हिंदी कविताएँ : मोहित नेगी मुंतज़िर

Hindi Poetry : Mohit Negi Muntazir



1. भोर आ जाओ गगन में

भोर आ जाओ गगन में शुभ्र ला जाओ गगन में मैं तुम्हारी बाट जोहूँ आज बैठा हूँ चमन में। आओगे निज धाम से ये बात है विश्वास में पुष्प पल्लव दल सभी अकुला रहे उल्लास में। हे! निशा के प्राणभंजक वेगी आओ निज भवन में मैं तुम्हारी बात जोहूँ आज बैठा हूँ चमन में। धाराएं सप्त सिंधु की, मान खा रही है धरा पर अट्टाहस मुक्त कंठों से करें वो तिमिर की ज़रा पर। मानो स्वर्गपंथी देवसरिता आज बहती हो बदन में। मैं तुम्हारी बाट जोहूँ आज बैठा हूँ चमन में।

2. सुनो संगी चमन वीरों

सुनो संगी चमन वीरों तुम्हारा सत्य हो सपना हौसला दिल में उम्मीदें निगाहें लक्ष्य पर रखना। जो है संकल्प करता तू अटल स्वलक्ष्य पाने को रगो में जोश इतना भर हो सक्षम नभ झुकने को लिए दृढ़ प्रण बढ़ते चल, स्वाद अनुभव का भी चखना। हौसला दिल में उम्मीदें..............। अभी शुरुआत है तेरी न अपनाजोश खो देना कभी कँटीले मिलेंगे पथ, न अपना होश खो देना मंज़िल न मिले जब तक, न तब तक तू कभी रुकना। हौसला......................। तुझे ग़ैरों की क्या चिंता, तू तो कर्मों की चिंता कर बढ़ सत्कर्म करते तू, सुप्त स्वाभिमान ज़िंदा कर अगर स्वाभिमान हो दिल में न सीखेगा कभी झुकना। हौसला.....................। यूँ तो संकल्प करते हैं तुझ जैसे पथिक सारे मगर पहुंचा वही मंज़िल जो हिम्मत न कभी हारे बना हथियार हिम्मत को, कदम रणभूमि में रखना। हौसला.....................। तेरा सर झुक नहीं सकता, तेरा पग रुक नहीं सकता हो सांसों में भरी सरगम इरादा चुक नहीं सकता निडर कदमों से बढ़ता चल है रण तेरा स्वयं अपना। हौसला.....................।

3. जिनको तू अपना कहता है

जिनको तू अपना कहता है जिनको तू सपना कहता है छोड़ न जाना साथ कभी भी कुछ भी हो हालात कभी भी। जीवन में एक क्षण आयेगा तेरा साहस घिर जायेगा पर तू आगे बढ़ते जाना पर्वत पर्वत चढ़ते जाना कितना भी दुर्गम रस्ता हो सौदा महँगा हो सस्ता हो अपनों का तू साथ निभाना सपनों का तू साथ निभाना जीवन का धिक्कार न करना हर पल हाहाकार न करना किसी अजाने के सम्मुख तू दुखड़ों का उद्गार न करना। तेरे दुखड़े पर देगी ना दुनिया तेरा साथ कभी भी। कुछ भी हो हालात कभी भी। कितना भी मुश्किल जीवन हो जीवन जीना ही पड़ता है विष मानो या अमृत मानो इसको पीना ही पड़ता है। जीवन में सब साथ निभाएं यह ज़रूरी बात नहीं है। सभी परिश्रम वाले दिन हैं सुखमय कोई रात नहीं है। जीवन का एक लक्ष्य बनाना कठिन परिश्रम करते जाना उसे एक दिन पा जायेगा परिश्रम तेरा रंग लायेगा जल्दी पाने को मंज़िल दूजो का थाम न लेना हाथ कभी भी । कुछ भी हो हालात कभी भी।

4. कितनी ही मेहनत करके

कितनी ही मेहनत करके दो जून रोटियां पाते हैं भाग्य विधाता लोकतंत्र के सड़कों पर रात बिताते हैं। अफ़सोस नहीं हो रहा उन्हें जो कद्दावर बन बैठे इन्हीं के पोषित देश भूमि के जो सत्ताधर बन बैठे इन मक्कारों के खेल में हिंदुस्तानी ऐसे ही रह जाते हैं। भाग्य विधाता..............। अट्टहास आकाश कर रहा, धरती धारण दुख करती यह पवन छूकर ज़ख्मों को और अधिक पीड़ा भरती इस दुख से दो मुक्ति हमें हे देव! तुम्हें बुलाते हैं। भाग्य विधाता...................। महिमा मंडित मत करो तुम अपने कामों के नाम को दिग्भ्रमित मत करो तुम, सीधी-सादी आवाम को अपनी भूमि अपना राजा हाय फिर भी दुख पाते हैं भाग्य विधाता................। दुष्टों की चीखों से जब गूंजा धरती आसमान धारण किया था तब तुमने ही रणचंडी का रूप महान आज देश के क्रांतिवीरों तुम्हें शक्ति याद दिलाते हैं भाग्य विधाता..................।

5. परम पुनीता इस धरा पर देवसरिता

परम पुनीता इस धरा पर देवसरिता बह रही है छलछलाती तट पे जाती देववाणी कह रही है। युगों- युगों से देव गंधर्व, यक्ष, मानव वास करते सत्य की वाणी को पाने का सभी प्रयास करते। आज भी गिरिराज की शीतल पवन ये कह रही है। परम..................। अतुलनीय श्रृंगार से है ब्रह्म ने इसको बनाया कैलाशवासी शिव ने आकर स्वयं गंगा को बहाया थी साक्षी कन्दराएं जो अब भी गंगे-गंगे कह रही हैं। परम पुनीता................। धो रही है पाप दुष्टों के स्वयं को मैली करके दे रही है पुण्यदायी फल सभी को झोली भर के फिर भी लेकिन आज दूषण की सज़ा यह सह रही है। परम पुनीता....................।

6. जब हमें तुम याद आये

जब हमें तुम याद आये रात भर आंसुओं ने ग़म बहाये रात भर। ख़्वाब कितने ही सजाये रात भर जिनको चाहा वो न आये रात भर। एक सूरज ढल गया जब शाम को चांद तारे मुस्कुराये रात भर। कल मुझे इक फूल पन्नों में मिला दिन पुराने याद आये रात भर। जिनके प्रियतम दूर थे परदेस में चांदनी ने दिल जलाये रात भर। कहते हैं जो किस्मतों का खेल है ख़्वाब उनको क्यों जगाये रात भर।

7. साथ में जी लूं

साथ में जी लूं या जीते जी मर जाऊं अपना सब कुछ तुझको अर्पण कर जाऊं तेरी ख़ातिर छोड़ दिया घर बार अपना बोल मैं क्या मुंह लेकर अपने घर जाऊं दुनिया की सारी दौलत इक ओर करूँ तेरा साथ अगर पाऊं तो तर जाऊं दिल का कोना खाली खाली लगता है मिल जाये जो साथ तिरा तो भर जाऊं मेरा बस इक ख़्वाब है 'मोहित' जीवन में कुछ नेकी के काम जहां में कर जाऊं।

8. जिनके ज़ुल्मों को हम सह गए

जिनके ज़ुल्मों को हम सह गए वो हमें बेवफ़ा कह गए। ख़्वाब वो मिलके देखे हुए आंसुओं में सभी बह गए। तुम न आये नज़र दूर तक राह हम देखते रह गए। रो पड़ा गांव में जा के मैं मेरे पुश्तैनी घर ढह गए। जिंदगी के हर इक मोड़ पर ज़ख़्म जलते हुए रह गए। 'मुंतज़िर' ढाल कर शेर में अपनी बातों को क्यों कह गए।

9. बूढ़ी सांसें चल रही थीं

बूढ़ी सांसें चल रही थीं सहारे लाठी के मैं हथप्रभ था झुका हुआ था शर्म से और सोचता था काश! मैं कुछ कर पता... मगर अफ़सोस! इंसानियत की हुई हार... सिवाय सोचने के कुछ कर न पाया मैं! उस कंपकंपाते बदन को देखकर हो रहा था प्रतीत मानो डोल रही हो धरती और कांप रहा हो आकाश! देखता रहा स्थिर, अविचल, हताश, उदास, शोकपूर्ण गंभीर नज़रों से क्या है जीवन?? आखिर इतनी असमता क्यों?? आखिर दुख का प्राकटय इतना निर्मम भी होता है?? क्यों सूख जाते हैं अपनेपन के स्रोत?? क्यों नदी सा उफ़ान भरता जीवन कहीं लुप्त हो जाता है... क्या जीजिविषा हो जाती है कम?? या रूठ जाती है किस्मत?? वो चलता रहा सड़क पर एक निडर पथिक-सा आज देखता हूँ कि हाथ फैला लेता है वह हर किसी के सामने क्या न रहा होगा स्वाभिमान जीवन में उसके?? या केवल ज़िन्दगी जीना ही अब उसका स्वाभिमान बन गया है।

10. अंजान साए पीछे

अंजान साए पीछे मैं चलता चला गया। जीवन मिरा तभी से बदलता चला गया। मुझसे कहा किसी ने तपो निखरो सोने सा मेहनत की तब से आग में जलता चला गया। किसने कहा के अपने पन में कोई दम नहीं अपनों के प्यार में ही मैं गलता चला गया। आये थे दुख कभी मिरा लेने को जायज़ा बस मेरा होश तब से सम्भलता चला गया। सीखी जब एक पेड़ ने झुक कर विनम्रता वो पेड़ उस समय से ही फलता चला गया।

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