शकुन की कुण्डलियाँ : शकुंतला अग्रवाल 'शकुन'


1 प्राची से आये दिवा,गहन तिमिर को चीर। कनिका चूमे रश्मियाँ, बिसरी सारी पीर। बिसरी सारी पीर, मुदित है डाली-डाली। भँवरे हुए अधीर, करे सब प्रीत जुगाली। आनंदित है मीत, भरी खुशियों से थाली। निशा गई है बीत,उड़ेले खुशियाँ प्राची। 2 अँगना उतरी साँझ है, दिन का है अवसान। नील-गगन रक्तिम हुआ,प्रीति चढ़ी परवान। प्रीति चढ़ी परवान,विहँग लौटे हैं घर को। फलित हुए अरमान,तभी आया नर दर को। उदित हुआ फिर हर्ष, खुशी से खनके कँगना। खत्म हुआ संघर्ष, हुए फिर रोशन अँगना। 3 जंगल पर आरी चला, सुख चाहे इन्सान। कैसा मूरख बन गया, मानव हे!भगवान। मानव हे!भगवान, रोज काटे है तरवर। सूख गए सब कूप,संग सूखे है सरवर। खोया मन का धीर, मचा गलियों में दंगल। 'शकुन' अग चाहो नीर, बचाकर रखना जंगल। 4 मेरे हिन्दुस्तान की, महिमा अपरम्पार। वेद-उपनिषद को पढ़े,अब सारा संसार। अब सारा संसार, भक्ति का पीता प्याला। होता है उद्धार, हटे माया का जाला। डाल रहे हैं लोग, यहाँ आश्रम में डेरे। 'शकुन' सुखद संयोग, ईश भक्तों को हेरे। 5 दोहा रोला मिल बना, है कुण्डलिया छ्न्द। खूब बिखेरे यह सदा, भावों की मरकन्द। भावों की मरकन्द, लुटाती हमको हिन्दी। शब्दों का उपहार, करो मत चिन्दी-चिन्दी। साहित्यिक संसार, मानता इसका लोहा। कुण्डलिया का हार, 'शकुन' दोहा अरु रोला।

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