फ़िलिस्तीनी कविताएँ हिंदी में : राशिद हुसैन महमूद (अनुवादक : राधारमण अग्रवाल)

Palestinian Poetry in Hindi : Rashid Hussein Mahmoud


लानत है

मैं नहीं देता हक़ अपने वतन के जाँबज़ों को कि वे रौदें, घास के एक भी टुकड़े को मैं नहीं देता हक़ अपनी बहनों को कि वे उठा लें और चलायें बन्दूक़ मैं नहीं देता हक़ किसी भी बच्चे को कि वे करें खिलवाड़, और छुयें, किसी बम के गोले को मैं छीन सकता हूँ किसी से उसका कोई भी हक़ पर ग़ायब हो जाते हैं सारे के सारे उसूल जब जलती हुई निगाहें थाम लेती हैं बगल से गुज़रते हुए ज़ालिमों के घोड़ों की रासें मैं नहीं चाहता दस साल का मासूम बच्चा बन जाए शहीद मैं नहीं चाहता कोई पेड़ छुपा ले बारूद अपने तनों में मैं नहीं चाहता मेरे बाग़ीचे के पेड़ों की शाखों से झूलते हों फाँसी के फंदे मैं नहीं चाहता मेरे गुलाब की क्यारी इस्तेमाल की जाये फ़ायरिंग स्क्वाड के दरिन्दों द्वारा मैं न चाहूँ तो... पर मैं चाह कर भी नहीं चाह पाता जब मेरा वतन जल गया हो मेरे दोस्तों के ज़िस्मों के साथ जब जल गया हो मेरी ज़िन्दगी का, सबसे बेहतरीन वक़्त उनके साथ तब, मैं कैसे रोक सकता हूँ अपने गीतों को हथियार बनने से

आँखों में बसा है- येरूशलम

तुम्हारी आँखों का रंग रंगत है खजूर के पत्ते की अंगूर के बेलों की तुम्हारी आँखों का रंग रंगत है मेरी मुहब्बत की लहरा रहा है जो प्यारे येरूशल के लिए क़ीमती है यह रंगत, बेशक़ीमत तुम्हारी आँखों की रंगत से झाँकता ज़ख़्म है मेरी कविता की तरह प्यार जितना गहरा देश निकाले जितना लम्बा तुम्हारी आँखों का रंग मिलता है मेरे पिता से लगाये जिन्होंने बहुत से पेड़ और गाते रहे खुशी से तुम्हारी आँखों का रंग है उस सिपहसालार जैसा खड़ा है जो बिना फौज के तुम्हारी आँखों का रंग है अत्याचार जैसा नाक़ाबिले बर्दाश्त तुम्हारी आँखों का रंग रंगत है ताज़ा फ़सल की नये अनाज के दाने सी तुम्हारी आँखों का रंग मिलता है मेरी हिम्मत और धीरज से बिल्कुल मेरी माँ जैसा मेरे घावों जैसा मेरी दूरी खड़ी मंज़िल जैसा तुम्हारी आँखों का रंग मिलता है कबूतर से पर, दरअसल वह है मेरे लड़ाकू बाज़ जैसा

फ़िलिस्तीनी कविताएँ हिंदी में : महमूद दरवेश (अनुवादक : अनिल जनविजय)


मैं एशियाई हूँ

मैं एशियाई हूँ देर से विद्रोह करने वालों का प्रेम और रक्त हूँ उनकी प्रेरणा का संयम हूँ मैं विद्रोही गोलियों की कर्कश आवाज़ हूँ अपने उन मालिकों के विरुद्ध जिन्होंने कल तक नहीं देखा था मेरे भूखे, थके हुए, क्लान्त और निर्वासित लोगों को सिर्फ़ जाना था मेरी बहुमूल्य निधियों को पर आज जो स्वीकारते हैं एशिया की धरती की गरिमा और उसके गौरव को

जल्लाद

मुझे एक रस्सा दो एक हथौड़ा और एक लोहे का सरिया ताकि मैं बना सकूँ फाँसी का तख़्ता मेरे लोगों में शेष है अभी एक समूह उदास चेहरे लिए घूमता है जो लज्जित करता है हमें आओ ! उनकी गरदनें कस दें हम अपने बीच कैसे रख सकते हैं उन्हें जो चाटते हैं हथेली हर उस किसी की जिससे भी वे मिलते हैं

नरक के फूल

काले तम्बुओं में ज़ंजीरों में, नरक की छाया में उन्होंने मेरे लोगों को बन्दी बनाया है और चुप रहने को कहा है वे धमकाते हैं मेरे लोगों को सिपाहियों के कोड़ों से भूख और निश्चित मृत्यु के नाम पर जब मेरे लोग उनका विरोध करते हैं वे वहाँ से स्वयं तो चले जाते हैं पर मेरे लोगों से कहते हैं — नरक में ख़ुशी से रहो वे अनाथ बच्चे ! क्या तुमने उन्हें देखा है? दुर्गति उनकी बरसों से साथी है वे प्रार्थना करते-करते थक चुके हैं पर उसे सुनने वाला कोई नहीं है "तुम कौन हो, छोटे बच्चों ! तुम कौन हो तुम्हें ऎसी यातना किसने दी है?" "हम नरक में खिले हुए फूल हैं" उन्होंने कहा "सूरज इन तम्बुओं में गढ़ेगा एक शाश्वत पथ उन लाखों बन्दियों के लिए जिन्हें वे मनुष्य नहीं समझते" "सूरज सुनहरे जीवन का काफ़िला बन चलेगा और अपनी स्नेहमयी ओस से हम ये नारकीय ज्वालाएँ शान्त कर देंगे"

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