मलयालम कविता हिन्दी में : अक्कित्तम अच्युतन नंबूदिरी;
अनुवादक : कवि उमेश कुमार सिंह चौहान

Poetry in Hindi : Akkitham Achuthan Namboothiri;
Translator : Poet Umesh Kumar Singh Chauhan


परम दु:ख

कल आधी रात में बिखरी चाँदनी में स्वयं को भूल उसी में लीन हो गया मैं स्वतः ही फूट फूट कर रोया मैं नक्षत्र व्यूह अचानक ही लुप्त हो गया । निशीथ गायिनी चिड़िया तक ने कारण न पूछा हवा भी मेरे पसीने की बून्दें न सुखा पाई । पड़ोस के पेड़ से पुराना पत्ता तक भी न झड़ा दुनिया इस कहानी को बिल्कुल भी न जान सकी । पैर के नीचे की घास भी न हिली-डुली फिर भी मैंने किसी से नहीं बताई वह बात । क्या है यह सोच भी नहीं पा रहा मैं फिर इस बारे में दूसरों को क्या बताऊँ मैं ?

झंकार

बाँबी की शुष्क मिट्टी के अन्तः अश्रुओं के सिंचन से पहली बार विकसे पुष्प! मानव वंश की सुषुम्ना के छोर पर आनन्द रूपी पुष्पित पुष्प! हजारों नुकीली पंखुड़ियों से युक्त हो दस हजार वर्षों से सुसज्जित पुष्प! आत्मा को सदा चिर युवा बनाने वाले विवेक का अमृत देने वाले पुष्प! सुश्वेत कमल पुष्प! तू निरन्तर सौरभ का कर संचार xx मैं इसे ग्रहण कर उनींदे मन से प्रज्ञा की पलकें खोल रहा हूँ मैं दीनानुकम्पा में वाष्पित हो गीत की तरह हवा में तैर रहा हूँ मैं सोमरस व सामवेद पर विजय प्राप्त करती एक लय - रोमांच बनकर उभर रहा हूँ।

घास

खिले पुष्पों से आच्छादित भूमि में अतीत में ही पैदा हुआ मैं घास बनकर उस वक़्त भी आवाज़ सुनी तुम्हारी बांसुरी की मधुर रोमांच से खुल गई आँखे आत्मा की आँखें खुलने पर आश्चर्य से शिथिल हो गया मैं उस रोमांच की लहर से ही तो मैं आकाश तक विस्तृत हो सका उत्तुंग मेरा मुख आकाशगंगा की खंडित माला में संविलीन हो गया । उस मुहुर्त में मेरा मुख श्वेत कमल पुष्प बन गया फिर भी पाँवों के नीचे अभी भी नम है भूमि द्वारा अतीत में लिपटाई गई मिट्टी उस मिट्टी को छुड़ाऊँगा नहीं मैं अन्यथा मेरा कमल पुष्प बिखर जाएगा न । मेरी मिट्टी में ही उगी है न तुम्हारे होंठों की बाँसुरी भी तो ?

पिता की विवशता

पीली, उभरी हुई, चूने जैसी आँखें घुमाते चाँदी के तारों-सी दाढ़ी मूंछे सँवारे फटे हुए वस्त्रों वाले एक बाबाजी प्रातः सूर्य की किरणों के पीछे-पीछे मेरे घर आ पहुंचे। अल्प संकोच के साथ उन्होंने एक मुस्कान फेंकी अक्षर-ज्ञान विहीन मेरे बेटे ने उनसे कुछ कहा। बेटे के हाथ की चमड़े की गेंद में हो गये छेद को देख चुके आगन्तुक ने तभी अपनी जेब में विद्यमान एक मात्र चाँदी के सिक्के को स्वर्णिम रंग वाले बच्चे के हाथों में रखकर कहा, 'एक नयी गेंद पाने का समय आने पर उसे ख़रीदने के लिए तू इसे सन्दूक में संभालकर रखना', वे जाने के लिए बाहर परिसर में बढ़ चले। 'वापस दे दे', यह निर्देश देने पर दोनों ही रोएँगे यह सोच बच्चे के पीछे खड़ा रह गया मैं विवशता के साथ।

पतंगों से

आग में कूदकर मरने के लिए या आग खाने की लालसा में आग की ओर समूह में दौड़े जा रहे हैं छोटे पतंगे? आग में कूद कर मर जाने ले लिए ही दुनिया में बुराइयाँ होती हैं क्या? पैदा होते ही भर गई निराशा कैसे? खाने के लिए ही है यह जलती हुई आग यदि तुम यही सोच रहे हो तो फिर निखिलेश्वर को छोड़कर तुमसे कुछ भी कहना नहीं। विवेक पैदा होने तक अब हर कोई बिना पंख वाला ही बना रहे।

प्राणायाम

प्रिये! ऐसा लगता है कि है किन्तु है नहीं यह ब्रह्मांड, प्रिये! है नहीं, ऐसा लगने पर भी यह ब्रह्मांड तो है ही। आँसुओं से सानकर बनाए गये एक मिट्टी के लोंदे पर ज़ोरों से पनपता है हमारे पूर्व जन्म के सौहार्द का आवेश। प्रत्येक घड़ी, प्रत्येक पल, एक नवांकुर, प्रत्येक अंकुर की शाखा पर खिलती एक नयी रोशनी, प्रत्येक रोशनी स्नायु-जाल के लिए एक पुराना विषाद है, प्रत्येक विषाद के सागर के भीतर नारायण प्रभु का रूप है। ऐसी प्रतीति का मूलाधार क्या है यह सोचना ही सारी समस्या है 'अहं' का बोध न हो, तो ही होती है ऐसी निश्चिन्तता कि मेरे प्राण मेरे ही हैं। तो फिर क्या हैं प्राण? मैं उस शब्द में ईश्वर के लास्य को देखता हूँ ईश्वर रूपी चित्र में देखता हूँ मैं शाश्वत प्राण-रहस्य को। सचमुच केवल नारायण प्रभु ही एक आश्रय है हमारे लिए नारायण प्रभु के लिए भी कोई आश्रय नहीं वाणीयुक्त हम लोगों के सिवा।