Pankaj Pundir
पंकज पुण्डीर

पंकज पुण्डीर का जन्म शामली उत्तर प्रदेश में हुआ । email id: pundir.pankaj25@gmail.com

पंकज पुण्डीर की कविताएँ

1. कल्पना

जब भी कभी मैं सोचता हूँ,
देखता हूँ स्वयं को सोचते हुए ॥

उल्लास भरे मन से, स्वप्न भरी आँखों से।
विश्वास भरे हृदय से, उत्साह भरे हाथों से ॥

जब भी कभी मैं सोचता हूँ ।
देखता हूँ स्वयं को सोचते हुए ॥

तुम आज, साक्षात स्वयं की कल्पना हो ॥

उत्तर हो उन प्रश्नों के, जो मन पृष्ठ पर अंकित हैं ।
विवरण हो उस परिभाषा का, जो ज्ञानवृक्ष से मुखरित हैं ।
ताप हो अविरत दिनकर का, जो हृदयव्योम में पुलकित है ॥

निश्चित है, तुम आज, साक्षात स्वयं की कल्पना हो ॥

संगीत के सप्तस्वर तुम हो, प्रेम के वंशीधर तुम हो ।
स्वः भावों का मान तुम हो, संकल्पों का अभिमान तुम हो ।
सीमाओं का ज्ञान तुम हो, प्रज्ञाओं का विज्ञान तुम हो ।

निश्चित है, तुम आज, साक्षात स्वयं की कल्पना हो ॥

2. उदासी

शब्द जिसमें कोई ध्वनि नहीं
मौन बस एक साथी
अंतस में उठते निरुत्तर प्रश्न
धीमी पलकें, आँखें खुली पर अचेतन
अप्रसन्नता कुछ सृष्टा से, थोड़ी स्वयं से
परिवर्तन अल्पइच्छित, अवस्था अत्याज्य
विचार केंद्रित, आकृति स्थिर, चित्रण उदासी।।

3. बारिश का संगीत

बारिश का संगीत सुना है कभी ?
वो एकरस नहीं है, कभी तेज़ तो कभी मध्यम सा है,
अच्छा सारी बूँदें आसमान से नहीं गिरती,
कुछ पेड़ों की पत्तियों को चूमते हुए उनसे विदा लेतीं हैं
तो कुछ छज्जों छजलियों से भी टपकतीं रहतीं हैं,
वो हवा में इतनी घुल मिल गयी के अभी भी बुलबुला बन बस उड़ना ही चाहतीं हैं,
वो ठहरे हुए पानी में स्पंदन कर जलतरंग बन जाती है,
ऐसे ही तो बूंदो का संगम होता है जो किसी बादल से बिछड़ी थी कभी,
अच्छा इस संगीत में सारी ध्वनि बूंदो की नहीं है,
अभी अभी इन दो चिड़ियों ने कहा एक दूसरे से कुछ, जो छुप के बैठीं हैं इस छजलि के नीचे
और उस पक्षी को देखो तो ज़रा अकेला ही गुनगुना रहा है,
जैसे पूछ रहा है इन बूंदो से, वो दूर बैठी है मुझसे, क्या उसने सुना मुझे?
कहा ना इस संगीत में सिर्फ बूँदें ही नहीं हैं, हाँ मगर है ये इन बूंदों से ही,
तभी तो क़लम और स्याही ने मिलकर आज़ कागज़ से ढ़ेर सारी बातें की हैं...

4. चेतन प्रकाश

पूर्व को बिसरा के, उत्तर से दक्षिण,
दक्षिण से पश्चिम फिर ओर पश्चिम,
उत्तरों की खोज़ में भटक रहा था मन ।
चेतन हुआ..हुआ प्रकाश..
क्या बिछड़ गया जो खोजते हो?
क्यूँ दीप लिये तुम दीपक को ढूंढते हो?
स्मरण करो क्या नही दिखाया था?
तुममें ही..पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ।।

5. ज़िन्दगी बयां-आसमां सी ही पसंद मुझे

ज़िन्दगी बयां-आसमां सी ही पसंद मुझे,
अक्सर देखी है धूल बंद किताबों पे मैंने,

धधक रही थी जो बस्ती बस्ती सालों से, लो फैसला मिल गया,
कर दी वो नार सुपुर्द-ए-समंदर मैंने,

खिड़कियाँ बंद ही रख ले के माहौल सर्द है,
वो अभी एक रोज़ ही देखी, शहर में बिगड़ी हवा मैंने,

आँखें नम तो रहतीं थीं, पर दिल न रोया था जी भरके,
एक अर्से से ना की थी शायरी मैंने,

6. अब क्या नहीं देखता कोई मुझे चुनने से पहले

अब क्या नहीं देखता कोई मुझे चुनने से पहले,
जो बचपन में हो गयीं वो यारियाँ अच्छी थीं.

यक़ीनन वो परेशां है, किस गुनाह की सज़ा दे दी,
वो इंसान भी ठीक था उसकी बातें भी अच्छी थी.

दो कप अदरक की चाय और ढ़ेर सारी बकवास,
तेरे साथ जो गुज़र गयी वो हर एक श्याम अच्छी थी.

एक तेरी रहबरी में, हर बार हमने ही रास्तें लंबे चुने,
थकान थी बहुत मगर कल रात नींद अच्छी थी.

फ़ुरसतें कब हासिल, वो बस यूं पढ़ रहा है मुझे,
मेरी पिछली ग़ज़ल में कोई एक बात अच्छी थी.

7. ऊँची इमारतें और एक दूसरा शहर देखा

ऊँची इमारतें और एक दूसरा शहर देखा,
जब भी खिड़की से मैंने अपना शहर देखा,

शिखरों पे फैली है सूरज की मध्यम-लाली,
यूं विषम तलों में छाँव का सर्द कहर देखा,

गुज़रा दौर है आवारगी आज की बात नहीं,
तब पैरों ने कहाँ किस घड़ी का पहर देखा,

लगा हूँ समेटने इस तरह व्यतिथ प्रेम को,
पढ़ा और पी गया जो बातों में ज़हर देखा,

जानना था के कैसे कहाँ पहुँच गया हूँ कब,
उसी शहर की उस गली में जा ठहर देखा,

8. सारा शहर अपना किये बैठे हो

सारा शहर अपना किये बैठे हो,
कौन था, किससे खफ़ा बैठे हो?

सब शरीफ हैं, तुम ही ख़राब हो,
महफ़िल में किताब लिए बैठे हो?

हमारे सारे राज़ बेपर्दा हैं, सच है,
लास्ट-सीन जो छुपाये बैठे हो?

इश्क़ ने क्या खूब नज़र किया,
तुम गैरों की सफ में जा बैठे हो?

आदमी ठीक ही लगते थे, क्या
हुआ तुमको, क़लम उठा बैठे हो?

आप से तो किसी ने कुछ न माँगा,
अच्छा ख़ासा शहर जला बैठे हो?