डॉ. अलका दूबे की कुछ हस्ताक्षर रचनाएं

Selected Hindi Poetry : Dr Alka Dubey


सिद्धार्थ ने छोड़ा घर तो बुद्ध हो गये

बचा था जितना शुरू से बचा है उतना अंत तक परिवर्तन प्रकृति का नियम है किन्तु क्या है जो बदला नहीं अभी तक स्वभाव मानव का अभाव जीवन का इच्छायें इंसान की चिन्ता पहचान की आसान सवाल हल नहीं हो पाते और कठिन बातें हो जाती हैं आसान मृत्यु अटल है और माँगते हैं ईश्वर से हम जीवन का वरदान सिद्धार्थ ने छोड़ा घर तो बुद्ध हो गये पर घर छोड़ती स्त्री खो देती है पहचान समुद्र की विशालता और गहराई होती है ज्ञात उसके शान्त रहनें पर आकाश से होती जलवर्षा ही करती है धरती का तर्पण जो बदला नहीं, वो नहीं बदलेगा अग्नि,जल,पृथ्वी,वायु और यह गगन

मुश्किल कई बातें

क्या !!! मुश्किल कई बातों के आसान लगनें के पीछे कोई गणित है  ? जैसे तार पर टंगे कपड़े से टप-टप करके पानी का गिरना साथ ही भाप बनकर उसका धूप में उड़ जाना जैसे बीज का छोटा सा होना और मिट्टी में दबनें पर उग कर उसका चारों तरफ फैल जाना जैसे खिड़की की जाली से धूप का छन कर आना जैसे बढ़ता वक़्त और बदलता वक़्त दोनों का ही अपनी निशानी छोड़ जाना जैसे पीछे से मेरी आँखों को ढकना उसका अपनी आठों अंगुलियों से और मेरा उसके अंगुठों को अपनें हाथों में ले लेना जैसे धूप में पसीने से तर-ब-तर हो जानें पर अपनें ही पसीने से ठंडक पाना यानि...... तार पर टंगे कपड़े से पानी का जाना और बीज में पानी का आना धूप का हर आकार में हर जगह पहुँच जाना वक़्त का हर स्थिति में अहम् होना उसकी अंगुलियों की छुअन से मेरी आँखों की धड़कन का मेरे ह्दय तक बढ़  जाना और पसीने का पानी बनकर ठंडक पहुँचाना अर्थात......... जो दिया प्रकृति को हमनें वही प्रकृति का हमें लौटाना सच है !!! मुश्किल कई बातों के आसान लगनें के पीछे जो गणित है......... बहुत आसान है ! बहुत ही आसान  !!

मैं स्त्री हूँ !!

मैं सृष्टि हूँ, वृष्टि भी मैं ही आदि भी मैं हूँ, अनन्त भी मैं ही जड़ भी मैं हूँ, चेतन भी मैं ही मैं ही हूँ सत्ता तुम्हारे ह्दय की माता भी मैं हूँ, बेटी भी मैं ही राधा भी मैं हूँ, रूक्मनी भी मैं ही ममता भी मैं हूँ कठोरता भी मैं ही आलम्ब भी मैं हूँ, स्वावलम्ब भी मैं ही तुम्हारे स्वप्न में भी हूँ यथार्थ में भी शान्ति में भी मैं ही चीत्कार में भी नित कठोर होते इस जीवन में निराशा भी मैं हूँ और ऊर्जा भी मैं ही निर्विघ्न,निरापद,निरन्तर इस जगत में सुनो  !! मैं स्त्री हूँ  !!!

राम

राम कहो सब राम राम एक धाम है राम का नाम राम चेतना राम ही चिंतन एक काम है राम का नाम राम ही मानव राम महान राम विचार हैं राम विधान प्रवाह नेति है नाम राम का प्रभाव नीति है काम राम का जो रम जाये वही है राम प्रबल प्रतापी प्रतिष्ठित राम शुभ आलोकित सुन्दर राम करिये राम का सब गुणगान दृष्टि राम हैं दृष्टा राम सृष्टि राम हैं कर्ता राम सुख में राम हैं दुख में राम राम हमारे सब जग जान राजा राम हैं वनवासी राम प्रभु राम हैं भक्त हैं राम कितना कहूँ की क्या हैं राम भव्य राम ,  मनभावन राम राम कहो सब राम राम एक धाम है राम का नाम

जिसे बहुत मानिये

जिसे बहुत मानिये वो फिर मानता क्यों नहीं है? वह क्यों रूठा ही रहता है मानता क्यों नहीं है ? सपनों की नगरी में ले जाकर मुझे वो भूल कर चला आया।  पलट कर देखता भी नहीं और बुलाता क्यों नहीं है ? बिना जिसके पल नहीं गुजारा अब उम्र गुजार रहे हैं, यही दुख अगर है उसका भी तो फिर बताता क्यों नहीं है ? आत्मा में निवास और श्वास में हर पल का आभास अगर वो मेरा है तो फिर मुझे मिलता क्यों नहीं है?  हृदय का कठोर हो जाना प्रेम की परिणति नहीं अवरोध है। वह समझता है अकेले खुश है अरे कोई इसे समझाता क्यों नहीं है!!

करते हुए याद इतना

करते हुए याद इतना  कि हिचकियाँ बंद नहीं होतीं।  दिल का गीलापन और  भीग जाना मन का मेरे,  कमी रहती है हर वक्त तेरी  और नमी कम नहीं होती।  हो मौसम कोई भी  तसव्वुर पर तेरा है।  मैं छू लूँ आकाश तलाश में तेरी  वापसी में पर जमीं नहीं होती।  हाथ बढ़ाओ और ले लो  मुझे आगोश में अपनें, राहत ऐसी दुनिया में  कहीं और नहीं होती।  पाना तुमको जीवन है  खोना तुमको, है मर जाना।   यूँ तो अभिव्यक्ति की परिणति  अभिव्यक्ति नहीं होती....।

भरी महफ़िल में कोई

भरी महफ़िल में कोई तन्हा कैसे होता है। करिये जब मोहब्बत तब ये तर्ज़बा होता है । बंद आँखों से देखना चेहरे को उसके, और खुली आँखों में भी सपना उसका होता है। मिलनें और बिछड़नें पर होते हैं एक ही जैसे हालात, आनें पर चले जानें का और जानें पर न आनें का ग़म होता है। ख़ामोशियाँ करे हैं आवाज़ और आवाज़ें सभी रहती हैं खामोश, हो मोहब्बत जिससे नहीं वो किसी से कम लगता है । अक़्ल पर पड़ जाते हैं ताले पर खुले रहते हैं दरवाज़े दिल के, पुर्ज़ा-पुर्ज़ा जिस्म का उसका माईल होता है।

एक ही हैं हम मगर कई किरदार में जीते हैं

एक ही हैं हम मगर कई किरदार में जीते हैं। कभी धीमें तो कभी रफ्तार में जीते हैं।  जिंदगी भी रोज़ नए तेवर दिखाती है हमें, कभी पतझड़ तो कभी बहार में जीते हैं । कभी खुशियों को जी कर कभी आंसुओं को पी कर, कभी नफरत तो कभी प्यार में जीते हैं । बचपन के बाद जवानी और फिर बुढ़ापा आ ही जाता है। मृत्यु अटल है मगर फिर भी हम हर त्यौहार में जीते हैं। तकदीरों का लिखा भला कहां पलट पाता है कोई, इसी को पलटने के प्रयास कर हम, हर बार में जीते हैं। बदलना चाहते हैं दुनिया को लेकिन खुद को नहीं बदलते, खुद को सही समझते हैं और इसी ख़ुमार में जीते हैं।

जो लोग मेरी यादों से गए नहीं

जो लोग मेरी यादों से गए नहीं क्या याद उनको हम भी आते होंगे ? क्या कोई है इस जहान में ऐसा भी कि सब जिसे अच्छा कहते होंगे ? दर्द जब हद से बढ़ जाए तो दवा बन जाता है पर दफ़्न हसरतों के मक़बरे कैसे होते होंगे ? महबूब की बाहों में गुज़री हैं रातें जिनकी लोग वो तो...जन्नत में न रहते होंगे ? सिर्फ कोई एक ही तो बात होती है निभते-निभते रिश्ते जो अचानक टूटते होंगे ? जिन्हें रखना नहीं होता है राब्ता कोई ख़बर वो लोग अपनों की कैसे रखते होंगे ? इस्तेमाल दिमाग का जो ज्यादा करते हैं मोहब्बत में वो लोग दिल का क्या करते होंगे ?

अपनें एक फसानें से, सौ फसानें  निकले  हैं

अपनें एक फसानें से, सौ फसानें  निकले  हैं। गये आज़माने जिनको,वो हमें आज़मानें निकले हैं। अहद से बसर ज़िन्दगी  की तदबीर हो रही है। वक़्त जनाज़े के, ज़िन्दगी के तरानें निकले हैं। पाप धोना, पाप करनें जितना आसान नहीं होता। बड़े आये !! देखो इन्हें  !! ये गंगा नहानें निकले हैं। हमसे क़ाबिल नहीं था जो, वो चुन लिया गया क्यों  ? अपनी औलादों की बारी,हमें अब ये डर सतानें लगे हैं। मशहूर थी सादगी जिनकी, सच्चे और ईमानदार थे। तफ़्तीश के वक़्त,घर से उनके कई नज़रानें निकले हैं। ख़ुदा की दी हुयी है ज़िन्दगी, जब तक रहेगी जियेंगे। हम कौन सा  इस धरती  पर, घर बसानें निकले हैं।

  • मुख्य पृष्ठ : डॉ. अलका दूबे - हिंदी काव्य रचनाएं
  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कविता वेबसाइट (hindi-kavita.com)