भी कविता लिखता है। मुझे मत काटो, मत ठुकराओ, मैं तुम्हारे कल के लिए जीता हूँ।"

जंगल ये जंगल

जंगल ये जंगल, हरियाली का घर, पेड़ों की छाया, नदियों का स्वर। पंछी जो चहके, जैसे गीत गाएँ, हर कोना बोले, बस शांति सुनाएँ। झरनों की बातें, फूलों की खुशबू, धरती की गोदी में सजी है सबू। हिरन की छलांगें, मोर की अदा, प्रकृति का ये रूप है सबसे जुदा। नीम, पीपल, साल, बबूल, खड़े हैं प्रहरी बन, रहते हैं कूल। जानवर, पक्षी, कीड़े भी यहाँ, सबका है हिस्सा, सबका है जहां। पर खतरे में है अब ये जादू भरा, मानव की लालच ने इसे भी मारा। कटते हैं पेड़, सिमटती हैं राहें, घटती हैं साँसें, मिटती हैं चाहें। संभालो इसे, बचालो इसे, जंगल की पुकार को सुनो ज़रा। ये सांसें हैं अपनी, ये जीवन का रंग, जंगल ये जंगल, है धरती का संग।

प्रकृति और मनुष्य

प्रकृति थी माँ जैसी, निस्वार्थ दी सब कुछ, हरियाली, नदियाँ, आकाश का खुला रुख। फूलों की हँसी, चाँदनी की चुप बातें, हर साँस में बसी थीं उसकी सौगातें। पहाड़ों की गोदी में झूला झुलाता था, नदी की लहरों से गीत सुनाता था। बादल भी बरसते थे सुख-दुख समझकर, पेड़ भी लगते थे जैसे साया बनकर। पर मनुष्य ने क्या किया, किस ओर चला? लोभ में अंधा हुआ, सब कुछ जला चला। पेड़ कटे, नदियाँ सूखी, मिट्टी भी रूठी, प्रकृति की ममता पर चल गई छूटी। अब गर्मी में तपती हैं साँसें यहाँ, आँधियाँ कहती हैं – “तूने क्या किया?” बारिश भी डरती है अब गिरने से, धरती भी कांपती है फिर बिखरने से। फिर भी प्रकृति चुप है, न गुस्सा, न घाव, अब भी वो देती है जीवन की छांव। बस इंसान को समझना होगा अब, प्रकृति को बाँधो मत, दो उसको सब। चलो फिर से बोएँ बीज प्रेम के, संवेदनाओं से सींचें हर एक पेड़ के। प्रकृति और मनुष्य का हो फिर मिलन, यही हो धरती पर सच्चा जीवन।

न कर छेड़खानी

न कर छेड़खानी तू धरती से प्यारे, ये पेड़ हैं जीवन के सच्चे सहारे। नदियों की धारा, पवन की रवानी, सब कहते हैं — “मत कर बेइमानी।” हरियाली ओढ़े ये धरती सुहानी, तेरे ही कल की है ये राजधानी। फूलों की हँसी, पंछियों की ज़बानी, चुपचाप कहती है — “न कर मनमानी।” जब तूने काटे वन, उजाड़े पहाड़, प्रकृति ने दिखाए अपने विकराल वार। सूखा, बाढ़, आँधी, जलती धूप, ये उसके आँसू हैं, उसका है रूप। साँसें भी थमने लगीं हैं अब धीरे, गरम हो रही हैं हवाएँ क़सके घेरे। ये तूफ़ान, ये धुंध, ये बीमारियाँ, तेरी ही करतूतों की हैं कहानियाँ। अब भी समय है, रुक जा ज़रा, लगा दे हर कोने में हरियाली का तारा। संभाल ले इस घर को, सहेज ले जीवन, वरना खो देगा सबकुछ तू एक दिन। न कर छेड़खानी इस प्रकृति से यार, ये ही तेरा कल है, यही तेरा संसार।

प्रकृति की मुस्कान

सुबह की पहली किरण में जो चमक है, वो है प्रकृति की मुस्कान की झलक है। ओस की बूंदों में मोती से भाव, हर पत्ती पर लिखे हैं उसके सुखदाव। फूलों की खिलखिलाहट, पंछियों की तान, हर कोना करता है उसका गुणगान। हरियाली की चादर, नदियों का गान, ये सब हैं उसकी प्यारी पहचान। पेड़ जब लहराते हैं मंद-मंद हवा में, लगता है जैसे माँ हो दुआ में। चाँदनी रातें हों या बरसात की बूँदें, प्रकृति हँसती है, हर दर्द को बुनते। कभी इन्द्रधनुष बन के आसमान सजाए, कभी पर्वतों पर बर्फ की चादर बिछाए। रेत की कहानी हो या समुद्र की तान, हर रूप में छलके उसकी मुस्कान। पर जब होता है उस पर वार, कटते हैं जंगल, बहता है प्यार। तब उसकी आँखों में दर्द उतर आता है, मुस्कान भी जैसे चुपचाप छिप जाता है। चलो फिर से खिलाएँ उसकी वो मुस्कान, बचाएँ पेड़, नदियाँ और हर प्राण। प्रकृति को दें हम अपना सम्मान, ताकि सदा बनी रहे उसकी मुस्कान।

प्रभात का संदेश

सुबह की प्रकृति है एक कोमल गीत, हर किरण में बसता है जीवन का मीत। ओस की बूँदें, जैसे मोती हों धरती पर, हवा भी चलती है प्रेम की लहर भर। पंछी चहचहाते हैं स्वागत में प्रभात का, फूलों से महकता है आँगन दिन के साथ का। सूरज मुस्काता है पहाड़ियों के पार, मानो कहता हो — “जग जा अब संसार।” पेड़ों की शाखों पर नाचते हैं सपने, हर पत्ता कहता है — “चलो कुछ अपने।” नदी की कल-कल भी गुनगुनाती है बात, जैसे कोई माँ सुना रही हो सौगात। सुबह की ये प्रकृति, शांत, पावन, नई, हर दिल में भरती है उम्मीदें कई। जो समझ सके इसकी मौन ज़बान, उसे मिल जाए जीवन का वरदान।

प्रकृति बिना मनुष्य

बिना मनुष्य के भी थी प्रकृति संपूर्ण, नदियाँ बहती थीं, थी हरियाली पूर्ण। पेड़ों की शाखें लहराती थीं मुक्त, न था कोई शोर, न जीवन था रुग्ण। पंछी गाते थे अपने ही सुर में, फूल मुस्काते थे मंद-मंद गुरुर में। नदियाँ बहती थीं अपनी ही चाल, धरती थी शांत, आकाश था विशाल। सूरज उगता था बिना किसी पुकार, चाँदनी बिखरती थी हर एक द्वार। जंगलों में था जीवन अनेक रूप, हर प्राणी था अपने धर्म के अनूप। फिर आया मनुष्य, विज्ञान का ज्ञान, पर भूला वो अपनापन, छोड़ बैठा पहचान। कटे पेड़, बुझे झरने, सन्नाटा छा गया, प्रकृति थी वहीं, पर कुछ छूटता गया। अब सोचो — क्या प्रकृति को ज़रूरत है हमारी? या हमें है ज़रूरत उसकी, साँसों की सारी? बिना मनुष्य के भी वो थी मुस्कान, पर बिना प्रकृति के, कहाँ है इंसान?

ऋतुओं के संग-संग

सर्दी आई तो बर्फीली चुप्प थी, हवाओं में ताजगी, रातें ठिठुरती थीं। हर पेड़ की शाखें बर्फ से ढकी थीं, सर्दी में भी प्रकृति की मुस्कान अज्ञात थी। फिर वसंत आया, रंगों का महकता जादू, फूलों ने अपनी चुप्पियाँ तोड़ी, सब हुआ नयापन। पक्षी फिर से गाने लगे, हवा में बहकने लगे, हर कोने में बसी एक नई ताजगी, एक नई उमंग। गर्मी आई, सूरज ने दिखाया चेहरा तीखा, धरती तपती रही, जलती लहरें, छांव की दीखा। पानी की खोज में सृष्टि थी व्याकुल, फिर भी गर्मी ने दिया एक अलग जीवन का उल्लास। बारिश आई, बादल घने हो गए, धरती ने भी अपनी प्यास बुझाई, सागर हुए। झरने बहे, तालाब भी सजे, हर कण में प्रकृति ने अपना प्रेम दिया, सबके हिस्से। ऋतुओं के संग-संग जीवन भी बदला, प्रकृति ने हमें हर रंग से सजा लिया। हर मौसम की अपनी एक कहानी है, हर मौसम से ज़िंदगी को एक नयी राह मिली है। सर्दी, वसंत, गर्मी, बारिश की राहें, इनकी धड़कन में बसी हैं जीने की चाहें। हम भी इनसे कुछ सीखें, जीवन की तरह, ऋतुओं के संग-संग, बढ़ें हम हर समय।

भागती ज़िंदगी की चुप्पी

काँच की दीवारों में कैद है अब जीवन, भीड़ में रहकर भी है हर दिल अकेला मन। मोबाइल की स्क्रीन में खो गई है बात, आँखों से आँखों की वो सच्ची मुलाकात। हर पल की है जल्दी, हर साँस में दौड़, पर भीतर से है खाली, जैसे टूटी हो डोर। विज्ञान ने दिए हैं सुविधा के साधन, पर छीन लिए अपनापन, रिश्तों के बंधन। बचपन अब खेलता नहीं मिट्टी में, वो भी उलझा है किसी ऐप की लिपटी में। चिड़ियों की चहचहाहट अब सुनाई कहाँ देती है, कानों में तो बस नोटिफिकेशन बजती है। प्रकृति पुकारती है, पर हम सुन नहीं पाते, शहर की चकाचौंध में सब स्वर खो जाते। धुआँ, ट्रैफिक, भागमभाग की कहानी, आधुनिक जीवन है, पर बहुत कुछ है बेमानी। आओ ज़रा रुकें, साँस लें गहराई से, थोड़ा जिएँ खुद के लिए सच्चाई से। तकनीक ज़रूरी है, पर दिल भी ज़रूरी, वरना ये जीवन रह जाएगा अधूरी।

मोबाइल में कैद ज़िंदगी

एक वक्त था जब बातें दिल से होती थीं, चिट्ठियों में भावनाएँ खुल के रोती थीं। अब उंगलियों की हरकत में बसी है दुनिया, मोबाइल में सिमट गई हर रिश्तों की बुनिया। सुबह जागते ही स्क्रीन पर नज़र, रात सोने से पहले वही आख़िरी सफ़र। घर में सब हैं, पर बात कोई नहीं, साथ होकर भी साथ कोई नहीं। खुशियाँ अब इमोजी में बयां होती हैं, "कैसे हो?" बस स्टेटस से जान ली जाती हैं। तस्वीरें खिंचती हैं हर पल, हर घड़ी, पर असली मुस्कान कहीं खो गई बड़ी। बच्चा हो या बूढ़ा, सब इसमें व्यस्त, मोबाइल है राजा, और हम उसके दास। चलते-चलते भी झुकी रहती है गर्दन, जैसे दुनिया अब है बस उसकी धरपन। मोबाइल ज़रूरी है, ये मानते हैं हम, पर उससे ऊपर भी है जीवन का राग-संगम। थोड़ी बातें, थोड़ी मुलाकातें ज़रूरी हैं, इन मशीनों से ज़्यादा रिश्ते ज़रूरी हैं। चलो कभी बिना मोबाइल के भी जिएं, अपने अपनों से कुछ पल खुलके कहें। जीवन को फिर से महसूस करें साफ, मोबाइल में नहीं, दिल में हो असली ग्राफ।

बचपन की वो गलियाँ

बचपन की वो गलियाँ, वो मिट्टी की खुशबू, नंगे पाँव दौड़ना, बारिश में भीगना खूब। कंचे, लट्टू, पतंगों की उड़ान, हर खेल में छुपा था कोई अनजान गुमान। न किताबों का बोझ, न जिम्मेदारियाँ भारी, हर दिन था उत्सव, हर शाम थी प्यारी। रूठना मनाना, फिर गले लग जाना, बिना मतलब के भी घंटों बतियाना। माँ की गोद में दुनिया बस जाती थी, पिता की उँगली थाम, हिम्मत आ जाती थी। एक चॉकलेट पर हो जाती थी दीवानगी, छोटे-छोटे ख्वाबों में बसती थी ज़िंदगी। ना मोबाइल, ना नेट का जाल, फिर भी दिलों में था सच्चा हालचाल। अब तो बचपन जैसे कहीं खो गया है, वो मासूम हँसी, बस यादों में रह गया है। काश लौट आए वो पल सुहाने, जहाँ न था दिखावा, न झूठे बहाने। बस दिल से जिया करते थे हम, बचपन था जैसे खुद में एक मौसम।

गांव में बसी है सच्ची मानवता

गाँव में जीवन है सरल और प्यारा, जहाँ हर दिल है एक-दूसरे से नज़दीक सारा। सभी मिलकर जीते हैं, सुख-दुख में साथ, गांव की गलियाँ हैं, सबकी एक ज़िंदगी का रथ। जब भी कोई दुखी होता है, हाथ बढ़ाते हैं सभी, एक-दूसरे के कंधे पर रखते हैं विश्वास सजी। सावन में झूले और बरसात में खेत, साथ चलते हैं सब, हर फसल पर एक जैसे हाथ। आँगन में गूँजती है हंसी और गाना, दोस्ती में बसी होती है वो आत्मीयता का क़िस्सा पुराना। गांव के लोग न जाति, न धर्म में बंटते हैं, सभी मिलकर चलते हैं, खुदा में खोते हैं। रोटी की खिंचाई में सबका हिस्सा होता, अजनबी को भी अपना समझ, दिल से खोलते हैं द्वार। यहाँ कोई बड़ा नहीं, कोई छोटा नहीं, मिलजुल कर रहने की यही है असली नीति सही। सभी परेशानियों को आपस में बांटते हैं, गांव के लोग आपस में हर दर्द को मिटाते हैं। यह है गांव का प्यार, यह है उसकी सच्चाई, मिलजुल कर रहने में बसी है असली मानवता की मयाई।

सांप्रदायिकता का जाल

सांप्रदायिकता की दीवारें ऊँची हो गईं, मन में नफरत की लहरें और गहरी हो गईं। हर सोच में बंट गए हैं लोग, धर्म के नाम पर हो रहे हम सब झगड़ें, और मोड़। क्या यही है जीवन का सच्चा फलसफा? जहाँ इंसानियत खो जाए, और जीत जाए जाति-धर्म का झमेला। सांसों में सासें मिलाने की बजाय, हम धर्म की बंधन में खुद को खोने लगे हैं, क़दमों के साए। माँ की गोदी में सब बच्चे एक समान, कभी न देखा था कोई जात-पात का नाम। फिर क्यों, इस दुनिया ने ये दीवारें खड़ी कीं? मनुष्य के दिलों में क्यों अलगाव की नींव डाली गईं? सांप्रदायिकता नहीं है हमारा सच, यह तो बस बुरे विचारों का जाल है, जो काटना है। आओ, एकता के रंगों से फिर से सजाएं दुनिया, समाज की तस्वीर को हम सभी मिलकर बनाएं खुशहाल। धर्म से ऊपर इंसानियत की तस्वीर, यही हो हमारी असली पहचान, यही हो हमारी ज़िंदगी का मिशन।

सबसे बड़ा धर्म

मानवता है वो रंगीन धारा, जो दिलों को जोड़ती है, बिना किसी तकरार। यह न धर्म, न जाति, न भाषा की बात, बस एक ही मानवता, है उसकी सौगात। जब हम गिरते हैं, हाथ बढ़ाते हैं, जब दुख आता है, साथ में खड़े रहते हैं। मानवता का हृदय कभी नहीं रुकता, यह सच्चाई है, जो कभी नहीं थमता। नफ़रत की दीवारें टूटती हैं इसकी छाँव में, एक मुस्कान से रौशन होती है हर राह में। मानवता की दौलत है सबसे बड़ी, यह न धन में है, न किसी की वसीयत में बसी। आओ, हम सब मिलकर इसे फिर से जगाएँ, रिश्तों में सच्चाई, प्रेम और विश्वास लाएँ। कभी भी न भूलें, मानवता का रास्ता, यह सबसे बड़ा धर्म है, यह है सच्चा वास्ता। कभी उम्मीदें टूटें, या जीवन की राह हो कठिन, मानवता का हाथ होगा सदा हमारा साथ, सबसे विनम्र।

हौसलों का सफर

मंज़िल दूर है, पर हौसला क़ायम है, हर ठोकर में भी छुपा कोई पैग़ाम है। रास्ते कठिन हैं, धूल भरे वीरान, पर सपनों की आँखों में है रोशन जहान। कभी अंधेरे मिलते हैं, कभी उजास, कभी थकन कहती है — "अब तो हो चला पास।" पर दिल की आवाज़ कहती है साफ, "चलते रहो, यही है असली इंसाफ़।" मंज़िल कोई ठिकाना नहीं बस, वो तो है हर पल की कोशिश का रस। हर हार में छुपा होता है एक सबक, हर मोड़ पर मिलता है खुद से फ़लक। मंज़िल तब मिलती है जब खो जाएं हम, रास्ते बनते हैं जब हो सच्चा दम। कदम थकते हैं, मन डगमगाता है, पर मंज़िल का सपना फिर भी मुस्कराता है। चलो, फिर उठाओ उम्मीद की पतवार, मंज़िल बुला रही है — है तैयार?

ज़िंदगी का कारवाँ

सफर है जीवन, रुकना नहीं, हर मोड़ पे मिलती है नई सी कहानी। कभी धूप में तपता है रास्ता तन्हा, कभी छाँव में मिलती है राहत की धुन सा। कुछ लोग मिलते हैं मुसाफ़िर बनकर, कुछ साथ चलते हैं, कुछ छूटते रहकर। हर स्टेशन पर कोई याद उतर जाती है, हर मंज़िल से पहले एक चाह रह जाती है। चलते रहो तो रास्ते भी गीत गाते हैं, खामोश पथ भी कभी दोस्त बन जाते हैं। गिरो, संभलो, फिर चलो, यही है रीत, सफर में ही छुपी है ज़िंदगी की प्रीत। मंज़िलें ज़रूरी हैं पर सफर भी कम नहीं, रास्तों की धूल में भी सपने थमे नहीं। हर पड़ाव सिखाता है कुछ नया, सफर है तो जियो, मत पूछो क्यों भला।

भगवान का संदेश

जब टूटने लगे हौसले, थमने लगे पाँव, तभी आता है ऊपर से कोई मधुर आवाज़। कहता है — “मत डर, मैं तेरे साथ हूँ, हर अंधेरी रात के बाद एक नई भोर का साथ हूँ।” भगवान का संदेश होता है बड़ा सरल, न मंदिर, न मस्जिद — बस मन से कर ले ग़ुज़ारिश सरल। वो कहता है — “प्यार बाँट, द्वेष नहीं, मदद कर, मगर दिखावा कहीं नहीं।” "हर जीव में मैं हूँ, हर दिल मेरा घर है, जो करे सच्चाई से प्रेम, वही सबसे बेहतर है।" “छोटी-छोटी बातों में मत उलझ, हर दिन एक नई शुरुआत कर, खुद से सुलझ।” वो बताता है — “करम ही पूजा है सच्ची, भाषा, जात, मज़हब से बड़ी है भावना सच्ची।” “हर आँसू पोछ, हर भूख मिटा, तेरी सेवा में ही है मेरा पता।” भगवान का संदेश है — “मनुष्य बनो महान, प्यार, सहनशीलता और दया रखो अपने प्राण।” “मैं वहीं हूँ, जहाँ मन हो निर्मल, जहाँ हो सच्चा प्रेम, और आत्मा में उजास संबल।”

नफ़रत की आग

नफ़रत एक जहर है, जो भीतर पलता है, धीरे-धीरे इंसान को भीतर से खा जाता है। न रंग देखती है, न धर्म की बात, बस जलाती है हर रिश्ते की ज़ज़्बात। जहाँ प्यार उगता था, अब वहाँ खामोशी है, चेहरों पे मुस्कान नहीं, बस बेग़ानगी सी है। दिलों में दीवारें हैं, आँखों में शक, नफ़रत ने छीना हर भाव का मुक। नफ़रत से कोई जीतता नहीं, हर ओर बस आँसू, हर कोना अधूरा सही। इसकी आग में न घर बचता है, न गाँव, सिर्फ राख बनती हैं उम्मीदों के पांव। चलो, इस जहर को आज ही मिटाएँ, प्यार, माफ़ी, और समझ का दीप जलाएँ। क्योंकि नफ़रत से कुछ नहीं पनपता है, इंसान तभी इंसान है, जब दिल में प्रेम बसता है।

  • मुख्य पृष्ठ : मुल्ला आदम अली - हिंदी कविताएँ
  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कविता वेबसाइट (hindi-kavita.com)