हिंदी कविताएँ : केदारनाथ अग्रवाल

Hindi Poetry : Kedarnath Agarwal



यह धरती है उस किसान की

यह धरती है उस किसान की जो बैलों के कंधों पर बरसात घाम में, जुआ भाग्य का रख देता है, खून चाटती हुई वायु में, पैनी कुसी खेत के भीतर, दूर कलेजे तक ले जा कर, जोत डालता है मिट्टी को, पांस डाल कर, और बीज फिर बो देता है नये वर्ष में नयी फसल के ढेर अन्न का लग जाता है। यह धरती है उस किसान की। नहीं कृष्ण की, नहीं राम की, नहीं भीम की, सहदेव, नकुल की नहीं पार्थ की, नहीं राव की, नहीं रंक की, नहीं तेग, तलवार, धर्म की नहीं किसी की, नहीं किसी की धरती है केवल किसान की। सूर्योदय, सूर्यास्त असंख्यों सोना ही सोना बरसा कर मोल नहीं ले पाए इसको; भीषण बादल आसमान में गरज गरज कर धरती को न कभी हर पाये, प्रलय सिंधु में डूब-डूब कर उभर-उभर आयी है ऊपर। भूचालों-भूकम्पों से यह मिट न सकी है। यह धरती है उस किसान की, जो मिट्टी का पूर्ण पारखी, जो मिट्टी के संग साथ ही, तप कर, गल कर, मर कर, खपा रहा है जीवन अपना, देख रहा है मिट्टी में सोने का सपना, मिट्टी की महिमा गाता है, मिट्टी के ही अंतस्तल में, अपने तन की खाद मिला कर, मिट्टी को जीवित रखता है; खुद जीता है। यह धरती है उस किसान की!

वह चिड़िया जो

वह चिड़िया जो- चोंच मार कर दूध-भरे जुंडी के दाने रुचि से, रस से खा लेती है वह छोटी संतोषी चिड़िया नीले पंखों वाली मैं हूँ मुझे अन्‍न से बहुत प्‍यार है। वह चिड़िया जो- कंठ खोल कर बूढ़े वन-बाबा के खातिर रस उँडेल कर गा लेती है वह छोटी मुँह बोली चिड़िया नीले पंखों वाली मैं हूँ मुझे विजन से बहुत प्‍यार है। वह चिड़िया जो- चोंच मार कर चढ़ी नदी का दिल टटोल कर जल का मोती ले जाती है वह छोटी गरबीली चिड़िया नीले पंखों वाली मैं हूँ मुझे नदी से बहुत प्‍यार है।

राजनीति

राजनीति नंगी औरत है कई साल से जो यूरुप में आलिंगन के अंधे भूखे कई शक्तिशाली गुंडों को देश-देश के जो स्वामी हैं जो महान सेनाएँ रखते जो अजेय अपने को कहते ऐसा पागल लड़वाती है आबादी में बम गिरते हैं; दल की दल निर्दोषी जनता गिनती में लाखों मरती है; नष्ट सभ्यता हो जाती है- कभी किसी के, कभी किसी के, गले झूलकर मुसकाती है। हार-जीत के इस किलोल से संधि नहीं होने देती है॥ रचनाकाल: ०७-०२-१९४६

एका का बल

डंका बजा गाँव के भीतर, सब चमार हो गए इकट्ठा। एक उठा बोला दहाड़कर : “हम पचास हैं, मगर हाथ सौ फौलादी हैं। सौ हाथों के एका का बल बहुत बड़ा है। हम पहाड़ को भी उखाड़कर रख सकते हैं। जमींदार यह अन्यायी है। कामकाज सब करवाता है, पर पैसे देता है छै ही। वह कहता है ‘बस इतना लो’, ‘काम करो, या गाँव छोड़ दो।’ पंचो! यह बेहद बेजा है! हाथ उठायो, सब जन गरजो : गाँव छोड़कर नहीं जायँगे यहीं रहे हैं, यहीं रहेंगें, और मजूरी पूरी लेंगे, बिना मजूरी पूरी पाए हवा हाथ से नहीं झलेंगें।” हाथ उठाये, फन फैलाये, सब जन गरजे। फैले फन की फुफकारों से जमींदार की लक्ष्मी रोयी!! रचनाकाल: १२-०४-१९४६

क्या लाए!

लंदन गए-लौट आए। बोलौ! आजादी लाए? नकली मिली या कि असली मिली है? कितनी दलाली में कितनी मिली है? आधी तिहाई कि पूरी मिली है? कच्ची कली है कि फूली-खिली है? कैसे खड़े शरमाए? बोलौ! आजादी लाए? राजा ने दी है कि वादा किया है? पैथिक ने दी है कि वादा किया है? आशा दिया है दिलासा दिया है! ठेंगा दिखाकर रवाना किया है! दोनों नयन भर लाए! अच्छी आजादी लाए? रचनाकाल: २८-१२-१९४६

नेता

तुम्हारे पाँव देवताओं के पाँव हैं जो जमीन पर नहीं पड़ते हम वंदना करते हैं तुम्हारी नेता! रचनाकाल: २९-१२-१९६५

थैलीशाहों की यह बिल्ली

थैलीशाहों की यह बिल्ली बड़ी नीच है। मजदूरों का खाना-दाना, सब चोरी से खा जाती है। बेचारे भूखे सोते हैं!! थैलीशाहों का यह कुत्ता महादुष्ट है। मजदूरों की बोटी बोटी, खून बहाकर खा जाता है। बेचारे तड़पा करते हैं!! थैलीशाहों की यह संस्कृति, महामृत्यु है। कुत्ता बिल्ली से बढ़कर है। मानवता को खा जाती है। बेचारी धरती रोती है!! रचनाकाल: ०८-०९-१९४९

आग लगे इस राम-राज में

[१] आग लगे इस राम-राज में ढोलक मढ़ती है अमीर की चमड़ी बजती है गरीब की खून बहा है राम-राज में आग लगे इस राम-राज में [२] आग लगे इस राम-राज में रोटी रूठी, कौर छिना है थाली सूनी, अन्न बिना है, पेट धँसा है राम-राज में आग लगे इस राम-राज में। रचनाकाल: १८-०९-१९५१

मजदूर का जन्म

एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ ! हाथी सा बलवान, जहाजी हाथों वाला और हुआ ! सूरज-सा इन्सान, तरेरी आँखोंवाला और हुआ !! एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ! माता रही विचार, अँधेरा हरनेवाला और हुआ ! दादा रहे निहार, सबेरा करनेवाला और हुआ !! एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ ! जनता रही पुकार, सलामत लानेवाला और हुआ ! सुन ले री सरकार! कयामत ढानेवाला और हुआ !! एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ !

हमारे अफसर आदमखोर

टैक्सों की भरमार- हमारी करती है सरकार! जीवन का अधिकार- हमारी हरती है सरकार!! होती है कम आय, हमारा घटता है व्यवसाय! होता है अन्याय, हमारा लुटता है समुदाय!! करते हैं व्यभिचार- हमारे अफसर आदमखोर! हम तो हैं लाचार, हमारे अफसर हैं झकझोर!! गायें कैसे गान? हमारी दुर्बल है मुसकान! जीवन है अपमान, हमारी निर्बल है संतान!! रचनाकाल: १३-१०-१९५४

जनता का बल

मुझे प्राप्त है जनता का बल वह बल मेरी कविता का बल मैं उस बल से शक्ति प्रबल से एक नहीं-सौ साल जिऊँगा काल कुटिल विष देगा तो भी मैं उस विष को नहीं पिऊँगा! मुझे प्राप्त है जनता का स्वर वह स्वर मेरी कविता का स्वर मैं उस स्वर से काव्य-प्रखर से युग-जीवन के सत्य लिखूँगा राज्य अमित धन देगा तो भी मैं उस धन से नहीं बिकूँगा! रचनाकाल: २२-१०-१९५५

पैसा

पैसा दिमाग में वैसे सुअर जैसे हरे खेत में बाप अब बाप नहीं पैसा अब बाप है पैसे की सुबह और पैसे की शाम है दुपहर की भाग-दौड़ पैसा है पैसे के साथ पड़ी रात है रचनाकाल: ३०-०१-१९६९

विकास

विकास इस दिशा में हुआ है; अब बहुत आदमी बे-सिर पैर का हुआ है पीठ के नीचे धूल पड़ी है पेट पर आसमान खड़ा है हाथ के हल गिर पड़े हैं रचनाकाल: ३१-०१-१९६९

संसद और संविधान

संसद हो गई सर्वोपरि संविधान हो गया संशोधित धर्म निरपेक्ष हो गया लोकतंत्र समाजवादी हो गया भारत-भाग्य-विधाता, आम आदमी हो गए अनुशासित सिर पर लिए संसद और संविधान एक ही चाल और चरित्र से अनुबंधित जीने के लिए लघुत्तम इकाई से महत्तम इकाई होने के लिए अंततोगत्वा देश के लिए होम में हविष्य हो गए रचनाकाल: ०३-०८-१९७६

पुकार

ऐ इन्सानों! आँधी के झूले पर झूलो आग बबूला बन कर फूलो कुरबानी करने को झूमो लाल सवेरे का मूँह चूमो ऐ इन्सानों ओस न चाटो अपने हाथों पर्वत काटो पथ की नदियाँ खींच निकालो जीवन पीकर प्यास बुझालो रोटी तुमको राम न देगा वेद तुम्हारा काम न देगा जो रोटी का युद्ध करेगा वह रोटी को आप वरेगा!

पूरा हिन्दुस्तान मिलेगा

इसी जन्म में, इस जीवन में, हमको तुमको मान मिलेगा। गीतों की खेती करने को, पूरा हिन्दुस्तान मिलेगा। क्लेश जहाँ है, फूल खिलेगा, हमको तुमको ज्ञान मिलेगा। फूलों की खेती करने को, पूरा हिन्दुस्तान मिलेगा। दीप बुझे हैं जिन आँखों के, उन आँखों को ज्ञान मिलेगा। विद्या की खेती करने को, पूरा हिन्दुस्तान मिलेगा। मैं कहता हूँ, फिर कहता हूँ, हमको तुमको प्राण मिलेगा। मोरों-सा नर्तन करने को, पूरा हिन्दुस्तान मिलेगा।

लिपट गयी जो धूल

लिपट गयी जो धूल लिपट गयी जो धूल पांव से वह गोरी है इसी गांव की जिसे उठाया नहीं किसी ने इस कुठांव से। ऐसे जैसे किरण ओस के मोती छू ले तुम मुझको चुंबन से छू लो मैं रसमय हो जाऊँ!

तुम भी कुछ हो

तुम भी कुछ हो लेकिन जो हो, वह कलियों में रूप-गन्ध की लगी गांठ है जिसे उजाला धीरे धीरे खोल रहा है। यह जो नग दिये के नीचे चुप बैठा है, इसने मुझको काट लिया है, इस काटे का मंत्र तुम्हारे चुंबन में है, तुम चुंबन से मुझे जिला दो।

एक खिले फूल से

एक खिले फूल से झाड़ी के एक खिले फूल ने नीली पंखुरियों के एक खिले फूल ने आज मुझे काट लिया ओठ से, और मैं अचेत रहा धूप में

वह पठार जो जड़ बीहड़ था

वह पठार जो जड़ बीहड़ था कटते-कटते ध्वस्त हो गया, धूल हो गया, सिंचते-सिंचते, दूब हो गया, और दूब पर वन के मन के- रंग -रूप के, फूल खिल उठे, वन फूलों से गंध-गंध संसार हो गया।

समुद्र वह है

समुद्र वह है जिसका धैर्य छूट गया है दिककाल में रहे-रहे ! समुद्र वह है जिसका मौन टूट गया है, चोट पर चोट सहे-सहे !

घोड़े का दाना

सेठ करोड़ीमल के घोड़े का नौकर है भूरा आरख।– बचई उसका जानी दुश्मन! हाथ जोड़कर, पाँव पकड़कर, आँखों में आँसू झलकाकर, भूख-भूख से व्याकुल होकर, बदहवास लाचार हृदय से, खाने को घोड़े का दाना आध पाव ही बचई ने भूरा से माँगा। लेकिन उसने बेचारे भूखे बचई को, नहीं दिया घोड़े का दाना; दुष्ट उसे धक्का ही देता गया घृणा से! तब बचई भूरा से बोला : ‘पाँच सेर में आध पाव कम हो जाने से घोड़ा नहीं मरेगा भूखा; वैसे ही टमटम खींचेगा; वैसे ही सरपट भागेगा; आध पाव की कमी न मालिक भी जानेगा; पाँच सेर में आध पाव तो यों ही भूरा! आसानी से घट जाता है; कुछ धरती पर गिर जाता है; तौल-ताल में कुछ कमता है; कुछ घोड़ा ही, खाते-खाते,- इधर उधर छिटका देता है। आध पाव में भूरा भैया! नहीं तुम्हारा स्वर्ग हरेगा नहीं तुम्हारा धर्म मिटेगा; धर्म नहीं दाने का भूखा!- स्वर्ग नहीं दाने का भूखा!- आध पाव मेरे खाने से कोई नहीं अकाल पड़ेगा।’ पर, भूरा ने, अंगारे सी आँख निकाले, गुस्से से मूँछें फटकारे, काले नोकीले काँटों से, बेचार बचई के कोमल दिल को छलनी छलनी कर ही डाला। जहर बूँकता फिर भी बोला : ‘नौ सौ है घोड़े का दाम!- तेरा धेला नहीं छदाम। जा, चल हट मर दूर यहाँ से।’ अपमानित अवहेलित होकर, बुरी तरह से जख्मी होकर, अब गरीब बचई ने बूझा : पूँजीवादी के गुलाम भी बड़े दुष्ट हैं;- मानव को तो दाना देते नहीं एक भी, घोड़े को दाना देते हैं पूरा; मृत्यु माँगते हैं मनुष्य की, पशु को जीवित रखकर! रचनाकाल: १२-०४-१९४६

खेल-खेल में उड़ा

खेल-खेल में उड़ा, पहुँचा- फट गया- आकाश में रंगीन गुब्बारा खुशी का। जिसने उड़ाया आकाश में पहुँचाया वह हुआ फिर गरीब बाप का गरीब बेटा- दुःख दर्द का चहेटा। रचनाकाल: १८-१२-१९७९

गाँव की सड़क

गाँव की सड़क शहर को जाती है, शहर छोड़कर जब गाँव वापस आती है तब भी गाँव रहता है वही गाँव, काँव-काँव करते कौओं का गाँव। रचनाकाल: १०-०१-१९८०

उनको महल-मकानी

उनको महल-मकानी हमको छप्पर-छानी उनको दाम-दुकानी हमको कौड़ी कानी सच है यही कहानी सबकी जानी-मानी रचनाकाल: ११-०१-१९८० / ११-०६-१९९०

सभी तो लड़ते हैं

सभी तो लड़ते हैं लड़ाइयाँ अस्तित्व की व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति की इससे उससे हमसे तुमसे शब्द और अशब्द से अर्थ और अनर्थ से तुरीय और सुषुप्ति से आदमी होने के लिए अमर्त्य जीने के लिए। रचनाकाल: २७-०१-१९८०

अजेय ही अड़े रहो

मेरे तन तने रहो आँधी में-आह में दृढ़-से-दृढ़ बने रहो शाप से प्रताड़ित भी व्यंग्य से विदारित भी मेरे तन खड़े रहो आफत में आँच से अजेय ही अड़े रहो रचनाकाल: ०१-०९-१९५६

दिन बीत गया

दिन, बीत गया, अब रीत गया, जमुना-जल के छलके-छलके मृग-मारुत के पग से चलके हलके-हलके बिजना झलके रचनाकाल: ०७-०२-१९५६

चुप

चुप भी एक पौधा है पत्थर का बना हुआ आँसू पर उगा हुआ दीपक पर खड़ा हुआ वायु चली, लेकिन वह उड़ा नहीं ठंड पड़ी, लेकिन वह गला नहीं रात हुई, लेकिन वह सोया नहीं सुबह हुई, लेकिन वह जगा नहीं बीते दिन, लेकिन वह खोया नहीं बोलता है, लेकिन इस धीरे से कि उसको हम सुनते नहीं, सुनने का प्रयास करें तब भी सुन सकते नहीं। रचनाकाल: ०९-०३-१९५७

तुम कुछ हो

तुम भी कुछ हो लेकिन जो हो वह कलियों में- रूप-गंध की लगी गाँठ है जिसे उजाला धीरे-धीरे खोल रहा है। रचनाकाल: २५-०३-१९५८

कुछ नहीं करता कोई

कुछ नहीं करता कोई और करते सब हैं कुछ न कुछ किए-न-किए के बराबर। कुछ नहीं जीते कोई और जीते सब हैं कुछ-न-कुछ जिए-न-जिए के बराबर। कुछ नहीं होते कोई और होते सब हैं कुछ-न-कुछ हुए-न-हुए के बराबर। रचनाकाल: १३-१०-१९६८

कुछ नहीं कर पा रहे तुम

कुछ नहीं कर पा रहे तुम करने के काम से उनकी तरह कतरा रहे तुम; न किए का बोध गर्भ की तरह असमय गिरा रहे तुम; गर्व से ढमाढम ढोल खोखला बजा रहे तुम; दृष्टि में उठे अपनी दूसरों की दृष्टि में गिरे जा रहे तुम; कुछ नहीं कर पा रहे तुम सरेआम एक दूसरे को लतिया रहे तुम; पार्टी की फटफटिया फटफटा रहे तुम; देश को समाजवादी नहीं-- घटिया बना रहे तुम; जाल पर जाल फाँसने-फँसाने का बुनते चले जा रहे तुम; गर्त में गिरते आदमी को गिराते-- रसातल में और अधिक पहुँचाते चले जा रहे तुम। रचनाकाल: २४-०१-१९७४

प्रसारित हुआ है

प्रसारित हुआ है वरिष्ठ नेता का त्यागपत्र। अकारण टूटा है चुनाव के पूर्व सहकार; चालू हुआ है नया-नया विघटन; फूट ही पड़ा है लावा अग्नि पहाड़ के अन्दर से; डोल-डोल डोल गई राजनीति; व्याप गई जनता में हाड़-तोड़ हलचल; दौड़-दौड़ दौड़ पड़ी ओठों से कानों तक कहा-सुनी; नाच-नाच नाच उठीं समाचार पत्रों में सुर्खियाँ; धमाधम धड़की है, धड़ल्ले से धरती; तड़क-तड़क टूटे हैं-फूटे हैं बड़े-बड़े दर्प-देही दर्पण। रचनाकाल: ०२-०२-१९७७

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