हिन्दी कविताएँ : अनिल अत्री (ख्याल)

Hindi Poetry : Anil Attri Khyal


कोंपलें

भले ही वृक्ष हो वयोवृद्ध सदियों सदियों से गड़ी हों उसकी जड़ें कहने को कभी भी चलता नहीं हैं तिल भर फूला नहीं समाता मगर देख कर प्रस्फुटित हुई नई नई कोंपलें अपनी शाखाओं के अंतिम छोरों पर और भर जाता है उसके तन मन में सदियों सदियों से चलते रहने और कभी न थकान वाले सफर का एक सुखद अहसास नव अंकुरित कोंपलें वयोवृद्ध वृक्ष के लिए हैं सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार जिंदा रहने का चलते रहने का कभी न थकने का समय को पीछे छोड़ते जाने का और इतिहास का साक्षी बने रहने का एक अनूठा पुरस्कार कोंपले बेशक कोमल हैं पर हैं तो वृक्ष की मुस्कान।

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