हिन्दी कविताएँ : महेश कुमार (हरियाणवी)

Hindi Poetry : Mahesh Kumar Haryanvi


बढ़ती भूख

अन्न के ही अन्नदानो, भारती के खलिहानों धरती पुकारती है बैठ मत जाइए। बोल रही सर पर, मंहगाई घर पर लुट रही लाज आज, फिर से बचाइए। जिनसे है आस वहीं, दास बन जाए नहीं भूख का बबाल भाल, जीत के दिखाइए। ये जनता का मन है, जो करती नमन है भूखा ना तिरंगा सोए, खेत लहराइए।।

खिलाड़ी

छोटों को खिलाड़ी देखा बड़ो को अनाड़ी देखा फूली कद-काठी देख डरना ना मितवा। अक्ल के बाज देखे बड़े मोहताज देखे नियत जिताए जंग लिख लिए फतवा। खूब चला खरगोश मन में ही मदहोश होश जो गवाया जंग। जीत गया कछुआ। हवा में पतंगा नहीं सागर में गंगा नहीं तेरा खुद तुझको ही ढंग जाए जितवा।।

शैतान

हूँ बच-बच घूमता, मैं देखता ना जान के। कैसा लगता है रंग, अपना शैतान के। एक यहाँ एक वहाँ, भरे-भरे घूमते हैं। मौन हूँ मैं उड़ना हैं, मुझे लंबा ठान के। उसकी है सोच वही, समझे जो समझेगा। हम तो सवार नहीं, गिरते विमान के। भय को भी भय यहाँ, पग को टिकाएं कहाँ जमते कदम मिले, ले भले इंसान के। हूँ बच-बच घूमता, मैं देखता ना जान के। कैसा लगता है रंग, अपना शैतान के।। (कवित छन्द)

हाल-ए-बदहाल

गिरती पतंग काहें गिरती ही जा रही हैं? ढीली है कमान आज डोर को संभालिए। भाषणों में दौर नहीं नीतियों का ठौर नहीं। ताने वाली बातें बोली बोल को संभालिए। पनौती, पनौती बोले धार पे था वार हौले झूठ में क्यूँ गोता खाते सच्चाई खँगालिए। कितने गँवाए राज कुछ तो हो सर ताज थोड़ी कर नेकी उसे दरिया में डालिए।

मेरा मान

कोई सर पर उड़ता यान है, कोई कारीगर करवान है। कोई मिट्टी की पहचान है, कोई चौखट का अभिमान है। कोई शिक्षा में गुणवान है, कोई सरकस की कमान है। कोई खेलों का मैदान है, कोई सीमा पे गलवान है। कोई भक्ति में परवान है, कोई सामाजिक समाधान है। कोई इतिहासों का गान है, कोई लिखता कलमी ज्ञान है कोई व्यापारी ईमान है, कोई मजदूरी का मान है। कोई दुग्ध की दुकान है, कोई हरियाली खलियान है। कोई पद्धति का निर्माण है, कोई घर का रखता ध्यान है। हर उंगली का बलिदान है। बंद मुठ्ठी हिंदुस्तान हैं।।

बदलते हालात

अच्छी बातें अच्छी लगती, अच्छों का दे साथ। बुरे स्वयं मर जाएँगे जब, बदलेंगे हालात। पथ कहाँ कब एक रहा, रही हिलती-डुलती साख। सूरज आख़िर निकलेगा तो, छट जाएगी रात। आज तो तेरा साथ है ना, कल की कल हो बात। साँसों में ढलता जीवन है, जलती जाए बात्त। कितनो को सुख-चैन मिला हैं, कितने देते जात। कितने अब भी खेल रहे हैं, अपनी-अपनी बात। खोज स्वयं को ख़ास मिलेगा, प्रिज्म के रंग सात। अश्वन संग रुकना नहीं ले, भावों की बारात। दरिया से क्यों डरता हाथी? जबतक तिनका हाथ। अँधकार गहराया लेकर, तारों की सौग़ात। सब्जी पैदा होगी माली, पहले कर शुरुआत। तेरे कदम हैं क़ीमत तेरी, कर काँधे हालात। अच्छी बातें अच्छी लगती, अच्छों का दे साथ। बुरे स्वयं मर जाएँगे जब, बदलेंगे हालात।।

परिश्रम का बीज

मेहनत हर ईमान की यूँ ऐसे रंग लाएगी। व्यर्थ में सूखे बीज से भी हरितक्रांति आएगी सोच-खोज कब कौन चला नियमित पथ हर रोज ढला जिंदा आग जला के देख मरके तो हर मुर्दा जला। धुँआ बन जब नीर उड़े प्यास तभी बुझ पाएगी व्यर्थ में सूखे बीज से भी हरितक्रांति आएगी है धूप उजाला साया का सच संगत की काया का तू इसमें हाथ भिगोता जा श्रम के बीज यूँ बोते जा लालच की है चाह बुरी संग बारिश बह जाएगी व्यर्थ में सूखे बीज से ही हरितक्रांति आएगी।

निरघ

विपुला धरती रत्नों की ब्रह्मा विश्वविधाता है। पालनकर्ता स्वयं खिवैया काल का शिव से नाता है। आत्ममन हो ज्ञान गुरु जो देह को वाक बताता है। साँसे हैं संवाहक जिनसे प्यासा पानी पाता है।

महात्मा

जलते-बिलखते शोलों ने फिर गांधी जी विचारे है। पुनः चले आओ बलधारी जनता शान्ति पुकारे है।। दधक उठी है सारी धरती मेघ से चलती गोलियां। देख सहम गई भोली जनता अत्याचारी टोलियां। छल चलन के पलते दौर में नन्हे नैनं निहारे है। पुनः चले आओ बलधारी जनता शान्ति पुकारे है।। स्नेह सब्र का गायब किस्सा प्रेम में मतलब साध रहे हैं। केवल बढ़ता लालच गुस्सा जाति-धर्म विवाद रहे हैं। मानव से मानव को संकट मुख दौलत सत्कारे है। पुनः चले आओ बलधारी जनता शान्ति पुकारे है।। अफगान पाक सीरिया ने लाश बिछा दी धरती पर पूर्व-पश्चिम पखवाड़े में आग लगी है अरथी पर। व्यर्थ-गर्थ में चीनी चीखे कहें सागर हमारे है। पुनः चले आओ बलधारी जनता शान्ति पुकारे है।। कहीं बन्दूक की गोली है कहीं अणु धधकते आग। वक्त है थोड़ा चलना ज्यादा कहे भाग सके तो भाग। अपने भी है गैरो जैसे बड़े सूने सितारे है। पुनः चले आओ बलधारी जनता शान्ति पुकारे है।। जलते-बिलखते शोलों ने फिर गांधी जी विचारे है। पुनः चले आओ बलधारी जनता शान्ति पुकारे है।।

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