हिन्दी कविताएँ : ज्योति कुंदर

Hindi Poetry : Jyoti Kundar


फिश एक्वेरियन

किया है मुझे बंद , काँच की दीवारों में सजाया है मेरे निवास को अनोखे पेड़ों, लताओं और गुल्मों से शंखों से, पत्थरों से नीले, पीले , लाल, हरे , सतरंगी कहीं बड़ा तो कहीं छोटा टुकड़े पत्थर के ही तो हैं बनाया है मेरे लिए अनुकूल वातावरण, मगर कृत्रिम........ इन्हें क्या मालूम है? मूल्य स्वाधीनता का स्वच्छंदता का .............. शायद है तभी तो आज़ाद किया खुद को फिजाँ से गुलामी की और अधिकार वृति का अहंकारमय परिचय दिया तभी तो मुक्त होकर बनाए बंदी । मैं लाख सर टकराऊँ , पर है असंभव फाँदना दीवार काँच की, है संभव पर, विगलित हो सड़-सड़ कर मर जाना चलते हुये सीधे-सीध में अचानक पड़ता है मुड़ जाना होती है कभी घृणा-वितृष्णा रूप पर अपने ही न होता यह , न होता कारावास कैसा है यह मनु-तनय रहना चाहे स्वयं स्वाधीन बनाकर दूसरों को आधीन विचरना चाहे स्वयं निरंकुश लगाकर दूसरों पर अंकुश उन्हे क्या अंदाज़ , विशाल, विराट की सत्ता का उन्हें क्या मालूम बनावट की सजावट हो नहीं पति सहज मुझे बंद कर सीखचों में आहे भरते देख मुझे होते है प्रफुल्लित, आनंदित मेरी अधीर, व्याकुल, व्यथा भरी चाल देखकर मान लेते हैं , मैं खुश हूँ , मस्त हूँ नहीं नहीं नहीं , ये भूल है तुम्हारी मुझे नहीं शांति सारी मुझे ले चलो और लौटा दो उसे थी मैं जिसकी , हूँ मैं जिसकी नहीं ................ शायद तुम ये न करो तुम्हारे किए धरे पर पानी फिर जाएगा कमरे की शोभा नष्ट हो जाएगी या फिर अपनी विशेष रुचि का परिचय क्या दोगे तो फिर ठीक है रहने दो मुझे इस काँच की दीवार में सलीके से जिसे तुम कहते हो फिश एक्वेरियन

सदा

दुश्मनी भी उतनी ही तल्खी से निभाते हैं बेफिक्री से जितनी दोस्ती हम उलझे हो अपनी ही चालों में तुम रहेंगे फिर भी सदा मिसालों में हम

प्रथमा

संभव कहाँ था आगे बढ़ना, कठिन बहुत था कुछ बनना श्रृंखलाओं में बंधी थी, वो रूढ़ियाँ बहुत बड़ी थीं तोड़ कर उनकी सीमाएं, कहाँ आसान था तारों को छूना पैरों में पड़ी थी परम्पराओं की बेड़ियाँ। पर सबसे पहले जो करे, उसका मोल अनमोल है जो बढ़ कर आगे, पहचान अपनी बनाए उसकी बात ही कुछ और है । तुमने न हार मानी, बधाएँ पार की सारी नारी तू नारायणी तू प्रथमा, तू अनन्या तू ही हमारी प्रेरणा

सपनों का शहर

कहते है यहाँ सपने बिकते हैं उम्मीदों , हसरतों , ख़्वाहिशों के अच्छे दाम मिलते हैं कोई किसी से कुछ नहीं कहता लाख चाहे हो दम घुटता अपने दायरों में यूं सिमट कर रहते है भूले से मुस्कुरा दे तो खता समझते है सपनों के बोझ तले , ये शहर दम तोड़ रहा है भर गई हैं तमाम सड़के इस कदर आसमान में भी आरक्षण हो रहा है

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