अवतार पाश की पंजाबी कविताएँ हिंदी में
Avtar Pash Punjabi poetry in Hindi



सपने

सपने हर किसी को नहीं आते बेजान बारूद के कणों में सोयी आग को सपने नहीं आते बदी के लिए उठी हुई हथेली पर आये पसीने को सपने नहीं आते शैल्फ़ों में पड़े इतिहास के ग्रन्थों को सपने नहीं आते सपनों के लिए लाजिमी है सहनशील दिलों का होना सपनों के लिए नींद की नज़र होनी लाजिमी है सपने इसीलिए सभी को नहीं आते

सबसे ख़तरनाक

श्रम की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती ग़द्दारी-लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती बैठे-सोए पकड़े जाना – बुरा तो है सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है पर सबसे ख़तरनाक नहीं होता कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है किसी जुगनू की लौ में पढ़ने लग जाना – बुरा तो है भींचकर जबड़े बस वक्‍त काट लेना – बुरा तो है सबसे ख़तरनाक नहीं होता सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शान्ति से भर जाना न होना तड़प का, सब सहन कर जाना, घर से निकलना काम पर और काम से लौटकर घर आना सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना सबसे ख़तरनाक वह घड़ी होती है तुम्हारी कलाई पर चलती हुई भी जो तुम्हारी नज़र के लिए रुकी होती है सबसे ख़तरनाक वह आँख होती है जो सबकुछ देखती हुई भी ठण्डी बर्फ होती है जिसकी नज़र दुनिया को मुहब्बत से चूमना भूल जाती है जो चीज़ों से उठती अन्धेपन की भाप पर मोहित हो जाती है जो रोज़मर्रा की साधारणतया को पीती हुई एक लक्ष्यहीन दोहराव के दुष्चक्र में ही गुम जाती है सबसे ख़तरनाक वह चाँद होता है जो हर कत्ल-काण्ड के बाद वीरान हुए आँगनों में चढ़ता है लेकिन तुम्हारी आँखों में मिर्चों की तरह नहीं लड़ता है सबसे ख़तरनाक वह गीत होता है तुम्हारे कान तक पहुंचने के लिए जो विलाप को लाँघता है डरे हुए लोगों के दरवाज़े पर जो गुण्डे की तरह हुँकारता है सबसे ख़तरनाक वह रात होती है जो उतरती है जीवित रूह के आकाशों पर जिसमें सिर्फ उल्लू बोलते गीदड़ हुआते चिपक जाता सदैवी अँधेरा बन्द दरवाज़ों की चैगाठों पर सबसे ख़तरनाक वह दिशा होती है जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाये और उसकी मुर्दा धूप की कोई फांस तुम्हारे जिस्म के पूरब में चुभ जाये श्रम की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती ग़द्दारी लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती (पाश की पंजाबी में प्रकाशित अन्तिम कविता, जनवरी, 1988)

अपनी असुरक्षा से

यदि देश की सुरक्षा यही होती है कि बिना ज़मीर होना ज़िन्दगी के लिए शर्त बन जाये आँख की पुतली में ‘हाँ’ के सिवाय कोई भी शब्द अश्लील हो और मन बदकार पलों के सामने दण्डवत झुका रहे तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है हम तो देश को समझे थे घर-जैसी पवित्र चीज़ जिसमें उमस नहीं होती आदमी बरसते मेंह की गूँज की तरह गलियों में बहता है गेहूँ की बालियों की तरह खेतों में झूमता है और आसमान की विशालता को अर्थ देता है हम तो देश को समझे थे आलिंगन-जैसे एक एहसास का नाम हम तो देश को समझते थे काम-जैसा कोई नशा हम तो देश को समझे थे क़ुर्बानी-सी वफ़ा लेकिन ’गर देश आत्मा की बेगार का कोई कारखाना है ’गर देश उल्लू बनने की प्रयोगशाला है तो हमें उससे ख़तरा है ’गर देश का अमन ऐसा होता है कि कर्ज़ के पहाड़ों से फिसलते पत्थरों की तरह टूटता रहे अस्तित्व हमारा और तनख़्वाहों के मुँह पर थूकती रहे कीमतों की बेशर्म हँसी कि अपने रक्त में नहाना ही तीर्थ का पुण्य हो तो हमें अमन से ख़तरा है ’गर देश की सुरक्षा ऐसी होती है कि हर हड़ताल को कुचलकर अमन को रंग चढ़ेगा कि वीरता बस सरहदों पर मरकर परवान चढ़ेगी कला का फूल बस राजा की खिड़की में ही खिलेगा अक़्ल, हुक़्म के कुएँ पर रहट की तरह ही धरती सींचेगी मेहनत, राजमहलों के दर पर बुहारी ही बनेगी तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है।

दो और दो तीन

मैं प्रमाणित कर सकता हूँ - कि दो और दो तीन होते हैं। वर्तमान मिथिहास होता है। मनुष्य की शक्ल चमचे जैसी होती है। तुम जानते हो - कचहरियों, बस-अड्डों और पार्कों में सौ-सौ के नोट घूमते फिरते हैं। डायरियाँ लिखते, तस्वीरें खींचते और रिपोर्टें भरते हैं। ‘कानून रक्षा केन्द्र’ में बेटे को माँ पर चढ़ाया जाता है। खेतों में ‘डाकू’ मज़दूरी करते हैं। माँगें माने जाने का ऐलान बमों से किया जाता है। अपने लोगों से प्यार का अर्थ ‘दुश्मन देश’ की एजेण्टी होता है। और बड़ी से बड़ी ग़द्दारी का तमग़ा बड़े से बड़ा रुतबा हो सकता है तो - दो और दो तीन भी हो सकते हैं। वर्तमान मिथिहास हो सकता है। मनुष्य की शक्ल भी चमचे जैसी हो सकती है।

सच

तुम्हारे मानने या न मानने से सच को कोई फ़र्क नहीं पड़ता। इन दुखते अंगों पर सच ने एक उम्र भोगी है। और हर सच उम्र भोगने के बाद, युग में बदल जाता है, और यह युग अब खेतों और मिलों में ही नहीं, फ़ौजों की कतारों में विचर रहा है। कल जब यह युग लाल किले पर बालियों का ताज पहने समय की सलामी लेगा तो तुम्हें सच के असली अर्थ समझ आयेंगे। अब हमारी उपद्रवी जाति को इस युग की फितरत तो चाहे कह लेना, लेकिन यह कह छोड़ना, कि झोंपड़ियों में फैला सच, कोई चीज़ नहीं। कितना सच है? तुम्हारे मानने या न मानने से, सच को कोई़ फ़र्क नहीं पड़ता।

भारत

भारत - मेरे आदर का सबसे महान शब्द जहाँ कहीं भी प्रयुक्त किया जाये शेष सभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं। इस शब्द का अभिप्राय खेतों के उन बेटों से है जो आज भी पेड़ों की परछाइयों से वक़्त मापते हैं। उनकी पेट के बिना, कोई समस्या नहीं और भूख लगने पर वे अपने अंग भी चबा सकते हैं। उनके लिए जि‍न्दगी एक परम्परा है, और मौत का अर्थ है मुक्ति। जब भी कोई पूरे भारत की, ‘राष्ट्रीय एकता’ की बात करता है तो मेरा दिल करता है - उसकी टोपी हवा में उछाल दूँ, उसे बताऊँ कि भारत के अर्थ किसी दुष्यन्त से सम्बन्धित नहीं बल्कि खेतों में दायर हैं जहाँ अनाज पैदा होता है जहाँ सेंधें लगती हैं---

बेदख़ली के लिए विनय-पत्र

(इन्दिरा गाँधी की मृत्यु तथा इसके पश्चात सिखों के कत्ले-आम पर एक प्रतिक्रिया) मैंने उम्र भर उसके खि़ला़फ़ सोचा और लिखा है अगर उसके शोक में सारा ही देश शामिल है तो इस देश में से मेरा नाम काट दो मैं ख़ूब जानता हूँ नीले सागरों तक फैले हुए इस खेतों, खदानों और भट्ठों के भारत को वह ठीक इसी का साधारण-सा कोई कोना था जहाँ पहली बार जब मज़दूर पर उठा थप्पड़ मरोड़ा गया किसी के खुरदुरे बेनाम हाथों में ठीक वही वक़्त था जब इस कत्ल की साज़ि‍श रची गयी कोई भी पुलिस नहीं ढूँढ़ सकेगी इस साज़ि‍श की जगह क्योंकि ट्यूबें केवल राजधानी में जगती हैं और खेतों, खदानों, भट्ठों का भारत बहुत अँधेरा है और ठीक इसी सर्द-अँधेरे में होश सँभालने पर जीने के साथ-साथ जब पहली बार इस जि‍न्दगी के बारे में सोचना शुरू किया मैंने ख़ुद को इसके कत्ल की साज़ि‍श में शामिल पाया जब भी भयावह शोर के पदचिह्न देख-देख कर मैंने ढूँढ़ना चाहा टर्रा-र्रा-ते हुए टिड्डे को शामिल पाया है, अपनी पूरी दुनिया को मैंने सदा ही उसे कत्ल किया है हर परिचित व्यक्ति की छाती में से ढूँढ़कर अगर उसके कातिलों के साथ यूँ ही सड़कों पर निपटना है तो मेरे हिस्से की सज़ा मुझे भी मिले मैं नहीं चाहता कि केवल इसलिए बचता रहूँ कि मेरा पता नहीं है भजन लाल बिश्नोई1 को - इसका जो भी नाम है - गुण्डों की सल्तनत का मैं इसका नागरिक होने पर थूकता हूँ मैं उस पायलट की कपटी आँखों में चुभता भारत हूँ हाँ, मैं भारत हूँ चुभता हुआ उसकी आँखों में अगर उसका अपना कोई खानदानी भारत है तो मेरा नाम उसमें भी अभी काट दो 1 भजन लाल बिश्नोई - हरियाणा का तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री (नवम्‍बर 1984)

तूफ़ानों ने कभी मात नहीं खायी

हवा का रुख बदलने पर बहुत नाचे, बहुत उछले जिनके शामियाने डोल चुके थे उन्होंने ऐलान कर दिया कि पेड़ अब शान्त हो गये हैं कि अब तूफ़ानों का दम टूट चुका है - जैसे कि जानते न हों ऐलानों का तूफ़ानों पर कोई असर नहीं होता जैसे कि जानते न हों तूफ़ानों की वजह पेड़ ही नहीं होते बल्कि वह उमस होता है जो धरती का चेहरा रुला देता है जैसे कि जानते न हों वह उमस बहुत गहरी थी जहाँ से तूफ़ान पैदा हुआ था सुनो, ओ भ्रम के बेटो हवा ने दिशा बदली है हवा बन्द हो नहीं सकती जब तक धरती का मुखड़ा टहक गुलजार नहीं होता तुम्हारे शामियाने आज भी गिरे कल भी गिरे हवा इसी दिशा में फिर चलनी है तूफ़ानों ने कभी मात नहीं खायी

हमारे लहू को आदत है

हमारे लहू को आदत है मौसम नहीं देखता, महफ़िल नहीं देखता ज़िन्दगी के जश्न शुरू कर लेता है सूली के गीत छेड़ लेता है शब्द हैं की पत्थरों पर बह-बहकर घिस जाते हैं लहू है की तब भी गाता है ज़रा सोचें की रूठी सर्द रातों को कौन मनाए ? निर्मोही पलों को हथेलियों पर कौन खिलाए ? लहू ही है जो रोज़ धाराओं के होंठ चूमता है लहू तारीख़ की दीवारों को उलांघ आता है यह जश्न यह गीत किसी को बहुत हैं -- जो कल तक हमारे लहू की ख़ामोश नदी में तैरने का अभ्यास करते थे ।

शहीद भगत सिंह

पहला चिंतक था पंजाब का सामाजिक संरचना पर जिसने वैज्ञानिक नज़रिये से विचार किया था पहला बौद्धि‍क जिसने सामाजिक विषमताओं की, पीड़ा की जड़ों तक पहचान की थी पहला देशभक्‍त जिसके मन में समाज सुधार का ए‍क निश्चित दृष्टिकोण था पहला महान पंजाबी था वह जिसने भावनाओं व बुद्धि के सामंजस्‍य के लिए धुँधली मान्‍यताओं का आसरा नहीं लिया था ऐसा पहला पंजाबी जो देशभक्ति के प्रदर्शनकारी प्रपंच से मुक्‍त हो सका पंजाब की विचारधारा को उसकी देन सांडर्स की हत्‍या असेम्‍बली में बम फेंकने और फॉंसी के फंदे पर लटक जाने से कहीं अधिक है भगत सिंह ने पहली बार पंजाब को जंगलीपन, पहलवानी व जहालत से ब‍ुद्धि‍वाद की ओर मोड़ा था जिस दिन फांसी दी गयी उसकी कोठरी में लेनिन की किताब मिली जिसका एक पन्‍ना मोड़ा गया था पंजाब की जवानी को उसके आखिरी दिन से इस मुड़े पन्‍ने से बढ़ना है आगे चलना है आगे

संविधान

संविधान यह पुस्‍तक मर चुकी है इसे मत पढ़ो इसके लफ़्ज़ों में मौत की ठण्‍डक है और एक-एक पन्‍ना ज़िन्दगी के अन्तिम पल जैसा भयानक यह पुस्‍तक जब बनी थी तो मैं एक पशु था सोया हुआ पशु और जब मैं जागा तो मेरे इन्सान बनने तक ये पुस्‍तक मर चुकी थी अब अगर इस पुस्‍तक को पढ़ोगे तो पशु बन जाओगे सोए हुए पशु ।

हम लड़ेंगे साथी

हम लड़ेंगे साथी हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिए हम लड़ेंगे साथी, ग़ुलाम इच्छाओं के लिए हम चुनेंगे साथी, ज़िन्दगी के टुकड़े हथौड़ा अब भी चलता है, उदास निहाई पर हल अब भी चलता हैं चीख़ती धरती पर यह काम हमारा नहीं बनता है, प्रश्न नाचता है प्रश्न के कन्धों पर चढ़कर हम लड़ेंगे साथी क़त्ल हुए जज़्बों की क़सम खाकर बुझी हुई नज़रों की क़सम खाकर हाथों पर पड़े घट्टों की क़सम खाकर हम लड़ेंगे साथी हम लड़ेंगे तब तक जब तक वीरू बकरिहा बकरियों का मूत पीता है खिले हुए सरसों के फूल को जब तक बोने वाले ख़ुद नहीं सूँघते कि सूजी आँखों वाली गाँव की अध्यापिका का पति जब तक युद्ध से लौट नहीं आता जब तक पुलिस के सिपाही अपने भाइयों का गला घोंटने को मज़बूर हैं कि दफ़्तरों के बाबू जब तक लिखते हैं लहू से अक्षर हम लड़ेंगे जब तक दुनिया में लड़ने की ज़रूरत बाक़ी है जब तक बन्दूक न हुई, तब तक तलवार होगी जब तलवार न हुई, लड़ने की लगन होगी लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की ज़रूरत होगी और हम लड़ेंगे साथी हम लड़ेंगे कि लड़े बग़ैर कुछ नहीं मिलता हम लड़ेंगे कि अब तक लड़े क्यों नहीं हम लड़ेंगे अपनी सज़ा कबूलने के लिए लड़ते हुए जो मर गए उनकी याद ज़िन्दा रखने के लिए हम लड़ेंगे

घास

मैं घास हूँ मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊंगा बम फेंक दो चाहे विश्‍वविद्यालय पर बना दो होस्‍टल को मलबे का ढेर सुहागा फिरा दो भले ही हमारी झोपड़ियों पर मुझे क्‍या करोगे मैं तो घास हूँ हर चीज़ पर उग आऊंगा बंगे को ढेर कर दो संगरूर मिटा डालो धूल में मिला दो लुधियाना ज़िला मेरी हरियाली अपना काम करेगी... दो साल... दस साल बाद सवारियाँ फिर किसी कंडक्‍टर से पूछेंगी यह कौन-सी जगह है मुझे बरनाला उतार देना जहाँ हरे घास का जंगल है मैं घास हूँ, मैं अपना काम करूंगा मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊंगा। (नोट: यह कविता अंग्रेजी कवि कार्ल सैंडबर्ग की कविता (Grass) का पंजाबी अनुवाद है)

हम झूठ-मूठ का कुछ भी नहीं चाहते

हम झूठ-मूठ का कुछ भी नहीं चाहते जिस तरह हमारे बाजुओं में मछलियां हैं, जिस तरह बैलों की पीठ पर उभरे सोटियों के निशान हैं, जिस तरह कर्ज के कागजों में हमारा सहमा और सिकुड़ा भविष्‍य है हम जिंदगी, बराबरी या कुछ भी और इसी तरह सचमुच का चाहते हैं हम झूठ-मूठ का कुछ भी नहीं चाहते और हम सबकुछ सचमुच का देखना चाहते हैं जिंदगी, समाजवाद, या कुछ भी और..

अब मेरा हक़ बनता है

मैंने टिकिट खरीद कर तुम्हारे लोकतंत्र की नौटंकी देखी है अब तो मेरा रंगशाला में बैठ कर हाय हाय करने और चीखने का हक़ बनता है। आपने भी टिकिट देते समय कोई छूट नहीं दी और मैं भी अब अपने बाजू से परदे फाड़ दूंगा गद्दे जला डालूँगा।

कातिल

यह भी सिद्ध हो चुका है कि इंसानी शक्ल सिर्फ चमचे-जैसी ही नहीं होती बल्कि दोनों तलवारें पकड़े लाल आंखोंवाली कुछ मूर्तियां भी मोम की होती हैं जिन्हें हल्का-सा सेंक देकर भी कोई जैसे सांचे में चाहे ढाल सकता है लेकिन गद्दारी की सजा तो सिर्फ एक ही होती है मैं रोने वाला नहीं, कवि हूं किस तरह चुप रह सकता हूं मैं कब मुकरता हूं कि मैं कत्ल नहीं करता मैं कातिल हूं उनका जो इंसानियत को कत्ल करते हैं हक को कत्ल करते हैं सच को कत्ल करते हैं देखो, इंजीनियरो! डॉक्टरो! अध्यापको! अपने छिले हुए घुटनों को देखो जो कुछ सफेद या नीली दहलीजों पर टेकने से छिले हैं अपने चेहरे की ओर देखो जो केवल एक याचना का बिंब है हर छिमाही दफ़्तरों में रोटी के लिए गिड़गिड़ाता बिंब! हम भिखारियों की कोई सुधरी हुई किस्म हैं लेकिन फिर भी हर दर से हमें दुत्कार दिया जाता है अपनी ही नजरों को अपनी आंखों से मिलाओ और देखो, क्या यह सामना कर सकती हैं? मुझे देशद्रोही भी कहा जा सकता है लेकिन मैं सच कहता हूं, यह देश अभी मेरा नहीं है यहां के जवानों या किसानों का नहीं है यह तो केवल कुछ ही ‘आदमियों’ का है और हम अभी आदमी नहीं हैं, बड़े निरीह पशु हैं हमारे जिस्म में जोंकों ने नहीं पालतू मगरमच्छों ने गहरे दांत गड़ाए हैं उठो, अपने घर के धुओं! खाली चूल्हों की ओर देखकर उठो उठो काम करनेवाले मजदूरो, उठो! खेमों पर लाल झंडे लहराकर बैठने से कुछ न होगा इन्हें अपने रक्त की रंगत दो (हड़तालें तो मोर्चे के लिए सिर्फ कसरत होती हैं) उठो मेरे बच्चो, विद्यार्थियो, जवानो, उठो! देखो मैं अभी मरा नहीं हूं यह एक अलग बात है कि मुझे और मेरे एक बच्चे को जो आपका भी भाई था हक के एवज में एक जरनैली सड़क के किनारे गोलियों के पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया है आपने भी यह ‘बड़ी भारी पुलिस मुठभेड़’ पढ़ी होगी और आपने देखा है कि राजनीतिक दल दूर-दूर से मरियल कुत्ते की तरह पल दो पल न्यायिक जांच के लिए भौंके और यहां का कानून सिक्के का है जो सिर्फ आग से ही ढल सकता है भौंकने से नहीं क्यों झिझकते हो, आओ उठें… मेरी ओर देखो, मैं अभी जिंदा हूं लहरों की तरह बढ़ें इन मगरमच्छों के दांत तोड़ डालें लौट जाएं फिर उठें, और जो इन मगरमच्छों की रक्षा करता है हुक्म देने के लिए उस पिलपिले चेहरे का मुंह खुलने से पहले उसमें बन्दूक की नाली ठोंक दें।

मैं अब विदा लेता हूं

मैं अब विदा लेता हूं मेरी दोस्त, मैं अब विदा लेता हूं मैंने एक कविता लिखनी चाही थी सारी उम्र जिसे तुम पढ़ती रह सकतीं उस कविता में महकते हुए धनिए का जिक्र होना था ईख की सरसराहट का जिक्र होना था उस कविता में वृक्षों से टपकती ओस और बाल्टी में दुहे दूध पर गाती झाग का जिक्र होना था और जो भी कुछ मैंने तुम्हारे जिस्म में देखा उस सब कुछ का जिक्र होना था उस कविता में मेरे हाथों की सख्ती को मुस्कुराना था मेरी जांघों की मछलियों ने तैरना था और मेरी छाती के बालों की नरम शॉल में से स्निग्धता की लपटें उठनी थीं उस कविता में तेरे लिए मेरे लिए और जिन्दगी के सभी रिश्तों के लिए बहुत कुछ होना था मेरी दोस्त लेकिन बहुत ही बेस्वाद है दुनिया के इस उलझे हुए नक्शे से निपटना और यदि मैं लिख भी लेता शगुनों से भरी वह कविता तो उसे वैसे ही दम तोड़ देना था तुम्हें और मुझे छाती पर बिलखते छोड़कर मेरी दोस्त, कविता बहुत ही निसत्व हो गई है जबकि हथियारों के नाखून बुरी तरह बढ़ आए हैं और अब हर तरह की कविता से पहले हथियारों के खिलाफ युद्ध करना ज़रूरी हो गया है युद्ध में हर चीज़ को बहुत आसानी से समझ लिया जाता है अपना या दुश्मन का नाम लिखने की तरह और इस स्थिति में मेरी तरफ चुंबन के लिए बढ़े होंटों की गोलाई को धरती के आकार की उपमा देना या तेरी कमर के लहरने की समुद्र के सांस लेने से तुलना करना बड़ा मज़ाक-सा लगता था सो मैंने ऐसा कुछ नहीं किया तुम्हें मेरे आंगन में मेरा बच्चा खिला सकने की तुम्हारी ख्वाहिश को और युद्ध के समूचेपन को एक ही कतार में खड़ा करना मेरे लिए संभव नहीं हुआ और अब मैं विदा लेता हूं मेरी दोस्त, हम याद रखेंगे कि दिन में लोहार की भट्टी की तरह तपने वाले अपने गांव के टीले रात को फूलों की तरह महक उठते हैं और चांदनी में पगे हुई ईख के सूखे पत्तों के ढेरों पर लेट कर स्वर्ग को गाली देना, बहुत संगीतमय होता है हां, यह हमें याद रखना होगा क्योंकि जब दिल की जेबों में कुछ नहीं होता याद करना बहुत ही अच्छा लगता है मैं इस विदाई के पल शुक्रिया करना चाहता हूं उन सभी हसीन चीज़ों का जो हमारे मिलन पर तंबू की तरह तनती रहीं और उन आम जगहों का जो हमारे मिलने से हसीन हो गई मैं शुक्रिया करता हूं अपने सिर पर ठहर जाने वाली तेरी तरह हल्की और गीतों भरी हवा का जो मेरा दिल लगाए रखती थी तेरे इंतज़ार में रास्ते पर उगी हुई रेशमी घास का जो तुम्हारी लरजती चाल के सामने हमेशा बिछ जाता था टींडों से उतरी कपास का जिसने कभी भी कोई उज़्र न किया और हमेशा मुस्कराकर हमारे लिए सेज बन गई गन्नों पर तैनात पिदि्दयों का जिन्होंने आने-जाने वालों की भनक रखी जवान हुए गेंहू की बालियों का जो हम बैठे हुए न सही, लेटे हुए तो ढंकती रही मैं शुक्रगुजार हूं, सरसों के नन्हें फूलों का जिन्होंने कई बार मुझे अवसर दिया तेरे केशों से पराग केसर झाड़ने का मैं आदमी हूं, बहुत कुछ छोटा-छोटा जोड़कर बना हूं और उन सभी चीज़ों के लिए जिन्होंने मुझे बिखर जाने से बचाए रखा मेरे पास शुक्राना है मैं शुक्रिया करना चाहता हूं प्यार करना बहुत ही सहज है जैसे कि जुल्म को झेलते हुए खुद को लड़ाई के लिए तैयार करना या जैसे गुप्तवास में लगी गोली से किसी गुफा में पड़े रहकर जख्म के भरने के दिन की कोई कल्पना करे प्यार करना और लड़ सकना जीने पर ईमान ले आना मेरी दोस्त, यही होता है धूप की तरह धरती पर खिल जाना और फिर आलिंगन में सिमट जाना बारूद की तरह भड़क उठना और चारों दिशाओं में गूंज जाना - जीने का यही सलीका होता है प्यार करना और जीना उन्हे कभी नहीं आएगा जिन्हें जिन्दगी ने बनिए बना दिया जिस्म का रिश्ता समझ सकना, खुशी और नफरत में कभी भी लकीर न खींचना, जिन्दगी के फैले हुए आकार पर फि़दा होना, सहम को चीरकर मिलना और विदा होना, बड़ी शूरवीरता का काम होता है मेरी दोस्त, मैं अब विदा लेता हूं तू भूल जाना मैंने तुम्हें किस तरह पलकों में पाल कर जवान किया कि मेरी नजरों ने क्या कुछ नहीं किया तेरे नक्शों की धार बांधने में कि मेरे चुंबनों ने कितना खूबसूरत कर दिया तेरा चेहरा कि मेरे आलिंगनों ने तेरा मोम जैसा बदन कैसे सांचे में ढाला तू यह सभी भूल जाना मेरी दोस्त सिवा इसके कि मुझे जीने की बहुत इच्छा थी कि मैं गले तक जिन्दगी में डूबना चाहता था मेरे भी हिस्से का जी लेना मेरी दोस्त मेरे भी हिस्से का जी लेना।

मैं पूछता हूँ

मैं पूछता हूँ आसमान में उड़ते हुए सूरज से क्या वक़्त इसी का नाम है कि घटनाए कुचलती हुई चली जाए मस्त हाथी की तरह एक समूचे मनुष्य की चेतना को? कि हर सवाल केवल परिश्रम करते देह की गलती ही हो क्यों सुना दिया जाता है हर बार पुराना लतीफा क्यों कहा जाता है हम जीते है ज़रा सोचें - कि हममे से कितनो का नाता है ज़िन्दगी जैसी किसी चीज़ के साथ! रब्ब की वह कैसी रहमत है जो गेहू गोड़ते फटे हाथो पर और मंडी के बीच के तख्तपोश पर फैले मांस के उस पिलपिले ढेर पर एक ही समय होती है ? आखिर क्यों बैलों की घंटियों पानी निकालते इंज़नो के शोर में घिरे हुए चेहरों पर जम गयी है एक चीखती ख़ामोशी ? कौन खा जाता है तलकर टोके पर चारा लगा रहे कुतरे हुए अरमानो वाले पट्ठे की मछलियों? क्यों गिड़गिडाता है मेरे गाँव का किसान एक मामूली पुलिस वाले के सामने ? क्यों कुचले जा रहे आदमी के चीखने को हर बार कविता कह दिया जाता है ? मैं पूछता हूँ आसमान में उड़ते हुए सूरज से

23 मार्च

उसकी शहादत के बाद बाक़ी लोग किसी दृश्य की तरह बचे ताज़ा मुंदी पलकें देश में सिमटती जा रही झाँकी की देश सारा बच रहा बाक़ी उसके चले जाने के बाद उसकी शहादत के बाद अपने भीतर खुलती खिडकी में लोगों की आवाज़ें जम गयीं उसकी शहादत के बाद देश की सबसे बड़ी पार्टी के लोगों ने अपने चेहरे से आँसू नहीं, नाक पोंछी गला साफ़ कर बोलने की बोलते ही जाने की मशक की उससे सम्बन्धित अपनी उस शहादत के बाद लोगों के घरों में, उनके तकियों में छिपे हुए कपड़े की महक की तरह बिखर गया शहीद होने की घड़ी में वह अकेला था ईश्वर की तरह लेकिन ईश्वर की तरह वह निस्तेज न था

द्रोणाचार्य के नाम

मेरे गुरुदेव! उसी वक़्त यदि आप एक भील बच्चा समझ मेरा अंगूठा काट देते तो कहानी दूसरी थी............. लेकिन एन।सी।सी। में बंदूक उठाने का नुक्ता तो आपने खुद बताया था कि अपने देश पर जब कोई मुसीबत आन पड़े दुश्मन को बना कर टार्गेट कैसे घोड़ा दबा देना है ……… अब जब देश पर मुसीबत आ पड़ी मेरे गुरुदेव! खुद ही आप दुर्योधन के संग जा मिले हो लेकिन अब आपका चक्रव्यूह कहीं भी कारगर न होगा और पहले वार में ही हर घनचक्कर का चौरासी का चक्कर कट जाएगा हाँ, यदि छोटी उम्र में ही आप एक भील बच्चा समझ मेरा अंगूठा काट देते तो कहानी दूसरी थी……

क़ैद करोगे अंधकार में

क्या-क्या नहीं है मेरे पास शाम की रिमझिम नूर में चमकती ज़िंदगी लेकिन मैं हूं घिरा हुआ अपनों से क्या झपट लेगा कोई मुझ से रात में क्या किसी अनजान में अंधकार में क़ैद कर देंगे मसल देंगे क्या जीवन से जीवन अपनों में से मुझ को क्या कर देंगे अलहदा और अपनों में से ही मुझे बाहर छिटका देंगे छिटकी इस पोटली में क़ैद है आपकी मौत का इंतज़ाम अकूत हूँ सब कुछ हैं मेरे पास जिसे देखकर तुम समझते हो कुछ नहीं उसमें

आधी रात में

आधी रात में मेरी कँपकँपी सात रजाइयों में भी न रुकी सतलुज मेरे बिस्तर पर उतर आया सातों रजाइयाँ गीली बुखार एक सौ छह, एक सौ सात हर साँस पसीना-पसीना युग को पलटने में लगे लोग बुख़ार से नहीं मरते मृत्यु के कन्धों पर जानेवालों के लिए मृत्यु के बाद ज़िन्दगी का सफ़र शुरू होता है मेरे लिए जिस सूर्य की धूप वर्जित है मैं उसकी छाया से भी इनकार कर दूँगा मैं हर खाली सुराही तोड़ दूँगा मेरा ख़ून और पसीना मिट्टी में मिल गया है मैं मिट्टी में दब जाने पर भी उग आऊँगा

तुम्हारे रुक-रुक कर जाते पावों की सौगन्ध बापू

तुम्हारे रुक-रुक कर जाते पाँवों की सौगन्ध बापू तुम्हें खाने को आते रातों के जाड़ों का हिसाब मैं लेकर दूँगा तुम मेरी फ़ीस की चिंता न करना मैं अब कौटिल्य से शास्त्र लिखने के लिए विद्यालय नहीं जाया करूँगा मैं अब मार्शल और स्मिथ से बहिन बिंदरों की शादी की चिंता की तरह बढ़ती क़ीमतों का हिसाब पूछने नहीं जाऊँगा बापू तुम यों ही हड्डियों में चिंता न जमाओं मैं आज पटवारी के पैमाने से नहीं पूरी उम्र भत्ता ले जा रही माँ के पैरों की बिवाईयों से अपने खेत मापूँगा मैं आज सन्दूक के ख़ाली ही रहे ख़ाने की भायँ - भायँ से तुम्हारा आज तक का दिया लगान गिनूँगा तुम्हारे रुक-रुक कर जाते पाँवों की सौगन्ध बापू मैं आज शमशान-भूमि में जा कर अपने दादा और दादा के दादा के साथ गुप्त बैठक करूँगा मैं अपने पुरखों से गुफ़्तगू कर जान लूँगा यह सब कुछ किस तरह हुआ कि जब दुकानों जमा दुकानों का जोड़ मंडी बन गया यह सब कुछ किस तरह हुआ कि मंडी जमा तहसील का जोड़ शहर बन गया मैं रहस्य जानूँगा मंडी और तहसील बाँझ मैदानों में कैसे उग आया था थाने का पेड़ बापू तुम मेरी फ़ीस की चिंता न करना मैं कॉलेज के क्लर्कों के सामने अब रीं-रीं नहीं करूँगा मैं लेक्चर कम होने की सफ़ाई देने के लिए अब कभी बेबे या बिंदरों को झूठा बुखार न चढ़ाया करूँगा मैं झूठमूठ तुम्हें वृक्ष काटने को गिराकर तुम्हारी टाँग टूटने जैसा कोई बदशगुन-सा बहाना न करूँगा मैं अब अंबेडकर के फ़ण्डामेंटल राइट्स सचमुच के न समझूँगा मैं तुम्हारे पीले चहरे पर किसी बेजमीर टाउट की मुस्कराहट जैसे सफ़ेद केशों की शोकमयी नज़रों को न देख सकूँगा कभी भी उस संजय गांधी को पकड़ कर मैं तुम्हारे क़दमो में पटक दूँगा मैं उसकी ऊटपटाँग बड़को को तुम्हारें ईश्वर को निकाली ग़ाली के सामने पटक दूँगा बापू तुम ग़म न करना मैं उस नौजवान हिप्पी से तुम्हारें सामने पूछूँगा मेरे बचपन की अगली उम्र का क्रम द्वापर युग की तरह आगे पीछे किस बदमाश ने किया है मैं उन्हें बताऊँगा निःसत्व फ़तवों से चीज़ों को पुराना करते जाना बेगाने बेटों की माँओं के उलटे सीधे नाम रखने सिर्फ़फ लोरी के लोरी के संगीत में ही सुरक्षित होता हैं मैं उससे कहूँगा ममता की लोरी से ज़रा बाहर तो निकलो तुम्हें पता चले बाक़ी का पूरा देश बूढ़ा नहीं है...

उनके शब्द लहू के होते हैं

जिन्होंने उम्र भर तलवार का गीत गाया है उनके शब्द लहू के होते हैं लहू लोहे का होता है जो मौत के किनारे जीते हैं उनकी मौत से ज़िन्दगी का सफ़र शुरू होता है जिनका लहू और पसीना मिटटी में गिर जाता है वे मिट्टी में दब कर उग आते हैं

तुम्हारे बग़ैर मैं होता ही नहीं

तुम्हारे बग़ैर मैं बहुत खचाखच रहता हूँ यह दुनिया सारी धक्कम-पेल सहित बेघर पाश की दहलीजें लाँघ कर आती-जाती है तुम्हारे बग़ैर मैं पूरे का पूरा तूफ़ान होता हूँ ज्वार-भाटा और भूकम्प होता हूँ तुम्हारे बग़ैर मुझे रोज़ मिलने आते हैं आईंस्टाइन और लेनिन मेरे साथ बहुत बातें करते हैं जिनमें तुम्हारा बिलकुल ही ज़िक्र नहीं होता मसलन: समय एक ऐसा परिंदा है जो गाँव और तहसील के बीच उड़ता रहता है और कभी नहीं थकता सितारे ज़ुल्फ़ों में गुँथे जाते या जुल्फ़ें सितारों में-एक ही बात है मसलन: आदमी का एक और नाम मेनशेविक है और आदमी की असलियत हर साँस के बीच को खोजना है लेकिन हाय-हाय! बीच का रास्ता कहीं नहीं होता वैसे इन सारी बातों से तुम्हारा ज़िक्र ग़ायब रहता है । तुम्हारे बग़ैर मेरे पर्स में हमेशा ही हिटलर का चित्र परेड करता है उस चित्र की पृष्ठभूमि में अपने गाँव की पूरे वीराने और बंजर की पटवार होती है जिसमें मेरे द्वारा निक्की के ब्याह में गिरवी रखी ज़मीन के सिवा बची ज़मीन भी सिर्फ़ जर्मनों के लिए ही होती है । तुम्हारे बग़ैर, मैं सिद्धार्थ नहीं, बुद्ध होता हूँ और अपना राहुल जिसे कभी जन्म नहीं देना कपिलवस्तु का उत्तराधिकारी नहीं एक भिक्षु होता है । तुम्हारे बग़ैर मेरे घर का फ़र्श सेज नहीं ईंटों का एक समाज होता है तुम्हारे बग़ैर सरपंच और उसके गुर्गे हमारी गुप्त डाक के भेदिए नहीं श्रीमान बी०डी०ओ० के कर्मचारी होते हैं तुम्हारे बग़ैर अवतार सिंह संधू महज पाश और पाश के सिवाय कुछ नहीं होता तुम्हारे बग़ैर धरती का गुरुत्व भुगत रही दुनिया की तक़दीर होती है या मेरे ज़िस्म को खरोंचकर गुज़रते अ-हादसे मेरे भविष्य होते हैं लेकिन किंदर ! जलता जीवन माथे लगता है तुम्हारे बग़ैर मैं होता ही नहीं ।

वफ़ा

बरसों तड़पकर तुम्हारे लिए मैं भूल गया हूँ कब से, अपनी आवाज़ की पहचान भाषा जो मैंने सीखी थी, मनुष्य जैसा लगने के लिए मैं उसके सारे अक्षर जोड़कर भी मुश्किल से तुम्हारा नाम ही बन सका मेरे लिए वर्ण अपनी ध्वनि खो बैठे हैं बहुत देर से मैं अब लिखता नहीं- तुम्हारे धूपिया अंगों की सिर्फ़ परछाईं पकड़ता हूँ । कभी तुमने देखा है- लकीरों को बगावत करते ? कोई भी अक्षर मेरे हाथों से तुम्हारी तस्वीर बन कर ही निकलता है तुम मुझे हासिल हो (लेकिन) क़दम-भर की दूरी से शायद यह क़दम मेरी उम्र से ही नहीं मेरे कई जन्मों से भी बड़ा है यह क़दम फैलते हुए लगातार रोक लेगा मेरी पूरी धरती को यह क़दम माप लेगा मृत आकाशों को तुम देश में ही रहना मैं कभी लौटूँगा विजेता की तरह तुम्हारे आँगन में इस क़दम या मुझे ज़रूर दोनों में से किसी को क़त्ल होना होगा ।

प्रतिबद्धता

हम चाहते है अपनी हथेली पर कुछ इस तरह का सच जैसे गुड़ की चाशनी में कण होता है जैसे हुक्के में निकोटिन होती है जैसे मिलन के समय महबूब की होठों पर कोई मलाई जैसी चीज़ होती है

लोहा

आप लोहे की कार का आनन्द लेते हो मेरे पास लोहे की बन्दूक़ है मैंने लोहा खाया है आप लोहे की बात करते हो लोहा जब पिघलता है तो भाप नहीं निकलती जब कुठाली उठाने वालों के दिल से भाप निकलती है तो लोहा पिघल जाता है पिघले हुए लोहे को किसी भी आकार में ढाला जा सकता है कुठाली में देश की तक़दीर ढली होती है यह मेरी बन्दूक़ आपके बैंकों के सेफ़; और पहाड़ों को उल्टाने वाली मशीनें, सब लोहे के हैं शहर से वीराने तक हर फ़र्क़ बहन से वेश्या तक हर एहसास मालिक से मुलाज़िम तक हर रिश्ता बिल से क़ानून तक हर सफ़र शोषणतंत्र से इंक़लाब तक हर इतिहास जंगल, कोठरियों व झोंपड़ियों से लेकर इंटेरोगेशन तक हर मुक़ाम सब लोहे के हैं। लोहे ने बड़ी देर इंतज़ार किया है कि लोहे पर निर्भर लोग लोहे की पत्तियाँ खाकर ख़ुदकुशी करना छोड़ दें मशीनों में फँसकर फूस की तरह उड़नेवाले लावारिसों की बीवियाँ लोहे की कुर्सियों पर बैठे वारिसों के पास कपड़े तक भी ख़ुद उतारने के लिए मजबूर न हों लेकिन आख़िर लोहे को पिस्तौलों, बन्दूक़ों और बमों की शक्ल लेनी पड़ी है आप लोहे की चमक में चुँधियाकर अपनी बेटी को बीवी समझ सकते हैं, (लेकिन) मैं लोहे की आँख से दोस्तों के मुखौटे पहने दुश्मन भी पहचान सकता हूँ क्योंकि मैंने लोहा खाया है आप लोहे की बात करते हो।

अंत में

हमें पैदा नहीं होना था हमें लड़ना नहीं था हमें तो हेमकुंठ पर बैठ कर भक्ति करनी थी लेकिन जब सतलुज के पानी से भाप उठी जब क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम की जुबाान रुकी जब लड़को के पास देखा 'जेम्स बांड' तो मैं कह उठा, चल भाई संत संधू* नीचे धरती पर चले पापों का बोझ तो बढ़ता जाता हैं और अब हम आएं है यह लो हमारा ज़फरनामा हमारे हिस्से की कटार हमें दे दो हमारा पेट हाज़िर हैं……। (संत संधू* =पाश के कवि मित्र )

मुझे चाहिए कुछ बोल

मुझे चाहिए कुछ बोल जिनका एक गीत बन सके…… छीन लो मुझसे ये भीड़ की टें टें जला दो मुझे मेरी कविता की धूनी पर मेरी खोपड़ी पर बेशक खनकाएं शासन का काला डंडा लेकिन मुझे दे दो कुछ बोल जिनका गीत बन सके…… मुझे नहीं चाहिए अमीन सयानी के डायलॉग संभाले आनंद बक्षी, आप जाने लक्ष्मीकांत मुझे क्या करना है इंदिरा का भाषण मुझे तो चाहिए कुछ बोल जिनका गीत बन सके…… मेरे मुंह में ठूस दे यमले जट्टे की तूम्बी मेरे माथे पे घसीट दे टैगोर का नेशनल एंथम मेरे सीन पे चिपका दे गुलशन नंदा के नॉवेल मुझे क्यों पढ़ना है ज़फरनामा गर मुझे मिल जाए कुछ बोल जिनका एक गीत बन सके…… मेरी पीठ पर लाद दे वाजपेयी का बोझिल बदन मेरी गर्दन में डाल दे हेमंत बसु की लाश मेरी गुदा में दे दे लाला जगत नारायण का सिर चलो मैं माओ का नाम भी नहीं लेता लेकिन मुझे दे तो सही कुछ बोल जिनका एक गीत बन सके …… मुझे पेन में स्याही न भरने दे मैं अपनी 'लौह कथा' भी जला देता हूँ मैं चन्दन* से भी कट्टी कर लेता हूँ गर मुझे दे दे कुछ बोल जिनका एक गीत बन सके …… यह गीत मुझे उन गूंगो को देना है जिन्हें गीतों की कद्र है लेकिन जिनका आपके हिसाब से गाना नहीं बनता गर आपके पास नहीं है कोई बोल, कोई गीत मुझे बकने दे जो मैं बकता हूँ। (चन्दन* =प्रसिद्द पंजाबी कवि अमरजीत चन्दन)

संसद

ज़हरीली शहद की मक्खी की ओर उंगली न करो जिसे आप छत्ता समझते है वहां जनता के प्रतिनिधि रहते है।

मुझे पता है

प्रतिमानों की रेतीली दीवार से माँ-बाप की झिड़कियों से तुम्हारे गले लग कर मैं रोऊँगा नहीं, संवेदना के कोहरे में तुम्हारे आलिंगन में याद ऐसे फ़ैल जाती है कि पढ़ी नहीं जाती अपने खिलाफ छपती ख़बरें मुझे पता है कि चाहे अब नहीं चलते सुराखवाले गोल पैसे लेकिन पीछे छोड़ गए है वे अपनी साजिश कि आदमी अभी भी उतना है जितना किसी को गोल पैसे के सुराख से नज़र आता है।

हमारे समयों में

यह सब कुछ हमारे ही समयों में होना था कि समय ने रुक जाना था थके हुए युद्ध की तरह और कच्ची दीवारों पर लटकते कैलेंडरों ने प्रधानमंत्री की फ़ोटो बनकर रह जाना था धूप से तिड़की हुई दीवारों के परखचों और धुएँ को तरसते चूल्हों ने हमारे ही समयों का गीत बनना था ग़रीब की बेटी की तरह बढ़ रहा इस देश के सम्मान का पौधा हमारे रोज़ घटते क़द के कंधों पर ही उगना था शानदार एटमी तजर्बे की मिट्टी हमारी आत्मा में फैले हुए रेगिस्तान से उड़नी थी मेरे-आपके दिलों की सड़क के मस्तक पर जमना था रोटी-माँगने आए अध्यापकों के मस्तक की नसों का लहू दशहरे के मैदान में गुम हुई सीता नहीं, बस तेल का टिन माँगते हुए रावण हमारे ही बूढ़ों को बनना था अपमान वक़्त का हमारे ही समयों में होना था हिटलर की बेटी ने ज़िंदगी के खेतों की माँ बनकर ख़ुद हिटलर का ‘डरौना’ हमारे ही मस्तकों में गड़ाना था यह शर्मनाक हादसा हमारे ही साथ होना था कि दुनिया के सबसे पवित्र शब्दों ने बन जाना था सिंहासन की खड़ाऊँ— मार्क्स का सिंह जैसा सिर दिल्ली की भूल-भुलैयों में मिमियाता फिरता हमें ही देखना था मेरे यारो, यह कुफ़्र हमारे ही समयों में होना था बहुत दफ़ा, पक्के पुलों पर लड़ाइयाँ हुईं लेकिन ज़ुल्म की शमशीर के घूँघट न मुड़ सके मेरे यारो, अपने अकेले जीने की ख़्वाहिश कोई पीतल का छल्ला है हर पल जो घिस रहा न इसने यार की निशानी बनना है न मुश्किल वक़्त में रक़म बनना है मेरे यारो, हमारे वक़्त का एहसास बस इतना ही न रह जाए कि हम धीमे-धीमे मरने को ही जीना समझ बैठे थे कि समय हमारी घड़ियों से नहीं हड्डियों के खुरने से मापे गए यह गौरव हमारे ही समयों को मिलेगा कि उन्होंने नफ़रत निथार ली गुजरते गंदलाए समुद्रों से कि उन्होंने बींध दिया पिलपिली मुहब्बत का तेंदुआ और वह तैरकर जा पहुँचे हुस्न की दहलीज़ों पर यह गौरव हमारे ही समयों का होगा यह गौरव हमारे ही समयों का होना है।

दान

आपने मुझे दिया है सिर्फ़ एक कमरा स्थिर और बंद मापना तो मुझे है कि इसमें कितने क़दमों से मील बनता है कितने मील चलकर दीवार दीवार नहीं रहती और सफ़र के अर्थ शुरू होते हैं... आपने मुझे कुछ हक़ दिए हैं— घर से जलावतनी का रोटी के लिए मिट्टी होने का महबूब के ग़म में आँखें खोने का और मौत के भयानक कोहरे में गुम हो जाने का लेकिन एक हक़ और होता है जो दिया नहीं, सिर्फ़ छीना जाता है... आपके पास वायदों का समुद्र मेरे डूबने के लिए जिसमें तैरती हैं सुनहरी सपनों की मछलियाँ लेकिन उपलब्धि का किनारा ओझल होने से पहले मैंने पकड़ लिया है बेवफ़ाई का चप्पू और अब आपके पास बचा है मुझे देने के लिए सिर्फ़ एक पुरस्कार— मौत और वह भी बड़े दानवीरो! आपका स्वयं रखने को जी चाहता है!

आसमान का टुकड़ा

मेरी तो जान है आसमान का वह टुकड़ा जो रोशनदान में से झाँक पड़ता है सख़्त दीवारों और सींखचों का भी लिहाज़ नहीं रखता वे तो चाहते हैं कि मैं इस टुकड़े के सहारे ही जिऊँ और फिर कहते क्यों नहीं इससे कि वहीं जम जाए, नए-नए रंग न बदले— देखो यह टुकड़ा हर पल रंगत बदलता है इसके हर रंग के साथ लगा है ऋतुओं का सौंदर्य ज़रा पूछ देखो इस टुकड़े से, मौसम से न बँधे फेंक दे यह अपनी देह से ऋतुओं की परछाइयाँ यह टुकड़ा तो अपने कंधों पर पूरा आसमान ही उठाए फिरता है...

हाथ

मैं अपने ज़िस्म को हाथों से सँभाल सकता हूँ मेरे हाथ जब महबूब का हाथ माँगते हैं पकड़ने को तो मैं चाँद भी हाथ में पकड़ना चाहता हूँ मेरे हाथों को लेकिन सींखचों का स्पर्श बिना शिकवा मुबारक हे साथ ही कोठरी के इस अँधेरे में मेरे हाथ, हाथ नहीं होते सिर्फ़ थप्पड़ होते हैं... हाथ मिलाने पर पाबंदी सिसकती रह जाती है जब अचानक कोई साथी सामने आता है हाथ ख़ुद-ब-ख़ुद मुक्का बनकर लहराने लगते हैं... दिन हाथ खींचना है तो रात हाथ बढ़ाती है कोई हाथ छीन नहीं सकता इन हाथों का सिलसिला या कभी दरवाज़ों की पाँचों की पाँच सलाख़ें बन जाते हैं कोई बड़े प्यारे हाथ— एक हाथ मेरे गाँव के बुज़ुर्ग तुलसी का जिसकी उँगलियाँ वर्षों की गूँथ-गूँथकर थीं इतनी थकी कि मुझे पढ़ाते सबक़ बन जाता था उससे अलिफ़ का ‘त’... एक हाथ जगीरी दर्ज़ी का जो जब भी मुझे जाँघिया सिलकर देता तो लेता था पारिश्रमिक मेरे कान मरोड़ने में और यह जानते हुए भी कि मैं उलट करने से बाज़ नहीं आऊँगा नसीहत देता था— पशुओं के साथ पोखर में न घुसा कर बचकाने खेल खेलने से बाज़ आएगा या नहीं? एक हाथ प्यारे नाई का जो काटते हुए मेरे केश डरता रहता था मेरे सिख घरवालों से... एक हाथ मरो दाई का जिसके हाथ में था कोई रिकार्ड जो सदा राग गाता था— ‘जीते-जगाते रहो बेटे!’ और एक हाथ दरसू दिहाड़िए का जिसने पी ली आधी सदी रखकर हुक़्क़े की चिलम में... मुझसे कोई छीन नहीं सकता इन हाथों का सिलसिला हाथ जेबों मे हों या बाहर हथकड़ी में हो या बंदूक़ के कुंदे पर हाथ, हाथ होते हैं और हाथों का एक धर्म होता है हाथ यदि हों तो जोड़ने के लिए ही नहीं होते न दुश्मन के सामने खड़े करने के लिए ही होते हैं ये गर्दनें मरोड़ने के लिए भी होते हैं हाथ यदि हों तो हीर के हाथ से चूरी पकड़ने के लिए ही नहीं होते सैदे की बारात रोकने के लिए भी होते हैं कैदो की कमर तोड़ने के लिए भी होते हैं हाथ श्रम करने के लिए ही नहीं होते शोषक हाथों को तोड़ने के लिए भी होते हैं... जो हाथों का धर्म भंग करते हैं जो हाथों के सौंदर्य का अपमान करते हैं वे पंगु होते हैं हाथ तो होते हैं सहारा देने के लिए हाथ तो होते हैं हुंकारा भरने के लिए।

उम्मीद रखते हैं...

मुड़-मुड़ जाती है आलम की स्याह चादर जब आँगन में मुर्ग़े की बाँग छनक उठती है गीत घोंसलों से निकलकर बाहर आते हैं और हवा में उकेर देते हैं शहीदों के अमिट चेहरे, मिट्टी का सबसे सुहावना सफ़र रोशनी की पहली किरण के साथ फैलती हैं इस क़द्र तस्वीरें कि देशभक्त यादगार हॉल की मजबूर चारदीवारी पर बेपरवाह हँसता है तस्वीरों का आकार आप जब भी किसी को नमस्कार करते हैं या हाथ मिलाते हैं उनके होंठों से तिड़की हुई मुस्कुराहट आपकी परिक्रमा करती है आप जब किताबें पढ़ते हैं तो अक्षरों पर फैल जाते हैं उनके अमल और शिक्षाएँ जब समाज के रूखे सीने पर होता है तलवारों का नृत्य जब गर्म लहू बकरे बुलाते हैं या जब पेट की गड़गड़ाहट नारा बनती है तो कभी रोते, कभी मुस्कुराते हैं—सलीब के गीत तुम्हारे पास हल का फाल है या ख़राद की हत्थी तुम्हारे पैरों में सुबह है या शाम तुम्हारे अंग-संग तुम्हारे शहीद आपसे कुछ उम्मीद रखते हैं।

मेरे पास

मेरे पास बहुत कुछ है शाम है—बौछारों से भीगी हुई ज़िंदगी है—नूर में दहकती हुई और मैं हूँ—‘हम’ के झुरमुट में घिरा हुआ मुझसे और क्या छीनेंगे शाम को किसी दूर-दराज़ की कोठरी में बंद करेंगे? ज़िंदगी से ज़िंदगी की कुचल देंगे? ‘हम’ में से ‘मैं’ को निथार लेंगे? जिसे आप मेरा ‘कुछ नहीं’ कहते हैं उसमें आपकी मौत का सामान है मेरे पास बहुत कुछ है मेरे उस ‘कुछ नहीं’ में बहुत कुछ है।

उसके नाम

मेरी महबूब, तुम्हें भी गिला होगा मुहब्बत पर मेरी ख़ातिर तुम्हारे बेक़ाबू चावों का क्या हुआ तुमने इच्छाओं को सुई से जो उकेरी थी रूमालों पर उन धूपों को क्या बना, उन छायाओं का क्या हुआ कवि होकर कैसे बिन पढ़े ही छोड़ जाता हूँ तेरे नयनों में लिखी हुई इक़रार की कविता तुम्हारे लिए सुरक्षित होंठों पर पथरा गई है री बड़ी कड़वी, बड़ी नीरस, मेरे रोजगार की कविता मेरी पूजा, मेरा ईमान, आज दोनों ही ज़ख़्मी हैं तुम्हारी हँसी और अलसी के फूलों पर नाचती हँसी मुझे जब लेकर चले जाते हैं, तुम्हारी ख़ुशी के दुश्मन बहुत बेशर्म होकर खनकती है हथकड़ियों की हँसी तुम्हारा दर ही है, जिस जगह झुक जाता है सिर मेरा मैं जेल के दर पर सात बार थूककर गुज़रता हूँ मेरे गाँव में ही सत्व है कि मैं बिंध-बिंधकर जीता हूँ मैं हाकिम के सामने से, शोर की तरह दहाड़कर गुज़रता हूँ मेरी हर पीड़ा एक ही सुई की नोक से गुज़रती है है लुटी शांति सोच की, क़त्ल है जश्न खेतों के वे ही बन रहे हैं देखो तुम्हारे हुस्न के दुश्मन जो आज तक चरते रहे हमारे खेतों का हुस्न मैंने देखा है ओस से नहाते गेहूँ के बदन को देखने पर मुझे उसके मुख पर आई लाज भी दिखी है मैंने बहते खाल के पानी पर बिंधती देखी है धूप सूरज की मैंने रात सपने में वृक्षों को चूमते देखा है धरेक1 के फूल पर गाती महक को मैंने देखा है कपास के फूलों में ढलती टकसाल को मैंने देखा है चोरों की तरह खुसर-फुसर करती चरियों को मैंने देखा है सरसों के फूल पर ढलती शाम को मैंने देखा है मेरा हर चाव इन फसलों की मुक्ति से जुड़ता है तुम्हारी मुस्कान की गाथा है, हर किसान की गाथा मेरी क़िस्मत है बस अब बदलते हुए वक़्त की क़िस्मत मेरी गाथा है बस अब चमकती तलवार की गाथा मेरा चेहरा आज तल्ख़ी ने ऐसे खुरदुरा बना दिया है कि इस चेहरे पर आकर चाँदनी को खुजली-सी लगती है मेरी ज़िंदगी के ज़हर आज इतिहास के लिए अमृत हैं इन्हें पी-पीकर मेरी क़ौम को होश-सा आता है।

समय कोई कुत्ता नहीं

फ्रंटियर न सही, ट्रिब्यून पढ़ें कलकत्ता नहीं, ढाका की बात करें आर्गेनाइजर और पंजाब केसरी की कतरनें लाएँ और मुझे बताएँ ये चीलें किधर जा रही है? कौन मरा है? समय कोई कुत्ता नहीं कि ज़ंजीर पकड़कर जिधर चाहे खींच लें आप कहते हैं माओ यह कहता है, माओ वह कहता है मैं पूछता हूँ, माओ कौन है कहने वाला? शब्द बंधक नहीं हैं समय ख़ुद बात करता है पल गूँगे नहीं हैं आप बैठे रैंबल में या प्याला चाय का रेहड़ी से पिएँ सच बोलें या झूठ— कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता चाहे चुप की लाश भी छलाँग से लाँघ जाएँ और ऐ हकूमत! अपनी पुलिस से पूछकर यह बता कि सींखचों के भीतर मैं क़ैद हूँ या सींखचों के बाहर यह सिपाही? सच ए.आई.आर. की रखैल नहीं समय कोई कुत्ता नहीं।

इंतज़ार

नहीं, यह बात तो कभी न होगी कि तारे ही बहला देंगे महबूब का दिल हो सकता है रातों का ज़हर कम हो जाए जब अँधेरा जीता जा चुका होगा... फिर शायद सिगरेट से अंतस को झुलसाने की ज़रूरत न रहे शायद आवारगी की ज़िल्लत कम हो जाए ख़त्म हो जाए बेचारगी का दर्द... शायद उम्र के सफ़े पर ग़लतियाँ लगाने की मुश्किल, इतनी गहरी न रहे हो सकता है नफ़रत में भागने का संकट न रहे और अपने चेहरे को पहचानकर अपना कह सकने की शर्म न रहे... इंतज़ार तो शायद कभी भी ख़त्म न हो।

जब बग़ावत खौलती है

अँधेरी, काली अँधेरी रातों में जब एक पल दूसरे पल से सहमता है, सिहरता है चौबारों को रोशनी तब, खिड़कियों से कूदकर आत्महत्या कर लेती है इन शांत रातों के गर्भ में जब बग़ावत खौलती है, रोशनी, बेरोशनी भी क़त्ल हो सकता हूँ मैं।

युद्ध और शांति

हम जिन्होंने युद्ध नहीं किया तुम्हारे शरीफ़ बेटे नहीं हैं ज़िंदगी! वैसे हम हमेशा शरीफ़ बनना चाहते रहे हमने दो रोटियों और ज़रा-सी रज़ाई के एवज़ में युद्ध के आकार को सिकोड़ना चाहा हम बिना शान के फंदों में शांति-सा कुछ बुनते रहे हम बर्छी की तरह हड्डियों में चुभे सालों को उम्र कहते रहे जब हर पल किसी अकड़ाए शरीक की तरह सिर पर गरजता रहा हम संदूक़ में छिप-छिपकर युद्ध को टालते रहे युद्ध से बचने की लालसा में हम बहुत छोटे हो गए कभी तो थके हुए बाप को अन्नखाऊ बुड्ढे का नाम दिया कभी चिंताग्रस्त बीवी को चुड़ैल का साया कहा सदैव क्षितिज में नीलामी के दृश्य तैरते रहे और हम नाज़ुक-सी बेटियों की आँख में आँख डालने से डरते रहे युद्ध हमारे सिरों पर आकाश की तरह छाया रहा हम धरती पर खोदे गढ़ों को मोर्चों में बदलने से झिझकते रहे डर कभी हमारे हाथों पर बेगार बन उग आया डर कभी हमारे सिरों पर पगड़ी बन सज गया डर कभी हमारे मनों में सौंदर्य बनकर महका डर कभी आत्मा में सज्जनता बन गया कभी होंठों पर चुगली बनकर बुड़बड़ाया ऐ ज़िंदगी, हम जिन्होंने युद्ध नहीं किया तुम्हारे बहुत पाखंडी बेटे हैं युद्ध से बचने की लालसा ने हमें लताड़ दिया है घोड़ों के सुमों के नीचे हम जिस शांति के लिए रेंगते रहे वह शांति बाघों के जबड़ों में स्वाद बनकर टपकती रही शांति कहीं नहीं होती— आत्मा में छिपे गीदड़ों का हौंकना ही सब कुछ है शांति— घुटनों में गुर्दन देकर ज़िंदगी को सपने में देखने की कोशिश है शांति वैसे कुछ नहीं है भूमिगत साथी से आँख बचा लेने के लिए सड़क किनारे नाले में झुक जाना ही सब कुछ है शांति कहीं नहीं होती अपनी चीख़ में संगीत के अंश ढूँढ़ना ही सब कुछ है और शांति कहीं नहीं होती तेल बग़ैर जलती फ़सलें, बैंक की फ़ाइलों के जाल में कड़कड़ाते गाँव और शांति के लिए फैली बाँहें हमारे युग का सबसे कमीना चुटकुला है शांति बाँह में चुभी चूड़ी के आँसू जितना ज़ख़्म है शांति बंद फाटक के पीछे मरती हुई हवेलियों की हँसी है शांति चौपालों में अपमानित दाढ़ियों की आह है शांति और कुछ नहीं है शांति दुखों और सुखों में बनी सीमा के सिपाही की राइफ़ल है शांति जुगाली करते विद्वानों के मुँह से गिर रही लार है शांति पुरस्कार लेते कवियों की बढ़ी हुई बाज़ुओं का ‘टुंड’ है शांति मंत्रियों के पहने हुए खद्दर की चमक है शांति और कुछ नहीं है या शांति गांधी का जाँघिया है जिसकी तनियों को चालीस करोड़ आदमियों को फाँसी लगाने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है शांति माँगने का अर्थ युद्ध को ज़िल्लत के स्तर पर लड़ना है शांति कहीं नहीं होती युद्ध के बग़ैर हम बहुत अकेले हैं अपने ही आगे दौड़ते हुए हाँफ रहे हैं युद्ध के बग़ैर बहुत सीमित हैं हम बस हाथ-भर में ख़त्म हो जाते हैं युद्ध के बग़ैर हम दोस्त नहीं हैं झूठी-झुठलाई भावनाओं की कमाई खाते हैं युद्ध इश्क़ के शिखर का नाम है युद्ध लहू से मोह का नाम है युद्ध जीने की गर्मी का नाम है युद्ध कोमल हसरतों के मालिक होने का नाम है युद्ध शांति की शुरुआत का नाम है युद्ध में रोटी के हुस्न को निहारने जैसी सूक्ष्मता है युद्ध में शराब को सूँघने जैसा एहसास है युद्ध यारी के लिए बढ़ा हुआ हाथ है युद्ध किसी महबूब के लिए आँखों में लिखा ख़त है युद्ध गोद में उठाए बच्चे की माँ के दूध पर टिकी मासूम उँगलियाँ हैं युद्ध किसी लड़की की पहली ‘हाँ’ जैसी ‘ना’ है युद्ध ख़ुद को मोह भरा संबोधन है युद्ध हमारे बच्चों के लिए धारियोंवाली गेंद बनकर आएगा युद्ध हमारी बहनों के लिए कढ़ाई के सुंदर नमूने लाएगा युद्ध हमारी बीवियों के स्तनों में दूध बनकर उतरेगा युद्ध बूढ़ी माँ के लिए नज़र की ऐनक बनेगा युद्ध हमारे बुज़ुर्गों की क़ब्रों पर फूल बनकर खिलेगा वक़्त बहुत देर किसी बेक़ाबू घोड़े की तरह रहा है जो हमें घसीटता हुआ ज़िंदगी से बहुत दूर ले गया है और कुछ नहीं, बस युद्ध ही इस घोड़े की लगाम बन सकेगा बस युद्ध की इस घोड़े की लगाम बन सकेगा।

उम्र

आदमी का भी कोई जीना है अपनी उम्र कव्वे या साँप को बख़्शीश में दे दो

वक़्त आ गया है

अब वक़्त आ गया है कि आपसी रिश्ते का इक़बाल करें और विचारों की लड़ाई मच्छरदानी से बाहर निकलकर लड़ें और प्रत्येक गिले की शर्म सामने होकर झेलें वक़्त आ गया है कि अब उस लड़की को जो प्रेमिका बनने से पहले ही पत्नी बन गई, बहन कह दें लहू के रिश्ते का व्याकरण बदलें और मित्रों की नई पहचान करें अपनी-अपनी रक्त की नदी को तैरकर पार करें सूर्य को बदनामी से बचाने के लिए हो सके तो रात-भर ख़ुद जलें।