नज़्में अली अकबर नातिक़
Nazmein in Hindi Ali Akbar Natiq

उठेंगे मौत से पहले

उठेंगे मौत से पहले उसी सफ़र के लिए
जिसे हयात के सदमों ने मुल्तवी न किया
वो हम कि फूल की लौ को फ़रेब देते थे
क़रीब-ए-शाम सितारों की रहगुज़र पे चले
वो हम कि ताज़ा जहाँ के नक़ीब-ए-ज़न थे नए
सबा की चाल से आगे हमारी चाल रही
मगर गुमान के क़दमों ने उस को तय न किया
वही सफ़र जो हमारे और उस के बीच रहा
जिसे हयात के सदमों ने मुल्तवी न किया
उठा के हाथ में नेज़े पिला के आब-ए-सराब
कमीन-गाह-ए-हवस से निशाने दिल के लिए
तमाम सम्त से आई शहाबियों की सिपाह
हमारी ज़ात को घेरा मिसाल-ए-लश्कर-ए-शाम
हज़ार बार उलझ के फटा लिबास-ए-यक़ीं
मगर टली न कभी उस मुबाहिसे से ज़बाँ
जो साकिनान-ए-ज़मीं और हमारे बीच हुआ
रह-ए-वक़ार पे बैठे थे आइने ले कर
जिन्हें सबात पे कोई भी इख़्तियार न था
थमा के हाथ में ग़म के बराक़-ए-दिल की इनाँ
निकल गए न रुके रूह की हदों से इधर
फ़लक के कोहना दरीचे सलाम करते रहे
मगर चराग़ का साया अभी वजूद में है
ज़रूर अपने हिसारों में लेगा नूर-ए-दिमाग़
सहर के वक़्त बढ़ेगा ग़ुनूदगी का असर
दराज़ होगा वहीं दर्द के शबाब का क़द
मिला ग़ुबार की सूरत जहाँ नसीब का फल
जहाँ शिकार हुआ है मिरी ज़बाँ का हुनर
वहीं से ढूँड के लाएँगे आदमी की ख़बर
उठेंगे मौत से पहले उसी सफ़र के लिए

चरवाहे का जवाब

आग बराबर फेंक रहा था सूरज धरती वालों पर
तपती ज़मीं पर लू के बगूले ख़ाक उड़ाते फिरते थे
नहर किनारे उजड़े उजड़े पेड़ खड़े थे कीकर के
जिन पर धूप हँसा करती है वैसे उन के साए थे
इक चरवाहा भेड़ें ले कर जिन के नीचे बैठा था
सर पर मैला साफ़ा था और कुल्हाड़ी थी हाथों में
चलते चलते चरवाहे से मैं ने इतना पूछ लिया
ऐ भेड़ों के रखवाले क्या लोग यहाँ के दाना हैं
क्या ये सच है याँ का हाकिम नेक बहुत और आदिल है
सर को झुका कर धुँदली आँखों वाला धीमे से बोला
बादल कम कम आते हैं और बारिश कब से रूठी है
नहरें बंद पड़ी हैं जब से सारी धरती सूखी है
कुछ सालों से कीकर पर भी फल्लियाँ कम ही लगती हैं
मेरी भेड़ें प्यासी भी हैं मेरी भेड़ें भूकी हैं

नाम ओ नसब

ऐ मिरा नाम ओ नसब पूछने वाले सुन ले
मेरे अज्दाद की क़ब्रों के पुराने कत्बे
जिन की तहरीर मह ओ साल के फ़ित्नों की नक़ीब
जिन की बोसीदा सिलें सीम-ज़दा शोर-ज़दा
और आसेब ज़माने कि रहे जिन का नसीब
पुश्त-दर-पुश्त बिला फ़स्ल वो अज्दाद मिरे
अपने आक़ाओं की मंशा थी मशिय्यत उन की
गर वो ज़िंदा थे तो ज़िंदों में वो शामिल कब थे
और मरने पे फ़क़त बोझ थी मय्यत उन की
जिन को मकतब से लगाओ था न मक़्तल की ख़बर
जो न ज़ालिम थे न ज़ालिम के मुक़ाबिल आए
जिन की मसनद पे नज़र थी न ही ज़िंदाँ का सफ़र
ऐ मिरा नाम ओ नसब पूछने वाले सुन ले
ऐसे बे-दाम ग़ुलामों की निशानी मैं हूँ

नीला पीपल मेरा गीत

दरिया के उस पार खड़ा है पीपल का जो नीला पेड़
जिस की रगों से दूधिया चानन किरणें बन कर छनता है
पत्ते खड़ खड़ करते हैं तो दर्द का बाजा बजता है
चारों ओर से पीली सरसों छम छम नाचने लगती है
बरसों पहले ज़ीना ज़ीना दूर आकाश के मंदिर से
मीठी धुप के मोती खा कर उतरा था इक भोला हन्स
सुबह रूपहला सूरज आता सर्द हिमाला के बन से
नूर के पानी से धोता वह, हन्स के सुर्ख़ सुनहरे बाल
नर्म हवाएँ टकराती थीं पीपल की जब शाखों से
छिड़ जाते थे दिल के अंदर नग़मों के कुछ बांके तार
मैं गीतों का शायर कहता दर्द भरे और मीठे गीत
हौले हौले गीत सुना कर हन्स का जी बहलाता था

मन मौजी के जी में आई इक दिन लौट के जाने की
सौ सौ मिन्नत कर के रोया, दिल का हटेला ना माना
रोज़ उडारी मार के आख़िर पोहंचा अपने ऊंचे देस
सोग में उस दन से बैठे हैं नीला पीपल मेरे गीत

नौहा

वही बादलों के बरसने के दिन थे
मगर वो न बरसे
मुबारक हो शूरा की सनअत-गरी को
मशक़्क़त से बीजों को तय्यार कर के
उगाई थी सहरा में चूहों की खेती
जो आहिस्ता आहिस्ता बढ़ते रहे
फिर खड़े हो गए अपनी दुम के सहारे
कतरने लगे ऐसे प्यासी ज़बानों के नौहे जो मश्कों के
अंदर अमानत पड़े थे
ख़बासत ने उगले थे मनहूस भूतों के लश्कर
कि चूहों की इमदाद करते हुए नूर की बस्तियों में वो दाख़िल हुए
जो उड़ाते थे गर्द ओ ग़ुबार अपने सर पर
फटे तबल का शोर गिरता था दिल पर
भयानक सदाओं में बाज़ू उठा कर
चलाने लगे रक़्स में तेज़ पाँव
तअफ़्फ़ुन में लिपटे हुए साँस छोड़े
बढ़े किचकचाते हुए दाँत अपने हज़ारों तरफ़ से
फ़रिश्तों ने देखा तो घबरा गए और ख़स्ता प्यालों को रेती से भर कर
सुकड़ने लगे अपने ख़ेमों की जानिब
वो रेती के ज़र्रे जिन्हें आब सूरज की किरनों ने दी थी
मगर वो न बरसे
वही बादलों के बरसने के दिन थे

प्यासा ऊँट

जिस वक़्त महार उठाई थी मेरा ऊँट भी प्यासा था
मश्कीज़े में ख़ून भरा था आँख में सहरा फैला था
ख़ुश्क बबूलों की शाख़ों पर साँप ने हल्क़े डाले थे
जिन की सुर्ख़ ज़बानों से पत्तों ने ज़हर कशीद किया
काली गर्दन पीली आँखों वाली बन की एक चुड़ैल
नीले पंजों वाले नाख़ुन जिन के अंदर चिकना मैल
एक कटोरा ख़ुश्क लहू का उस में लाखों रेंगते बिच्छू
हम दोनों ने तेज़ किए थे ऊपर नीचे वाले दाँत
ख़ुश्क लहू को काट के खाया और पिया फिर मश्कीज़ा
उस के बाद अचानक देखा सहरा ख़ून का दरिया था
मैं और डायन साँप और बिच्छू सब कुछ उस में डूब रहे थे
लेकिन ऊँट वो प्यासा मेरा हम से डर कर भाग गया

बांसों का जंगल

मैं बांसों के जंगल में हूँ जिन के नेज़े बनते हैं
सिर्फ हरी लचकीली शाखों वाला जंगल बांसों का
जिस की रगों में बैठा पानी सुबह-ए- अज़ल से जारी है
सब्ज़ घनेरे पत्ते इस के, और पत्तों के साये हैं
नर्म ज़मीन और ठंडी मिटटी, और मिटटी की खुशबुएँ
मस्त खुनक मदहोश हवाएं हौले हौले चलती हैं
लोग मुसाफिर नील गगन के जंगल में आ जाते हैं
देख फ़िज़ाएं ख्वाब ज़दा मीठी नींदें सो जाते हैं
लेकिन सद अफ़सोस यहाँ के काले नाग क़यामत हैं
शाखों पर लटके रहते हैं और धरती पर रेंगते हैं
डस लेते हैं, खा जाते हैं, सांस हवा हो जाती है
आखिर खुद भी बन जाते हैं सांप के अंदर जाकर सांप
वाये कुछ मासूम यहाँ से बच कर भागने लगते हैं
लेकिन जंगल बांसों का है! जिन के नेज़े बनते हैं

बे-यक़ीन बस्तियाँ

वो इक मुसाफ़िर था जा चुका है
बता गया था कि बे-यक़ीनों की बस्तियों में कभी न रहना
कभी न रहना कि उन पे इतने अज़ाब उतरेंगे जिन की गिनती अदद से बाहर
वो अपने मुर्दे तुम्हारे काँधों पे रख के तुम को जुदा करेंगे
तुम उन जनाज़ों को क़र्या क़र्या लिए फिरोगे
फ़लक भी जिन से ना-आश्ना है जिन्हें ज़मीनें भी रद करेंगी
वो कह गया था हमेशा ज़िल्लत से दूर रहना
कि बद-नसीबों का रिज़्क़-ए-अव्वल उन्हीं ज़मीनों से पैदा होता है
जिन ज़मीनों पे भूरी गिद्धों की नोची हड्डी के रेज़े बिखरीं
तुम अपनी राय को इस्तक़ामत की आब देना
जिसे पहाड़ों की ख़ुश्क संगीं बुलंदियों से ख़िराज भेजें
ग़ुलाम ज़ेहनों पे ऐसी लानत की रस्म रखना
जो तेरी नस्लों फिर उन की नस्लों फिर उन की नस्लों तलक भी जाए
तुम्हें ख़बर हो शरीफ़ लोगों की ऊँची गर्दन लचक से ऐसे ही बे-ख़बर है
सवाद-ए-ग़ुर्बत में ख़ेमा-गाहों की जैसे गाड़ी हों ख़ुश्क चोबें
कभी न शाने झुका के चलना
कि पस्त-क़ामत तुम्हारे क़दमों से अपने क़दमों को जोड़ देंगे
वही नहूसत तुम्हें ख़राबों की पासबानी अता करेगी
सराब-आँखों के रास्तों से तुम्हारे गुर्दों में रेत फेंकेंगे और सीने को काट देंगे
वो कह गया था यही वो इल्लत के मारे वहशी हैं जिन की अपनी ज़बाँ नहीं है
ये झाग उड़ाते हैं अपने जबड़ों से लजलजे का तो गड़गड़ाहट का शोर उठता है
और बदबू बिखेरता है
यही वो बद-बख़्त बे-हुनर और बे-यक़ीं हैं कि जिन की दियत न ख़ूँ-बहा है
सो इन की क़ुर्बत से दूर रहना नजात-ए-दिल का सबब बनेगा
वो इक मुसाफ़िर था कह गया है

मिरे चराग़ बुझ गए

मिरे चराग़ बुझ गए
मैं तीरगी से रौशनी की भीक माँगता रहा
हवाएँ साज़-बाज़ कर रही थीं जिन दिनों सियाह रात से
उन्ही सियाह साअतों में सानेहा हुआ
तमाम आईने ग़ुबार से बे-नूर हो गए
सरा के चार सम्त हौल-नाक शब की ख़ामुशी
चमकती आँख वाले भेड़ियों के ग़ोल ले के आ गई
क़बा-ए-ज़िंदगी वो फाड़ ले गए नुकीले नाख़ुनों से उस तरह
कि रूह चीथडों में बट गई
ख़राब मौसमों की चाल थी कि आस-पास बाँबियों से
आ गए निकल के साँप झूमते हुए
बुझा दिया सफ़ेद रौशनी का दिल
मदद को मैं पुकारता था और देखती थीं पुतलियाँ तमाशा ग़ौर से
मगर न आईं बीन ले के अम्न वाली बस्तियों से जोगियों की टोलियाँ
सियाह आँधियों का ज़ोर कब तलक सहारते
मिरे चराग़ बुझ गए

मुसीबत की ख़बरें

मुसीबत की ख़बरें
सुनो शाम वालो मुसीबत की ख़बरें
गरेबान दामन तलक चाक कर दो
सरों पर सवारों की रौंदी हुई ख़ाक डालो
अबू-क़ैस को मौत ने खा लिया है
अमीर-ए-दमिशक़ इन दिनों सोगवारी में हैं
ग़मों के अँधेरों में जकड़े हुए
हुज़्न की आग से उन का दिल जल गया
आह बू-क़ैस की मौत के बार से झुक गए हैं ख़लीफ़ा के शाने
अबू-क़ैस क्या था तुम्हें क्या ख़बर शाम वालो
अबू-क़ैस बड़े शहसवारों में था
वो ख़लीफ़ा का राज़-आश्ना, बंदगान-ए-ख़ुदा में मुक़र्रब
यज़ीद-इबन-ए-मैसून की शब का साथी
अबू-क़ैस हिंदा के पोते का तन्हा सहारा
वही सुर्ख़ बंदर
जो मैसून अपने क़बीले से लाई
बहुत शौक़ से नाम उस का अबू-क़ैस रखा
फिर अपनी अमानत अरब और अजम के ख़लीफ़ा को सौंपी
उसी साहिब-ए-तख़्त-ओ-ताज-ओ-तरब को
जिसे आज इस्लाम की पासबानी का पूरा शरफ़ है
उसी का और अबू-क़ैस बंदर
ख़ुदा उस को बख़्शे
उसे घुड़-सवारी में ऐसी महारत थी जिस का बयाँ करना क़ुदरत से बाहर
किसी शख़्स-ए-बदबख़्त ने उस के घोड़े को बिदका दिया
उस के पाँव रिकाबों से निकले
अबू-क़ैस नीचे गिरा और मीलों तलक ठोकरों पर रहा
आह किस बे-कसी में अदम को सिधारा
मुसीबत, मुसीबत
सुनो अहल-ए-इस्लाम
अबू-क़ैस की मौत ऐसा बड़ा सानेहा है
कि जिस की मुसीबत से आल-ए-उमय्या के क़स्रों में राख और धुआँ भर गया है
दुआ!
दुआ की ज़रूरत
अबू-क़ैस की मग़फ़िरत के लिए
और यज़ीद-इबन-ए-हिंदा के सब्र ओ जज़ा के लिए

रहज़नी ख़ूब नहीं ख़्वाजा-सराओं के लिए

रहज़नी ख़ूब नहीं ख़्वाजा-सराओं के लिए
शोर पायल का सर-ए-राह न रुस्वा कर दे
हाथ उठेंगे तो कंगन की सदा आएगी
तीरगी फ़ित्ना-ए-शहवत को हवा देती है
चाँदनी रक़्स पे मजबूर किया करती है
नर्म रेशम से बुने शोख़ दुपट्टों की क़सम
लोग लुटने को सर-ए-राह चले आएँगे
इस क़दर आएँगे भर जाएगा फिर रात का दिल
सख़्त लहजा गुल-ए-नग़्मा में बदल जाएगा
ख़ूँ बहाने के एवज़ इत्र-फ़िशानी होगी
होश आएगा तो बिखरे पड़े होंगे घुँगरू
सुब्ह फिर चाक लिबासों का तमाशा होगा
रहज़नी ख़ूब नहीं ख़्वाजा-सराओं के लिए

रेशम बुनना खेल नहीं

हम धरती के पहले कीड़े हम धरती का पहला मास
दिल के लहू से सांस मिला कर सच्चा नूर बनाते हैं
अपना आप ही खाते हैं और रेशम बुनते जाते हैं
ख़्वाब नगर की ख़ामोशी और तन्हाई में पलते हैं
साफ़ मुसफ्फ़ा उजला रेशम तारीकी में बुनते हैं
किस ने समझा कैसे बुने हैं चाँद की किरणों के तार
कुंजे-जिगर से खींच के लाते हैं हम नूर के ज़र्रों को
शरमाते हैं देख के जिन को नील गगन के तारे भी
हम को खबर है उन कामों में जाँ का ज़ियाँ हो जाता हैं
लेकिन फितरत की मजबूरी हम रेशम के कीड़ों की
सच्चा रेशम बुनते हैं और तार लपेटते जाते हैं
आख़िर घुट कर मर जाते हैं रेशम की दीवारों में
कोई रेशम बुन कर देखे रेशम बुनना खेल नहीं

लुहार जानता नहीं

हमारे गाँव का लुहार अब दराँतियाँ बना के बेचता नहीं
वो जानता है फ़स्ल काटने का वक़्त कट गया सरों को काटने के शग़्ल में
वो जानता है बाँझ हो गई ज़मीन जब से ले गए नक़ाब-पोश गाँव के मवेशियों को शहर में
जो बरमला सदाएँ दे के ख़ुश्क ख़ून बेचते हैं बे-यक़ीन बस्तियों के दरमियाँ
उदास दिल ख़मोश और बे-ज़बाँ कबाड़ के हिसार में सियाह कोएलों से गुफ़्तुगू
तमाम दिन गुज़ारता है सोचता है कोई बात रूह के सराब में
कुरेदता है ख़ाक और ढूँडता है चुप की वादियों से सुर्ख़ आग पर वो ज़र्ब
जिस के शोर से लुहार की समाअतें क़रीब थीं
बजाए आग की लपक के सर्द राख उड़ रही है धूँकनी के मुँह से
राख जिस को फाँकती है झोंपड़ी की ख़स्तगी
सियाह छत के ना-तवाँ सुतून अपने आँकड़ों समेत पीटते हैं सर
हरारतों की भीक माँगते हैं झोंपड़ी के बाम ओ दर
जो भट्टियों की आग के हरीस थे
धुएँ के दाएरों से खींचते थे ज़िंदगी
मगर अजीब बात है हमारे गाँव का लुहार जानता नहीं
वो जानता नहीं कि बढ़ गई हैं सख़्त और तेज़ धार ख़ंजरों की क़ीमतें
सो जल्द भट्टियों का पेट भर दे सुर्ख़ आग से

सफ़ीर-ए-लैला-1

सफ़ीर-ए-लैला यही खंडर हैं जहाँ से आग़ाज़-ए-दास्ताँ है
ज़रा सा बैठो तो मैं सुनाऊँ
फ़सील-ए-क़र्या के सुर्ख़ पत्थर और उन पे अज़्दर-निशान बुर्जें गवाह क़र्या की अज़्मतों की
चहार जानिब नख़ील-ए-तूबा और उस में बहते फ़रावाँ चश्मे
बुलंद पेड़ों के ठंडे साए थे शाख़-ए-ज़ैतूँ इसी जगह थी
यही सुतूँ थे जो देखते हो पड़े हैं मुर्दा गिद्धों के मानिंद
उठाए रखते थे इन के शाने अज़ीम क़स्रों की संगीं सक़्फ़ें
यही वो दर हैं सफ़ीर-ए-लैला कि जिन के तख़्ते उड़ा लिए हैं दिनों की आवारा सरसरों ने
यहीं से गुज़री थीं सुर्ख़ ऊँटों की वो क़तारें
कि उन की पुश्तें सनोबरों के सफ़ेद पालान ले के चलतीं
उठाए फिरतीं जवान परियों की महमिलों को
ये सेहन-ए-क़र्या है उन जगहों पर घनी खजूरों की सब्ज़ शाख़ें
फ़लक से ताज़ा फलों के ख़ोशे चुरा के भरती थीं पहलुओं में
सफ़ेद पानी के सौ कुएँ यूँ भरे हुए थे
कि चौड़ी मश्कों को हाथ भर की ही रस्सियाँ थीं
मज़ाफ़-ए-क़र्या में सब्ज़ा-गाहें और इन में चरती थीं फ़र्बा भेड़ें
शिमाल-ए-क़र्या में नील-गाएँ मनार-ए-मस्जिद से देखते थे
परे हज़ारों कबूतरों के फ़सील-ए-क़र्या से गुम्बदों तक
परों को ज़ोरों से फड़फड़ाते थे और सेहनों में दौड़ते थे
यहीं था सब कुछ सफ़ीर-ए-लैला
इसी जगह पर जहाँ बबूलों के ख़ार फिरते हैं चूहियों की सवारियों पर
जहाँ परिंदों को हौल आते हैं राख उड़ती है हड्डियों की
यही वो वहशत-सरा है जिस में दिलों की आँखें लरज़ रही हैं
सफ़ीर-ए-लैला तुम आज आए हो तो बताऊँ
तिरे मुसाफ़िर यहाँ से निकले उफ़ुक़ के पर्बत से उस तरफ़ को
वो ऐसे निकले कि फिर न आए
हज़ार कोहना दुआएँ गरचे बुज़ुर्ग होंटों से उठ के बाम-ए-फ़लक पे पहुँचीं
मगर न आए
और अब यहाँ पर न कोई मौसम न बादलों के शफ़ीक़ साए
न सूरजों की सफ़ेद धूपें
फ़क़त सज़ाएँ हैं ऊँघ-भरती करीह चेहरों की देवियाँ हैं
सफ़ीर-ए-लैला
यहाँ जो दिन हैं वो दिन नहीं हैं
यहाँ की रातें हैं बे-सितारा
सहर में कोई नमी नहीं है

सफ़ीर-ए-लैला-2

नज़र उठाओ सफ़ीर-ए-लैला बुरे तमाशों का शहर देखो
ये मेरा क़र्या ये वहशतों का अमीन क़र्या
तुम्हें दिखाऊँ
ये सेहन-ए-मस्जिद था याँ पे आयत-फ़रोश बैठे दुआएँ ख़िल्क़त को बेचते थे
यहाँ अदालत थी और क़ाज़ी अमान देते थे रहज़नों को
और इस जगह पर वो ख़ान-क़ाहें थीं आब ओ आतिश की मंडियाँ थीं
जहाँ पे अमरद-परस्त बैठे सफ़ा-ए-दिल की नमाज़ें पढ़ कर
ख़याल-ए-दुनिया से जाँ हटाते
सफ़ीर-ए-लैला मैं क्या बताऊँ कि अब तो सदियाँ गुज़र चुकी हैं
मगर सुनो ऐ ग़रीब-ए-साया कि तुम शरीफ़ों के राज़-दाँ हो
यही वो दिन थे मैं भूल जाऊँ तो मुझ पे लानत
यही वो दिन थे सफ़ीर-ए-लैला हमारी बस्ती में छे तरफ़ से फ़रेब उतरे
दरों से आगे घरों के बीचों फिर उस से चूल्हों की हाँडियों में
जवान-ओ-पीर-ओ-ज़नान-ए-क़र्या ख़ुशी से रक़्साँ
तमाम रक़्साँ
हुजूम-ए-तिफ़्लाँ था या तमाशे थे बोज़्नों के
कि कोई दीवार-ओ-दर न छोड़ा
वो उन पे चढ़ कर शरीफ़ चेहरों की गर्दनों को फलाँगते थे
दराज़-क़ामत लहीम बौने
रज़ा-ए-बाहम से कोल्हुओं में जुते हुए थे
ख़रासते थे वो ज़र्द ग़ल्ला तो उस के पिसने से ख़ून बहता था पत्थरों से
मगर न आँखें कि देख पाईं न उन की नाकें कि सूँघते वो
फ़क़त वो बैलों की चक्कियाँ थीं सरों से ख़ाली
फ़रेब खाते थे ख़ून पीते थे और नींदें थीं बज्जुओं की
सफ़ीर-ए-लैला ये दास्ताँ है इसी खंडर की
इसी खंडर के तमाश-बीनों फ़रेब-ख़ुर्दों की दास्ताँ है
मगर सुनो अजनबी शनासा
कभी न कहना कि मैं ने क़रनों के फ़ासलों को नहीं समेटा
फ़सील-ए-क़र्या के सर पे फेंकी गई कमंदें नहीं उतारीं
तुम्हें दिखाऊँ तबाह बस्ती के एक जानिब बुलंद टीला
बुलंद टीले पे बैठे बैठे हवन्नक़ों-सा
कभी तो रोता था अपनी आँखों पे हाथ रख कर कभी मुसलसल मैं ऊँघता था
मैं ऊँघता था कि साँस ले लूँ
मगर वो चूल्हों पे हाँडियों में फ़रेब पकते
सियाह साँपों की ऐसी काया-कलप हुई थी कि मेरी आँखों पे जम गए थे
सो याँ पे बैठा मैं आने वाले धुएँ की तल्ख़ी बता रहा था
ख़बर के आँसू बहा रहा था
मगर मैं तन्हा सफ़ीर-ए-लैला
फ़क़त ख़यालों की बादशाही मिरी विरासत
तमाम क़र्ये का एक शाइर तमाम क़र्ये का इक लईं था
यही सबब है सफ़ीर-ए-लैला मैं याँ से निकला तो कैसे घुटनों के बल उठा था
नसीब-ए-हिजरत को देखता था
सफ़र की सख़्ती को जानता था
ये सब्ज़ क़रियों से सदियों पीछे की मंज़िलों का सफ़र था मुझ को
जो गर्द-ए-सहरा में लिपटे ख़ारों की तेज़ नोकों पे जल्द करना था और
वो ऐसा सफ़र नहीं था जहाँ पे साए का रिज़्क़ होता
जहाँ हवाओं का लम्स मिलता
फ़रिश्ते आवाज़-ए-अल-अमाँ में मिरे लिए ही
अजल की रहमत को माँगते थे
यही वो लम्हे थे जब शफ़क़ के तवील टीलों पे चलते चलते
मैं दिल के ज़ख़्मों को साथ ले कर
सफ़र के पर्बत से पार उतरा

सफ़ीर-ए-लैला-3

सफ़ीर-ए-लैला ये क्या हुआ है
शबों के चेहरे बिगड़ गए हैं
दिलों के धागे उखड़ गए हैं
शफ़ीक़ आँसू नहीं बचे हैं ग़मों के लहजे बदल गए हैं
तुम्ही बताओ कि इस खंडर में जहाँ पे मकड़ी की सनअतें हों
जहाँ समुंदर हों तीरगी के
सियाह-जालों के बादबाँ हों
जहाँ पयम्बर ख़मोश लेटे हों बातें करती हों मुर्दा रूहें
सफ़ीर-ए-लैला तुम्ही बताओ जहाँ अकेला हो दास्ताँ-गो
वो दास्ताँ-गो जिसे कहानी के सब ज़मानों पे दस्तरस हो
शब-ए-रिफ़ाक़त में तूल-ए-क़िस्सा चराग़ जलने तलक सुनाए
जिसे ज़बान-ए-हुनर का सौदा हो ज़िंदगी को सवाल समझे
वही अकेला हो और ख़मोशी हज़ार सदियों की साँस रोके
वो चुप लगी हो कि मौत बाम-ए-फ़लक पे बैठी ज़मीं के साए से काँपती हो
सफ़ीर-ए-लैला तुम्ही बताओ वो ऐसे दोज़ख़ से कैसे निपटे
दयार-ए-लैला से आए नामे की नौ इबारत को कैसे पढ़ ले
पुराने लफ़्ज़ों के इस्तिआरों में गुम मोहब्बत को क्यूँके समझे
सफ़ीर-ए-लैला अभी मलामत का वक़्त आएगा देख लेना
अगर मुसिर हो तो आओ देखो
यहाँ पे बैठो ये नामे रख दो
यहीं पे रख दो इन्ही सिलों पर
कि इस जगह पर हमारी क़ुर्बत के दिन मिले थे
वो दिन यहीं पर जुदा हुए थे इन्ही सिलों पर
और अब ज़रा तुम नज़र उठाओ मुझे बताओ तुम्हारा नाक़ा कहाँ गया है
बुलंद टख़नों से ज़र्द रेती पे चलने वाला सबीह नाक़ा
वो सुर्ख़ नाक़ा सवार हो कर तुम आए जिस पर बुरी सरा में
वही कि जिस की महार बाँधी थी तुम ने बोसीदा उस्तुख़्वाँ से
वो अस्प-ए-ताज़ी के उस्तुख़्वाँ थे
मुझे बताओ सफ़ीर-ए-लैला किधर गया वो
उधर तो देखो वो हड्डियों का हुजूम देखो
वही तुम्हारा अज़ीज़ साथी सफ़र का मोनिस
प अब नहीं है
और अब उठाओ सिलों से नामे
पढ़ो इबारत जो पढ़ सको तो
क्या डर गए हो कि सतह-ए-काग़ज़ पे जुज़ सियाही के कुछ नहीं है
ख़जिल हो इस पर कि क्यूँ इबारत ग़ुबार हो कर नज़र से भागी
सफ़ीर-ए-लैला ये सब करिश्मे इसी खंडर ने मिरी जबीं पर लिखे हुए हैं
यही अजाइब हैं जिन के सदक़े यहाँ परिंदे न देख पाओगे
और सदियों तलक न उतरेगी याँ सवारी
न चोब-ए-ख़ेमा गड़ेगी याँ पर
सफ़ीर-ए-लैला ये मेरे दिन हैं
सफ़ीर-ए-लैला ये मेरी रातें
और अब बताओ कि इस अज़िय्यत में किस मोहब्बत के ख़्वाब देखूँ
मैं किन ख़ुदाओं से नूर माँगूँ
मगर ये सब कुछ पुराने क़िस्से पराई बस्ती के मुर्दा क़ज़िए
तुम्हें फ़सानों से क्या लगाओ
तुम्हें तो मतलब है अपने नाक़ा से और नामे की उस इबारत से
सतह-ए-काग़ज़ से जो उड़ी है
सफ़ीर-ए-लैला तुम्हारा नाक़ा
मैं उस के मरने पर ग़म-ज़दा हूँ
तुम्हारे रंज ओ अलम से वाक़िफ़ बड़े ख़सारों को देखता हूँ
सो आओ उस की तलाफ़ी कर दूँ ये मेरे शाने हैं बैठ जाओ
तुम्हें ख़राबे की कारगह से निकाल आऊँ
दयार-ए-लैला को जाने वाली हबीब राहों पे छोड़ आऊँ

सफ़ीर-ए-लैला-4

हरीम-ए-महमिल में आ गया हूँ सलाम ले लो
सलाम ले लो कि मैं तुम्हारा अमीन-ए-क़ासिद ख़जिल मुसाफ़िर अज़ा की वादी से लौट आया
मैं लौट आया मगर सरासीमा इस तरह से
कि पिछले क़दमों पलट के देखा न गुज़रे रस्तों के फ़ासलों को
जहाँ पे मेरे निशान-ए-पा अब थके थके से गिरे पड़े थे
हरीम-ए-महमिल में वो सफ़ीर-ए-नवेद-परवर
जिसे ज़माने के पस्त ओ बाला ने इतने क़िस्से पढ़ा दिए थे
जो पहले क़रनों की तीरगी को उजाल देते
तुम्हें ख़बर है
ये मेरा सीना क़दीम अहराम में अकेला वो इक हरम था
अज़ीम राज़ों के कोहना ताबूत जिस की कड़ियों में बस रहे थे
उन्हीं हवाओं का डर नहीं था
न सहरा-ज़ादों के नस्ली का ही उन की गिर्द-ए-ख़बर को पहुँचे
हरीम-ए-महमिल में वो अमानत का पासबाँ हूँ
जो चर्म-ए-आहू के नर्म काग़ज़ पे लिक्खे नामे को ले के निकला
वही कि जिस के सवार होने को तुम ने बख़्शा जहाज़-ए-सहरा
तवील राहों में ख़ाली मश्कों का बार ले कर हज़ार सदियाँ सफ़र में गर्दां
कहीं सराबों की बहती चाँदी कहीं चटानों की सख़्त क़ाशें
मयान-ए-राह-ए-सफ़र खड़े थे जकड़ने वाले नज़र के लोभी
मगर न भटका भटकने वाला
जो दम लिया तो अज़ा में जा कर
हरीम-ए-महमिल सुनो फ़साने जो सुन सको तो
मैं चलते चलते सफ़र के आख़िर पे ऐसी वादी में जा के ठहरा
और उस पे गुज़रे हरीस लम्हों के उन निशानों को देख आया
जहाँ के नक़्शे बिगड़ गए हैं
जहाँ के तबक़े उलट गए हैं
वहाँ की फ़सलें ज़क़्क़ूम की हैं
हवाएँ काली हैं राख उड़ कर खंडर में ऐसे फुँकारती है
कि जैसे अज़दर चहार जानिब से जबड़े खोले ग़दर मचाते
ज़मीं पे कीना निकालते हों
कसीफ़ ज़हरों की थैलियों को ग़ज़ब से बाहर उछालते हों
मुहीब साए में देवताओं का रक़्स जारी था
टूटे हाथों की हड्डियों से वो दोहल-ए-बातिल को पीटते थे
ज़ईफ़ कव्वों ने अहल-ए-क़र्या की क़ब्रें खोदीं
तू उन के नाख़ुन नहीफ़ पंजों से झड़ के ऐसे बिखर रहे थे
चकोंदारों ने चबा के फेंके हों जैसे हड्डी के ख़ुश्क रेज़े
हरीम-ए-महमिल वही वो मंज़िल थी जिस के सीने पे मैं तुम्हारी नज़र से पहुँचा उठाए मेहर ओ वफ़ा के नामे
वहीं पे बैठा था सर-ब-ज़ानू तुम्हारा महरम
खंडर के बोसीदा पत्थरों पर हज़ीन ओ ग़मगीं
वहीं पे बैठा था
क़त्ल-नामों के महज़रों को वो पढ़ रहा था
जो पस्तियों के कोताह हाथों ने उस की क़िस्मत में लिख दिए थे
हरीम-ए-महमिल मैं अपने नाक़ा से नीचे उतरा तो मैं ने देखा कि उस की आँखें ख़मोश ओ वीराँ
ग़ुबार-ए-सहरा मिज़ा पे लर्ज़ां था रेत दीदों में उड़ रही थी
मगर शराफ़त की एक लौ थी कि उस के चेहरे पे नर्म हाला किए हुए थी
वो मेरे लहजे को जानता था
हज़ार मंज़िल की दूरियों के सताए क़ासिद के उखड़े क़दमों की चाप सुनते ही उठ खड़ा था
दयार-ए-वहशत में बस रहा था
पे तेरी साँसों के ज़ेर-ओ-बम से उठी हरारत से आश्ना था
वो कह रहा था यहाँ से जाओ कि याँ ख़राबों के कार-ख़ाने हैं
रोज़ ओ शब के जो सिलसिले हैं खुले ख़सारों की मंडियाँ हैं
वो डर रहा था तुम्हारा क़ासिद कहीं ख़सारों में बट न जाए
हरीम-ए-महमिल मैं क्या बताऊँ वहीं पे खोया था मेरा नाक़ा
फ़क़त ख़राबे के चंद लम्हे ही उस के गूदे को खा गए थे
उसी मक़ाम-ए-तिलिस्म-गर में वो उस्तख़्वानों में ढल गया था
जहाँ पे बिखरा पड़ा था पहले तुम्हारे महरम का अस्प-ए-ताज़ी
और अब वो नाक़ा के उस्तुख़्वाँ भी
तुम्हारे महरम के अस्प-ए-ताज़ी के उस्तख़्वानों में मिल गए हैं
हरीम-ए-महमिल वही वो पत्थर थे जिन पे रक्खे थे मैं ने मेहर ओ वफ़ा के नामे
जहाँ पे ज़िंदा रुतों में बाँधे थे तुम ने पैमान ओ अहद अपने
मगर वो पत्थर कि अब अजाइब की कारगह हैं
तुम्हारे नामे की उस इबारत को खा गए हैं
शिफ़ा के हाथों से जिस को तुम ने रक़म किया था
सो अब न नाक़ा न कोई नामा न ले के आया जवाब-ए-नामा
मैं ना-मुराद ओ ख़जिल मुसाफ़िर
मगर तुम्हारा अमीन क़ासिद अज़ा की वादी से लौट आया
और उस नजीब ओ करीम महरम-ए-वफ़ा के पैकर को देख आया
जो आने वाले दिनों की घड़ियाँ अबद की साँसों से गिन रहा है

सुर्मा हो या तारा

दर्द की लज़्ज़त से ना-वाक़िफ़ ख़ुश्बू से मानूस न था
मेरे घर की मिट्टी से वो शख़्स बहुत बेगाना था
तारे चुनते चुनते जिस ने फूल नज़र-अंदाज़ किए
ख़्वाब किसे मालूम नहीं हैं लम्स किसे महबूब नहीं
लेकिन जो ताबीर न जाने उस को ऊँघ भी लेना ऐब
रात की क़ीमत हिज्र में समझी जिस ने आँसू नूर बने
ज़ख़्म से उठने वाली टीसें ओस की ठंडक पीती हैं
आज न पूछो दुखने लगी है सुरमे से क्यूँ उस की आँख
जिस को सुनहरे दिन का सूरज किरनें बाँटने आता था
पत्थर आख़िर पत्थर होगा सुर्मा हो या तारा हो

हिजरत

चढ़ आया जब काफ़ नगर पर लश्कर सर्द हवाओं का
सूरज धुंध में लिपटे नेज़े ले कर दक्खिन भाग गया
पस्पा होते देख के उस को पंछी दूर पहाड़ों में

देस पराये हिजरत करके बस्ती बस्ती फ़ैल गए
पतली गर्दन वाली कूँजें उड़ते उड़ते शाम ढले
मेरे गाँव के पच्छिम में झील किनारे आ बैठीं

सूरज डूब रहा था और शफ़क़ पर सोना बिखरा था
ऐसे में एक जाल लिए बे नाम शिकारी आ पोहंचा
घात लगा कर मासूमों पर उस ने एक तकबीर कही

जीने की उम्मीद लिए जो ऊंचे सर्द पहाड़ों से
उड़ते उड़ते मेरे वतन में सौ सौ डारें आई थीं
तेज़ शुआओं की धरती ने उन को सच मुच राख किया

हुजूम-ए-गिर्या

हमें भी रो ले हुजूम-ए-गिर्या कि फिर न आएँगे ग़म के मौसम
हमें भी रो ले कि हम वही हैं
जो आफ़्ताबों की बस्तियों से सुराग़ लाए थे उन सवेरों का जिन को शबनम के पहले क़तरों ने ग़ुस्ल बख़्शा
सफ़ेद रंगों से नूर-ए-मअ'नी निकाल लेते थे और चाँदी उजालते थे
शफ़क़ पे ठहरे सुनहरे बादल से ज़र्द सोने को ढालते थे
ख़ुनुक हवाओं में ख़ुशबुओं को मिला के उन को उड़ाने वाले
सबा की परतों पे शेर लिख कर अदम की शक्लें बनाने वाले
दिमाग़ रखते थे लफ़्ज़ ओ मअ'नी का और दस्त-ए-हुनर के मालिक
वक़ार-ए-नूर-ए-चराग़ हम थे
हमें भी रो ले हुजूम-ए-गिर्या
हमें भी रो ले कि हम वही हैं जो तेज़ आँधी में साफ़ चेहरों को देख लेते थे और साँसों को भाँपते थे
फ़लक-नशीनों से गुफ़्तुगूएँ थीं और परियों से खेलते थे
करीम लोगों की सोहबतों में कुशादा कू-ए-सख़ा को देखा
कभी न रोका था हम को सूरज के चोबदारों ने क़स्र-ए-बैज़ा के दाख़िले से
वही तो हम हैं
वही तो हम हैं जो लुट चुके हैं हफ़ीज़ राहों पे लुटने वाले
उसी फ़लक की सियह-ज़मीं पर जहाँ पे लर्ज़ां हैं शोर-ए-नाला से आदिलों की सुनहरी कड़ियाँ
हमें भी रो ले हुजूम-ए-गिर्या
हमें भी रो ले कि इन दिनों में हमारी पुश्तों पे बार होता है ज़ख़्म-ए-ताज़ा के सुर्ख़ फूलों का और गर्दन में सर्द आहन की कोहना लड़ियाँ
हमारी ज़िद में सफ़ेद नाख़ुन क़लम बनाने में दस्त-ए-क़ातिल का साथ देते हैं और नेज़े उछालते हैं
हवा की लहरों ने रेग-ए-सहरा की तेज़ धारों से रिश्ते जोड़े
शरीर हाथों से कंकरों की सियाह बारिश के राब्ते हैं
हमारी ज़िद में ही मुल्कों मुल्कों के शहरयारों ने अहद बाँधे
यही कि हम को धुएँ से बाँधें और अब धुएँ से बंधे हुए हैं
सो हम पे रोने के नौहा करने के दिन यही हैं हुजूम-ए-गिर्या
कि मुस्तइद हैं हमारे मातम को गहरे सायों की सर्द शामें
ख़िज़ाँ-रसीदा तवील शामें
हमें भी रो ले हुजूम-ए-गिर्या कि फिर न आएँगे ग़म के मौसम