कन्नड़ कविता हिन्दी में : कुपल्ली वेंकटप्पागौड़ा पुटप्पा (कुवेम्पु)
Kannada Poetry in Hindi : Kuppali Venkatappa Puttappa (Kuvempu)


1. प्रातःकाल

अहा! स्वर्ग ही हमारे लोक में फिसलकर गिर पड़ा है, आइए! भर लेने इसे अपने हृदय का सुवर्ण पात्र लाइए। जल्दी आइए, जल्दी आइए पिघल जाने से पहले! आइए देर किये बिना दौड़े आइए स्वर्गगंगा ही यहाँ बह रही धरती के सब बच्चों को, सुनो, पुकार रहा है, स्वर्ग यहाँ।

2. इन्द्रधनुष

लो, खिंच गया इन्द्रधनुष आकाश पर मानो नभदेवी ने किया हो मणिमाला से शृंगार। रुक जा मित्र, मूकविस्मित हो, रुक जा, मंदिर के सामने हाथ जोड़कर खड़े होनेवाले भक्त जैसे! मानो धनुष बन गया हो सौंदर्य-चेतना, मानो माया से अंकित मधुर चित्र हो यह, मानो गा रहा हो आदिकवि कोई सुन्दर गीत, मानो बज रहा हो वादक वीणा का तार! इन्द्रधनुष-सा क्षणिक है जीवन तो क्या हुआ? इन्द्रधनुष जैसा वह मधुरतम तो है ना? गरिमामय जीवन एक दिन का ही क्यों न हो? निकृष्ट जीवन हो युग-युग तक क्यों?

3. पक्षिकाशी

यहाँ है नहीं तेरा प्रवेश, हे व्याध; यह है पक्षिकाशी। देवनदी में, ईश कृपा में भावतरुवासी प्राणपक्षी संकुल को मिलता है संरक्षण यहाँ; है यह नित्य अविनाशी देख शक्ति को मिली है रक्षा यहाँ से। अग्नि की जलराशि की। मारनेवाले तीर, कमान, तरकस सबको छोड़ वहीं, आ! बसे सब अहंकार की, तिरछे तंत्रों की सब कुछ छोड़ वहीं, आ। नहाकर आ, हाथ धोकर आ, अहंकार छोड़कर आ, इक्षुमधुर-सी है मोक्षपक्षी की चहक जब बहेगी रग-रग में खुशी से झूम उठेगा, आ।

4. बूंद ओस की

स्वर्ग की ओर खेलने शिकार, निकला मैं तड़के ही, भूखे महाव्याघ्र जैसे, सौंदर्य-धेनु के हृदय का खून चूसने की आतुरता से, पर्वतीय प्रदेश की उस घाटी के हरियाली-भरे घास के मैदान में, जहाँ थीं झाड़ियाँ! पिछली रात को हुई वर्षा से भीगी धरती, भाद्रपद मास के प्रात:काल के सूर्य की सुंदर मरीचियों में नहलाकर, तिनकों के समूह की नोकों पर नाचनेवाली ओस की बूंद के हजारों दीवटों से बन चली थी अतीव ही रमणीय! लग रहा था ऐसे कि इंद्रधनुष को कूट-कूटकर, उनमें चिनगारी लगाकर, मानों बिखेर दिया हो इधर धरती पर! बहुसंख्यक पक्षियों के कलरव ने मानों जोड़ दिया था उधर धरती को गगन से! तैरते आनंद के सागर में आत्मा कवि की इधर डूब चली थी, पिघल चली थी! संपूर्ण संतृप्ति ने मानों जीव रूपी जिह्वा के ऊपर उँडेल दिया था मधु को! रुक जाओ यहाँ, कृपया रुक जाओ यहाँ! काल एवं देश का हुआ है मेल 'अब यहाँ'! स्वर्ग ही बन चला है यह स्थल 'अब यहाँ'! इसी क्षण हुआ है यहाँ संगम गंगा-यमुना का खड़े होकर यहाँ देखो तो उसे; उभर आयी उस हरित धारा के प्रतीक उन तिनकों की नोकों पर मणिदीप जैसे जल रहा है उधर, लो उज्जवल प्रकाश के साथ बूंद ओस की सौंदर्य की अधिदेवी के नथ का बूंद-मोती इठला रहा है, बलखा रहा है, चमक रहा है। पग आगे धरोगे तो मिलेगा तुम्हें 'कुछ नहीं'; पग पीछे हटाओगे तो मिलेगा तुम्हें 'कुछ नहीं'; बीत जाए यदि यह क्षण तो मिलेगा तुम्हें 'कुछ नहीं'; आ जाओगे एक क्षण पहले भी तो मिलेगा तुम्हें 'कुछ नहीं'; काल-देश के संगम के इस प्रयाग-तीर्थ में यदि नहलाओगे नहीं, तो मिलेगा नहीं तुम को स्वर्ग-सुख कभी इस हिममणि-रूपी तिलोत्तमा का। यदि साकार रूप धरकर आएगी सुंदरता धरती पर की समस्त सुंदरियों की, फिर भी वह समरूप नहीं हो सकती हमारी हिममणि-रूपी तिलोत्तमा के।......... छि: बस करो बातें वर्णन की । हो जाएगी अंधी तुलना करने निकली आँख ही। चुपके से खड़े होकर देखो उसे, और भूल जाओ अपने आपको, हटाते उधर और कोई विचार।

5. पेड़ की छाया

लो फिर! उस पेड़ की छाया! रोज की तरह पड़ी मर रही है वहाँ! इस नियम का शासन मुझे पीड़ित कर रहा है पूर्वजन्म के महा अभिशाप के रूप में, नियमों को निगल कर, पचाकर, करने उल्लंघन उनका व्याकुलता से प्रतीक्षारत है मेरा मन। - उस पेड़ की छाया, स्याही फेंकी गई हो मानो हरे मैदान पर लम्बा तान कर लेट गई है अपशकुन के रूप में। मन को आलोडित कर रही है उसकी मुग्ध मौन की वाणी पहुँचाते मेरे हृदय को किसी भूले हुए स्वातंत्र्य का संदेश। पड़ी हुई है मैदान में विक्रीत दास जैसे, छुटकारा न पाते हुए, चाहने पर भी! हर दिन देख रहा हूँ। हर दिन सुबह-दिन न गिनते हुए, आकाश में रवि जब जब चमकता है, पेड़ के पैरों तले गिरकर ऊबे जाकर मरती रही है। हे शिव, एक क्षण के लिए ही सही, वैविध्य के लिए ही सही धूप और पेड़ होने पर भी, क्यों हो छाया अनिवार्य रूप से? जहाँ भी देखो, वहाँ हैं सब दास ही! हे भगवान्! ईश एक भी नहीं देख पाता! आग के लिए है सदा चमकने-दहकने की दासता; हवा के लिए है सदा बहने-चलने की दासता; रुके पानी के लिए है सदा किनारे की वस्तुओं को प्रतिबिम्बित करने की दासता! दासता का बना है आलय यह महाविश्व! सब आ चुके हैं दासता के वज्रबंधन में यहाँ! एक दिन के लिए ही सही, पानी जले नहीं क्योंकर? एक बार ही सही, पत्थर पंछी जैसे उड़ पाये नहीं क्योंकर? एक क्षण के लिए ही सही, दास्यनियम मिटकर स्वातंत्र्य, स्वच्छन्दता, पागलपन के लिए मिला क्या न आकार? सब चाहे मिट जाए आज ही! सब चाहे मिट जाए आज ही! चाहिए मुझे वह स्वातंत्र्य-श्री मात्र ही!

6. कोंपल

ओह! रुककर देखो तो यहाँ इस वृक्ष की देहश्री में इधर, खिल रहा है स्वर्ग आप ही। उर्वशी तिलोत्तमा आदि अप्सराएँ नाच रही हैं यहाँ इस वृक्ष की कोंपलों की इस इंद्र सभा में। पाँव हैं जकड़े हुए यहाँ भूलकर चलना अपना, स्वयं पेड़ बनकर; अचंभे से देख रहा हूँ मैं उसको। हाय! प्रार्थना है यह तुमसे मेरी, जरा रुककर देखो तो यहाँ लगता है कि फव्वारा ही चेतना का फूट निकला है इस वृक्ष से। लगता ऐसा है यहाँ हुआ संमेल उन सारी सुंदरियों के सुंदर अधरों का, जिन्हें देखा नहीं मैंने आज तक! लगता है ऐसा मानों भू-माता ने भेज दिया हो यहाँ की शिशु-प्रदर्शनी में अपने सारे बच्चे। लहलहाती इन कोंपलों की समृद्धि से उद्घोषित कर रही हैं यह दिव्य कलासुंदरी: मृण्मय हृदय में है छिपा चिन्मय, जड़ के ऊपर होती है विजय चेतना की सदा: शरद् उपरान्त आती है अवश्य बारी वसंत की; बढ़ना है तुम्हें आगे आगे, बिना खोये आस्था। आह! रुककर देखो तो यहाँ। सैकड़ों ऋषियों के उपदेशों का सार है यहाँ। सैकड़ों वैरागियों का परिवार है यहाँ। बुद्धि से परे सिद्धि होती है भावगोचर यहाँ। व्यक्तित्व ही ज्वाला बन जलता है यहाँ। क्यों करें यात्रा सैकड़ों मीलों दूर काशी की? आ जाओ यहाँ, हे यात्री, यह है शस्य-काशी! रसतीर्थ में नहलाया है जिसने भय, क्यों हो भय उसको भव की बाधा का? यह पृथ्वी ही बनी है पुण्यमय आलय और स्वर्ग है बना एकदम परदेशी ही!

7. भगवान ने हस्ताक्षर किये

भगवान ने हस्ताक्षर किये; देखा कवि ने उसे, होकर रस-विभोर। विशाल आकाश है बना पृष्ठभूमि शोभा दे रही हैं ऊँचे पर्वतों की श्रेणियाँ। घने जंगलों की सीमाओं के बीच, विराज रही हैं तुंगा जल सुन्दरी। भगवान ने हस्ताक्षर किये देखा कवि ने उसे, होकर रस-विभोर। नदी बह रही थी, निश्चल था वन; बिखेर रहा था आकाश नीलमी मुस्कान, निर्जन प्रदेश की नीरवता में खगरव पुलकित हो उठा था। सुनहली धूप में जगमगाती जल-धारा शिलाओं के बीच तुतलाती धारा। शोभित करते सुनहले रेतीले दोनों किनारे। सिब्बलगुड्डे की नदी में नहा कर कवि का मन जा ठहरा स्वर्ग में; मधु-सौन्दर्य का मधुर जगत् बन चला था मधु हृदय जिह्वा के लिए! दृश्य दिगन्त से एक साथ निकलकर गिरि, वन के ऊपर के आकाश के पट पर जब उड़ती आयीं बालकों की पंक्ति लेखन रेखान्यास में अवाङ्मय छंद और तुकबंदी। सृष्टि की रचना कौशल के पीछे सौन्दर्य के पीछे और जग के इस अनूठे विन्यास के पीछे अपने होने के प्रमाण स्वरूप, बगुलों की पंक्ति के रूप में भगवान ने हस्ताक्षर किये; देखा कवि ने उसे होकर रस-विभोर।

8. क्यों ?

पानी क्यों बहता है? बहता है! सागर से मिलने के लिए है न? मिलता है! लेकिन क्या? सागर से मिलने के लिए बहता नहीं है पानी; बहते बहते, सागर से मिल जाता है और कुछ नहीं! आग क्यों जलती है? जलती है! खाना पकने के लिए, है न? पकता है! लेकिन क्या? खाना पकने के लिए जलती नहीं है आग; जलने से पक जाता है मात्र, और कुछ नहीं! सूरज क्यों चमकता है? . चमकता है! धरती को प्रकाशित करने के लिए है न? हाँ वह! लेकिन क्या? धरती को प्रकाशित करने के लिए चमकता नहीं है सूरज; चमकने से धरती हो जाती है प्रकाशित, और कुछ नहीं! सृष्टि हुई आखिर क्योंकर? हुई है ! कर्म मिटाने के लिए, है न? मिटता है! लेकिन क्या? कर्म मिटाने के लिए हुई नहीं है सृष्टि; होने पर सृष्टि, मिट जाता है कर्म, और कुछ नहीं!

9. मेघ

परम पुरुष की कौन सी महिमा का ढिंढोरा पीटते हुए घूम रहे हो, हे मेघ? किस परमानंद निधि से उठकर जा रहे हो कहाँ? भाव-बाग के भक्ति बीज को हर्ष जल बरसाते हुए देवदेव की दिव्यकांति को हृदयस्थल में अपने बिखेर रहे हो। गिरिशिखरों पर से उड़ते जाकर, जा मिलते नामी नगरियों में थके प्यासे सुमनों को देते हुए अतुल आनंद; छोटे तिनकोंवाले वनों पर, कृपा कर नूतन जीवकांति को उनमें भरते धीरज भरते वर-सरोवरों में घूमते रहते हो, हे जलधर! रवि है जनक, जननी है शरधी गगन है दाई तुम्हारी; धरणी है सखी, कानन दोस्त हैं हर्ष सारे पहुँचानेवाले; गरज हैं किंकर, बिजली है सेविका, बरखा है तनुजात; इंद्रचाप ही पिता से प्रदत्त सप्तरंगों का हार है। उदयकाल में अरुण कांति का सौंदर्य पाकर होते हो शोभित; सायं गगन में शोणितांबरधारी बन करते हो मन को रंजित; आनंददायी कौमुदी से होगे जब करते कवि को संतोष दान; घोषित करते हो आनंद ही। है दिव्यसौंदर्य परम पुरुष का। नन्हें मुन्ने बालकों पर कृपा कर चित्रित करते हो नभ में अमरावती उनके लिए; झुठलाए बिना बालकों की कल्पनाओं को रच देते हो भाँति भाँति के पतंग; बनोगे कभी हाथी, कभी सिंह तो बनोगे कभी राक्षस भी; बनोगे वन कभी, गिरि कभी तो बनोगे नदी भी कभी। ब्रह्म से जनम लेकर, ब्रह्म में ही विलीन होनेवाले जीव के जैसे; सागर से जनम ले आकर सागर में समा जाओगे; अकेले विचरनेवाले कवि की चेतना जैसे करते पान अमृत का आते हो; धरती पर उतरकर और अंत में करते पार देश-विदेशों को पहुँच जाते हो सागर के लक्ष्य को। पवन मार्ग के पुण्य यात्री काशी है तुम्हारी कौन सी? कौन से पर्वत कूट पर बन जाते हो अभ्यागत तुम बताओ, हे जलधर? चैत्रपल्लव शोभिताश्रम है बनता तुम्हारे लिए कौन सा, हे संचारी? तुम हो निर्मल आत्मा के दिव्य यात्री, हे पुण्य जलधर, मंगल हो तुम्हारा।

10. पुष्प भगवान

दर्शन है यह; यह साक्षात्कार है। सिर्फ देखने की चीज नहीं है इस अनुभव का कोई और नाम है नहीं! यह सिर्फ़ फूल के विकसित होने की सामान्य प्राकृतिक घटना है नहीं! भावपूर्ण मन से देखो भव्यरूप इस फूल का नारा लगा रहा है अपने आप “यह मेरा अवतार है" इस बगीचे में इस संध्या समय में इस सुनहली धूप में ध्यानमग्न हो देखोगे तो होगा प्रत्यक्ष- यह है महान अवतार इसे देखना ही है साक्षात्कार, हे पुष्परूपी भगवान लो तुम्हें मेरा नमस्कार! यह साष्टांग नमस्कार!

11. उषा

पूरब की दिशा में खेलती-खेलती, इठलाती बलखाती, उभर आती है! ऊपर उठती, धीरे धीरे, देख, उषा उभर आती है! अंधी रात का काला बिछौना खोलती है धरती धीरे-धीरे, नये काननों का हरे परिधान पहने सोह रहे हैं हिममणिगण, ठंडी हवा विलसती है कोंपलों पर थिरक थिरक कर पग धरती हुई, नाचती है मधुपान में मत्त अपने को भूल कामुक व्यक्ति जैसे! आसमान में अचल छोटी छोटी बदलियों के झुंड पर अनुराग से नव मोह की होली के रंग बिखेरती खोलते अंधियारी की पलकों को, बरसाती अरुण राग, चलती है सींचते रस चेतना के, सुंदरता के नवजीवन का रस सींचती मधुर कंठ से कूजता है शुक-पिक-पक्षिगण सारा! झूमते उमंग भरी तरुलताओं में खिले फूल हैं सोह रहे! कानन - कानन में फल-फूल पर गूंज रहे हैं भौरों के झुंड! दे रही है आमोदित धरती उषादेवी को सुखद निमंत्रण!

12. कवि शैल

मित्रों, वाणी यहाँ बनती है अछूत, शान्त रहिए। मौन ही महान है यहाँ, इस शाम में इस कविशैल में आच्छादित शाम के अन्धेरे में ध्यानमग्न योगी बना है महा सह्यगिरि। बादलों की लहरों में मुस्कुराता दूज का चाँद। गगनदेवी के द्वारा पूजा में सजाये गये दीवट के रूप की सोने की नैया जैसे शोभित होता आँखों से ओझल होता, तैर रहा था इठलाता बलखाता। शिव-शिवानी की तरह धूप-छाँव का सरस-संलाप दृष्टिगत था तरु तल के धरातल में। शहर, बाजार, घर और हर जगह होता रहता है हमेशा गपशप और आप लोगों का; वह शोरगुल यहाँ कहाँ? प्रकृति देवी के इस सुन्दर मन्दिर में, आनन्द ही पूजा है; मौन ही महास्तोत्र है।

गहने (ओडवेगळु)

सोने के गहने क्योंकर, माँ ? तकलीफ देते हैं, नहीं चाहिए, माँ ! रंगीन कपड़े क्योंकर, माँ ? मिट्टी में खेलने नहीं देते, माँ ! ताकि दिखाई दो सुंदर, बहुत ही सुंदर-यों कहती हो सुंदर लगे किसको, कहो माँ ? देखनेवालों को लगता है सुंदर, देता है आनंद ; मगर मुझे बनता है बड़ा बंधन ! मेरा यह बचपन, तुम्हारा मातृत्व ये ही गहने हैं मेरे लिए, माँ; मैं तुम्हारा गहना; तुम मेरा गहना; फिर अन्य गहने क्यों चाहिए, माँ ? ('गहने' कविता की अनुवादक : डॉ. एम. विमला)