हिन्दी ग़ज़लें : डा. चरनजीत सिंह सागर
Hindi Ghazals : Dr. Charanjit Singh Sagar


झूठी आस बँधाएँ बादल

झूठी आस बँधाएँ बादल बिन बरसे उड़ जाएँ बादल बिरहन की पीड़ा है गहरी भेद ये कैसे पाएँ बादल सब बिरहन के आँसू हो गए कहाँ से बरखा लाएँ बादल देखें जब बिरहन के आँसू ख़ुद से ख़ुद शरमाएँ बादल आँसू बन जाते हैं बरखा ख़ुद से जब टकराएँ बादल रात-रात भर गरज-बरस कर जाने कहाँ पे जाएँ बादल जाने कब खुल कर बरसेंगे कुछ तो आस बँधाएँ बादल

जग की माया रामलखन

जग की माया रामलखन समझ न पाया रामलखन। एक दिन ऐसा शहर गया लौट न पाया रामलखन। शहर की दुनिया में खोया यूँ भरमाया रामलखन। हर ठोकर खाकर हँसता माँ का जाया रामलखन। गबन का ऐसा दोष लगा उबर न पाया रामलखन। मन में क्या कुछ चलता था कब कह पाया रामलखन। वापिस गाँव में लौटा तो हुआ पराया, रामलखन।।

रात सुनते हैं, मर गया हरिया

रात सुनते हैं, मर गया हरिया पार आख़िर, उतर गया हरिया। भूख, बेचारगी, ग़रीबी, दु:ख नाम बच्चों के, कर गया हरिया। बोझ बच्चों का, कर्ज़ बनिये का सर पे बीवी के, धर गया हरिया। दु:ख के अन्धड़ से, कब तक लड़ता सूखे पत्ते सा, झर गया हरिया। डाँट, दुत्कार, ग़ालियाँ पाईं काम पाने, जिधर गया हरिया। हो के मजबूर, रेत की मानिंद ज़र्रा-ज़र्रा, बिखर गया हरिया। लोग कहते हैं, ख़ुदक़ुशी की है सच तो ये है, कि तर गया हरिया।।

जब से शहर में, आया छोटू

जब से शहर में, आया छोटू घर को , लौट न पाया छोटू। अच्छा-ख़ासा, नाम था उसका सबने मगर, बुलाया छोटू। राजा बेटा था जो, घर में बाहर वो, कहलाया छोटू। चौका-बर्तन, झाड़ू-पौंछा इनसे, निकल न पाया छोटू। भीतर ही भीतर, घुलता था खुल कर कब, हँस पाया छोटू। सबकी सुन कर, हँस देता बस ऐसा माँ का जाया छोटू। कोई ,सिर पर हाथ न धरता कैसी क़िस्मत ,लाया छोटू।।

दुनिया क्या है, दिखा गए पत्थर

दुनिया क्या है, दिखा गए पत्थर उसको ख़ूँ में डुबा गए पत्थर। उसने पूछा था, दुनिया कैसी है? सबके हाथों में आ गए पत्थर। वो जो नाज़ुक था फूल की मानिंद उसको पत्थर बना गए पत्थर। कल जो शीशे के घर बनाता था आज उसको भी, भी गए पत्थर। तुझको मालूम ही नहीं ‘सागर‘ तेरी क़िस्मत बना गए पत्थर।

एक चिड़े पर मरती चिड़िया

एक चिड़े पर मरती चिड़िया लेकिन जग से डरती चिड़िया। इक अपना घर हो, इस धुन में तिनके ला-ला धरती चिड़िया। राह चिड़े का तकती रहती और भला क्या करती चिड़िया। दो नन्हें बच्चों की ख़ातिर पल-पल रोज़ बिखरती चिड़िया। मस्त चिड़ा अपनी मस्ती में फ़िक्र में घुल-घुल मरती चिड़िया। आख़िर इक दिन सब कुछ बदला कब तक दु:ख को जरती चिड़िया। बच्चों की ख़ातिर जीती अब उनका पेट है भरती चिड़िया।।

हर तस्वीर उतारी है

हर तस्वीर उतारी है क्यूँ फिर भी बेज़ारी है। हर जीवन-नदिया देखी हर इक नदिया खारी है। अबकी अपनों से हारे अबकी हार करारी है। जीवन जिसको कहते हैं रंग भरी पिचकारी है। जो न समझा जीवन को उसको जीवन भारी है। हमने इस दुनिया से ही सीखी दुनियादारी है। कौन रहेगा, कौन रहा अपनी-अपनी बारी है।

मौसम यूं ग़मगीन हुआ है

मौसम यूं ग़मगीन हुआ है जुल्म कोई संगीन हुआ है। पतझड़ की साज़िश थी सारी मौसम अब रंगीन हुआ है। नदिया सागर में ज्यों मिलती दिल तुझमें यूँ लीन हुआ है। नदियों का जल खारा होगा जो सागर नमकीन हुआ है। तेरे बिन मेरा यह जीवन कैसा दीन औ' हीन हुआ है। मेरे ज़िक्र पे हँस कर बोले यह किस्सा प्राचीन हुआ है। 'सागर' को अब कुछ भी कह लो इस हद तक मिस्कीन हुआ है।।

हर आरज़ू मिटा दी बेक़ैफ़ ज़िंदगी ने

हर आरज़ू मिटा दी बेक़ैफ़ ज़िंदगी ने सब्र-ओ-सुक़ून लूटा, मेरा इस आशिकी ने लो मुस्कुरा के उसने, फेरी हैं फिर निगाहें लूटा है चैन दिल का, फिर उसकी बेरुखी ने हर गाम पर मुसीबत, हर इक कदम पे ठोकर कितनी बड़ी सज़ा दी, दिलबर की दिलबरी ने अब कारवां लुटा तो, फ़रमा रहे हैं रहबर ‘ये‘ कर दिया किसी ने, ‘वो‘ कर दिया किसी ने आई न रास मुझको, ‘सागर‘ ये ज़िंदगानी जीने दिया न पल भर, कम्बख़्त ज़िंदगी ने।।

रात थी, तन्हाईयाँ थीं - तुम न थे

रात थी, तन्हाईयाँ थीं - तुम न थे याद थी, परछाईयाँ थीं- तुम न थे। जगमगाते शहर की उस भीड़ में हुस्न की रानाईयाँ थीं - तुम न थे। आते-जाते मौसमों का शोर था झूमती अमराईयाँ थीं- तुम न थे। मेरे आँगन में जो मेरे साथ थीं गूँजती शहनाईयाँ थीं-तुम न थे। रात के पिछले पहर जो मेरे साथ थीं काँपती अँगड़ाईयाँ थीं- तुम न थे।।

चलता रहता निरन्तर समय देखिये

चलता रहता निरन्तर समय देखिये देखिए अन्त या अभ्युदय देखिये। काम कुदरत का हाथों में ले तो लिया आ न जाये कहीं पर प्रलय देखिये। बाँच कर ग्रंथ सारे मिलेगा यही नेकियों की बदी पर विजय देखिये। तुम सरल और सहज ही इसे पाओगे चाहे जैसे हमारा ह्रदय देखिये। जिसकी मर्ज़ी से चलती है दुनिया यहाँ सिर्फ़ वो ही रहा है अभय देखिये।