Vividh Kavitayen : Kumar Ambuj

विविध कविताएं : कुमार अंबुज


अकुशल

बटमारी, प्रेम और आजीविका के रास्तों से भी गुजरना होता है और जैसा कि कहा गया है इसमें कोई सावधानी काम नहीं आती अकुशलता ही देती है कुछ दूर तक साथ जहां पैर कांपते हैं और चला नहीं जाता चलना पड़ता है उन रास्तों पर भी जो कहते है: हमने यह रास्ता कौशल से चुना वे याद कर सकते हैं: उन्हें इस राह पर धकेला गया था जीवन रीतता जाता है और भरी हुई बोतल का ढक्कन ठीक से खोलना किसी को नहीं आता अकसर द्रव छलकता है कमीज और पेंट की संधि पर गिरता हुआ छोटी सी बात है लेकिन गिलास से पानी पिये लंबा वक्त गुजर जाता है हर जगह बोतल मिलती है जिससे पानी पीना भी एक कुशलता है जो निपुण हैं अनेक क्रियाओं में वे जानते ही हैं कि विशेषज्ञ होना नए सिरे से नौसिखिया होना है कुशलता की हद है कि फिर एक दिन एक फूल को क्रेन से उठाया जाता है।

अन्त का जीवन

खिड़की से दिखती एक रेल गुज़रती है, भागती हैं जिसकी रोशनियाँ उजाला नहीं करतीं, भागती हैं मानो पीछा छुड़ाना चाहती हैं अन्धेरे से उसकी आवाज़ थरथराहट भरती है लेकिन वह लोहे की आवाज़ है उसकी सीटी की आवाज़ बाक़ी सबको ध्वस्त करती आबादी में से रेल गुज़रती है रेगिस्तान पार करने के लिए लोग जीवन में से गुज़रते हैं प्रेमविहीन आयु पार करने के लिए आख़िर एक दिन प्रेम के बिना भी लोग ज़िन्दा रहने लगते हैं बल्कि ख़ुश रहकर, नाचते-गाते ज़िन्दा रहने लगते हैं पीछे छूट गई बारीक़, मटमैली रेत में मरीचिका जैसा भी कुछ नहीं चमकता प्रेम की कोई प्रागैतिहासिक तस्वीर टँगी रहती है दीवार पर तस्वीर पर गिरती है बारिश, धूल और शीत गिरता है, रात और दिन गिरते हैं, उसे ढक लेता है कुहासा, उसकी ओट में मकड़ियाँ, छिपकलियाँ रहने लगती हैं फिर डॉक्टर कहता है इन दिनों आंसुओं का सूखना आम बात है इसके लिए तो कोई आजकल दवा भी नहीं लिखता एक दिन सब जान ही लेते हैं : प्रेम के बिना कोई मर नहीं जाता धीरे-धीरे इस बात की आपसी समझ बन जाती है कि रोज़-रोज़ मेल-मुलाक़ात मुमकिन नहीं सारे विस्थापित जान चुके हैं अब वे किसी गाँव-क़स्बे के निवासी नहीं कुछ ही दूरी पर जो एक बहुत बड़ा कॉम्पलेक्स है गूगल-अर्थ में शहर के नाम पर दिखती है इसी इमारत की तस्वीर अब यही गगनचुम्बी इमारत है इस शहर का पर्यायवाची लाँग शॉट में हज़ारों प्रकाशमान खिड़कियों से आलोकित यह किसी उज्ज्वल द्वीप की तरह दिखाई देती है अलबत्ता इसी शहर में ऐसी भी खिड़कियाँ हैं असँख्य जिनके भीतर भी रहे चले आते हैं जीवित मनुष्य लेकिन उधर से कोई रोशनी नहीं आती बस, दिखता हुआ खिड़कियों के आकार का अन्धेरा है जिसे आसपास की रोशनियाँ और ज़्यादा गाढ़ा करती हैं ।

अधूरी इच्छाएँ : वर्गानुक्रम

कथा-कहानियों में और इधर के जीवन में भी आसपास कोई न कोई हमेशा मिलता है जो सोचता है कि कभी बैठ सकूँगा हवाई-जहाज़ में एक शाम फ़ाइव स्टार होटल में पी जाएगी चाय कि इन सर्दियों में ख़रीद ही लूँगा प्योरवूल का कोट एक स्त्री सोचती है वह लेगी चार बर्नर का चूल्हा एक आदमी करता है क़रीब के हिल स्टेशन का ख़याल इन इच्छाओं की लौ जलती है सपनों में लगातार इसी बीच यकायक बुझ जाती है जीवन-ज्योति ही उधर एक आदमी सपना देखता है भरपेट भोजन का कल्पना में लगाता है मनचीते व्यंजनों का भोग नीन्द में ही लेता है स्वाद नानाप्रकार सपने में आ जाती है तृप्ति की डकार ओंठों से ठोड़ी तक रिसकर फैलती है लार भिनभिनाती हैं मक्खियाँ ।

अब हम गीत नहीं बनाते

हम बहुत दूर निकल आए हैं सूर्योदयों, सूर्यास्तों, श्रम भरी दुपहरियों से खेतों-खलिहानों से, नदियों से, पहाड़ों से अलाव से और रात में चमकते सितारों से अब हम गीत नहीं बनाते अब कुछ दूसरे लोग हैं जो बाक़ी काम नहीं करते सिर्फ़ गीत बनाते हैं वे दूसरे अलग हैं जो उसे ढालते हैं संगीत में कुछ और लोग भी हैं जो सिर्फ़ गाते हैं गीत और फिर ढोल-ढमाके के साथ आता है दुनिया में वह गीत हम तो यहाँ सुदूर परदेस में खोजते हैं रोजी-रोटी भूल गए हैं अपना जीवन-संगीत अब हम गीत नहीं बनाते।

आकस्मिक मृत्यु-2

रोज़-रोज़ की अनुपस्थिति आख़िर उसे विश्वसनीय बना देगी आदमी कई बार उस तरह नहीं गलता जैसे अपनी ही आँच में धीरे-धीरे पिघलती है मोमबत्ती वह यकायक उस तरह से हो जाता है ओझल जैसे जादू के खेल में आँखों के ऐन सामने ग़ायब होता है हाथी फिर पता चलता है कि यह कोई जादू नहीं था, जीवन है अब सिर्फ़ साहस चाहिए जो एक-दूसरे का मुँह देखने से कुछ-कुछ आता है और इसी वजह से कभी-कभी टूट भी जाता है ।

आदिवासी

यदि मैं पत्थर हूँ तो अपने आप में एक शिल्प भी हूँ जैसा मैं हूँ वैसा बनने में मुझे युग लगे हैं हटाओ, अपनी सभ्यता की छैनी हटाओ ये विकास के हथौड़े मैं पत्थर हूँ, पत्थर की तरह मेरी कद्र करो ठोकर जरा सँभलकर मारना पत्थर हूँ ।

आश्वस्ति

इतने बान्धों और परियोजनाओं पर सड़कों, पुलों और इमारतों पर कारख़ानों, संस्थानों और सितारों पर भी लिख दिए गए हैं उनके नाम जैसे वे आश्वस्त रहे हों कि उन्हें उनके कामों से याद नहीं रखा जा सकता ।

इतनी-सी कथा

वह स्त्री स्टेशन के बाहर खड़ी थी आधी रात घर लौटने के इंतज़ार में अचानक हवा चली विषैली लिखा जाने लगा त्रासदी का एक और अध्याय प्रश्न यह नहीं था कि वह वापस कैसे लौटेगी, सही-सलामत लौटेगी इतिहास को पारकर ? खुल जाएगा किवाड़ ? बेचैन दस्तकों और दरवाज़ा खुलने के युग के बीच किन सवालों से जूझेगी ? जो जली-सी गंध आएगी सोचेगी क्षमा और प्रेम और करुणा के बारे में गुस्से में तोहमतें लगाएगी ? जो कुछ हुआ वह उसका साक्ष्य है या विषय पता नहीं धर्मसंसद के निष्कर्ष कुल जमा इतनी-सी थी यह कथा पीढ़ियों के सामने पहला-ईसापूर्व छठी शती का एक भिखु दूसरा-प्रचारक नवजागरण काल का तीसरा-सफाई अभियान से बच निकला किशोर तीनों के सामने विचित्र अंतर्विरोध ज्ञान की निरीह उजास से बाहर जाकर चुनौती बनने और खड़े होने का

इसलिए आशा

सख़्त सर्दियाँ धीरे-धीरे दाख़िल हो ही जाती हैं फाल्गुन में शनिवार मुण्डेर पकड़कर कूद जाता है इतवार के मैदान में एक दृश्य की धुन्ध में से प्रकट होता है एक कम धुन्धला दृश्य कभी विस्मय की तरह, कभी महज विषयान्तर अनुभव का आसरा यह है कि धूल और लू भी आखिर बारिश में घुल जाती है और बारिश शरद की तारों भरी रात में नेत्रहीन कहता है मैं ध्वनि से और स्मृति से देखने की कोशिश करता हूँ और पत्तों में हवा गुज़रने की आवाज़ से पुकार लेता हूँ वृक्षों के नाम । इस सदी में जीवन अब विशाल शहरों में ही संभव है अब यह अनंत संसार एक दस बाई दस का कमरा जीवित रहने की मुश्किल और गंध से भरा खिड़की से दिखती एक रेल गुजरती है, भागती हैं जिसकी रोशनियाँ उजाला नहीं करतीं, भागती हैं मानो पीछा छुड़ाती हैं अॅंधेरे से उसकी आवाज थरथराहट भरती है लेकिन वह लोहे की आवाज है उसकी सीटी की आवाज बाकी सबको ध्वस्त करती आबादी में से रेल गुजरती है रेगिस्तान पार करने के लिए लोग जीवन में से गुजरते हैं प्रेमविहीन आयु पार करने के लिए आखिर एक दिन प्रेम के बिना भी लोग जिंदा रहने लगते हैं बल्कि खुश रह कर, नाचते-गाते जिंदा रहने लगते हैं बचपन का गॉंव अब शहर का उपनगर है जहॉं बैलगाड़ी से भी जाने में दुश्‍वारी थी अब मैट्रो चलती है प्रेम की कोई प्रागैतिहासिक तस्वीर टॅंगी रहती है दीवार पर तस्वीर पर गिरती है बारिश, धूल और शीत गिरता है, रात और दिन गिरते हैं, उसे ढॅंक लेता है कुहासा उसके पीछे मकडि़याँ, छिपकलियाँ रहने लगती हैं फिर चिकित्सक कहता है इन दिनों आँसुओं का सूखना आम बात है इसके लिए तो कोई डॉक्टर दवा भी नहीं लिखता एक दिन सब जान ही लेते हैं: प्रेम के बिना कोई मर नहीं जाता खिड़की से गुजरती रेल दिखती है और देर तक के लिए उसकी आवाज फिर आधिपत्य जमा लेती है अनवरत निर्माणाधीन शहर की इस बारीक, मटमैली रेत में मरीचिका जैसा भी कुछ नहीं चमकता लेकिन जीवन चलता है।

उत्तर-कथा

नौदुर्गों की साँझ में गली के छोर से आती थी विह्नल करती चौपाई-गायन की आवाज़ सोरठे तक आते-आते गहराने लगती थी रात जीवन खड़ा हो जाता था रँगमँच के आगे रास्तों में मिलते थे झरे हुए फूल चितवनें, वाटिकाएँ, छली, बली, मूर्च्छाएँ और उन्हीं के बीच उठती पुत्र-मोह की अन्तिम पुकार नावों, जँगलों, गांवों और पुलों से होकर गुज़रते थे राग-विराग, ब्रह्मास्त्र और वरदान के बाद के विलाप लेकिन नहीं खेली जाती थी अश्वमेध की लीला जो अब उत्तर-कथा में खेली जा रही है दिन-रात जिसे कलाकार नहीं, बार-बार खेलते हैं वानर-दल गठित हो रही हैं नई-नई सेनाएँं रोज़ एक नाटक खड़ा हो जाता है जीवन के आगे ।

एक अधूरी कहानी

हम कौन हैं की तरह यह एक जटिल सवाल है कि आखिर कहाँ है इनकी जमीन, कितना है इनका रकबा क्या ये इस घर में, इस पेड़ के नीचे, इस नदी किनारे इस तलहटी में जीवन भर रह सकते हैं या तुम्हारे द्वारा खींच दिए घेरे के निशान से बाहर ये एक कदम भी रख देंगे तो हो जाएँगे निर्वासित जैसे वस्तुओं को, जानवरों को नहीं पता होता वे कहाँ के लिए ले जाए जाते हैं इन लोगों को भी नहीं पता वे किस सफर में हैं उन्हें बस अंदेशा है, जिसमें नये अंदेशे जुड़ते जाते हैं वे आशंका की सवारी में ही कर रहे हैं यात्रा और जान चुके हैं कि जब तक सफर में हैं बस, तब तक ही वे शरणार्थी नहीं हैं यह समय भी हो गया है कुछ अजीब इसमें शीत, धुएँ, धुंध, बादल के कई परदे हैं मशक्कत के बाद कभी झीनी-सी धूप झाँकती हैं तो इनकी परछाईं भी ठीक से नहीं बनती जबकि कल तक इन सबका एक घर था आग थी, पानी था, बिस्तर था, इंतजार था, एक खुली जगह थी, आसमान था फैली हुई बाहें थीं, उगते हुए पौधे थे और तारे एक देह थी जिसमें छिप सकते थे एक कोना था जहाँ सुबक सकते थे इन्हें अंदाजा है जो पीछे छूट गए वे मारे जा चुके हैं जो आगे जा रहे हैं मरने के लिए जा रहे हैं जो अभी जिंदा हैं, खुश दिखते हैं या नाराज इनमें बस एक समानता हैः ये सभी मौत को पीछे छोड़कर आए हैं और जानते हैं उनके लिए हर शब्द का, हर चेष्टा, हर चीज का पर्यायवाची मृत्यु है वे बताएँगे किस तरह हर चीज में से झाँकती है मृत्यु पेड़ से, खिड़की से, टूटी दीवार से, अँधेरे से, रोटी से, सहानुभूति से, कुर्सी और हथेली की ओट से वे तर्जनी से दिखा देंगे हर जगह मृत्यु हैः सड़क पर, आकाश में, हँसी में, तुम्हारी आँखों में, चाय की केतली में, कचहरी में, इस किताब में, इन कपड़ों में, पाताल में, इस सवाल में सब जगह मृत्यु है और हमलावर है जिससे भी कहा जाता है तुम जिंदा रहोगे सुबह उसकी ही लाश सबसे पहले मिलती है ये लोग जिंदा होकर भी इकट्ठा नहीं होते एक-एक करके मरते चले जाते हैं यही पुरातन कहानी है जो हर बार नयी हो जाती है विस्थापन और अनिश्चितता ने इन्हें पूरी तरह बदल दिया है अब इनमें से इनका कुछ भी पुराना बरामद नहीं किया जा सकता याददिलाही का कोई निशान नहीं बचा, माथे की चोट वैसी नहीं रही, जो नये घाव हैं उनका कोई जिक्र पहचान पत्र में नहीं तसवीर खींचों तो किसी दूसरे ही आदमी की तसवीर निकलती है पसीने की गंध बदल गई है इतनी कि अंतरंग क्षणों में इनका प्रिय इन्हें किसी और नाम से पुकारने लगता है तब विश्वास हो जाता है कि अजनबीयत ही इनका हासिल है अपनी जगह से उजड़े निष्कासित आदमी को आप किसी भी नाम से पुकारें, वह चौंककर इस तरह देखेगा जैसे वही उसका नाम रहा हो और जब उससे कभी कोई दुलार से कहता है कि आओ, यह मेरा घर है लेकिन इसे तुम अपना ही समझो तो याद आता हैः हाँ, उसका तो अब कोई घर नहीं है उसी वक्त बगल से ठसाठस भरी एक रेलगाड़ी गुजरती है हर डिब्बे से उठती है रुदन की आवाज मातम है कि कभी खत्म ही नहीं होता रेल की सीटी और धड़-धड़ की आवाज भी उसी मातम का हिस्सा हो जाती है टूट चुके हैं आँसुओं के नियम अवसाद एक नैतिक सूचना भी नहीं देता और जुट जाता है भीतर की तलाशी में उदासी अपने सूनेपन में सब देखती रहती है चुपचाप कि लोहे और सोने पर जंग लग रहा है एक साथ गुम हुई चीजें कहीं मिलती भी हैं तो पहचान में नहीं आतीं आदमियों के बारे में यह बयान पहले ही दिया जा चुका है अंत में वे बच्चों को अपनी त्रासदियाँ किसी कहानी की तरह सुनाते हैं और उसे अधूरा छोड़ देते हैं क्योंकि यह अधूरी ही है वे कहते हैं- यह अब उस तरह पूरी होगी जैसे मेरे बच्चो, हम चाहेंगे और तुम चाहोगे।

एक कम है

अब एक कम है तो एक की आवाज कम है एक का अस्तित्व एक का प्रकाश एक का विरोध एक का उठा हुआ हाथ कम है उसके मौसमों के वसंत कम हैं एक रंग के कम होने से अधूरी रह जाती है एक तस्वीर एक तारा टूटने से भी वीरान होता है आकाश एक फूल के कम होने से फैलता है उजाड़ सपनों के बागीचे में एक के कम होने से कई चीजों पर फर्क पड़ता है एक साथ उसके होने से हो सकनेवाली हजार बातें यकायक हो जाती हैं कम और जो चीजें पहले से ही कम हों हादसा है उनमें से एक का भी कम हो जाना मैं इस एक के लिए मैं इस एक के विश्वास से लड़ता हूँ हजारों से खुश रह सकता हूँ कठिन दुःखों के बीच भी मैं इस एक की परवाह करता हूँ

एक सर्द शाम

(एक बुजुर्ग के साथ कुछ समय बिताने के बाद) संग-साथ की सीमाएँ होती हैं लेकिन अकेलेपन की कोई सीमा नहीं वह है अन्तरिक्ष की तरह रोज़ बढ़ाता अपनी परिधि एक काला विशाल खोखल जिसमें अनगिन ग्रह हैं और तारे मगर सब एक-दूसरे से लाखों मील दूर खुद की या दूसरे की रोशनी में चमकते या अपने ही अँधेरे में गुडुप गुरुत्वाकर्षण है अकेलेपन के इस विवर में जो खींच ही लेता है अपने भीतर और आप धँस जाते हैं किसी ब्लैक-होल में अकेले रह जाना कोई चुनाव, चाहत या इच्छा नहीं बस, आप अकेले रह जाते हैं जैसे किसी नियति की तरह लेकिन सोचोगे तो पाओगे कि यह एक बदली हुई संरचना है जो पेश आने लगी है नियति की तरह यह सब होता है इतने धीरे-धीरे कि अन्दाजा भी नहीं हो पाता एक दिन आप इस कदर अकेले रह जाएँगें यह एकान्त नहीं, अकेलापन है ।

कवि की अकड़

अपनी राह चलनेवाले कुछ कवियों के बारे में सोचते हुए यों तो हर हाल में ही कवियों को ज़िन्दा मारने की परम्परा है हाथी तक से कुचलवाने की निर्दयता है और समकाल में तो यह कहकर भी कि क्या पता वह ज़िन्दा है भी या नहीं ख़बर नहीं मिली कई महीनों से और मोबाइल भी है 'नॉट रीचेबल' किसी कार्यक्रम में वह दिखता नहीं और दिख जाए तो अचानक बीच में ही हो जाता है ग़ायब जब वह ख़ुद ही रहना चाहता है मरा हुआ तो कोई दूसरा उसे कैसे रख सकता है जीवित और वह है कि हर किसी विषय पर लिखता है कविता हर चीज़ को बदल देना चाहता है प्रतिरोध में और कहता है यही है हमारे समय का सच्चा विलाप वह विलाप को कहता है यथार्थ वह इतिहास लिखता है, भविष्य लिखता है और कहता है वर्तमान वह लिंक रोड पर भी फुटपाथ पर नहीं चलता और हाशिए पर भी चलता है तो ऐसे जैसे चल रहा हो केन्द्र में कि हम आई० ए० एस० या एस० पी० या गुण्डे की और पार्टी जिलाध्यक्ष और रिपोर्टर की अकड़ सहन करते ही आए हैं लेकिन एक कवि की अकड़ की आदत रही नहीं और फिर क्यों करें उसे बर्दाश्त क्या मिलेगा या उससे क्या होगा बिगाड़ और वह कभी लिखने लगता है कहानी कभी उपन्यास फिर अचानक निबन्ध या कुछ डायरीनुमा कभी पाया जाता है कला-दीर्घाओं में, भटकता है गलियों में और न जाने कहाँ से क्या कमाता है जबकि करता कुछ नहीं किसी से माँगता भी नहीं इसी से सन्दिग्ध है वह और उसका रोज़गार सन्दिग्ध नहीं है सेबी और शेयर बाज़ार सन्दिग्ध नहीं बिल्डर, विधायक और ठेकेदार सन्दिग्ध नहीं मालिक, सम्पादक और पत्रकार सन्दिग्ध नहीं आलोचक, निर्णायक और पुरस्कार सन्दिग्ध नहीं पटवारी, न्यायाधीश और थानेदार सन्दिग्ध नहीं कार्पोरेट, प्रमुख सचिव और सरकार सन्दिग्ध है बस कवि की ठसक और उसका कविता-संसार जबकि एक वही है जो इस वक़्त में भी अकड़ रहा है जब चुम्मियों की तरह दिए जा रहे हैं पुरस्कार जैसे देती हैं अकादेमियाँ और पिताओं के स्मृति-न्यास नाना-प्रकार जैसे देते हैं वे लोग जिनका कविता से न कोई लेना-देना न कोई प्यार तो परिषदों, संयोजकों, जलसाघरों के नहीं है कोई नियम और मुसीबजदा होते जाते कवियों का भी नहीं कोई नियम लेकिन वही है जो कहता है कि आपके देने के हैं कुछ नियम तो जनाब, मेरे लेने के भी हैं कुछ नियम वह ऐसे वक़्त में अकड़ में रहता है जब चाहते हैं सब कि कवि चुपचाप लिखे कविता और रिरियाए जहाँ बुलाया जाए वहाँ तपाक से पहुँच जाए न किराया माँगे, न भत्ता, न रॉयल्टी, न सवाल उठाए बस सौ-डेढ़ सौ एम० एलओ में दोहरा हो जाए वह दुनिया भर से करे सवाल लेकिन अपनी बिरादरी में उसकी ताक़त कम हो जाए आख़िर में कहना चाहता हूँ कि यदि उसकी कविता में हम सबकी कविता मिलाने से कुछ बेहतरी हो तो मिला दी जाए यदि बदतरी होती हो तो हम सबकी कविता मिटा दी जाए लेकिन एक कवि की ठसक को रहने दिया जाए कि वही तो है जो बिलकुल ठीक अकड़ता है कि वही तो है जिसके पास कोई अध्यादेश लाने की ताक़त नहीं कोई वर्दी या कुर्सी नहीं और मौक़े-बेमौक़े के लिए लाठी तक नहीं फिर भी एक वही तो है जो बता रहा है कि अकड़ना चाहिए कवियों को भी इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि वह कविता की बची-खुची अकड़ है जीवन पर निर्बल की सच्ची पकड़ है ।

कहीं भी कोई कस्बा

अभी वसंत नहीं आया है पेड़ों पर डोलते हैं पुराने पत्ते लगातार उड़ती धूल वहाँ कुछ आराम फरमाती है एक लम्बी दुबली सड़क जिसके किनारे जब-तब जम्हाइयाँ लेती दुकानें यह बाज़ार है आगे दो चौराहे एक पर मूर्ति के लिए विवाद हुआ था दूसरी किसी योद्धा की है नहीं डाली जा सकती जिस पर टेढ़ी निगाह नाई की दुकान पर चौदह घंटे बजता है रेडियो पोस्ट-मास्टर और बैंक-मैनेजर के घर का पता चलता-फिरता आदमी भी बता देगा उधर पेशाब से गलती हुई लोकप्रिय दीवार जिसके पार खंडहर, गुम्बद और मीनारें ए.टी.एम. ने मंदिर के करीब बढ़ा दी है रौनक आठ-दस ऑटो हैं रिेक्शेवालों को लतियाते तांगेवालों की यूनियन फेल हुई ट्रैक्टरों, लारियों से बचकर पैदल गुज़रते हैं आदमी खाँसते-खँखारते अभी-अभी ख़तम हुए हैं चुनाव दीवारों पर लिखत और फटे पोस्टर बाक़ी गठित हुई हैं तीन नई धार्मिक सेनाएँ जिनकी धमक है बेरोज़गार लड़कों में चिप्स, नमकीन और शीतल पेय की बहार है पुस्तकालय तोड़कर निकाली हैं तीन दुकानें अस्पताल और थाने में पुरानी दृश्यावलियाँ हैं रात के ग्यारह बजने को हैं आखिरी बस आ चुकी चाय मिल सकती है टाकीज़ के पास पुराना तालाब, बस स्टैंड, कान्वेंट स्कूल, नया पंचायत भवन, एक किलोमीटर दूर ढाबा और हनुमान जी की टेकरी दर्शनीय स्थल हैं।

कुछ समुच्चय

स्मृति की नदी वह दूर से बहती आती है गिरती है वेग से उसीसे चलती हैं जीवन की पनचक्कियाँ वसंत-1 दिन और रात में नुकीलापन नहीं है मगर कहीं कुछ गड़ता है वसंत-2 भूलती नहीं उड़ती सूखी पत्तियाँ अमर है उनकी उड़ान वसंत-3 पीले, सूखे पत्तों के नीचे कुचला गया हूँ मैं इंटरमीडियेट परीक्षा परिणाम बच्चे युवा दिखने लगे हैं वे अज्ञात सफर के लिए बाँध रहे हैं सामान प्रार्थना एक शरणस्थली संभव अपराध के पहले या फिर उसके बाद राष्ट्रीयता दीवार पर लगे बल्ब को देखता हूँ मैं और सोचता हूँ एडीसन की राष्ट्रीयता के बारे में लोकतंत्र आखिर एक आदमी जनता को कर ही लेता है अपने नियंत्रण में बाँसुरी से वक्त आये तो बीच में ही बाँसुरी बजाना छोड़कर उस बाँसुरी से भगाना पड़ सकता है कुत्ते को कमाई मैं उस तरह पाना चाहता हूँ तुम्हारा प्रेम जैसे कभी प्यासे कौए ने कमाया था घड़े में रखा तलहटी का जल आमंत्रण अमावस की तारों भरी रात में निष्कंप पोखर अधेड़ावस्था दो बच्चे धूल में खेलते, गिरते-उठते मैं उन्हें देखता हूँ, सिर्फ देखता हूँ कविता वह तुम्हें मरुस्थल या सुरंग के पार ले जाती है और अकसर छोड़ देती है किसी अज़ायबघर में. दुख (चेखव के एक सौ बरस बाद) आदमी, गाय, बैल, घोड़ा, चिड़िया, मेरे आसपास कोई नहीं इस मोटरसाइकिल से कैसे कहूँ अपना दुख विजेता घर में घुसते ही गिरता हूँ बिस्तरे पर यह एक दिन को जीत लेने की थकान है जाहिर सूचना प्रिय नागरिक! न्याय मुमकिन नहीं मुआवजे के लिए आवेदन कर सकते हैं जरावस्था जब हमारी गवाही देने की ताकत कम होने लगती है बचपन की आवाज टीन की चादरों पर बारिश की कर्कश आवाज वर्षों बाद यकायक सुनाई देती है संगीत की तरह विकास जो एक वर्ग किलोमीटर के दायरे में भी एक सरीखा नहीं है कवि का बीज पाँवों, बालों, पूँछों, पक्षियों की बीट और पंखों के साथ मैं महाद्वीपों को लाँघता हूँ

कुशलता की हद

यायावरी और आजीविका के रास्तों से गुज़रना ही होता है और जैसा कि कहा गया है इसमें कोई सावधानी काम नहीं आती बल्कि अकुशलता ही देती है कुछ दूर तक साथ जो कहते हैं: हमने यह रास्ता कौशल से चुना वे याद कर सकते हैं : उन्हें इस राह पर धकेला गया था जीवन रीतता चला जाता है और भरी बोतल का ढक्कन ठीक से खोलना किसी को नहीं आता अकसर द्रव छलक जाता है कमीज़ और पैण्ट की सन्धि पर छोटी सी बात है लेकिन गिलास से पानी पिए लम्बा वक़्त गुज़र जाता है हर जगह बोतल मिलती है जिससे पानी पीना भी है एक कुशलता जो निपुण हैं अनेक क्रियाओं में वे जानते ही हैं कि विशेषज्ञ होना नए सिरे से नौसिखिया होना है कुशलता की हद है कि एक दिन एक फूल को क्रेन से उठाया जाता है ।

जब एक पोस्टर का जीवन

जिन चीजों के लिए हमें एक मिनट का भी इंतजार नहीं करना चाहिए उनके लिए हम एक साल, दस साल, बीस साल न जाने कितने वर्षों तक इंतजार करते चले जाते हैं जैसे प्रतीक्षा करना भी जीवन बिताने का कोई उपाय है जब ऋतुओं के अंतराल में पतझर आता है हम आदतन अगले मौसम का इंतजार करने लगते हैं लेकिन देखते हैं हतप्रभ कि अरे, यह तो पलटकर वापस आ गया है पतझर सब कुछ नष्ट होते चले जाने के दृश्य चारों तरफ चित्रावली की तरह दिखते हैं मुड़कर देखने पर दूर तक कोई दिखाई नहीं देता न किसी के साथ चलने की आवाज आती है तो कुछ इच्छाएँ प्रकट होती हैं, कहती हैं हम अंतिम हैं हमें एक पुराना नीला फूल खिलते हुए देखने दो देर रात में उस लैम्पपोस्ट के नीचे से गुजरने दो दोस्त के साथ बचपन के शहर में रात का चक्कर लगाओ यह जानते हुए कि उस पौधे की प्रजाति खत्म हो चुकी है लैम्पपोस्ट का कस्बा कब का डूब में आ गया और दोस्त को गुजरे हुए बीत गया है एक जमाना इच्छाओं से कहता हूँ: तुम अंतिम नहीं हो, असंभव हो आगे चलते हुए वह एक अकेला बच्चा मिलता है जो रास्ते में मरी एक चिड़िया को देखकर इस तरह रोने बैठ जाता है जैसे जिंदगी में पहली ही बार अनाथ हुआ हो प्रतीक्षा भरी इस अनिश्चित दुनिया में वह भोर के तारे को उगता हुआ देखता है और उसे अस्त होते हुए भी वह समझ लेता है कि यतीम होते चले जाने के इस रास्ते से ही गुजरकर सबको निकलना है सभ्यता की राह में फिर दिखती हैं वे दीवारें जिन पर लगाये पोस्टर फाड़ दिए गए हैं दरअसल, चलते-चलते हम आ गए हैं उस जगह जहाँ एक पोस्टर तक का जीवन खतरे में है और सबको अंदाजा हो जाता है कि अब मनुष्यों का जीवन और ज्यादा खतरे में पड़ चुका है।

जिसे ढहाया नहीं जा सका

जिसे तुमने सचमुच गोली मार ही दी थी वह अब भी मुसकराता है तुम्हारे सामने दीवार पर तुम्हारे छापेख़ाने उसी की तस्वीर छापते हैं तुम दूसरे द्वीप में भी जाते हो तो लोग तुमसे पहले उसके समाचार पूछते हैं तब लगता है तुम्हें कि दरअसल तुम मरे हुए हो और वह ज़िन्दा है बुदबुदाते हुए हो सकता है तुम ग़ाली देते हो मन में लेकिन हाथ जोड़कर फूल चढ़ाते हो और फोटू खिंचाते हो तुम शपथ लेते हो वह सामने हाथ उठाए दिखता है तुम झूठ बोलते हो वह तुम्हारे आड़े आ जाता है घोषणापत्र में तुम विवश दोहराते हो उसी की घोषणाएँ अब तुमने ढहा दी है उसकी मूर्ति तो देखो सब तरफ़ सारे सवाल उसी मूर्ति के बारे में हो रहे हैं बार-बार दिखाई जा रही हैं उसी मूर्ति की तस्वीरें उसी चौराहे पर इकट्ठा होने लगे हैं तमाम पर्यटक जिन्हें बताया जाता है कि यहाँ, यहीं, हाँ, इसी जगह, वह मूर्ति थी ।

तसवीरें

आधी शताब्दी पुराने इस चित्र में दिख रहे हैं जो ये तीन लोग ये ही थे अपनी प्रजाति के आख़िरी जन 1963 के बाद ये फिर नहीं दिखे और यह उस तितली की तसवीर है जो लायब्रेरी की रद्दी में मिली अचानक लेकिन अब वह कहीं नहीं है इस संसार में जो प्रजातियाँ इधर-उधर लुक-छिपकर बिता रही है अपना गुरिल्ला जीवन जारी है उनका भी सफ़ाया विचारों का भी किया ही जा रहा है शिकार अब तो किसी विचार की तसवीर देखकर उसे पहचानना भी मुश्किल कि किस विचार की है यह तसवीर आखिर !

दृश्य

सामूहिक रुदन, विलाप, भूख, हाय-हाय बेबसी और छाती कूटने के कोलाज का विशाल दृश्य शून्य काल के ब्लैक-होल में अनायास ही हो जाता है विलीन अब सब तरफ सब कुछ ठीक है की साँय-साँय है मानो यह लोकप्रिय सिनेमा का कोई गद्गद् करुण दृश्य है जनपद के विशाल सिनेमा हॉल में बैठे हैं हम विमूढ़ कभी सुबकते हुए कभी बजाते हुए तालियाँ और फिर हँसते हुए यह सोच कर कि अरे यह तो है फिल्मी दृश्य ! आगे पटकथा यह है कि एक विचारवान की अहिंसा से भी नष्ट होता जा रहा है जरूरी जीवन लेकिन अगले अंक में तो हास-परिहास है विद्वान उछल रहे है सुविधाओं के स्प्रिंग पर उत्तेजित संज्ञाएँ, विशेषण, सर्वनाम और क्रियाएँ जैसे किसी हँसोड़ के संवाद और अभिनय अब इस दृश्य में भाषा के वृक्ष से झर रहे हैं विचार के पत्ते चैराहे पर बज रहा है पराक्रम का खाली कनस्तर हर आदमी एक दूसरे आदमी की जेब में पड़ा हुआ एक रिमोट एक छोटा-सा बटन है किसी मनुष्य की हत्या ऐसे में किसी-कवि नागरिक की राय का भला क्या अर्थ हो सकता है ? अब यह दो विलाप दृश्यों के अंतराल का दृश्य नहीं है न यह काव्यात्मक प्रस्तुति है न संगीत भरी पुकार न ही किसी अवश के स्यापे का री-टेक यह समय के छोटे-से तार पर दोनों तरफ लटके हुए केंचुए के जीवित शव को घूरे पर फेंके जाने का दृश्य है अब यही एक दृश्य है जो इस महादेश में एक क्षण में एक हजार बार फिल्माया जा रहा है।

दिक्क़त की शुरुआत

सोचो तो आख़िर आदमी के जीवन में रखा ही क्या है वह मुश्किल से रोता-तड़पता जन्म लेता है फिर रोज़-रोज़ बढ़ती ही जाती हैं उसकी मुश्किलें उन्हीं सबके बीच वह हंसता-गाता है, लड़ता-झगड़ता है और होता ही रहता है इस दुनिया से असहमत कभी-कभी बीच में दखल देकर वह कह देता है कि आदमी का जीवन ऐसा नहीं बल्कि ऐसा होना चाहिए नहीं तो आदमी ज़िन्दा रहते हुए भी मर जाता है यह कहते ही वह घिर जाता है चारों तरफ़ से घिरे हुए आदमी की फिर कभी कम नहीं होतीं मुसीबतें आदमी के जीवन में रखा ही क्या है आख़िर वह मरता तो है ही एक दिन लेकिन दिक्क़त यहाँ से शुरू होती है कि उसे हमेशा उस एक दिन से पहले ही मार दिया जाता है यह कह कर कि आख़िर आदमी के जीवन में रखा ही क्या है— एक धायँ के अलावा ।

धरती का विलाप

(फासिज्म मुर्दाबाद) दुख उठाने के लिए स्त्रियाँ ही बची रह जाती हैं मानो उनका जीवनचक्र हैः सुख देना, दुख सहना और नये दुखों की प्रतीक्षा करना पार्श्व में संगीत गूँजता है विलाप की तरह एकॉर्डियन और गिटार अपना काम करते हैं बंदूकें अपना विस्थापन की मुसीबत में नदी भी एक दिन आदमियों, गलियों और पेड़ों को घेर लेती है मगर बाढ़ में घिरी एक अकेली स्त्री किसी दूसरी जमीन पर जाने से इनकार कर देती है डूबते घर के सेहन में टूटी कुर्सी पर बैठकर निष्कंप देखती है गूँगा हाहाकार और मृत्यु जैसे वह जानती है कि नौकाएँ भी दुखों को इस पार से महज उस पार ही लेकर जा सकती हैं एक उम्रदराज़ घर प्रलय के बीच में खड़ा होकर अपनी खिड़कियों से परदे हटाकर झाँकता है लोगों की परछाइयाँ नदी की अतिशयोक्ति में झिलमिलाती हैं वह देखता है घर से बाहर कदम रखते ही हर जगह हर आदमी शरणार्थी हो जाता है खेल के मैदान में सूखते रहते हैं कपड़े ओस, नमी, आँसू और खून उन्हें पूरी तरह सूखने नहीं देते रंगशालाएँ और सभागार बदल जाते हैं शरणस्थलियों में ईर्ष्या, नफरत और क्रूरता अंतिम वक्त तक पीछा करती है सारे पात्र अभिनय करने की कोशिश कर रहे हैं केवल घटनाएँ हैं जो बिना अभिनय के घट रही हैं अचानक पति का साथ छूटता है तो याद आता है बेटा बचा है जब बेटा छूटता है तो याद आता है पति पहले ही छूट चुका है नृशंसता के युग में हर आकांक्षा, हर जगह बरबाद हो जाती है घरों के भीतर गृहस्थी का टूटा-फूटा सामान भी नहीं दिखता रात में सैक्सोफोन की आवाज बारिश को स्तब्ध करती है और औंधे मुँह गिरकर कीचड़ में सन जाती है गिटार से वायलिन की जुगलबंदी हवा में है लेकिन हवा में तैरती उमस हर संगीत को विफल कर देती है आदमी तकलीफें झेलता चला जाता है अपनी छाती पर और बैठे-बैठे ही या धीरे से लुढ़कते हुए अकस्मात सूचित करता हैः बस, बहुत हुआ अब रंगमंच पर खाली कुर्सियों का सूनापन उनकी आकांक्षा, उनका अवसाद आपके सामने है वहीं आप संगीत की उदासी में थिरक सकते हैं या लड़खड़ाकर गिर सकते हैं हाथ में हाथ डालकर चलते रहने से भी न अकेलापन खत्म हो पाता है, न निर्वासन, न भय लैम्प की रोशनी का उजास गिरता है जीवित चेहरों पर देख सकते हैं कि थकान और आतंक की स्याही अमर है प्रिय चीजें अधूरे स्वेटर की तरह उधड़ती रहती हैं सूखते सफेद चादरों पर बनते हैं उँगलियों के निशान जैसे कोरे कैनवस पर हल्के हाथों से लगाया जा रहा हो रक्तिम ब्रश नेपथ्य में से रेलगाड़ी शोकाकुल सवारियाँ ढोकर लाती है लाचारी का धुआँ पटकथा को काला कर देता है नदी किनारे और भूरी जमीन पर बिखरी लाशें करती हैं अपनों के रुदन का इंतजार और अपनी उन कब्रों का जो उन्हें कभी नसीब नहीं होतीं सुनसान पठारों पर भी गश्त जारी है जहाँ मरण का शोक मिट्टी में मिलकर धूल-धूसरित हो गया है दो प्रेमी, दो बच्चे, दो भाई चले जाते हैं अलग रास्तों पर एक स्त्री की मृत्यु उन्हें कुछ देर के लिए इकट्ठा करती है एक स्त्री अपने सन्निपात में अपना दुख बताने की कोशिश में बार-बार होती है नाकाम एक स्त्री उसे सांत्वना देते हुए अपने ही संताप में गिर पड़ती है एक स्त्री का अनश्वर आर्तनाद उठता है वही है अंत, वही है अनंत वही बचा रहता है। (थियो एंजेलोपोलस की फिल्म ‘द वीपिंग मीडो-2004’ के लिए आदरांजलि)

नमकहराम

जिस थाली में खाता है उसी को मारता है ठोकर जिस घर में रहता है उसी में लगाता है सेन्ध तुम याद करो, तुमने उसकी थाली में वर्षों तक कितना कम खाना दिया याद करो, तुमने उसे घर में उतनी जगह भी नहीं दी जितनी तिलचट्टे, चूहे, छिपकलियाँ या कुत्ते घेर लेते हैं ।

मध्यवर्गीय विजयवर्गीय

उनका सपना यही था कि तनख़्वाह से चला लूँगा घर-बार कभी सुन लूँगा संगीत, घूमूँगा-फिरूँगा, मिलूँगा-जुलूँगा सबसे लेकिन नामाकूल पैकेज देकर चलवाए जा रहे हैं उनसे तमाम बैंक, शो-रूम, मॉल, सुपर बाज़ार जहाँ बजता ही रहता है वह लोकप्रिय संगीत जो परिवार में भर देता है अटपटी रफ़्तार एक गजब का ज्वार इस तरह विजयवर्गीय हैं एक मध्यवर्गीय बेकरार एक अधूरे नागरिक, एक अधूरे ख़रीददार पूरा होने के लिए आज़ाद लेकिन चाकरी है चौदह घण्टे की वे आज़ाद हैं मगर उन्हें ऑफ़िस में ही मिलती है रोटी और चाय वे आज़ाद हैं लेकिन इन्द्रधनुष देखे गुज़र गए ग्यारह साल उधर बढ़ते ही जाते हैं अजीबो-ग़रीब सामान बनानेवाले कारख़ाने इधर खिड़की से ग़ायब हो जाते हैं खेत, नदियाँ, पेड़ और पहाड़ दिखने लगता है अट्टालिकाओं का कबाड़ उनके घर में भी जुटता चला जाता है सामान-दर-सामान इतना कि वे समझ जाते हैं यदि एक शब्द भी बोले ख़िलाफ़ तो उनके पास खोने के लिए कितना कुछ है एक साथ ।

मृतकों की याद

क्षमा करें, यहाँ इस बैठक में मैं कुछ नहीं कह पाऊँगा मृतकों को याद करने के मेरे पास कुछ दूसरे तरीके हैं यों भी साँवला पत्थर, बारिश, रेस्तराँ की टेबुल, आलिंगन, संगीत का टुकड़ा, साँझ की गुफ़ा और एक मुस्कराहट ये कुछ चीज़ें हैं जो मृतक को कभी विस्मृत होने नहीं देतीं विज्ञापन, तस्वीरें, लेख और सभाएँ साक्षी हैं कि हम मृतकों के साथ नए तरीकों से मज़ाक कर सकते हैं या इस तरह याद करते हैं ख़ुद का बचे रहना धीमी रोशनियों में ज्यादा साफ़ दिखाई देता है ओस और कोहरा हमारे भीतर पैदा करते हैं नए रसायन, नई इच्छाएँ जब धूप खिलती है तो मृतकों की परछाइयाँ साथ में चलती हैं कोई उस तरह नहीं मरता है कि हमारे भीतर से भी वह मर जाए जान ही जाते हैं कि समय किसी दुख को दूर नहीं करता वह किसी मुहावरे की सांत्वना भर है जबकि स्मृति अधिक ठोस पत्थर की तरह शरीर में कहीं न कहीं पड़ी ही रहती है जब शिराएँ कठोर होने लगती हैं यकृत और हृदय वजनी हो जाता है किडनी की तस्वीर में पाए जाते हैं पत्थर और हम देखते हैं कि गुज़र गए लोगों की स्मृतियाँ अन्तरंग हैं धीरे-धीरे फिर हर चीज़ पर धूल जमने लगती है कुम्हला जाते हैं प्लास्टिक के फूल भी शब्द चले जाते हैं विस्मृति में और सार्वजनिक जीवन में आपाधापी, दार्शनिकता, चमक और हँसी भर जाती है तब स्मृति एकान्त की माँग करती है जैसे कोई अन्तरंग प्रेम ।

मृत्युलोक और कुछ पंक्तियॉं

इसी संसार की भीड़ में दिखा वह एक चेहरा, जिसे भूला नहीं जा सकता। तमाम मुखौटों के बीच सचमुच का चेहरा। या हो सकता है कि वह इतने चेहरों के बीच एक शानदार मुखौटा रहा हो। उस चेहरे पर विषाद नहीं था जबकि वह इसी दुनिया में रह रहा था। वहाँ प्रसन्नता जैसा कुछ भाव था लेकिन वह दुख का ठीक विलोम नहीं था। लगता था कि वह ऐसा चेहरा है जो प्रस्तुत दुनिया के लिए उतना उपयुक्त नहीं है। लेकिन उसे इस चेहरे के साथ ही जीवन जीना होगा। वह इसके लिए विवश था। उसके चेहरे पर कोई विवशता नहीं थी, वह देखने वाले के चेहरे पर आ जाती थी। वह बहुत से चेहरों से मिल कर बना था। उसे देख कर एक साथ अनेक चेहरे याद आते थे। वह भूले हुए लोगों की याद दिलाता था। वह अतीत से मिलकर बना था, वर्तमान में स्पंदित था और तत्क्षण भविष्य की स्मृति का हिस्सा हो गया था। वह हर काल का समकालीन था। वह मुझे अब कभी नहीं दिखेगा। कहीं नहीं दिखेगा। उसके न दिखने की व्यग्रता और फिर उत्सुकता यह संभव करेगी कि वह मेरे लिए हमेशा उपस्थित रहे। उसका गुम हो जाना याद रहेगा। यदि वह कभी असंभव से संयोग से दिखेगा भी तो उसका इतना जल बह चुका होगा और उसमें इतनी चीजें मिल चुकी होंगी कि वह चेहरा कभी नहीं दिखेगा। हर चीज का निर्जलीकरण होता रहता है, नदियों का, पृथ्वी का और चंद्रमा का भी। फिर वह तो एक कत्थई-भूरा चेहरा ही ठहरा। उसे देख कर कुछ अजीवित चीजें और भूदृश्य याद आये। एक ही क्षण में: लैम्पपोस्टों वाली रात के दूसरे पहर की सड़क। कमलगट्टों से भरा तालाब। एक चारखाने की फ्रॉक। ब्लैक एंड व्हाईट तसवीरों का एलबम। बचपन का मियादी बुखार। स्टूल पर काँच की प्लेट और उसमें एक सेब। एक छोटा सा चाकू। छोटी सी खिड़की। और फूलदान। उस स्वप्न की तरह जिसे कभी नहीं पाया गया। जिसे देखा गया लेकिन जिसमें रहकर कोई जीवन संभव नहीं। कुछ सपनों का केवल स्वप्न ही संभव है। वह किसी को भी एक साथ अव्यावहारिक, अराजक, व्यथित और शांत बना सकता था। वह कहीं न कहीं प्रत्यक्ष है लेकिन मेरे लिए हमेशा के लिए ओझल। कई चीजें सिर्फ स्मृति में ही रहती हैं। जैसे वही उनका मृत्युलोक है।

यदि तुम नहीं माँगोगे न्याय

यह विषयों का अकाल नहीं है यह उन बुनियादी चीज़ों के बारे में है जिन्हें थककर या खीझकर रद्दी की टोकरी में नहीं डाला जा सकता जैसे कि न्याय — जो बार-बार माँगने से ही मिल पाता है थोड़ा-बहुत और न माँगने से कुछ नहीं, सिर्फ अन्याय मिलता है मुश्किल यह भी है कि यदि तुम नहीं माँगोगे तो वह समर्थ आदमी अपने लिए माँगेगा न्याय और तब सब मजलूमों पर होगा ही अन्याय कि जब कोई शक्तिशाली या अमीर या सत्ताधारी लगाता है न्याय की गुहार तो दरअसल वह एक वृहत्, ग्लोबल और विराट अन्याय के लिए ही याचिका लगा रहा होता है ।

यह ज़्यादा बहुत ज़्यादा है

कुछ लोगों के पास हर चीज़ ज़रूरत से बहुत ज़्यादा है वे लोग ही जगह-जगह दिखते हैं बार-बार उनमें बार-बार दिखने की सामर्थ्य ज़्यादा है वे लोग दिन-रात बने रहते हैं अख़बारों में, टेलिविजन में, हमारी बातचीत में, सरकारी चिन्ताओं में अनेक रहने लगे हैं पाठ्य-पुस्तकों में और विद्यार्थियों की इच्छाओं में घर से बाहर निकलने पर भी वे दिखते हैं चौराहों पर, अस्पतालों में, रेस्तराँ में, और सुलभ कॉम्पलेक्स के पोस्टरों में भी सार्वजनिक जगहें अब उनकी हैं पार्क में उनके क्लब की मीटिंग चलती है सड़कों पर गड़ जाते हैं उनके तम्बू बचे हुए पेड़ों की छाया उनकी है सूखती नदियों का पानी उनका बच्चों के खिलौनों पर उन्हीं की तसवीरें सस्ती से सस्ती टी-शर्ट पर भी लिखा है उनका नाम हर विज्ञापन में उनके परफ़्यूम की ख़ुशबू ये वे ही हैं जिनके पास सब कुछ ज़रूरत से बहुत ज़्यादा है कपड़े ज़्यादा हैं, गहने और क्रॉकरी ज़्यादा, घड़ियों-चश्मों की भरमार, जूतों की अलग अलमारियाँ, अण्डरवियर्स और एअर कण्डीशनर्स ज़्यादा हैं बँगले-मकान, ज़मीनें, कार-मोटर, फ़र्नीचर ज़्यादा, शेयर्स, कम्पनियाँ, शो-रूम्स, बैंक बैलेंस ज़्यादा, नगदी ज़्यादा, एलेडी, कम्प्यूटर, मोबाइल ज़्यादा, मुश्किल यह नहीं कि बहुत ज़्यादा लगनेवाला यह विवरण ज़्यादा है मुश्किल यह है कि उनका यह बहुत ज़्यादा, कानून के मुताबिक है मुश्किल यह है कि यह नियमों के अनुसार है और बहुत ज़्यादा है ।

यह राख है

इसका रंग राख का रंग है इसका वजन राख का वजन है जब सारी गंध उड़ जाती हैं तो राख की गंध बची रहती है इसे मुट्‍ठी में भरो यह एक देह है इसे छोड़ो, यह धीरे-धीरे झरेगी और हथेली में, लकीरों में बची रहेगी हर क्रूरता, अपमान, प्रेम और संपूर्णता के बाद यही राख है जो उड़कर आँखों में भरती है इसे नदी में फेंक दो या खेतों में इसे पहाड़ों पर फेंक दो या समुद्र में यह हमेशा बनी रहती है खून में, हड्‍डियों में, नींद में

रास्ते की मुश्किल

आप मेज को मेज तरह और घास को घास की तरह देखते हैं इस दुनिया में से निकल जाना चाहते हैं चमचमाते तीर की तरह तो मुश्किल यहाँ से शुरू होती है कि फिर भी आप होना चाहते हैं कवि कुछ पुलिस अधीक्षक होकर, कुछ किराना व्यापारी संघ अध्यक्ष होकर और कुछ तो मुख्यमंत्री होकर, कुछ घर-गृहस्थी से निबट कर बच्चों के शादी-ब्याह से फारिग होकर होना चाहते हैं कवि कि जीवन में कवि न होना चुन कर भी वे सब हो जाना चाहते हैं कवि कवि होना या वैसी आकांक्षा रखना कोई बुरी बात नहीं लेकिन तब मुमकिन है कि वे वाणिज्यिक कर अधिकारी या फूड इंस्पेक्टर नहीं हो पाते जैसे तमाम कवि तमाम योग्यता के बावजूद तहसीलदार भी नहीं हुए जो हो गए वे नौकरी से निबाह नहीं पाए और कभी किसी कवि ने इच्छा नहीं की और न अफसोस जताया कि वह जिलाधीश क्यों नहीं हो पाया और कुछ कवियों ने तो इतनी जोर से लात मारी कि कुर्सियाँ कोसों दूर जाकर गिरीं यह सब पढ़-लिख कर, और जान कर भी, हिन्‍दी में एम ए करके, विभागाध्यक्ष हो कर या फिर पत्रकार से संपादक बन कर कुछ लोग तय करते हैं कि चलो, अब कवि हुआ जाए और जल्दी ही फैलने लगती है उनकी ख्‍याति कविताओं के साथ छपने लगती हैं तस्वीरें फिर भी अपने एकांत में वे जानते हैं और बाकी सब तो समझते ही हैं कि जिन्हें होना होता है कवि, चित्रकार, सितारवादक या कलाकार उन्होंने गलती से भी नहीं सोचा होता है कि वे विधायक हो जाएँ या कोई ओहदेदार या उनकी भी एक दुकान हो महाराणा प्रताप नगर में सरेबाजार तो आकांक्षा करना बुरा नहीं है यह न समझना बड़ी मुश्किल है कि जिस रास्ते से आप चले ही नहीं उस रास्ते की मंजिल तक पहुँच कैसे सकते हैं।

वहाँ एक फूल खिला हुआ है

वहाँ एक फूल खिला हुआ है अकेला कोई उसे छू भी नहीं रहा है किसी सुबह शाम में वह झर जाएगा लेकिन देखो, वह खिला हुआ है शताब्दियों से बारिश, मिट्टी और यातनाओं को जज्ब करते हुए एक पत्थर भी वहाँ किसी की प्रतीक्षा में है आसपास की हर चीज इशारा करती है तालाब के किनारे अँधेरी झाड़ियों में चमकते हैं जुगनू दुर्दिनों के किनारे शब्द मुझे प्यास लग आई है और यह सपना नहीं है जैसे पेड़ की यह छाँह मंजिल नहीं यह समाज जो आखिर एक दिन आजाद होगा उसकी संभावना मरते हुए आदमी की आँखों में है असफलता मृत्यु नहीं है यह जीवन है, धोखेबाज पर भी मुझे विश्वास करना होगा निराशाएँ अपनी गतिशीलता में आशाएँ हैं 'मैं रोज परास्त होता हूँ' - इस बात के कम से कम बीस अर्थ हैं यों भी एक-दो अर्थ देकर टिप्पणीकार काफी कुछ नुकसान पहुँचा चुके हैं गणनाएँ असंख्य को संख्या में न्यून करती चली जाती हैं सतह पर जो चमकता है वह परावर्तन है उसके नीचे कितना कुछ है अपार शांत, चपल और भविष्य से लबालब भरा हुआ।

विस्मृति

(पिता के लिए) एक दिन गड्डमड्ड होने लगती हैं चीज़ें, क्रियाएँ, नाम, चेहरे और सुपरिचितताएँ फिर तुम स्मृति का पीछा करते हो जैसे बचपन की उस नदी का जो अब निचुड़ गई है और हाँफते हुए समझने की कोशिश करते हो कि विस्मृति ही अन्तिम अभिशाप है या कोई वरदान कुछ याद करना चाहते हो तो एक परछाईं-सी दिखती है जो विलीन हो जाती है किसी दूसरी परछाईं में इस अनुभव के आगे सारे दुख फीके हैं और बीत चुके हैं दूर कहीं तुम उनकी तरफ़ देखकर मुस्करा सकते हो लेकिन उनके मुखड़े याद नहीं आते यही असहायता है, इतनी ही शेष रह गई है ताक़त ईर्ष्याएँ याद नहीं आ रहीं, क्रोध के सूर्य अस्ताचल हुए प्रेम के चन्द्रमा डूब गए, वासनाएँ जारी हैं जाने कैसे बची रह गई है स्पर्श की आदिम स्मृति किसी को न पहचानने से अब कोई अपमानित नहीं होता अगर पहचान लो तो वह अप्रतिम ख़ुशी से भर जाता है कोरी हो चली स्लेट पर लिखी जा रही हैं नई इबारतें और सबक हैं कि याद नहीं रह पाते ।