हिन्दी कविताएँ : गोपालप्रसाद व्यास

Hindi Poetry : Gopal Prasad Vyas


खूनी हस्‍ताक्षर

वह खून कहो किस मतलब का जिसमें उबाल का नाम नहीं। वह खून कहो किस मतलब का आ सके देश के काम नहीं। वह खून कहो किस मतलब का जिसमें जीवन, न रवानी है! जो परवश होकर बहता है, वह खून नहीं, पानी है! उस दिन लोगों ने सही-सही खून की कीमत पहचानी थी। जिस दिन सुभाष ने बर्मा में मॉंगी उनसे कुरबानी थी। बोले, "स्वतंत्रता की खातिर बलिदान तुम्हें करना होगा। तुम बहुत जी चुके जग में, लेकिन आगे मरना होगा। आज़ादी के चरणें में जो, जयमाल चढ़ाई जाएगी। वह सुनो, तुम्हारे शीशों के फूलों से गूँथी जाएगी। आजादी का संग्राम कहीं पैसे पर खेला जाता है? यह शीश कटाने का सौदा नंगे सर झेला जाता है" यूँ कहते-कहते वक्ता की आंखों में खून उतर आया! मुख रक्त-वर्ण हो दमक उठा दमकी उनकी रक्तिम काया! आजानु-बाहु ऊँची करके, वे बोले, "रक्त मुझे देना। इसके बदले भारत की आज़ादी तुम मुझसे लेना।" हो गई सभा में उथल-पुथल, सीने में दिल न समाते थे। स्वर इनकलाब के नारों के कोसों तक छाए जाते थे। “हम देंगे-देंगे खून” शब्द बस यही सुनाई देते थे। रण में जाने को युवक खड़े तैयार दिखाई देते थे। बोले सुभाष, "इस तरह नहीं, बातों से मतलब सरता है। लो, यह कागज़, है कौन यहॉं आकर हस्ताक्षर करता है? इसको भरनेवाले जन को सर्वस्व-समर्पण काना है। अपना तन-मन-धन-जन-जीवन माता को अर्पण करना है। पर यह साधारण पत्र नहीं, आज़ादी का परवाना है। इस पर तुमको अपने तन का कुछ उज्जवल रक्त गिराना है! वह आगे आए जिसके तन में खून भारतीय बहता हो। वह आगे आए जो अपने को हिंदुस्तानी कहता हो! वह आगे आए, जो इस पर खूनी हस्ताक्षर करता हो! मैं कफ़न बढ़ाता हूँ, आए जो इसको हँसकर लेता हो!" सारी जनता हुंकार उठी- हम आते हैं, हम आते हैं! माता के चरणों में यह लो, हम अपना रक्त चढाते हैं! साहस से बढ़े युबक उस दिन, देखा, बढ़ते ही आते थे! चाकू-छुरी कटारियों से, वे अपना रक्त गिराते थे! फिर उस रक्त की स्याही में, वे अपनी कलम डुबाते थे! आज़ादी के परवाने पर हस्ताक्षर करते जाते थे! उस दिन तारों ने देखा था हिंदुस्तानी विश्वास नया। जब लिक्खा महा रणवीरों ने ख़ूँ से अपना इतिहास नया।

नेताजी का तुलादान

देखा पूरब में आज सुबह, एक नई रोशनी फूटी थी। एक नई किरन, ले नया संदेशा, अग्निबान-सी छूटी थी॥ एक नई हवा ले नया राग, कुछ गुन-गुन करती आती थी। आज़ाद परिन्दों की टोली, एक नई दिशा में जाती थी॥ एक नई कली चटकी इस दिन, रौनक उपवन में आई थी। एक नया जोश, एक नई ताज़गी, हर चेहरे पर छाई थी॥ नेताजी का था जन्मदिवस, उल्लास न आज समाता था। सिंगापुर का कोना-कोना, मस्ती में भीगा जाता था। हर गली, हाट, चौराहे पर, जनता ने द्वार सजाए थे। हर घर में मंगलाचार खुशी के, बांटे गए बधाए थे॥ पंजाबी वीर रमणियों ने, बदले सलवार पुराने थे। थे नए दुपट्टे, नई खुशी में, गये नये तराने थे॥ वे गोल बांधकर बैठ गईं, ढोलक-मंजीर बजाती थीं। हीर-रांझा को छोड़ आज, वे गीत पठानी गाती थीं। गुजराती बहनें खड़ी हुईं, गरबा की नई तैयारी में। मानो वसन्त ही आया हो, सिंगापुर की फुलवारी में॥ महाराष्ट्र-नन्दिनी बहनों ने, इकतारा आज बजाया था। स्वामी समर्थ के शब्दों को, गीतों में गति से गाया था॥ वे बंगवासिनी, वीर-बहूटी, फूली नहीं समाती थीं। अंचल गर्दन में डाल, इष्ट के सम्मुख शीश झुकाती थीं- “प्यारा सुभाष चिरंजीवी हो, हो जन्मभूमि, जननी स्वतंत्र! मां कात्यायिनि ऐसा वर दो, भारत में फैले प्रजातंत्र!!” हर कण्ठ-कण्ठ से शब्द यही, सर्वत्र सुनाई देते थे। सिंगापुर के नर-नारि आज, उल्लसित दिखाई देते थे॥ उस दिन सुभाष सेनापति ने, कौमी झण्डा फहराया था। उस दिन परेड में सेना ने, फौजी सैल्यूट बजाया था॥ उस दिन सारे सिंगापुर में, स्वागत की नई तैयारी थी। था तुलादान नेताजी का, लोगों में चर्चा भारी थी ॥ उस रोज तिरंगे फूलों की, एक तुला सामने आई थी॥ उस रोज तुला ने सचमुच ही, एक ऐसी शक्ति उठाई थी- जो अतुल, नहीं तुल सकती थी, दुनिया की किसी तराजू से! जो ठोस, सिर्फ बस ठोस, जिसे देखो चाहे जिस बाजू से!! वह महाशक्ति सीमित होकर, पलड़े में आन विराजी थी। दूसरी ओर सोना-चांदी, रत्नों की लगती बाजी थी॥ उस मन्त्रपूत मुद मंडप में, सुमधुर शंख-ध्वनि छाई थी। जब कुन्दन-सी काया सुभाष की, पलड़े में मुस्काई थी॥ एक वृद्धा का धन सर्वप्रथम, उस धर्म-तुला पर आया था। सोने की ईटों में जिसने, अपना सर्वस्व चढ़ाया था॥ गुजराती मां की पांच ईंट, मानो पलड़े में आईं थीं। या पंचयज्ञ से हो प्रसन्न, कमला ही वहां समाई थीं!! फिर क्या था, एक-एक करके, आभूषण उतरे आते थे। वे आत्मदान के साथ-साथ, पलड़े पर चढ़ते जाते थे॥ मुंदरी आई, छल्ले आए, जो पी की प्रेम-निशानी थे। कंगन आए, बाजू आए, जो रस की स्वयं कहानी थे॥ आ गया हार, ले जीत स्वयं, माला ने बन्धन छोड़ा था। ललनाओं ने परवशता की, जंजीरों को धर तोड़ा था॥ आ गईं मूर्तियां मन्दिर की, कुछ फूलदान, टिक्के आए। तलवारों की मूठें आईं, कुछ सोने के सिक्के आए॥ कुछ तुलादान के लिए, युवतियों ने आभूषण छोड़े थे। जर्जर वृद्धाओं ने भेजे, अपने सोने के तोड़े थे॥ छोटी-छोटी कन्याओं ने भी, करणफूल दे डाले थे। ताबीज गले से उतरे थे, कानों से उतरे बाले थे॥ प्रति आभूषण के साथ-साथ, एक नई कहानी आती थी। रोमांच नया, उदगार नया, पलड़े में भरती जाती थी॥ नस-नस में हिन्दुस्तानी की, बलिदान आज बल खाता था। सोना-चांदी, हीरा-पन्ना, सब उसको तुच्छ दिखाता था॥ अब चीर गुलामी का कोहरा, एक नई किरण जो आई थी। उसने भारत की युग-युग से, यह सोई जाति जगाई थी॥ लोगों ने अपना धन-सरबस, पलड़े पर आज चढ़ाया था। पर वजन अभी पूरा नहीं हुआ, कांटा न बीच में आया था॥ तो पास खड़ी सुन्दरियों ने, कानों के कुण्डल खोल दिए। हाथों के कंगन खोल दिए, जूड़ों के पिन अनमोल दिए॥ एक सुन्दर सुघड़ कलाई की, खुल 'रिस्टवाच' भी आई थी। पर नहीं तराजू की डण्डी, कांटे को सम पर लाई थी॥ कोने में तभी सिसकियों की, देखा आवाज़ सुनाई दी। कप्तान लक्ष्मी लिए एक, तरुणी को साथ दिखाई दी॥ उसका जूड़ा था खुला हुआ, आंखें सूजी थीं लाल-लाल! इसके पति को युद्ध-स्थल में, कल निगल गया था कठिन काल!! नेताजी ने टोपी उतार, उस महिला का सम्मान किया। जिसने अपने प्यारे पति को, आज़ादी पर कुर्बान किया॥ महिला के कम्पित हाथों से, पलड़े में शीशफूल आया! सौभाग्य चिह्‌न के आते ही, कांटा सहमा, कुछ थर्राया! दर्शक जनता की आंखों में, आंसू छल-छल कर आए थे। बाबू सुभाष ने रुद्ध कण्ठ से, यूं कुछ बोल सुनाए थे- “हे बहन, देवता तरसेंगे, तेरे पुनीत पद-वन्दन को। हम भारतवासी याद रखेंगे, तेरे करुणा-क्रन्दन को!! पर पलड़ा अभी अधूरा था, सौभाग्य-चिह्‌न को पाकर भी। थी स्वर्ण-राशि में अभी कमी, इतना बेहद ग़म खाकर भी॥ पर, वृद्धा एक तभी आई, जर्जर तन में अकुलाती-सी। अपनी छाती से लगा एक, सुन्दर-चित्र छिपाती-सी॥ बोली, “अपने इकलौते का, मैं चित्र साथ में लाई हूं। नेताजी, लो सर्वस्व मेरा, मैं बहुत दूर से आई हूं॥ “ वृद्धा ने दी तस्वीर पटक, शीशा चरमर कर चूर हुआ! वह स्वर्ण-चौखटा निकल आप, उसमें से खुद ही दूर हुआ!! वह क्रुद्ध सिंहनी-सी बोली, “बेटे ने फांसी खाई थी! उसने माता के दूध-कोख को, कालिख नहीं लगाई थी!! हां, इतना गम है, अगर कहीं, यदि एक पुत्र भी पाती मैं! तो उसको भी अपनी भारत- माता की भेंट चढ़ाती मैं!!” इन शब्दों के ही साथ-साथ, चौखटा तुला पर आया था! हो गई तुला समतल, कांटा, झुक गया, नहीं टिक पाया था!! बाबू सुभाष उठ खड़े हुए, वृद्धा के चरणों को छूते! बोले, “मां, मैं कृतकृत्य हुआ, तुझ-सी माताओं के बूते!! है कौन आज जो कहता है, दुश्मन बरबाद नहीं होगा! है कौन आज जो कहता है, भारत आज़ाद नहीं होगा!!”

नेताजी सुभाष चंद्र बोस

है समय नदी की बाढ़ कि जिसमें सब बह जाया करते हैं। है समय बड़ा तूफ़ान प्रबल पर्वत झुक जाया करते हैं ।। अक्सर दुनियाँ के लोग समय में चक्कर खाया करते हैं। लेकिन कुछ ऐसे होते हैं, इतिहास बनाया करते हैं ।। यह उसी वीर इतिहास-पुरुष की अनुपम अमर कहानी है। जो रक्त कणों से लिखी गई,जिसकी जयहिन्द निशानी है।। प्यारा सुभाष, नेता सुभाष, भारत भू का उजियारा था । पैदा होते ही गणिकों ने जिसका भविष्य लिख डाला था।। यह वीर चक्रवर्ती होगा , या त्यागी होगा सन्यासी। जिसके गौरव को याद रखेंगे, युग-युग तक भारतवासी।। सो वही वीर नौकरशाही ने,पकड़ जेल में डाला था । पर क्रुद्ध केहरी कभी नहीं फंदे में टिकने वाला था।। बाँधे जाते इंसान,कभी तूफ़ान न बाँधे जाते हैं। काया ज़रूर बाँधी जाती,बाँधे न इरादे जाते हैं।। वह दृढ़-प्रतिज्ञ सेनानी था,जो मौका पाकर निकल गया। वह पारा था अंग्रेज़ों की मुट्ठी में आकर फिसल गया।। जिस तरह धूर्त दुर्योधन से,बचकर यदुनन्दन आए थे। जिस तरह शिवाजी ने मुग़लों के,पहरेदार छकाए थे ।। बस उसी तरह यह तोड़ पींजरा, तोते-सा बेदाग़ गया। जनवरी माह सन् इकतालिस, मच गया शोर वह भाग गया।। वे कहाँ गए, वे कहाँ रहे,ये धूमिल अभी कहानी है। हमने तो उसकी नयी कथा,आज़ाद फ़ौज से जानी है।।

हिन्दुस्तान हमारा है

कोटि-कोटि कंठों से गूजा प्यारा कौमी नारा है हिन्दुस्तान हमारा है। हिन्दुस्तान हमारा है॥ मन्दिर और मीनार हमारे गाँव, शहर, बाजार हमारे। चन्दा-सूरज, गंगा-जमुना पैगम्बर-अवतार हमारे। हिन्दू, मुसलमान, ईसाई सिक्ख, पारसी, जैनी भाई। सभी इसी धरती के वासी सबके दिल में यही समाई। सिर्फ हमारा देश यहां पर नहीं और का चारा है॥ हिन्दुस्तान हमारा है। हिन्दुस्तान हमारा है॥ धरती है आज़ाद, हवा आज़ाद तरंगें लाती है। फूल-फूल आज़ाद कली आज़ाद खड़ी मुस्काती है। पंछी हैं आज़ाद चहकते उड़ते-फिरते जाते हैं। भौंरे देखो आज़ादी का नया तराना गाते हैं। उठो जवानी, आज़ादी पर पहला हाथ तुम्हारा है॥ हिन्दुस्तान हमारा है। हिन्दुस्तान हमारा है॥ इंकलाब होगया, देश को हम आज़ाद बनाएंगे। जुल्मों के तूफान नहीं मंजिल से हमें हटाएंगे। हम आज़ादी के सैनिक हैं, मर-मर बढ़ते जाएंगे। तलवारों की धारों पर भी आगे कदम उठाएंगे। आज गुलामी के शासन को फिर हमने ललकारा है॥ हिन्दुस्तान हमारा है। हिन्दुस्तान हमारा है॥ उठो हिमालय, आज तुम्हारे कौन पार जा सकता है? हिन्द महासागर की बोलो कौन थाह पा सकता है? आज़ादी की बाढ़ नहीं संगीनों से रुक सकती है। अरे जवानी कभी नहीं जंजीरों से झुक सकती है। गरमी की लपटों ने सोखी कभी न बहती धारा है॥ हिन्दुस्तान हमारा है। हिन्दुस्तान हमारा है॥

मुक्ति-पर्व

आज राष्ट्र का मुक्ति-पर्व है जागो कवि की वाणी; फूंको शंख विजय का, जय हो भारत-भूमि भवानी ! फूलो फूल, लताओ झूमो, अम्बर बरसो पानी; मन-मयूर नाचो रे आई प्रिय स्वतन्त्रता रानी !! वह स्वतन्त्रता जिसकी खातिर जूझी लक्ष्मी रानी; वीर पेशवा नाना ने कर दिया खून का पानी। तांत्या टोपे ने जिसकी असली कीमत पहिचानी; लड़ा गया संग्राम गदर का जिसकी अमर कहानी ॥ वह स्वतन्त्रता जिसकी खातिर बिस्मिल थे शैदाई; जूझ गए आज़ाद पार्क में डटकर लड़ी लड़ाई। फाके किए यतीन्द्रनाथ ने, मारे गए कन्हाई; भगतसिंह ने हंसते-हंसते खुलकर फांसी खाई॥ वह स्वतन्त्रता जिसकी खातिर बापू जग में आए; मुक्ति-युद्ध के लिए जिन्होंने नये शास्त्र अपनाए। राष्ट्रपिता के इंगित पर दी भारत ने कुर्बानी; साठ वर्ष तक लड़े सिपाही दिन और रात न जानी॥ वह स्वतन्त्रता जो कि हमें प्राणों से भी प्यारी थी; वह स्वतन्त्रता जिसके हित डांडी की तैयारी थी। वह स्वतन्त्रता जिसकी खातिर असहयोग अपनाया; मिट्टी में मिल गए किन्तु झण्डे को नहीं झुकाया॥ बयालीस के वीर बागियो, जान खपाने वालो; 'करो-मरो' के महायज्ञ में गोली खाने वालो ! जेल-यातना सहने वालो सत्त्व गंवाने वालो; विजय तुम्हारे घर आई है आओ इसे सम्हालो॥ उन्हें राष्ट्र का नमस्कार जो काम देश के आए; सेवक बनकर रहे चने तसलों में रखकर खाए। भारत उनका ऋणी जिन्होंने हंसकर कष्ट उठाए; सदा कर्मरत रहे नाम अखबारों में न छपाए॥ नेताजी तुम कहां छिपे हो ? याद तुम्हारी आती; भारत के बच्चे-बच्चे की भर-भर आती छाती। 'दिल्ली चलो' तुम्हारा नारा देखो पूर्ण हुआ है; परदेशी का भाग्य-सितारा पिसकर चूर्ण हुआ है॥ उठो बहादुरशाह कब्र से किला लौट आया है; हटा यूनियन जैक, तिरंगा उस पर लहराया है। औंधे तम्बू अंग्रेजों के, पड़ी बैरकें खाली; तेरी दिल्ली आज मनाती घर-घर खुशी दिवाली॥ सुनो तिलक महाराज ! स्वर्ग में भारत के जयकारे; तुम्हें जेल में रखनेवाले खुद लग गए किनारे। जन्मसिद्ध अधिकार हमारा हमने छीन लिया है; ब्रिटिश सल्तनत के तख्ते को तेरह-तीन किया है॥ सदियों पीछे आज जमाना ऐसा शुभ आया है; जब अशोक का चक्र पुनः भारत में फहराया है; जबकि हिमालय का सिर ऊंचा गंगा गौरव गाती; जब भारत की जनता जय नेहरू, पटेल की गाती ॥ मुक्त पवन में सांस ले रहे हैं अब भारतवासी; पूरब में प्रकाश फैला है स्वर्णिम उषा प्रकाशी। भारतवर्ष स्वतन्त्र हुआ है गाओ नया तराना; नया एशिया जागा है अब बदला नया ज़माना॥

प्रयाण-गीत

प्रयाण-गीत गाए जा! तू स्वर में स्वर मिलाए जा! ये जिन्दगी का राग है--जवान जोश खाए जा ! प्रयाण-गीत ... तू कौम का सपूत है! स्वतन्त्रता का दूत है! निशान अपने देश का उठाए जा, उठाए जा ! प्रयाण-गीत... ये आंधियां पहाड़ क्या? ये मुश्किलों की बाढ़ क्या? दहाड़ शेरे हिन्द! आसमान को हिलाए जा ! प्रयाण-गीत... तू बाजुओं में प्राण भर! सगर्व वक्ष तान कर! गुमान मां के दुश्मनों का धूल में मिलाए जा। प्रयाण-गीत गाए जा! तू स्वर में स्वर मिलाए जा! ये जिन्दगी का राग है--जवान जोश खाए जा।

शहीदों में तू नाम लिखा ले रे!

वह देश, देश क्या है, जिसमें लेते हों जन्म शहीद नहीं। वह खाक जवानी है जिसमें मर मिटने की उम्मीद नहीं। वह मां बेकार सपूती है, जिसने कायर सुत जाया है। वह पूत, पूत क्या है जिसने माता का दूध लजाया है। सुख पाया तो इतरा जाना, दुःख पाया तो कुम्हला जाना। यह भी क्या कोई जीवन है: पैदा होना, फिर मर जाना ! पैदा हो तो फिर ऐसा हो, जैसे तांत्या बलवान हुआ। मरना हो तो फिर ऐसे मर, ज्यों भगतसिंह कुर्बान हुआ। जीना हो तो वह ठान ठान, जो कुंवरसिंह ने ठानी थी। या जीवन पाकर अमर हुई जैसे झांसी की रानी थी। यदि कुछ भी तुझ में जीवन है, तो बात याद कर राणा की। दिल्ली के शाह बहादुर की औ कानपूर के नाना की। तू बात याद कर मेरठ की, मत भूल अवध की घातों को। कर सत्तावन के दिवस याद, मत भूल गदर की बातों को। आज़ादी के परवानों ने जब खूं से होली खेली थी। माता के मुक्त कराने को सीने पर गोली झेली थी। तोपों पर पीठ बंधाई थी, पेड़ों पर फांसी खाई थी। पर उन दीवानों के मुख पर रत्ती-भर शिकन न आई थी। वे भी घर के उजियारे थे अपनी माता के बारे थे। बहनों के बंधु दुलारे थे, अपनी पत्नी के प्यारे थे। पर आदर्शों की खातिर जो भर अपने जी में जोम गए। भारतमाता की मुक्ति हेतु, अपने शरीर को होम गए। कर याद कि तू भी उनका ही वंशज है, भारतवासी है। यह जननी, जन्म-भूमि अब भी, कुछ बलिदानों की प्यासी है। अंग्रेज गए जैसे-तैसे, लेकिन अंग्रेजी बाकी है। उनके बुत छाती पर बैठे, ज़हनियत अभी वह बाकी है। कर याद कि जो भी शोषक है उसको ही तुझे मिटाना है। ले समझ कि जो अन्यायी है आसन से उसे हटाना है। ऐसा करने में भले प्राण जाते हों तेरे, जाने दे। अपने अंगों की रक्त-माल मानवता पर चढ़ जाने दे। तू जिन्दा हो और जन्म-भूमि बन्दी हो तो धिक्कार तुझे। भोजन जलते अंगार तुझे, पानी है विष की धार तुझे। जीवन-यौवन की गंगा में तू भी कुछ पुण्य कमा ले रे! मिल जाए अगर सौभाग्य शहीदों में तू नाम लिखा ले रे!