हिंदी कविता हरदीप सबरवाल Hindi Poetry Hardeep Sabharwal



अश्लील कविता

जब जन्म लेती है कोई कविता तब वह नंगी ही होती है, किसी सोच में उधड़ते नग्न विचारो सी, फिर भी ना जाने क्यों हमें कविताओं को आवरणो में ढकने की आदत हो गई है, सुना है नग्नता या तो कलात्मक नजर आती है, या फिर अश्लील पर कहाँ होता है कुछ कलात्मक सा भूखे पेट का किस्सा कहती कविता में, कि भ्रष्टाचार की बात करती कविता नहीं दंभ भरती किसी कलाकारी का, कविताऐ जब न्याय मांगने आगे आती है तब वो अन्याय सी ही नंग-धड़ग किसी लाचार दलित उत्पीड़न सी दौड़ती है सड़क के बीचोबीच नारी के नंगे जिस्म से शुरू होकर पुरूष की नगीं सोच तक सिमटती है लिंग भेद की कथा कहती कविता, रहने दीजीऐ इस कविता को एक अश्लील कविता ही, कि क्रांतियाँ ना कभी कलात्मक हुई ना होगीं.

अजीब बात है

हमारे यहाँ सब कुछ आम सा है, घरो में जब तब घुस कर कोई वर्दी वाला, नहीं लेने लगता तलाशी और ना ही हमारे घर की औरतो की अल्मारीयों से उनके अधोवस्त्र निकाल कर उन्हे दीवारो की खूँटीयों पर टांग कर अपमानित करता है, हमारे खेतो में जब तब नही गिरते आसमान से गोले या जिंदा बंब और ना ही हमारे जिंदा बच्चे किसी जिंदा बंब को छूकर मर जाते है, या बीज देते है वो कोई ऐसी फसल, जिनमें से बंदूके पैदा हो, हमारे घरो में जवान हो रहे लड़को को यकायक सड़क पर चलते कोई गोली मार कर औंधे मुँह नही गिराता, ना ही कोई उन्हे आंतकवादी बता कर घरो से इस तरह नहीं ले जाता कि वो कभी वापस नही आते, पिछली सदी की बातें अब यहाँ नही घटती, कि हम शांतिप्रिय लोग है, लेकिन हम उतनी ही शिद्दत से अपमानित किऐ जाते है पोलिस थानो और चोंकीयो में जब हम अपनी जब तब अपमानित हुई किसी बेटी के लिऐ इंसाफ ढूंढने जाते है और उतनी ही निर्लज्जता से चरित्र हनन होते है हमारी बेटियों के, हमारे यहाँ किसान ना जाने क्या बीजते है कि फसल के साथ साथ कि उग जाते है तमाम कारण आत्म-हत्याओ के, नौकरी ढूंढने घर से निकलते हमारे यूवा ना जाने क्यूं साँझ ढलते ढलते औंधे मुँह किसी सुने पार्क में नशे में गर्त नजर आते है, हम लोग तुम लोगो से अलग है कि हम शांतिप्रिय है पर हम भी जाने क्यों हर पल डरे सहमे से रहते है, तुम्हारी तरह अनजानी आंशकाओ से घिरे अजीब बात है!

शतरंज की बिसात

प्यादे सब से पहले मारे जाते है उनका काम ही होता है राजा रानी की रक्षा करते मिट जाना हाथी, घोड़ो, ऊंटो की कीमती जान बचाना, खेल तब तक ही चलता है जब तक राजा है प्यादे एक कदम ही चल सकते है वे तिरछे नहीं जाते, लंबी छलांग नही लगाते, और ना ही राजा के मुहंलगे घोड़ो से ढाई घर चल सकते है, इतिहास की कहानियों में, तमाम तरह की चर्चाओ में और दूनियाँ की तमाम तहरीरो में समाचारो में छाऐ रहते है हाथी, घोड़े, ऊंट और राजा-वजीर, प्रेम कहानियो से लेकर विजय गौरव गाथाओ में राजतंत्र से लेकर लोकतंत्र की महान ईबारतो में प्यादे कहीं नहीं मिलते, वे दब जाते है चीन की दीवारो में, पिरामिडो के भारों में, महलो और किलों की बुनियादो में दंगो और फसादो में और तमाम तरह के शस्त्रो के वार सहते, प्यादे बस टिके रहते है अपने एक खाने में जब तक कि शासन-सत्ता का हाथ आगे बढ़ उन्हे.... कि प्यादे सब से पहले मारे जाते है..

भरी सभा में

यहाँ बात नहीं हो रही, महाभारत के समय की उस कुख्यात सभा की, जहाँ भरी सभा में द्रौपदी का जब चीरहरण हुआ, और कोई विरोध स्वर नहीं उठा सभा में, और अंधो के साथ आँखो वाले भी अंधे हो गऐ थे, तब द्रौपदी ने शपथ ली थी अपने बालो को दुशासन के खून से रंगने की, यहाँ बात नही हो रही, राम के राज्य की उस सभा की भी, जिसमें फैसला लिया गया था , सीता को वनवास देने का, और सारी की सारी उच्च नैतिक जुबाने गूंगी हो गई थी, शायद उसी पल में पनपा होगा फैसला, धरती में समा जाने का, यहाँ बात नही हो रही, धन-नन्द के दरबार की उस अभिमानी सभा की, जहाँ निरादर किया गया था योग्यता के कुरूप होने का, और कोई शब्द आगे नही आया विरोध को, तब ही शायद चाणक्य ने चंद्रगुप्त को तलाशने का फैसला कर, इतिहास रचने की शुरूआत की थी, यहाँ बात नहीं हो रही, राजपूताना दरबार की उस आन बान और शान की, जहाँ विष का प्याला दे दिया गया था, मीरा के हाथ में, और धर्म और प्रेम के परस्पर विरोधी होने पर जब मुहर लगी, और कोई नही था सभा में चीत्कार भरने वाला, तब ही शायद प्रेम ने खुद को अलग कर लिया था धर्म से, यहाँ बात नहीं हो रही, औरंगजेब के उस धर्मांध सभा की भी, धर्मांध खामोशी की, जहाँ गुरू तेग बहादुर ने सिर देकर भी धर्मांध्ता को हरा दिया था, फिर भी खामोश रही सारी सभा और तब ही शायद नींव रखी गई थी, पतन की पूरी सल्तनत की, यहाँ बात नही हो रही है, साऊथ-अफ्रीका के अंग्रेजो की उस सभा की, जहाँ गांधी को उठा कर नीचे फेंका गया, और कोई विरोध नहीं हुआ सभा में, तब ही शायद सफर शुरू हुआ, गाँधी से महात्मा बनने का, यहाँ बात नही हो रही, ब्रिटीश-भारत की उस न्यायिक सभा की, जहाँ मौत की सजा दी गई भगत सिंह और साथीओ को, और कोई विरोधी स्वर नहीं उठा सभा में, तब ही शायद आजादी की नींव रखी गई थी, यहाँ बात हो रही है, उस सभा की, जिसमें मैं भी हुं, आप भी हो, और है हमारे तमाम जानने वाले, यहाँ बात हो रही है उस सभा की, जिसमें लोकतंत्र है, सरकार है, राजनीति और विपक्ष भी है, यहाँ बात हो रही है, उस सभा की जिसमें बुद्धिजीवी है, विचारक है और सुधारक भी, यहाँ बात हो रही है, उस सभा की, जिसमें शक्तिशाली मीडीया है, समाचार चैनल है और पत्रकार भी, यहाँ बात हो रही है उस सभा की, जिसमें धर्म है, धर्म-प्रचारक भी और धार्मिक स्थल भी, पर यह सभा भी, उन तमाम पुरातन सभाओ सी ही, गूंगी भी है, बहरी भी और अंधी भी, हाँलाकि सभा में बैठे लोग, रोज चीखते है, चिल्लाते है, चीत्कार करते है, परअपने-अपने स्वार्थो में दबे ये तमाम चीत्कार, कोई स्वर पैदा नही करते, बस खामोशी से तैरते रहते है, तमाम गूंगे सभा-सदो से भरी सभा में.....

मध्यवर्ग की स्त्रियां

वो निम्नवर्ग की औरतों सी बीड़ीयों के धुऐं नही उड़ाती और ना ही उनके जैसे मर्दो सी भारी भरकम गालियां बकती, दक्षिणी सूडान की कुछ औरतों की तरह जो पानी की किल्लत के लिए परेशान हैं एक गैलन बोतल के बदले किसी के भी साथ सोने को तैयार हो जाती, वो अपनी जरूरते इस ढंग से पूरी नहीं करती, वो उच्चवर्ग की औरतों सी किसी क्लब में बैठ सिगरेट के कश नहीं भरती ना ही लेती है रैड वाईन की चुस्कियां उनके लिऐ दैहिक स्वतंत्रता ही अंतिम लक्ष्य नहीं और ना ही वो जानती है किसी जिगोलो शब्द की सर्विसेज मध्यवर्ग की औरतों बंधी रहती है नैतिकता के कच्चे धागो से उनकी हर कहानी किसी राजकुमारी की राजकुमार से शादी पर ही खत्म हो जाती है, और इससे आगे के चुल्हे चौंके के सुखी जीवन से वो खुद ही बंध जाती मध्यवर्ग की औरतें अपनी अपनी बच्चियों को वो सब आजादी से करते देखना चाहती जो वो खुद ना कर सकी कभी पर साथ ही वो उन्हे हूबहू अपने जैसा बना देना चाहती बंधी हुई किसी राजकुमार की कहानी से राजकुमारी सी मध्यवर्ग की औरते किसी द्वंद सी होती है, जिसमें आजाद होने की ख्वाहिशे भी है, और बंधनो में रहने की आदत भी......

समानार्थक

अतीत को बोझ तले दबा एक पल, भविष्य की और तकता, बैठ जाता है वर्तमान की किसी धारा के किनारे, चिल्ला दूं! या चुप रहुं! ये फ़ैसला अभी नहीं किया, चिल्लाहट में एक चुप्पी है, और चुप्पी में एक चिल्लाहट, आसमान का रंग भी समुद्र सा ही नीला है, डूबना ज़्यादा बेहतर होता है या उड़ान भरना, ना जाने कैसा उन्माद है, ना जाने कैसा अवसाद, उन्माद में भी अवसाद है, अवसाद में भी उन्माद. जैसे जीवन में ही मृत्यू हो और मृत्यू में ही जीवन.

अपाहिज

हमारे हाथ काम मांगते है वो दो रूपये किलो चावल देते है, हमारी खेत अच्छे बीज, नई तकनीक मांगते है , वो कर्जमाफी की घोषणा करते है हमारे बच्चे शिक्षा में गुणवत्ता मांगते है वो मुफ्त स्मार्टफोन का वादा करते है, हमारे घरो में टंगे बल्ब जगमगाना चाहते है वो मुफ्त बिजली का झुनझुना देते है हमारे गांव की गलीयां सड़क मांगती है वो हमें धर्म की पगडंडियो पर हांकते है हम सीधे से शब्दो में सुनना चाहते है वो हमें किसी वर्गपहेली में उलझा देते है हम जब भी दौड़ में शामिल होना चाहते है, वो हमें वैसाखीयां थमा देते है.

अनुत्तीर्ण प्रेम

बेमायने होगा एक लड़के से तबदील हुए पूरुष से पूछना, कि क्या वह प्रेम में पड़ा किसी लड़की के, और फिर उसकी प्रेम कहानियों की दफन हुई दीवार में से, खोदकर तलाशना पहले, पहले के बाद दूसरे, तीसरे या चौथे प्रेम की दास्तान को, वैसे ही जैसे किसी प्रश्न पुस्तिका में दिए क्रमवार प्रश्नों के उत्तर खोजें जाते हैं, और प्रेम को बना देना किसी सांख्यिकी का खेल, उससे भी बुरी बात है, अलग-अलग समय में रही उसकी प्रेमिकाओं में से किसी, एक में तलाशना मोनालिसा की मुस्कान को, या फिर दूसरी की आंख में खोजना मृग की चपलता, और किसी और के, जिस्म के उभारों और गहराइयों को जानने की इच्छा रखना, और रख देना प्रेम को किसी आर्ट गैलरी में, किसी चित्रकार का चित्र बनाकर, या मूर्तिकार की बनाई आकर्षक मूर्ति, हास्यास्पद है, एक तरफा, दो तरफा, त्रिकोणीय या चतुर्भुज प्रेम की बात ये प्रेम है या कोई ज्यामिति की प्रमेय, और सबसे बड़ी बेवकूफी की बात, न्यायाधीश बन किसी भी प्रेम कहानी को हार और जीत की कसौटी पर तोलना, प्रेम पाने के लिए नहीं होता, और प्रेम में खोना कुछ होता नहीं, फिर भी अगर कभी, जानना ही चाहो किसी की प्रेम कहानी में से कुछ, तो पूछ लेना कि अचानक अगर, चाहे वर्षों के अंतराल पर ही, सामने आ जाए वह शख्स जिससे कभी प्रेम था, जीवन की विकट परिस्थितियों से घिरा, क्या अब भी इच्छा पैदा हुई अपना सर्वस्व लुटा कर भी उसे मुश्किल से बाहर निकालने की यदि जवाब ना हो तो समझ जाइएगा, वह एक अनुत्तीर्ण प्रेम भर था, जानना चाहते हो क्यों क्योंकि इस पूरी कायनात में सिर्फ, एक प्रेम में पागल हुआ व्यक्ति ही, अपना सर्वस्व लुटाने का मादा रखता है….

जीवाश्म

कुरेदना कभी मेरी जिस्म की तहो को, शायद तुम देख पाओ कहीं मेरी मांसपेशियो के नीचे प्यार की विलुप्त होती यादों के चिन्ह, आदिम युग के पहले के युग में, प्यार भी एक प्रजाति होती होगी, पर आजकल मौजूद नहीं है, मेरी सांस की गहरी वादियों में, किसी पाषाण तूफान सी, जहां तुम अभी भी गंध महसूस कर सकते हो उन गुलाबों की खुशबू की, खिलने से पहले सूखने वाले और कहीं मेरी त्वचा की झुर्रियों के विभाजित होते उत्तको के बीच हमारे सपनों की उस चादर की छाप अभी भी रंग बिखेरती है कई, मेरे दिल में कहीं गहराई से जांचें, और तुम्हे मिलेंगे, कुछ अप्रभावी और प्रभावशाली महत्वाकांक्षाऐं, यहां और वहां नक्काशी में, कौन कहता है कि जीवाश्म केवल चट्टानों और बर्फ की ठंडी परतों में पाए जाते हैं? मेरे पूरे शरीर और दिल में तुम देख सकते हो मेरे प्यार, महत्वाकांक्षाओं और मेरे सभी यादों के जीवाश्म.....

जंगल

जानवर सिर्फ जंगलो में ही नही होते, घात लगाऐ, किसी पत्थर की ओट में, या पत्तो के पीछे छिप कर, गर्दन पर हमला करते, एक बार में ही काम-तमाम, नोचते मांस को, जानवर इंसानो के अंदर भी होते है, उसकी मुस्कुराहट के पीछे, उसकी मीठी जबान के नीचे, उसके चेहरे के आवरण में घात लगाऐ, जंगल के जानवर जब क्षुधा मिटा लेते है कुदरत की भोजन-क्षृंखला का हिस्सा होकर तृप्त से, शांतचित हो जाते है, पर इंसान के अंदर बैठे जानवर की भूख नहीं मिटती कभी, हमेशा अतृप्त नोचने को तैयार , जंगल सिर्फ बाहर ही नहीं होते…