फ़िलिस्तीनी कविताएँ हिंदी में : मोईन तौफीक बिसेसो (अनुवादक : राधारमण अग्रवाल)

Palestinian Poetry in Hindi : Muin Bseiso


होती है जब सुबह

मैं लड़ूँगा आख़िरी दम तक दीवार का कोई न कोई हिस्सा तो ख़ाली होगा इस्तेमाल कर सकता हूँ जिसे काग़ज़ की तरह गलीं नहीं उँगलियाँ साबुत हैं और भी आती है आवाज़ दीवार के पार से गुपचुप सन्देश धागों जैसी हमारी नसें हमारी नसों जैसी पत्थरों की नसें हमारा ख़ून उबलता है बेजान पत्थरों की नसों में रह रह आते हैं सन्देश दीवार के पार से फिर बन्द हुई एक कोठरी फिर मार दिया गया कोई कै़दी फिर खुलती है एक कोठरी फिर लाया गया कोई कै़दी (काल कोठरी की तीन दीवारें)

होती है जब दोपहर

रख दिया जाता है मेरे सामने एक टुकड़ा काग़ज़ एक क़लम और एक अदद चाभी मेरे घर की चाहते हैं वे करूँ काला जिस काग़ज़ के टुकड़े को वही करता है ख़बरदार झुकना मत! तुम्हें क़सम है अपने घर के एक-एक ईंट की करती है चाभी ख़बरदार झुकना मत! आती है आवाज़ ठकठका रहा है कोई दीवार के उस पार कुचले हाथों से किसी तरह झुकना मत! बारिश की एक-एक बूँद काल कोठरी की छत से टकराती चीख़ती कानों में, करती ख़बरदार झुकना मत! (काल कोठरी की तीन दीवारें)

सूरज ढलने के बाद

कोई नहीं है मेरे पास न कोई देख पाता है न कोई सुन पाता है इस आदमी की आवाज़ हर रात जब बंद हो जाती है कालकोठरी पड़ जाते हैं ताले वह निकल पड़ता है बाहर मेरे ज़ख़्मों से, लहूलुहान चहलक़दमी करता है तंग कोठरी में वह मैं ही हूँ वह है बिल्कुल मेरे जैसा जैसा कि मैं कभी था मेरे बचपन-सा, मेरी जवानी-सा दरअसल वह है मेरा अकेला सहारा मेरा इश्क़ वह है एक ख़त लिखता हूँ जिसे मैं हर रात वही है काग़ज़, वही है लिफ़ाफ़ा और वही है टिकट वही है मेरा जहान वही है मेरा मुल्क़ आज की रात मैंने देखा उसे फिर से ज़ख़्मों से निकलते उदास सदमे से थका, परेशान ख़ामोश नापता कोठरी को एक भी लफ़्ज़ नहीं फिर की कह रहा था मानों नहीं देख पाओगे मुझे कभी भी अगर कुछ भी लिख दिया अगर कुछ भी क़ुबूल कर लिया (काल कोठरी की तीन दीवारें)

फ़िलिस्तीनी कविताएँ हिंदी में : मोईन तौफीक बिसेसो (अनुवादक : अनिल जनविजय)


प्रतिरोध

मेरी नाक के सामने फेंका उन्होंने एक काग़ज़ और एक क़लम मेरे हाथों में ठूँस दी घर की चाबी काग़ज़ — वे मुझ पर दोष लगाना चाहते थे कहा — प्रतिरोध क़लम — वे मुझे कलंकित करना चाहते थे कहा — प्रतिरोध घर की चाबी कहा — तुम्हारे इस छोटे-से घर के हर पत्थर के नाम — प्रतिरोध दीवार पर एक छेद दीवार के पार एक संदेश एक विकलांग हाथ सूचना मिली — प्रतिरोध बारिश की हर बूँद टपक रही थी जो यंत्रणा-कक्ष की छत पर चीत्कार कर रही थी — प्रतिरोध

बेरूत पीछे छूट गया

हवाई अड्डे पर है एक प्रसन्न कवि हवाई अड्डे पर है एक प्रसन्न पाठक सुरक्षित है हवाई अड्डे की ओर आने वाली सड़क वहाँ कोई स्थानीय विमान नहीं है और रेत का यह बोरा ही सिर्फ़ नायक नहीं है यह बेरूत है न मरे में है और न जीए में लेकिन अख़बारों के हर हिस्से पर बेरूत की छाया है चक्की के दो पाटों के बीच फँसा वह अपना अख़बार छाप रहा है अपना अख़बार पढ़ रहा है वह प्रसन्न कवि प्रतीक्षा कर रहा है विमान की प्रसन्न पाठक इन्तज़ार में है जलयान की और रेत का यह बोरा ही सिर्फ़ नायक नहीं है लेकिन बेरूत वहाँ है एक दीवार के पीछे जीता और मरता हुआ ओ अभागे नगर ! एक बादल हो तुम बन्दूक से छूटी एक गोली, रोटी का एक टुकड़ा और एक बोतल या तुम एक लंगड़ी भेड़ हो फुटपाथ पर नौसैनिकों से प्यार जताती हुई ख़ुदा हो जैसे तुम अब ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ तुम न उड़ती हुई चिड़िया हो और न बम दो गुटों के बीच तुम एक धब्बे की तरह हो हर दो वाक्यों के बीच एक अर्धविराम की तरह चाँदमारी के लिए बनी दीवार काम आती है विज्ञापनों के लिए भी उस पर चिपके पोस्टरों पर बरसती है बारिश इकट्ठा हो जाता है तुम्हारा बहुरंगी जल अभी भी शेष है वहाँ, उस दीवार पर एक वासन्ती चिड़िया तुम्हारे प्यानो की चाबियों पर बैठी हुई शाम को अख़बार में लिखते हैं घायल सुबह सवेरे उसे पढ़ते हैं मृतक प्रसन्न कवि और प्रसन्न पाठक हवाई अड्डे पर हैं प्रसन्न विमान परिचारिका बाँट रही है पेंसिलें, उड़ान-कार्ड और समाचार-पत्र दस हज़ार मीटर की ऊँचाई पर लिखो — बेरूत गूँज रहा है दस हज़ार मीटर की ऊँचाई पर पढ़ो — बेरूत डूब रहा है बेरूत पीछे कैसा है ख़ुशी से लिखो ख़ुशी से पढ़ो बेरूत पीछे छूट गया

तान्या

(द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब नाज़ियों ने सोवियत संघ पर हमला किया, तो एक लम्बे समय तक लेनिनग्राद (साँक्त पितिरबूर्ग) नगर को चारों तरफ़ से घेरे रखा था। तान्या का परिवार भी नाज़ियों से घिर गया था। लेनिनग्राद की मुक्ति के बाद एक मकान से तान्या की डायरी के पन्ने मिले थे, जिनमें इस बच्ची ने अपनी मृत्यु से पहले अपने परिवार पर पड़ी आपदाओं का वर्णन किया है।) मैं जानता हूँ तान्या पहले की तरह बहती रहेगी निवा नदी पहले की तरह घूमती रहेगी धरती जनरलों को मिलता रहेगा सम्मान और बेरूत के होटलों में बैरे धोते रहेंगे, चम्मच और प्लेटें इस्तम्बूल के हमामघरों में हमेशा की तरह दिए जाते रहेंगे तौलिए साबुन के गले हुए टुकड़े बदले जाते रहेंगे नए साबुनों से और दमिश्क में कहीं खिड़कियों के शीशों पर लिखी जाती रहेंगी कविताएँ चिड़ियाघर के पिंजरे में बन्द बन्दरिया बदल लेगी अपना प्रेमी येरूशलम की दीवार पर फूट-फूट कर रोएगी कबूतरी और सदा की तरह ही आकाश पर काले बादल छा जाएँगे लेकिन अभी तक जो भी मैंने तुम्हारे बारे में सुना और पढ़े तुम्हारी डायरी के नौ पन्ने चटके हुए शीशे की तरह कोई गीत भी काटता है मेरी गर्दन धरती के चेहरे पर दौड़ता है तुम्हारा ख़ून कैसे देख सकता हूँ मैं इस चेहरे की तरफ़ संसार भर की औरतों किसके उर्वर गर्भाशय से पैदा पापी बच्चे होते हैं संसार के सबसे पवित्र बच्चे ! पर सुनिए माँ नहीं बनेगी तान्या ! "पहले दिन : मरे थे पिता ..." "दूसरे दिन : मर गया भाई ..." "तीसरे दिन : मर गई माँ ..." मर गई खिड़की आईना दरवाज़ा बच्चे की तरह मर गया घर गली के हाथों में और "मैं अकेली रह गई..." लाखों घोड़ों ने ट्राय के किले के दरवाज़े खटखटाए तुम्हारी कुरूप गुड़िया के चुम्बन से मृत शहर पुनर्जीवित हुआ पर नहीं बन पाया नया ट्राय तान्या नहीं बन पाया हमारा विश्व गुलाब का एक बगीचा फूलों का बग़ीचा नहीं बन पाया बन गया सैनिक क़त्लगाह फ़िलहाल शान्त हैं हत्यारे छिपा रहे हैं फ़्रिजों में सीलबन्द टीन के डिब्बे आभासहीन ख़ामोशी से धीरे-धीरे बढ़ रहे हैं एक ख़ास वक़्त के इन्तज़ार में मैं कैसे जीऊँ और लिखूँ जब सेब नहीं आकाश से गिरते हों बम और शहर हो वैसा का वैसा किसका रक़्त है — जल्लाद के गालों पर मैं कैसे जीऊँ जब कोई नई तान्या विश्व के किसी भी शहर में हत्यारों के आगमन की प्रतीक्षा में हो कैसे लिखूँ, क्या लिखूँ मैं जब कोई नई तान्या अपनी डायरी में लिख रही हो — ’पहला दिन ...’ ’दूसरा दिन ...’ और होगा क्या तीसरा भी ? कौन जानता है क्या होगा तीसरे दिन ?

फ़िलिस्तीनी कविताएँ हिंदी में : मोईन तौफीक बिसेसो (अनुवादक : उज्ज्वल भट्टाचार्य)


युद्ध

अगर मेरी मौत हो जाए, युद्ध में मेरी जगह आ जाना, मेरे साथी ! मेरे हथियार थामकर, डरो मत, अगर उन पर मेरा ख़ून बहता हो, मेरे होठों को देखो, कराहती हवा में कसकर बन्धे हुए मेरी आँखों को देखो, सुबह की लाली के बीच बन्द पड़े हुए मैं मरा नहीं, अपने घावों के साथ पुकारता हूँ तुम्हें । अपने हथियार उठाओ, मेरे साथी ! चलो नहर की ओर बजाओ अपनी डफ़ली, जनता तुम्हारे साथ है गूँजे तुम्हारी आवाज़ : धरती के ग़ुलामो ! जंग की ख़ातिर उठ खड़े हो जाओ मुर्दों को होना है ज़िन्दा, मौत का वक़्त अब ख़त्म है ज्वालामुखी पर धावा बोलो, काँपती है वो हमारी ख़ातिर । यह वह दिन है, हमारे लिए ज़िन्दगी का तोहफ़ा दानवों के खिलाफ़, ज़िन्दगी के दुश्मनों के खिलाफ़ बग़ावत की घड़ी जंग के मैदान में अगर हम गिर पड़ें, मेरे साथी ! आग़ की लपटों के बीच लहराता रहेगा एक परचम तुम्हारे साथियों के हाथों में, जंग के साथियों के हाथों में ।

मैं और तुम और वो

उसके शब्दकोश में पेड़ों के लिए कोई शब्द नहीं था और फूलों के लिए भी नहीं उसके शब्दकोश में पँछी नहीं थे जो कुछ भी उसे पता है, उसे सिखाया गया था । सबसे पहले पँछियों को मार डालना तो उसने पँछियों को मार डाला चान्द से नफ़रत करना और चान्द से उसे नफ़रत हो गई पत्थर का एक दिल बना लेना और उसका दिल पत्थर का हो गया और चीख़ते रहना : सब कुछ की जय हो ! सब कुछ का नाश हो ! ख़त्म कर दो सब को ! उसके शब्दकोश में पेड़ों के लिये कोई शब्द नहीं था उसके शब्दकोश में नहीं थे मैं और तुम उसको मुझे मार डालना था मुझे और तुम्हें । जो कुछ भी उसे पता है, उसे सिखाया गया था उसको मुझे मार डालना है, मुझे और तुम्हें ।

दीवार पर कविता

...मुझे पता नहीं, कहाँ और कब किस घड़ी और किस ठौर ऐसा हुआ कि कवि को मार डाला गया । मुझे पता है, कि वे आए क़ातिल आते थे और आते हैं कल वे यहाँ थे आज वे वहाँ हैं और कल वे हर कहीं होंगे हमेशा ही कवियों का ख़ून बहाया जाता रहेगा । देखो, अगर तुम्हारे चेहरे पर अब भी आँखें हों पाँच तलवारधारी, उनके बीच एक कवि और गुस्से से भरी एक कविता, दीवार पर खुदी हुई लूई प्रथम और लूई इक्कीसवें के ख़िलाफ़ — अपने हाथों से उन्हें मिटा डालो, दीवारों पर खुदी हुई मनहूस कविताएँ । कवि अपनी कविताओं को हमेशा मिटा देता है अपने ही हाथों से और अलफ़ाज़ की धूल धरती पर जमने लगती है लफ़्ज़ उसकी आँखों में समा जाते हैं पाँचवीं पंक्ति के बाद उसकी दाँई आँख बुझ जाती है दसवीं के बाद उसकी बाँई आँख रह जाती है उसकी जीभ और रह जाता कवि का चेहरा — अपनी जीभ से उसे मिटा दो, जो दीवार पर खुद गई है

रैम्बो के लिए

जब रैम्बो ग़ुलामों का व्यापारी बन गया और उसने अपने जाल फेंके इथियोपिया में वह काले शेरों का शिकार करता रहा और काले हंसो का और उसने कविता लिखना छोड़ दिया कितना ईमानदार था वह बच्चा । लेकिन दूसरे कितने कवि थे जो ग़ुलामों के व्यापारी बन गए जमाख़ोर बन गए और वे कविता लिखते रहे । वे विज्ञापन कम्पनियों के नुमाइन्दे बन गए नकली तस्वीरों के धन्धे में जुट गए और वे कविता लिखते रहे । शाही महलों में उनकी कविताएँ दरवाज़े और खिड़कियाँ मेज़ और गलीचे बन गईं और वे कविता लिखते रहे । वे कसीदे पढ़ते रहे दुनिया के शहंशाहों से उन्हें पदक और सम्मान मिलते रहे और सोने और चान्दी और पत्थर के फलक और वे कविता लिखते रहे । उनकी कविताओं पर भड़ैत सैनिकों के बूटों की छाप लगी और वे कविता लिखते रहे । कितना ईमानदार था वो रैम्बो कितना सच्चा था वो बच्चा । (आर्थर रैम्बो (Arthur Rimbaud) – प्रसिद्ध फ़्रांसीसी कवि, जो कविता लिखना छोड़कर ग़ुलामों का व्यापारी बन गया था।)

नहीं

उसके घावों ने कहा : नहीं ! उसकी ज़ंजीरों ने कहा : नहीं ! और उसके सीने पर एक कपोत, जिसने उसे अपने सारे पर सौंप दिए अपने घाव ढकने को, उसने कहा : नहीं ! हर बेचने और ख़रीदने वाले के लिए : नहीं पैरों की बेड़ियों के लिए : नहीं उन सबके लिए नहीं जिन्होंने गाज़ा का दर्पण तोड़ दिया और उसके टुकड़ों को बेचकर एक बत्तख ख़रीद लिया ओ बत्तख ! एक लमहे के लिए ख़ामोश रहो ताकि सुन सको कि वह कहता है : नहीं ! अफ़सोस कि उसकी मौत चमकती रोशनी में नहीं हुई मशाल और चान्द के बीच नहीं अफ़सोस कि अख़बार में उसकी ख़बर नहीं छपी कफ़न के साथ लोग नहीं और कसीदा नहीं ओ पत्थरो ! इजाज़त दो कि कविता की एक पँक्ति लिख सकूँ लम्बी दाढ़ी और नकली दाढ़ीवालों को कहने के लिए : एक लमहे के लिये ख़ामोश रहो ताकि सुन सको कि वह कहता है नहीं ! घर की दीवार अपनी अन्तड़ियों के साथ खिड़कियों से चिपकती है वह सफ़र के लिये नहीं चल पड़ती ।

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