हिन्दी कविता बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

Hindi Poetry Basudeo Agarwal Naman


1. कल और आज

(आँसू छंद) भारत तू कहलाता था, सोने की चिड़िया जग में। तुझको दे पद जग-गुरु का, सब पड़ते तेरे पग में। बल पे विपुल ज्ञान के ही, जग पर शासन फैलाया। कितनों को इस संपद से, तूने जीना सिखलाया।।1।। तेरी पावन वसुधा पर, नर-रत्न अनेक खिले थे। बल, विक्रम और दया के, जिनको गुण खूब मिले थे। अपनी अमृत-वाणी से, जग मानस को लहराया। उनने धर्म आचरण से, था दया केतु फहराया।।2।। समता की वीणा-धुन से, मानस लहरी गूँजाई। जग के सब वन उपवन में, करुणा की लता सजाई। अपने पावन इन गुण से, तू जग का गुरु कहलाया। रँग एक वर्ण में सब को, अपना सम्मान बढ़ाया।।3।। पर आज तुने हे भारत, वह गौरव भुला दिया है। वह भूल अतीत सुहाना, धारण नव-वेश किया है। तेरे दीपक की लौ में, जिनके थे मिटे अँधेरे। तुझको सिखा रहें हैं वे, बन कर अब अग्रज तेरे।।4।। तूने ही सब से पहले, उनको उपदेश दिया था। जग का ज्ञान-भानु बन कर, सब का तम दूर किया था। वह मान बड़ाई तूने, अपने मन से बिसरा दी। वह छवि अतीत की पावन, उर से ही आज मिटा दी।।5।। तेरे प्रकाश में जग का, था आलोकित हृदयांगन। तूने ही तो सिखलाया, जग-जन को वह ज्ञानांकन। वह दिव्य जगद्गुरु का पद, तू पूरा भूल गया है। सब ओर तुझे अब केवल, दिखता सब नया नया है।।6।। जग-जन कृपा दृष्टि के जो, आकांक्षी कभी तुम्हारी। अपना आँचल फैलाये, बन कर जो दीन भिखारी। उनकी कृपा दृष्टि की अब, तू मन में रखता आशा। क्या भान नहीं है इसका, कैसे पलटा यह पासा।।7।। बिसराये तूने अपने, सब रिवाज, खाना, पीना। भूषा और वेश भूला, छोड़ा रिश्तों में जीना। अपनी जाति, वर्ण, कुल का, मन में भान नहीं अब है। तूने रंग विदेशी ही, ठाना अपनाना सब है।।8।। कण कण में व्याप्त हुई है, तेरे भीषण कृत्रिमता। केवल आज विदेशी की, तुझ में दिखती व्यापकता। जाती दृष्टि जिधर को अब, हैं रंग नये ही दिखते। नव रंग रूप ये तेरी, हैं भाग्य-रेख को लिखते।।9।। (आँसू छंद विधान: 14 - 14 मात्रा (चरण में कुल 28 मात्रा। दो दो चरण सम तुकांत) मात्रा बाँट:- 2 - 8 - 2 - 2 प्रति यति में। मानव छंद में किंचित परिवर्तन कर प्रसाद जी ने पूरा 'आँसू' खंड काव्य इस छंद में रचा है, इसलिए इस छंद का नाम ही आँसू छंद प्रचलित हो गया है।)

2. समय

(आल्हा छंद) कौन समय को रख सकता है, अपनी मुट्ठी में कर बंद। समय-धार नित बहती रहती, कभी न ये पड़ती है मंद।। साथ समय के चलना सीखें, मिला सभी से अपना हाथ। ढल जातें जो समय देख के, देता समय उन्हीं का साथ।। काल-चक्र बलवान बड़ा है, उस पर टिकी हुई ये सृष्टि। नियत समय पर फसलें उगती, और बादलों से भी वृष्टि।। वसुधा घूर्णन, ऋतु परिवर्तन, पतझड़ या मौसम शालीन। धूप छाँव अरु रात दिवस भी, सभी समय के हैं आधीन।। वापस कभी नहीं आता है, एक बार जो छूटा तीर। तल को देख सदा बढ़ता है, उल्टा कभी न बहता नीर।। तीर नीर सम चाल समय की, कभी समय की करें न चूक। एक बार जो चूक गये तो, रहती जीवन भर फिर हूक।। नव आशा, विश्वास हृदय में, सदा रखें जो हो गंभीर। निज कामों में मग्न रहें जो, बाधाओं से हो न अधीर।। ऐसे नर विचलित नहिं होते, देख समय की टेढ़ी चाल। एक समान लगे उनको तो, भला बुरा दोनों ही काल।। मोल समय का जो पहचानें, दृढ़ संकल्प हृदय में धार। सत्य मार्ग पर आगे बढ़ते, हार कभी न करें स्वीकार।। हर संकट में अटल रहें जो, कछु न प्रलोभन उन्हें लुभाय। जग के ही हित में रहतें जो, कालजयी नर वे कहलाय।। समय कभी आहट नहिं देता, यह तो आता है चुपचाप। सफल जगत में वे नर होते, लेते इसको पहले भाँप।। काल बन्धनों से ऊपर उठ, नेकी के जो करतें काम। समय लिखे ऐसों की गाथा, अमर करें वे जग में नाम।।

3. गोपी विरह

(कनक मंजरी छंद) तन-मन छीन किये अति पागल, हे मधुसूदन तू सुध ले। श्रवणन गूँज रही मुरली वह, जो हम ली सुन कूँज तले।। अब तक खो उस ही धुन में हम, ढूंढ रहीं ब्रज की गलियाँ। सब कुछ जानत हो तब दर्शन, देय खिला मुरझी कलियाँ।। द्रुम अरु कूँज लता सँग बातिन, में यह वे सब पूछ रही। नटखट श्याम सखा बिन जीवित, क्यों अब लौं, निगलै न मही।। विहग रहे उड़ छू कर अम्बर, गाय रँभाय रही सब हैं। हरित सभी ब्रज के तुम पादप, बंजर तो हम ही अब हैं।। मधुकर एक लखी तब गोपिन, बोल पड़ी फिर वे उससे। भ्रमर कहो किस कारण गूँजन, से बतियावत हो किससे।। इन परमार्थ भरी कटु बातन, से नहिं काम हमें अब रे। रख अपने मँह ज्ञान सभी यह, भूल गईं सुध ही जब रे।। भ्रमर तु श्यामल मोहन श्यामल, तू न कहीं छलिया वह ही। कलियन रूप चखे नित नूतन, है गुण श्याम समान वही।। परखन प्रीत हमार यहाँ यदि, रूप मनोहर वो धर लें। यदि न सँदेश हमार पठावहु, दर्श दिखा दुख वे हर लें।। (लक्षण छंद:- प्रथम रखें लघु चार तबै षट "भा" गण संग व 'गा' रख लें। सु'कनकमंजरि' छंद रचें यति तेरह वर्ण तथा दश पे।। लघु चार तबै षट "भा" गण संग व 'गा' = 4लघु+6भगण(211)+1गुरु]=23 वर्ण)

4. 2019 चुनाव

(मत्त सवैया मुक्तकमाला) हर दल जो टुकड़ा टुकड़ा था, इस बार चुनावों ने छाँटा; बाहर निकाल उसको फेंका, ज्यों चुभा हुआ हो वो काँटा; जो अपनी अपनी डफली पर, बस राग स्वार्थ का गाते थे; उस भ्रष्ट तंत्र के गालों पर, जनता ने मारा कस चाँटा। इस बार विरोधी हर दल ने, ऐसा भारी झेला घाटा; चित चारों खाने सभी हुए, हर ओर गया छा सन्नाटा। जन-तंत्र-यज्ञ की वेदी में, उन सबकी आहुति आज लगी; वे राजनीति को हाथ हिला, जल्दी करने वाले टा टा। भारत में नव-उत्साह जगा, रिपु के घर में क्रंदन होगा; बन विश्व-शक्ति उभरेंगे हम, जग भर में अब वंदन होगा; हे मोदी! तुम कर्मठ नरवर, गांधी की पुण्य धरा के हो; अब ओजपूर्ण नेतृत्व तले, भारत का अभिनंदन होगा। तुम राष्ट्र-प्रेरणा के नायक, तुम एक सूत्र के दायक हो; जो सकल विश्व को बेध सके, वैसे अमोघ तुम सायक हो; भारत भू पर अवतरित हुये, ये भाग्य हमारा आज प्रबल; तुम धीर वीर तुम शक्ति-पुंज, तुम जन जन के अधिनायक हो।

5. जल-संकट

(जनक छंद) सरिता दूषित हो रही, व्यथा जीव की अनकही, संकट की भारी घड़ी। +++ नीर-स्रोत कम हो रहे, कैसे खेती ये सहे, आज समस्या ये बड़ी। +++ तरसै सब प्राणी नमी, पानी की भारी कमी, मुँह बाये है अब खड़ी। +++ पर्यावरण उदास है, वन का भारी ह्रास है, भावी विपदा की झड़ी। +++ जल-संचय पर नीति नहिं, इससे कुछ भी प्रीति नहिं, सबको अपनी ही पड़ी। +++ चेते यदि हम अब नहीं, ठौर हमें ना तब कहीं, दुःखों की आगे कड़ी। +++ नहीं भरोसा अब करें, जल-संरक्षण सब करें, सरकारें सारी सड़ी।

6. लतीफ़ों में रिवाजों को भुनाना आज फैशन है

लतीफ़ों में रिवाजों को भुनाना आज फैशन है, छलावा दीन-ओ-मज़हब को बताना आज फैशन है। ठगों ने हर तरह के रंग के चोले रखे पहने, सुनहरे स्वप्न जन्नत के दिखाना आज फैशन है। दबे सीने में जो शोले जमाने से रहें महफ़ूज़, पराई आग में रोटी पकाना आज फैशन है। कभी बेदर्द सड़कों पे न ऐ दिल दर्द को बतला, हवा में आह-ए-मुफ़लिस को उड़ाना आज फैशन है। रहे आबाद हरदम ही अना की बस्ती दिल पे रब, किसी वीराँ जमीं पे हक़ जमाना आज फैशन है। गली कूचों में बेचें ख्वाब अच्छे दिन के लीडर अब, जहाँ मौक़ा लगे मज़मा लगाना आज फैशन है। इबादत हुस्न की होती जहाँ थी देश भारत में, नुमाइश हुस्न की करना कराना आज फैशन है। नहीं उम्मीद औलादों से पालो इस जमाने में, बड़े बूढ़ों के हक़ को बेच खाना आज फैशन है। नहीं इतना भी गिरना चाहिए फिर से न उठ पाओ, गिरें जो हैं उन्हें ज्यादा गिराना आज फैशन है। तिज़ारत का नया नुस्ख़ा है लूटो जितनी मन मर्ज़ी, 'नमन' मज़बूरियों से धन कमाना आज फैशन है।

7. बढ़े ये देश जिन पर रास्ते हम वे तलाशेंगे (ग़ज़ल)

बढ़े ये देश जिन पर रास्ते हम वे तलाशेंगे। समस्याएँ अगर इसमें तो हल मिल के तलाशेंगे। स्वदेशी वस्तुएं अपना के होंगे आत्मनिर्भर हम, उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे। महक खुशियों की बिखराने वतन में बाग़बाँ बन कर, हटा के ख़ार राहों के, खिले गुंचे तलाशेंगे। बँधे जिस एकता की डोर में प्यारा वतन सारा, उसी डोरी के सब मजबूत हम धागे तलाशेंगे। पुजारी अम्न के हम तो सदा से रहते आये हैं, जहाँ हो शांति की पूजा वे बुतख़ाने तलाशेंगे। सही इंसानों से रिश्तों को रखना कामयाबी है, बड़ी शिद्दत से हम रिश्ते सभी ऐसे तलाशेंगे। अगर बाकी कहीं है मैल दिल में कुछ किसी से तो, मिटा पहले ये रंजिश राब्ते अगले तलाशेंगे। पराये जिनके अपने हो चुके, लाचार वे भारी, बनें हम छाँव जिनकी वे थकेहारे तलाशेंगे। बधाई दीपमाला की, यही उम्मीद आगे है, 'नमन' फिर से यहाँ मिलने के सब मौके तलाशेंगे। (बह्र:- 1222-1222-1222-1222)

8. हाइकु (नव-दुर्गा)

शैलपुत्री माँ हिम गिरि तनया वांछित-लाभा। ++ ब्रह्मचारिणी कटु तप चारिणी वैराग्य दात्री। ++ माँ चन्द्रघण्टा शशि सम शीतला शांति प्रदाता। ++ चौथी कूष्माण्डा माँ ब्रह्मांड सृजेता उन्नति दाता। ++ श्री स्कंदमाता कार्तिकेय की माता वृत्ति निरोधा। ++ माँ कात्यायनी कात्यायन तनया पुरुषार्थ दा। ++ कालरात्रि माँ तम-निशा स्वरूपा भय विमुक्ता। ++ माँ महागौरी शुभ्र वस्त्र धारिणी पाप नाशिनी। ++ माँ सिद्धिदात्री अष्ट सिद्धि रूपिणी कामना पुर्णी।

9. माँ दुर्गा

(मत्तगयंद सवैया) (1) पाप बढ़े चहुँ ओर भयानक हाथ कृपाण त्रिशूलहु धारो। रक्त पिपासु लगे बढ़ने दुखके महिषासुर को अब टारो। ताण्डव से अरि रुण्डन मुण्डन को बरसा कर के रिपु मारो। नाहर पे चढ़ भेष कराल बना कर ताप सभी तुम हारो।। (2) नेत्र विशाल हँसी अति मोहक तेज सुशोभित आनन भारी। क्रोधित रूप प्रचण्ड महा अरि के हिय को दहलावन कारी। हिंसक शोणित बीज उगे अरु पाप बढ़े सब ओर विकारी। शोणित पी रिपु नाश करो पत भक्तन की रख लो महतारी।। (3) शुम्भ निशुम्भ हने तुमने धरणी दुख दूर सभी तुम कीन्हा। त्राहि मची चहुँ ओर धरा पर रूप भयावह माँ तुम लीन्हा। अष्ट भुजा अरु आयुध भीषण से रिपु नाशन माँ कर दीन्हा। गावत वेद पुराण सभी यश जो वर माँगत देवत तीन्हा।। (मत्तगयंद सवैया "माँ दुर्गा" 7 भगण (211) की आवृत्ति के बाद 2 गुरु)

10. दाम्पत्य-मन्त्र

(घनश्याम छंद) विवाह पवित्र, बन्धन है पर बोझ नहीं। रहें यदि निष्ठ, तो सुख के सब स्वाद यहीं।। चलूँ नित साथ, हाथ मिला कर प्रीतम से। रखूँ मन आस, काम करूँ सब संयम से।। कभी रहती न, स्वारथ के बस हो कर के। समर्पण भाव, नित्य रखूँ मन में धर के।। परंतु सदैव, धार स्वतंत्र विचार रहूँ। जरा नहिं धौंस, दर्प भरा अधिकार सहूँ।। सजा घर द्वार, रोज पका मधु व्यंजन मैं। लखूँ फिर बाट, नैन लगा कर अंजन मैं।। सदा मन माँहि, प्रीत सजाय असीम रखूँ। यही रख मन्त्र, मैं रस धार सदैव चखूँ।। बसा नव आस, जीवन के सुख भोग रही। निरर्थक स्वप्न, की भ्रम-डोर कभी न गही।। करूँ नहिं रार, साजन का मन जीत जिऊँ। यही सब धार, जीवन की सुख-धार पिऊँ।। ================== लक्षण छंद:- "जजाभभभाग", में यति छै, दश वर्ण रखो। रचो 'घनश्याम', छंद अतीव ललाम चखो।। "जजाभभभाग" = जगण जगण भगण भगण भगण गुरु] 121 121 211 211 211 2 = 16 वर्ण यति 6,10 वर्णों पर, 4 चरण, 2-2 चरण समतुकांत।

11. दृढ़ संकल्प

(गिरिधारी छंद) खुद पे रख यदि विश्वास चलो। जग को जिस विध चाहो बदलो।। निज पे अटल भरोसा जिसका। यश गायन जग में हो उसका।। मत राख जगत पे आस कभी। फिर देख बनत हैं काम सभी।। जग-आश्रय कब स्थायी रहता। डिगता जब मन पीड़ा सहता।। मन-चाह गगन के छोर छुए। नहिं पूर्ण हृदय की आस हुए।। मन कार्य करन में नाँहि लगे। अरु कर्म-विरति के भाव जगे।। हितकारक निज का संबल है। पर-आश्रय नित ही दुर्बल है।। मन में दृढ़ यदि संकल्प रहे। सब वैभव सुख की धार बहे।। ================ लक्षण छंद:- "सनयास" अगर तू सूत्र रखे। तब छंदस 'गिरिधारी' हरखे।। "सनयास" = सगण, नगण, यगण, सगण 112 111 122 112 = 12 वर्ण

12. वृक्ष-पीड़ा

(गाथ छंद) वृक्ष जीवन देते हैं। नाहिं ये कुछ लेते हैं। काट व्यर्थ इन्हें देते। आह क्यों इनकी लेते।। पेड़ को मत यूँ काटो। भू न यूँ इन से पाटो। पेड़ जीवन के दाता। जोड़ लो इन से नाता।। वृक्ष दुःख सदा बाँटे। ये न हैं पथ के काँटे। मानवों ठहरो थोड़ा। क्यों इन्हें समझो रोड़ा।। मूकता इनकी पीड़ा। काटता तु उठा बीड़ा। बुद्धि में जितने आगे। स्वार्थ में उतने पागे।। ============= लक्षण छंद:- सूत्र राच "रसोगागा"। 'गाथ' छंद मिले भागा।। "रसोगागा" = रगण, सगण, गुरु गुरु 212 112 22 = 8 वर्ण

13. नव उड़ान

(गजपति छंद) पर प्रसार करके। नव उड़ान भर के। विहग झूम तुम लो। गगन चूम तुम लो।। सजगता अमित हो। हृदय शौर्य नित हो। सुदृढ़ता अटल हो। मुख प्रभा प्रबल हो।। नभ असीम बिखरा। हर प्रकार निखरा। तुम जरा न रुकना। अरु कभी न झुकना।। नयन लक्ष्य पर हो। न मन स्वल्प डर हो। विजित विश्व कर ले। गगन अंक भर ले।। ============= लक्षण छंद:- "नभलगा" गण रखो। 'गजपतिम्' रस चखो।। "नभलगा" नगण भगण लघु गुरु ( 111 211 1 2) 8 वर्ण,4 चरण, दो-दो चरण समतुकांत

14. श्रृंगार वर्णन

(कुसुमसमुदिता छंद) गौर वरण शशि वदना। वक्र नयन पिक रसना।। केहरि कटि अति तिरछी। देत चुभन बन बरछी।। बंकिम चितवन मन को। हास्य मधुर इस तन को।। व्याकुल रह रह करता। चैन सकल यह हरता।। यौवन कलश विहँसते। ठीक हृदय मँह धँसते।। रूप निरख मन भटका। कुंतल लट पर अटका।। तंग वसन तन चिपटे। ज्यों फणिधर तरु लिपटे।। हंस लजत लख चलना। चित्त-हरण यह ललना।। ============ लक्षण छंद:- "भाननगु" गणन रचिता। छंदस 'कुसुमसमुदिता'।। "भाननगु" = भगण नगण नगण गुरु (211 111 111 2) 10वर्ण,4 चरण, दो-दो चरण समतुकांत।

15. योग साधना

(कलाधर छंद) दिव्य ज्ञान योग का हिरण्यगर्भ से प्रदत्त, ये सनातनी परंपरा जिसे निभाइए। आर्ष-देन ये महान जो रखे शरीर स्वस्थ्य, धार देह वीर्यवान और तुष्ट राखिए। शुद्ध भावना व ओजवान पा विचार आप, चित्त की मलीनता व दीनता हटाइए। नित्य-नेम का बना विशिष्ट एक अंग योग। सृष्टि की विभूतियाँ समस्त आप पाइए।। मोह लोभ काम क्रोध वासना समस्त त्याग, पाप भोग को मनोव्यथा बना निकालिए। ज्ञान ध्यान दान को सजाय रोम रोम मध्य, ध्यान ध्येय पे रखें तटस्थ हो बिराजिए।। ईश-भक्ति चित्त राख दृष्टि भोंह मध्य साध, पूर्ण निष्ठ ओम जाप मौन धार कीजिए। वृत्तियाँ समस्त छोड़ चित्त को अधीन राख, योग नित्य धार रोग-त्रास को मिटाइए।। =================== लक्षण छंद:- पाँच बार "राज" पे "गुरो" 'कलाधरं' सुछंद। षोडशं व पक्ष पे विराम आप राखिए।। ये घनाक्षरी समान छंद है प्रवाहमान। राचिये इसे सभी पियूष-धार चाखिये।। पाँच बार "राज" पे "गुरो" = (रगण+जगण)*5 + गुरु। (212 121)*5+2 यानि गुरु लघु की 15 आवृत्ति के बाद गुरु यानि 21x15 + 2 तथा 16 और पक्ष=15 पर यति। यह विशुद्ध घनाक्षरी है अतः कलाधर घनाक्षरी भी कही जाती है।

16. सवेरा

(कण्ठी छंद) हुआ सवेरा। मिटा अँधेरा।। सुषुप्त जागो। खुमार त्यागो।। सराहना की। बड़प्पना की।। न आस राखो। सुशान्ति चाखो।। करो भलाई। यही कमाई।। सदैव संगी। कभी न तंगी।। कुपंथ चालो। विपत्ति पालो।। सुपंथ धारो। कभी न हारो।। ======== लक्षण छंद:- "जगाग" वर्णी। सु-छंद 'कण्ठी'।। "जगाग" = जगण, गुरु - गुरु (121, 2- 2), 5 वर्ण, 4 चरण, 2-2 चरण समतुकांत

17. पथिक

(इंदिरा छंद) तमस की गयी ये विभावरी। हृदय-सारिका आज बावरी।। वह उड़ान उन्मुक्त है भरे। खग प्रसुप्त जो गान वो करे।। अरुणिमा रही छा सभी दिशा। खिल उठा सवेरा, गयी निशा।। सतत कर्म में लीन हो पथी। पथ प्रतीक्ष तेरे महारथी।। अगर भूत तेरा डरावना। पर भविष्य आगे लुभावना।। मत रहो दुखों को विचारते। बढ़ सदैव राहें सँवारते।। कर कभी न स्वीकार हीनता। मत जता किसी को तु दीनता।। जगत से हटा दे तिमीर को। 'नमन' विश्व दे कर्म वीर को।। ============== लक्षण छंद:- "नररलाग" वर्णों सजाय लें। मधुर 'इंदिरा' छंद राच लें।। "नररलाग" = नगण रगण रगण + लघु गुरु 111 212 212 12, चार चरण, दो-दो चरण समतुकांत

18. हिन्दी गौरव

(असबंधा छंद) भाषा हिन्दी गौरव बड़पन की दाता। देवी-भाषा संस्कृत मृदु इसकी माता।। हिन्दी प्यारी पावन शतदल वृन्दा सी। साजे हिन्दी विश्व पटल पर चन्दा सी।। हिन्दी भावों की मधुरिम परिभाषा है। ये जाये आगे बस यह अभिलाषा है।। त्यागें अंग्रेजी यह समझ बिमारी है। ओजस्वी भाषा खुद जब कि हमारी है।। गोसाँई ने रामचरित इस में राची। मीरा बाँधे घूँघर पग इस में नाची।। सूरा ने गाये सब पद इस में प्यारे। ऐसी थाती पा कर हम सब से न्यारे।। शोभा पाता भारत जग मँह हिन्दी से। जैसे नारी भाल सजत इक बिंदी से।। हिन्दी माँ को मान जगत भर में देवें। ये प्यारी भाषा हम सब मन से सेवें।। ============ लक्षण छंद:- "मातानासागाग" रचित 'असबंधा' है। ये तो प्यारी छंद सरस मधु गंधा है।। "मातानासागाग" = मगण, तगण, नगण, सगण गुरु गुरु 222 221 111 112 22= 14 वर्ण दो दो या चारों चरण समतुकांत।

19. राधेकृष्णा नाम-रस

(हरिणी छंद) मन नित भजो, राधेकृष्णा, यही बस सार है। इन रस भरे, नामों का तो, महत्त्व अपार है।। चिर युगल ये, जोड़ी न्यारी, त्रिलोक लुभावनी। भगत जन के, प्राणों में ये, सुधा बरसावनी।। जहँ जहँ रहे, राधा प्यारी, वहीं घनश्याम हैं। परम द्युति के, श्रेयस्कारी, सभी परिणाम हैं।। बहुत महिमा, नामों की है, इसे सब जान लें। सब हृदय से, संतों का ये, कहा सच मान लें।। अति व्यथित हो, झेलूँ पीड़ा, गिरा भव-कूप में। मन तड़प रहा, डूबूँ कैसे, रमा हरि रूप में।। भुवन भर में, गाथा गाऊँ, सदा प्रभु नाम की। मन-नयन से, लीला झाँकी, लखूँ ब्रज-धाम की।। मन महँ रहे, श्यामा माधो, यही अरदास है। जिस निलय में, दोनों सोहे, वहीं पर रास है।। युगल छवि की, आभा में ही, लगा मन ये रहे। 'नमन' कवि की, ये आकांक्षा, इसी रस में बहे।। ============= लक्षण छंद: (हरिणी छंद) मधुर 'हरिणी', राचें बैठा, "नसामरसालगे"। प्रथम यति है, छै वर्णों पे, चतुष् फिर सप्त पे। "नसामरसालगे" = नगण, सगण, मगण, रगण, सगण, लघु और गुरु। 111 112, 222 2,12 112 12 चार चरण, दो दो समतुकांत।

20. शिव स्तुति

(स्रग्धरा छंद) शम्भो कैलाशवासी, सकल दुखित की, पूर्ण आशा करें वे। भूतों के नाथ न्यारे, भव-भय-दुख को, शीघ्र सारा हरें वे।। बाघों की चर्म धारें, कर महँ डमरू, कंठ में नाग साजें। शाक्षात् हैं रुद्र रूपी, मदन-मद मथे, ध्यान में वे बिराजें।। गौरा वामे बिठाये, वृषभ चढ़ चलें, आप ऐसे दुलारे। माथे पे चंद्र सोहे, रजत किरण से, जो धरा को सँवारे।। भोले के भाल साजे, शुचि सुर-सरिता, पाप की सर्व हारी। ऐसे न्यारे त्रिनेत्री, विकल हृदय की, पीड़ हारें हमारी।। काशी के आप वासी, शुभ यह नगरी, मोक्ष की है प्रदायी। दैत्यों के नाशकारी, त्रिपुर वध किये, घोर जो आततायी।। देवों की पीड़ हारी, भयद गरल को, कंठ में आप धारे। देवों के देव हो के, परम पद गहा, सृष्टि में नाथ न्यारे।। भक्तों के प्राण प्यारे, घट घट बसते, दिव्य आशीष देते। कामारी आशुतोषी, सब अनुचर की, क्षेम की नाव खेते।। कापाली शूलपाणी, असुर लख डरें, भक्त का भीत हारे। हे शम्भो 'बासु' माथे, वरद कर धरें, आप ही हो सहारे।। =================== स्त्रग्धरा छंद (लक्षण) "माराभाना ययाया", त्रय-सत यति दें, वर्ण इक्कीस या में। बैठा ये सूत्र न्यारा, मधुर रसवती, 'स्त्रग्धरा' छंद राचें।। "माराभाना ययाया"= मगण, रगण, भगण, नगण, तथा लगातार तीन यगण। (कुल 21 अक्षरी) 222 212 2,11 111 12,2 122 122 त्रय-सत यति दें= सात सात वर्ण पर यति।

21. भारत वंदन

(शिखरिणी छंद) बड़ा ही प्यारा है, जगत भर में भारत मुझे। सदा शोभा गाऊँ, पर हृदय की प्यास न बुझे।। तुम्हारे गीतों को, मधुर सुर में गा मन भरूँ। नवा माथा मेरा, चरण-रज माथे पर धरूँ।। यहाँ गंगा गर्जे, हिमगिरि उठा मस्तक रखे। अयोध्या काशी सी, वरद धरणी का रस चखे।। यहाँ के जैसे हैं, सरित झरने कानन कहाँ। बिताएँ सारे ही, सुखमय सदा जीवन यहाँ।। दया की वीणा के, मुखरित हुये हैं स्वर जहाँ। सभी विद्याओं में, अति पटु रहे हैं नर जहाँ।। उसी की रक्षा में, तन मन लगा तत्पर रहूँ। जरा भी बाधा हो, अगर इसमें तो हँस सहूँ।। खुशी के दीपों की, जगमग यहाँ लौ नित जगे। हमें प्राणों से भी, अधिक प्रिय ये भारत लगे।। प्रतिज्ञा ये धारूँ, दुखित जन के मैं दुख हरूँ। इन्हीं भावों को ले, 'नमन' तुम को अर्पित करूँ।। ================= शिखरिणी (लक्षण छंद) रखें छै वर्णों पे, यति "यमनसाभालग" रचें। चतुष् पादा छंदा, सब 'शिखरिणी' का रस चखें।। "यमनसाभालग" = यगण, मगण, नगण, सगण, भगण लघु गुरु ( कुल 17 वर्ण) 122 222, 111 112 211 12 (शिव महिम्न श्लोक इसी छंद में है।)

22. हिन्दी यशोगान

(शार्दूलविक्रीडित छंद) हिन्दी भारत देश के गगन में, राकेश सी राजती। भाषा संस्कृत दिव्य हस्त इस पे, राखे सदा साजती।। सारे प्रांत रखे कई विविधता, देती उन्हे एकता। हिन्दी से पहचान है जगत में, देवें इसे भव्यता।। ये उच्चारण खूब ही सुगम दे, जैसा लिखो वो पढ़ो। जो भी संभव जीभ से कथन है, वैसा इसी में गढ़ो।। ये चौवालिस वर्ण और स्वर की, भाषा बड़ी सोहनी। हिन्दी को हम मान दें हृदय से, ये विश्व की मोहनी।। छंदों को गतिशीलता मधुर दे, ये भाव संचार से। भावों को रस, गंध, रूप यह दे, नाना अलंकार से।। शब्दों का सुविशाल कोष रखती, ये छंद की खान है। गीता, वेद, पुरान, शास्त्र- रस के, संगीत की गान है।। मीरा ने इसमें रचे भजन हैं, ये सूर की तान है। हिन्दी पंत, प्रसाद और तुलसी, के काव्य का पान है।। मीठी ये गुड़ के समान लगती, सुस्वाद सारे चखें। हिन्दी का हम शीश विश्व भर में, ऊँचा सभी से रखें।। =========== लक्षण छंद:- "मैं साजूँ सतताग" वर्ण दश नौ, बारा व सप्ता यतिम्। राचूँ छंद रसाल चार चरणी, 'शार्दूलविक्रीडितम्'।। "मैं साजूँ सतताग" = मगण, सगण, जगण, सगण, तगण, तगण और गुरु। 222 112 121 112// 221 221 2 आदौ राम, या कुन्देन्दु, कस्तूरी तिलकं जैसे मनोहारी श्लोकों की जननी छंद। इस चार चरणों की छंद के प्रत्येक चरण में कुल 19 वर्ण होते हैं और यति 12 और 7 पर है।

23. लक्ष्मी स्तुति

(मंदाक्रांता छंद) लक्ष्मी माता, जगत जननी, शुभ्र रूपा शुभांगी। विष्णो भार्या, कमल नयनी, आप हो कोमलांगी।। देवी दिव्या, जलधि प्रगटी, द्रव्य ऐश्वर्य दाता। देवों को भी, कनक धन की, दायिनी आप माता।। नीलाभा से, युत कमल को, हस्त में धारती हैं। हाथों में ले, कनक घट को, सृष्टि संवारती हैं।। चारों हाथी, दिग पति महा, आपको सींचते हैं। सारे देवा, विनय करते, मात को सेवते हैं।। दीपों की ये, जगमग जली, ज्योत से पूजता हूँ। भावों से ये, स्तवन करता, मात मैं धूजता हूँ।। रंगोली से, घर दर सजा, बाट जोहूँ तिहारी। आओ माते, शुभ फल प्रदा, नित्य आह्लादकारी।। आया हूँ मैं, तव शरण में, भक्ति का भाव दे दो। मेरे सारे, दुख दरिद की, मात प्राचीर भेदो।। मैं आकांक्षी, चरण-रज का, 'बासु' तेरा पुजारी। खाली झोली, बस कुछ भरो, चाहता ये भिखारी।। × × × × × × "दीपावली पर शुभकामना" दीपोत्सव के, जगमग करें, दीप यूँ ही उरों में। सारे वैभव, हरदम रहें, आप सब के घरों में। माता लक्ष्मी, सहज कर दें, आपकी जिंदगी को। दिवाली पे, 'नमन' करता, मात को गा सुरों में।। =============== लक्षण छंद (मंदाक्रांता ) "माभानाता,तगग" रच के, चार छै सात तोड़ें। 'मंदाक्रांता', चतुष चरणी, छंद यूँ आप जोड़ें।। "माभानाता, तगग" = मगण, भगण, नगण, तगण, तगण, गुरु गुरु (कुल 17 वर्ण) 222 2,11 111 2,21 221 22 चार छै सात तोड़ें = चार वर्ण,छ वर्ण और सात वर्ण पर यति। (संस्कृत का छंद जिसमें मेघदूतम् लिखा गया है।)

24. बसंत वर्णन

(चंचला छंद) छा गयी सुहावनी बसंत की छटा अपार। झूम के बसंत की तरंग में खिली बहार।। कूँज फूल से भरे तड़ाग में खिले सरोज। पुष्प सेज को सजा किसे बुला रहा मनोज।। धार पीत चूनड़ी समस्त क्षेत्र हैं विभोर। झूमते बयार संग ज्यों समुद्र में हिलोर।। यूँ लगे कि मस्त वायु छेड़ घूँघटा उठाय। भू नवीन व्याहता समान ग्रीव को झुकाय।। कोयली सुना रही सुरम्य गीत कूक कूक। प्रेम-दग्ध नार में रही उठाय मूक हूक।। बैंगनी, गुलाब, लाल यूँ भए पलाश आज। आ गया बसंत फाग खेलने सजाय साज।। आम्र वृक्ष स्वर्ण बौर से लदे झुके लजाय। अप्रतीम ये बसंत की छटा रही लुभाय।। हास का विलास का सुरम्य भाव दे बसंत। काव्य-विज्ञ को प्रदान कल्पना करे अनंत।। =============== लक्षण छंद:- "राजराजराल" वर्ण षोडसी रखो सजाय। 'चंचला' सुछंद राच आप लें हमें लुभाय।। =============== "राजराजराल"=रगण जगण रगण जगण रगण लघु 21×8 = 16 वर्ण प्रत्येक चरण में। 4 चरण, 2-2 चरण समतुकांत।

25. वचन सार

(चन्द्रिका छंद) सुन कर पहले, कथ्य को तोलना। समझ कर तभी, शब्द को बोलना।। गुण यह जग में, बात से मान दे। सरस अमिय का, सर्वदा पान दे।। मधुरिम कथनी, प्रेम की जीत दे। कटु वचन वहीं, तोड़ ही प्रीत दे।। वचन पर चले, साख व्यापार की। कथन पर टिकी, रीत संसार की।। मुख अगर खुले, सत्य वाणी कहें। असत वचन से, दूर कोसों रहें।। जग-मन हरता, सत्यवादी सदा। यह बहुत बड़ी, मानवी संपदा।। छल वचन करे, भग्न विश्वास को। कपट हृदय तो, प्राप्त हो नाश को।। व्रण कटु वच का, ठीक होता नहीं। मधु बयन जहाँ, हर्ष सारा वहीं।। ============== लक्षण छंद:- "ननततु अरु गा", 'चन्द्रिका' राचते। यति सत अरु छै, छंद को साजते।। "ननततु अरु गा"=नगण नगण तगण तगण गुरु (111 111 2 21 221 2) दो दो चरण समतुकांत, 7, 6 यति।

26. मुरलीधर छवि

(चामर छन्द) गोप-नार संग नन्दलालजू बिराजते। मोर पंख माथ पीत वस्त्र गात साजते। रास के सुरम्य गीत गौ रँभा रँभा कहे। कोकिला मयूर कीर कूक गान गा रहे।। श्याम पैर गूँथ के कदंब के तले खड़े। नील आभ रत्न बाहु-बंद में कई जड़े।। काछनी मृगेन्द्र लंक में लगे लुभावनी। श्वेत पुष्प माल कंठ में बड़ी सुहावनी।। शारदीय चन्द्र की प्रशस्त शुभ्र चांदनी। दिग्दिगन्त में बिखेरती प्रभा प्रभावनी।। पुष्प भार से लदे निकुंज भूमि छा रहे। मालती पलाश से लगे वसुंधरा दहे।। नन्दलाल बाँसुरी रहे बजाय चाव में। गोपियाँ समस्त आज हैं विभोर भाव में।। देव यक्ष संग धेनु ग्वाल बाल झूमते।। 'बासुदेव' ये छटा लखे स्वभाग्य चूमते।। ================= (गुरु लघु ×7)+गुरु = 15 वर्ण चार चरण दो-दो या चारों चरण समतुकान्त।

27. युद्ध

(तिलका छंद) गज अश्व सजे। रण-भेरि बजे।। रथ गर्ज हिले। सब वीर खिले।। ध्वज को फहरा। रथ रौंद धरा।। बढ़ते जब ही। सिमटे सब ही।। बरछे गरजे। सब ही लरजे।। जब बाण चले। धरणी दहले।। नभ नाद छुवा। रण घोर हुवा। रज खूब उड़े। घन ज्यों उमड़े।। तलवार चली। धरती बदली।। लहु धार बही। भइ लाल मही।। कट मुंड गए। सब त्रस्त भए।। धड़ नाच रहे। अब हाथ गहे।। शिव तांडव सा। खलु दानव सा।। यह युद्ध चला। सब ही बदला।। जब शाम ढ़ली। चँडिका हँस ली।। यह युद्ध रुका। सब जाय चुका।। ********** लक्षण छंद:- "सस" वर्ण धरे। 'तिलका' उभरे।। "सस" = सगण सगण (112 112), दो-दो चरण तुकांत (6वर्ण प्रति चरण )

28. विरह

(तोटक छंद) सब ओर छटा मनभावन है। अति मौसम आज सुहावन है।। चहुँ ओर नये सब रंग सजे। दृग देख उन्हें सकुचाय लजे।। सखि आज पिया मन माँहि बसे। सब आतुर होयहु अंग लसे।। कछु सोच उपाय करो सखिया। पिय से किस भी विध हो बतिया।। मन मोर बड़ा अकुलाय रहा। विरहा अब और न जाय सहा।। तन निश्चल सा बस श्वांस चले। हर आहट को सुन ये दहले ।। जलती यह शीत बयार लगे। मचले मचले कुछ भाव जगे।। बदली नभ की न जरा बदली। पर मैं बदली अब हो पगली।। ============= लक्षण छंद:- जब द्वादश वर्ण "ससासस" हो। तब 'तोटक' पावन छंदस हो।। "ससासस" = चार सगण 112 112 112 112 = 12 वर्ण

29. आत्म मंथन

(दोधक छंद) मन्थन रोज करो सब भाई। दोष दिखे सब ऊपर आई। जो मन माहिं भरा विष भारी। आत्मिक मन्थन देत उघारी।। खोट विकार मिले यदि कोई। जान हलाहल है विष सोई। शुद्ध विवेचन हो तब ता का। सोच निवारण हो फिर वा का।। भीतर झाँक जरा अपने में। क्यों रहते जग को लखने में।। ये मन घोर विकार भरा है। किंतु नहीं परवाह जरा है।। मत्सर, द्वेष रखो न किसी से। निर्मल भाव रखो सब ही से। दोष बचे उर माहिं न काऊ। सात्विक होवत गात, सुभाऊ।। ============= लक्षण छंद:- "भाभभुगाग" इकादश वर्णा। देवत 'दोधक' छंद सुपर्णा।। "भाभभुगाग"=भगण भगण भगण गुरु गुरु 211 211 211 22 = 11 वर्ण चार चरण, दो दो सम तुकांत।

30. आज की दशा

(धार छंद) अत्याचार। भ्रष्टाचार। का है जोर। चारों ओर।। सारे लोग। झेलें रोग। हों लाचार। खाएँ मार।। नेता नीच। आँखें मीच। फैला कीच। राहों बीच।। पूँजी जोड़। माथा मोड़। भागे छोड़। नाता तोड़।। आशा नाँहि। लोगों माँहि। खोटे जोग। का है योग।। सारे आज। खोये लाज। ना है रोध। कोई बोध।। ======== लक्षण छंद:- "माला" राख। पाओ 'धार'।। "माला" = मगण लघु 222 1 = 4 वर्ण 4 चरण, 2-2 या चारों चरण समतुकांत।

31. फाग रंग

(धुनी छंद) फागुन सुहावना। मौसम लुभावना। चंग बजती जहाँ। रंग उड़ते वहाँ। बालक गले लगे। प्रीत रस हैं पगे। नार नर दोउ ही। नाँय कम कोउ ही।। राग थिरकात है। ताल ठुमकात है। झूम सब नाचते। मोद मन मानते।। धर्म अरु जात को। भूल सब बात को। फाग रस झूमते। एक सँग खेलते।। ========= लक्षण छंद:- "भाजग" रखें गुनी। 'छंद' रचते 'धुनी'।। "भाजग"=भगण जगण गुरु 211 121 2 = 7 वर्ण। चार चरण दो दो समतुकांत।

32. विरहणी

(नील छंद) वो मन-भावन प्रीत लगा कर छोड़ चले। खावन दौड़त रात भयानक आग जले।। पावन सावन बीत गया अब हाय सखी। आवन की धुन में उन के मन धीर रखी।। वर्षण स्वाति लखै जिमि चातक धीर धरे। त्यों मन व्याकुल साजन आ कब पीर हरे।। आकुल भू कब अंबर से जल धार बहे। ये मन आतुर हो पिय का वनवास सहे।। मोर चकोर अकारण शोर मचावत है। बागन की छवि जी अब और जलावत है।। ये बरषा विरहानल को भड़कावत है। गीत नये उनके मन को न सुहावत है।। कोयल कूक लगे अब वायस काँव मुझे। पावस के इस मौसम से नहिं प्यास बुझे।। और बिछोह बचा कितना अब शेष पिया। नेह-तृषा अब शांत करो लगता न जिया।। ================ लक्षण छंद:- "भा" गण पांच रखें इक साथ व "गा" तब दें। 'नील' सुछंदजु षोडस आखर की रच लें।। "भा" गण पांच रखें इक साथ व "गा"= 5 भगण+गुरु (211×5+गुरु) = 16वर्ण चार चरण, दो दो या चारों चरण समतुकांत।

33. गुरु पंचश्लोकी

(अनुष्टुप छंद) सद्गुरु-महिमा न्यारी, जग का भेद खोल दे। वाणी है इतनी प्यारी, कानों में रस घोल दे।। गुरु से प्राप्त की शिक्षा, संशय दूर भागते। पाये जो गुरु से दीक्षा, उसके भाग्य जागते।। गुरु-चरण को धोके, करो रोज उपासना। ध्यान में उनके खोकेेे, त्यागो समस्त वासना।। गुरु-द्रोही नहीं होना, गुरु आज्ञा न टालना। गुरु-विश्वास का खोना, जग-सन्ताप पालना।। गुरु के गुण जो गाएं, मधुर वंदना करें। आशीर्वाद सदा पाएं, भवसागर से तरें।। ****************** अनुष्टुप छंद (विधान) यह छन्द अर्धसमवृत्त है । इस के प्रत्येक चरण में आठ वर्ण होते हैं । पहले चार वर्ण किसी भी मात्रा के हो सकते हैं । पाँचवाँ लघु और छठा वर्ण सदैव गुरु होता है । सम चरणों में सातवाँ वर्ण ह्रस्व और विषम चरणों में गुरु होता है। आठवाँ वर्ण संस्कृत में तो लघु या गुरु कुछ भी हो सकता है। संस्कृत में छंद के चरण के अंतिम वर्ण का उच्चारण लघु होते हुये भी दीर्घ होता है जबकि हिंदी में यह सुविधा नहीं है। अतः हिंदी में आठवाँ वर्ण सदैव दीर्घ ही होता है। (1) × × × × । ऽ ऽ ऽ, (2) × × × × । ऽ । ऽ (3) × × × × । ऽ ऽ ऽ, (4) × × × × । ऽ । ऽ उपरोक्त वर्ण विन्यास के अनुसार चार चरणों का एक छंद होता है। सम चरण (2, 4) समतुकांत होने चाहिए। रोचकता बढाने के लिए चाहें तो विषम (1, 3) भी समतुकांत कर सकते हैं पर आवश्यक नहीं। गुरु की गरिमा भारी, उसे नहीं बिगाड़ना। हरती विपदा सारी, हितकारी प्रताड़ना।।

34. शिवेंद्रवज्रा स्तुति

(इन्द्रवज्रा /उपेन्द्र वज्रा /उपजाति छंद) कैलाश वासी त्रिपुरादि नाशी। संसार शासी तव धाम काशी। नन्दी सवारी विष कंठ धारी। कल्याणकारी शिव दुःख हारी।।१।। ज्यों पूर्णमासी तव सौम्य हाँसी। जो हैं विलासी उन से उदासी। भार्या तुम्हारी गिरिजा दुलारी। कल्याणकारी शिव दुःख हारी।।२।। जो भक्त सेवे फल पुष्प देवे। वाँ की तु देवे भव-नाव खेवे। दिव्यावतारी भव बाध टारी। कल्याणकारी शिव दुःख हारी।।३।। धूनी जगावे जल को चढ़ावे। जो भक्त ध्यावे उन को तु भावे। आँखें अँगारी गल सर्प धारी। कल्याणकारी शिव दुःख हारी।।४।। माथा नवाते तुझको रिझाते। जो धाम आते उन को सुहाते। जो हैं दुखारी उनके सुखारी। कल्याणकारी शिव दुःख हारी।।५।। मैं हूँ विकारी तु विराग धारी। मैं व्याभिचारी प्रभु काम मारी। मैं जन्मधारी तु स्वयं प्रसारी। कल्याणकारी शिव दुःख हारी।।६।। द्वारे तिहारे दुखिया पुकारे। सन्ताप सारे हर लो हमारे। झोली उन्हारी भरते उदारी। कल्याणकारी शिव दुःख हारी।।७।। सृष्टी नियंता सुत एकदंता। शोभा बखंता ऋषि साधु संता। तु अर्ध नारी डमरू मदारी। पिनाक धारी शिव दुःख हारी।८।। जा की उजारी जग ने दुआरी। वा की निखारी प्रभुने अटारी। कृपा तिहारी उन पे तु डारी। पिनाक धारी शिव दुःख हारी।९।। पुकार मोरी सुन ओ अघोरी। हे भंगखोरी भर दो तिजोरी। माँगे भिखारी रख आस भारी। पिनाक धारी शिव दुःख हारी।।१०।। भभूत अंगा तव भाल गंगा। गणादि संगा रहते मलंगा। श्मशान चारी सुर-काज सारी। पिनाक धारी शिव दुःख हारी।।११।। नवाय माथा रचुँ दिव्य गाथा। महेश नाथा रख शीश हाथा। त्रिनेत्र थारी महिमा अपारी। पिनाक धारी शिव दुःख हारी।।१२।। (छंद १ से ७ इंद्र वज्रा में, ८ से १० उपजाति में और ११ व १२ उपेन्द्र वज्रा में।) *************** लक्षण छंद "इन्द्रवज्रा" "ताता जगेगा" यदि सूत्र राचो। तो 'इन्द्रवज्रा' शुभ छंद पाओ। "ताता जगेगा"=तगण, तगण, जगण, गुरु, गुरु 221 221 121 22 ************** लक्षण छंद "उपेन्द्रवज्रा" "जता जगेगा" यदि सूत्र राचो। 'उपेन्द्रवज्रा' तब छंद पाओ। "जता जगेगा"=जगण, तगण, जगण, गुरु, गुरु 121 221 121 22 ************** लक्षण छंद "उपजाति छंद" उपेंद्रवज्रा अरु इंद्रवज्रा। दोनों मिले तो 'उपजाति' छंदा। चार चरणों के छंद में कोई चरण इन्द्रवज्रा का हो और कोई उपेंद्र वज्रा का तो वह 'उपजाति' छंद के अंतर्गत आता है।

35. गोपी विरह

(द्रुतविलम्बित छंद) मन बसी जब से छवि श्याम की। रह गई नहिँ मैं कछु काम की। लगत वेणु निरन्तर बाजती। श्रवण में धुन ये बस गाजती।। मदन मोहन मूरत साँवरी। लख हुई जिसको अति बाँवरी। हृदय व्याकुल हो कर रो रहा। विरह और न जावत ये सहा।। विकल हो तकती हर राह को। समझते नहिँ क्यों तुम चाह को। उड़ गया मन का सब चैन ही। तृषित खूब भये दउ नैन ही।। मन पुकार पुकार कहे यही। तु करुणाकर जानत क्या सही। दरश दे कर कान्ह उबार दे। नयन-प्यास बुझा अब तार दे।। ============= द्रुतविलम्बित (लक्षण छंद) "नभभरा" इन द्वादश वर्ण में। 'द्रुतविलम्बित' दे धुन कर्ण में।। नभभरा = नगण, भगण, भगण और रगण।(12 वर्ण) 111 211 211 212 दो दो चरण समतुकांत।

36. हनुमत स्तुति

(मालिनी छंद) पवन-तनय प्यारा, अंजनी का दुलारा। तपन निगल डारा, ठुड्ड टेढ़ा तुम्हारा।। हनुमत बलवाना, वज्र देही महाना। सकल गुण निधाना, ज्ञान के हो खजाना।। जलधि उतर पारा, सीय को खोज डारा। कनक-नगर जारा, राम का काज सारा।। अवधपति सहायी, नित्य रामानुयायी। अतिसय सुखदायी, भक्त को शांतिदायी।। भुजबल अति भारी, शैल आकार धारी। दनुज दलन कारी, व्योम के हो विहारी।। घिर कर जग-माया, घोर संताप पाया। तव दर प्रभु आया, नाथ दो छत्रछाया।। सकल जगत त्राता, मुक्ति के हो प्रदाता। नित गुण तव गाता, आपका रूप भाता।। भगतन हित कारी, नित्य हो ब्रह्मचारी। प्रभु शरण तिहारी, चाहता ये पुजारी।। ================ मालिनी (लक्षण छंद) "ननिमयय" गणों में, 'मालिनी' छंद जोड़ें। यति अठ अरु सप्ता, वर्ण पे आप तोड़ें।। "ननिमयय"=नगण, नगण, मगण, यगण, यगण। 111 111 22,2 122 122 मालिनी छन्द में प्रत्येक चरण में 15 वर्ण होते हैं और इसमें यति आठवें और सातवें वर्णों के बाद होती है।

37. आह्वाहन

(रथोद्धता छंद) मात अम्ब सम रूप राख के। देश-भक्ति रस भंग चाख के। गर्ज सिंह सम वीर जागिये। दे दहाड़ अब नींद त्यागिये।। आज है दुखित मात भारती। आर्त होय सबको पुकारती।। वीर जाग अब आप जाइये। धूम शत्रु-घर में मचाइये।। देश का हित कभी न शीर्ण हो। भाव ये हृदय से न जीर्ण हो।। ये विचार रख के बढ़े चलो। ही किसी न अवरोध से टलो।। रौद्र रूप अब वीर धारिये। मातृ भूमि पर प्राण वारिये। अस्त्र शस्त्र कर धार लीजिये। मुंड काट रिपु ध्वस्त कीजिये।। ============= रथोद्धता (लक्षण छंद) "रानरा लघु गुरौ" 'रथोद्धता'। तीन वा चतुस तोड़ के सजा। "रानरा लघु गुरौ" = 212 111 212 12 रथोद्धता इसके चार चरण होते हैं | प्रत्येक चरण में ११-११ वर्ण होते हैं | हर चरण में तीसरे या चौथे वर्ण के बाद यति होती है।

38. शीत-वर्णन

(वंशस्थ छंद) तुषार आच्छादित शैल खण्ड है। समस्त शोभा रजताभ मण्ड है। प्रचण्डता भीषण शीत से पगी। अलाव तापें यह चाह है जगी।। समीर भी है सित शीत से महा। प्रसार ऐसा कि न जाय ही सहा। प्रवाह भी है अति तीव्र वात का। प्रकम्पमाना हर रोम गात का।। व्यतीत ज्यों ही युग सी विभावरी। हरी भरी दूब तुषार से भरी।। लगे की आयी नभ को विदारके। उषा गले मौक्तिक हार धार के।। लगा कुहासा अब व्योम घेरने। प्रभाव हेमंत लगा बिखेरने।। खिली हुई धूप लगे सुहावनी। सुरम्य आभा लगती लुभावनी।। ============= लक्षण छंद (वंशस्थ) "जताजरौ" द्वादश वर्ण साजिये। प्रसिद्ध 'वंशस्थ' सुछन्द राचिये।। "जताजरौ"=जगण, तगण, जगण, रगण 121 221 121 212 (वंशस्थ छन्द के प्रत्येक चरण में 12 वर्ण होते हैं।)

39. मनोकामना

(वसन्त तिलका छंद) मैं पूण्य भारत धरा, पर जन्म लेऊँ। संस्कार वैदिक मिले, सब देव सेऊँ।। यज्ञोपवीत रखके, नित नेम पालूँ। माथे लगा तिलक मैं, रख गर्व चालूँ।। गीता व मानस करे, दृढ़ राह सारी। सत्संग प्राप्ति हर ले, भव-ताप भारी।। सिद्धांत विश्व-हित के, मन में सजाऊँ। हींसा प्रवृत्ति रख के, न स्वयं लजाऊँ।। सारी धरा समझलूँ, परिवार मेरा। हो नित्य ही अतिथि का, घर माँहि डेरा।। देवों समान उनको, समझूँ सदा ही। मैं आर्ष रीति विधि का, बन जाऊँ वाही।। प्राणी समस्त सम हैं, यह भाव राखूँ। ऐसे विचार रख के, रस दिव्य चाखूँ।। हे नाथ! पूर्ण करना, मन-कामना को। मेरी सदैव रखना, दृढ भावना को।। ================ वसन्त तिलका (लक्षण छंद) "ताभाजजागगु" गणों पर वर्ण राखो। प्यारी 'वसन्त तिलका' तब छंद चाखो।। "ताभाजजागगु" = तगण, भगण, जगण, जगण और दो गुरु। 221 211 121 121 22 वसन्त तिलका चौदह वर्णों का छन्द है। यति 8,6 पर रखने से छंद मधुर लगता है पर आवश्यक नहीं है।

40. राम स्तवन

(शालिनी छन्द) हाथों में वे, घोर कोदण्ड धारे। लंका जा के, दैत्य दुर्दांत मारे।। सीता माता, मान के साथ लाये। ऐसे न्यारे, रामचन्द्रा सुहाये।। मर्यादा के, आप हैं नाथ स्वामी। शोभा न्यारी, रूप नैनाभिरामी।। चारों भाई, साथ सीता अनूपा। बांकी झांकी, दिव्य है शांति-रूपा।। प्राणी भू के, आप के गीत गायें। सारे देवा, साम गा के रिझायें।। भक्तों के हो, आप ही दुःख हारी। पूरी की है, दीन की आस सारी।। माता रामो, है पिता रामचन्द्रा। स्वामी रामो, है सखा रामचन्द्रा।। हे देवों के, देव मेरे दुलारे। मैं तो जीऊँ, आप ही के सहारे।। =============== लक्षण छंद (शालिनी छंद) राचें बैठा, सूत्र "मातातगागा"। गावें प्यारी, 'शालिनी' छंद रागा।। "मातातगागा"= मगण, तगण, तगण, गुरु, गुरु 222 221 221 22 (शालिनी छन्द के प्रत्येक चरण मे 11 वर्ण होते हैं। यति चार वर्ण पे देने से छंद लय युक्त होती है।)

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