कोयला और कवित्व : रामधारी सिंह 'दिनकर' (हिन्दी कविता)
Koyla Aur Kavitwa : Ramdhari Singh Dinkar

दो शब्द

ये कविताएँ पिछले पाँच–छह वर्षों के भीतर रची गई थीं। ज्यादातर सन् ’60 से इधर की ही होंगी। पुस्तक का नाम एक खास कविता के नाम पर है जो पुस्तक के अन्त में आती है। कुछ कविताएँ ऐसी हैं जो पुरानी और नई कविताओं के बीच की कड़ियों–सी दिखाई देंगी। मुझे सबसे अधिक यही कविताएँ आनन्द देती हैं। आशा है, पाठक भी उनसे आनन्द प्राप्त करेंगे।

—दिनकर
पटना
वसन्त पंचमी
19–1–64


पुरानी और नई कविताएँ

(नो, हिज़ फर्स्ट वर्क वाज़ द बेस्ट। ए ज़रा पौंड) दोस्त मेरी पुरानी ही कविताएँ पसन्द करते हैं; दोस्त, और खास कर, औरतें। पुरानी कविताओं में रस है, उमंग है; जीवन की राह वहाँ सीधी, बे–कटीली है; सरिताएँ जितनी हैं, फूलों की छाँह में हैं; सागर में नीलिमा है, चंचल तरंग है। पुरुष बड़े ही पुरजोर हैं; या तो बड़े कोमल हैं अथवा कठोर हैं। क्रोध में कभी जो नर–नाहर ये बोलते हैं; भूमि काँपती है, कोल–कमठ कलमल होते, दिग्गज दहाड़ते, समस्त शैल डोलते हैं। नारियाँ बड़ी ही अनमोल हैं; नख–सिख तक नपी–तुली, ठीक–ठीक साँचे में ढली हुई; चन्दन, कदम्ब और कदली की छाया में दूध और घी पर पली हुई। भंगिमा स्वरूप को सँवारती है; वृत्त की गोलाई, जो भी देखे, उसे मारती है। तेजी है अनोखी काम–बाण में। घाव जो लगेंगे कभी प्राण में, रेखा में कहूँ तो ‘राय जामिनी’ की तूलिका की चित्रकारी के वे प्रतिमान होंगे छन्द में कहूँ तो रोला–छप्पय के समान होंगे। चर्म को न छीलता, न छाँटता है। काम का पुराना बाण गोदता नहीं है प्राण, दोहों के समान नपे–तुले व्रण काटता है। किन्तु, नई कविता? गणेश जी का नाम लो। बुद्धि और कल्पना के चैक पै खड़ी हुई कहती है, बुद्धि ही कशा है, इसे तेज रखो, कल्पना बढ़े जो तो लगाम जरा थाम लो। कविता न गर्जन, न सूक्ति है। वीर का न घोष, न तो वाणी खर चिन्तकों की, चैंके हुए आदमी की उक्ति है। कविता न पूर्ति है, न माँग है। सीढ़ियाँ नहीं हैं कि हरेक पाँव सीधा पड़े, ‘लॉजिक’ नहीं है, य’ छलाँग है। अर्थ नहीं, काव्य शब्द–योग है। वासना का कीर्तन नहीं है, खुद वासना है, रागों का य’ कागजी बखान नहीं, भोग है। तन्तुओं के जाल शब्द को जो कहीं बाँधते हों, सारे बन्धनों के तार तोड़ दो; अर्थ से बचो कि अर्थ बेड़ी है परम्परा की, अर्थ को दबाने से ही शब्द बड़ा होता है। निश्चित–अनिश्चित का संगम जहाँ है सूक्ष्म, कविता का सद्म निरालंब खड़ा होता है। और वे तरंगमयी नारियाँ? पुष्ट देहवाली सुकुमारियाँ? सोची गईं इतनी कि सोच में समा गईं। स्थूल से निकल सूक्ष्म कल्पना में छा गईं। नारी अब स्वप्न है, विचार है। बाहु–पाश में जो कभी दामिनी–सी नाचती थी, ‘साइक’ में करती विहार है। नारी शक्ति, नारी धूप–छाँव है। जानना हो विश्व को तो नारियों के प्राण पढ़ो, भागना हो विश्व से तो नारी तेज नाव है। और नर भी न नर ठेठ है। शंकित, सजग, स्याद्वादी, अनेकान्तवादी, कोई ‘फास्ट’, कोई ‘हैमलेट’ है। आखिर मनुष्य और क्या करे? जितना ही ज्यादा हम जानते हैं, लगता है, आप अपने को उतना ही कम, उतना ही कम पहचानते हैं। जितनी ही झाँकी बुद्धि लाती दूर, पार की, उतने ही जोर से गुफाएँ बन्द गूँजती हैं, चीखती है कुंजी अनजाने, बन्द द्वार की। केवल कवित्व ही समर्थ है। सीढ़ियाँ नहीं हैं जहाँ, सारा तर्क व्यर्थ है। तब भी समस्या बड़ी गूढ़ है। हम दोनों में से, राम जानें, कौन मूढ़ है। भूले भी न मेरी विपदाएँ थाहते हैं दोस्त, केवल पुरानी कविताएँ चाहते हैं दोस्त, दोस्त और, खास कर, औरतें।

ओ नदी!

ओ नदी! सूखे किनारों के कटीले बाहुओं से डर गई तू। किन्तु, दायी कौन? तू होती अगर, यह रेत, ये पत्थर, सभी रसपूर्ण होते; कौंधती रशना कमर में मछलियों की, नागफनियों के न उगते झाड़, तट पर दूब होती, फूल होते, देखतीं, निज रूप जल में नारियाँ, पाँव मल–मल घाट पर लक्तक बहा कर तैरतीं तुझ में उतर सुकुमारियाँ। किलकते फिरते तटों पर फूल–से बच्चे, वहन करती अछूते अंकुरों के स्वप्न का संभार कागज की जरा–सी डोंगियाँ तिरतीं लहर पर। और हिल–डुल कर वहीं फिर डूब जातीं। तीर पर उठतीं किलक किलकारियाँ, नाचते बच्चे बजा कर तालियाँ, द्वीप पर नौसार्थ, मानो, आ गया हो, स्वप्न था भेजा जिसे, मानो, उसे वह पा गया हो। द्रोणियों पर दीप बहते रात के पहले पहर में, हेम की आभामयी लड़ियाँ हृदय पर जगमगातीं, जगमगाते गीत हैं जैसे समय की धार पर। किन्तु, अब सब झूठय तारे तो गगन में हैं, मगर, पानी कहाँ जिसमें जरा वे झिलमिलाएँ? तू गई, जादू जहर का चल गया, कूल का सौन्दर्य सारा जल गया। और जीवित ही खड़ी तू मुस्कुराती है अभी भी? फूल जब मुरझा रहे थे, क्यों तुझे मूर्च्छा न आई? क्यों नहीं, हरियालियाँ मरने लगीं, तब मर गई तू? ओ नदी! सूखे किनारों के कटीले बाहुओं से डर गई तू।

नदी और पीपल

मैं वहीं हूँ, तुम जहाँ पहुँचा गए थे। खँडहरों के पास जो स्रोतस्विनी थी, अब नहीं वह शेष, केवल रेत भर है। दोपहर को रोज लू के साथ उड़कर बालुका यह व्याप्त हो जाती हवा–सी फैलकर सारे भवन में। खिड़कियों पर, फर्श पर, मसिपात्र, पोथी, लेखनी में रेत की कचकच; कलम की नोक से फिर वर्ण कोई भी न उगता है। कल्पना मल–मल दृगों को लाल कर लेती। आँख की इस किरकिरी में दर्द कम ही हो भले, पर, खीज, बेचैनी, परेशानी बहुत है। किन्तु, घर के पास का पीपल पुराना आज भी पहले सरीखा ही हरा है। गर्मियों में भी नहीं ये पेड़ शीतल सूखते हैं। पक्षियों का ग्राम केशों में बसाये यह तपस्वी वृक्ष सबको छाँह का सुख बाँटता है। छाँह यानी पेड़ की करुणा, सहेली स्निग्ध, शीतल वारि की, कर्पूर, चन्दन की। इस पुरातन वृक्ष के नीचे पहुँचते ही हृदय की हलचलें सब शान्त हो जातीं, बहुत बातें पुरानी याद आती हैं। और तब बादल हृदय के कूप से बाहर निकलकर दृष्टि के पथ को उमड़ कर घेर लेते हैं। सूझता कुछ भी नहीं, निर्वाक् खो जाता कहीं पर मैं नयन खोले हुए निष्प्राण प्रतिमा–सा। टूट गिरते शीर्ण–से दो पत्र; मानो, वृद्ध तरु की आँख से आँसू चुए हों। फिर वही अनुभूति, नदियाँ स्नेह को भी एक दिन सिकता बना देतीं, सन्त, पर, करुणा–द्रवित आँसू बहाते हैं।

बादलों की फटन

बादलों के बीच छोटी–सी फटन है, ज्यों, गुलाबी रंग का परदा कहीं से फट गया हो। इस फटन के बीच से होकर अगर मैं कूद जाऊँ, कौन गिरने से उधर मुझको सँभालेगा? मूढ! ये पत्थर नहीं, हैं फूल पानी के, धुओं के, उस तरफ का फर्श भी हलका, मुलायम है; कूदना हो तो अभी ही कूद जा ऊपर घटा में, अन्यथा, क्षण में, फटन यह बन्द होती है।

डल झील का कमल

ओ सुनील जल! ओ पर्वत की झील! तुम्हारे कर में कमल पुष्प है या कोई यह रेशम का तकिया है, जिस पर धर कर सीस रात अप्सरी यहाँ सोई थी और भाग जो गई प्रात, पौ फटते ही, घबरा कर? कह सकते हो, रंगपुष्प यह जल पर टिका हुआ है? अथवा इसके नाल–तन्तु मिट्टी से लगे हुए हैं वहाँ, जहाँ सब एक रूप है, कोई रंग नहीं है? उत्तर नहीं? हाय, यों ही मैं भी न बता पाऊँगा, जम कर मेरे पाँव खड़े हैं किसी ठोस मिट्टी पर या लहरों में इसी फूल–सा मैं भी डोल रहा हूँ।

आज शाम को

आज शाम को फिर तुम आए उतर कहीं से मन में बहुत देर कर आने वाले मनमौजी पाहुन–से। लगा, प्राप्त कर तुम्हें गया भर सूनापन कमरे का, गमक उठा एकान्त सुवासित कबरी के फूलों से। लेकिन, सब को कौन खबर दे आया शुभागमन की? फुनगी उठा लता वातायन पर से झाँक रही है, बारम्बार पवन आता है परदे हटा–हटा कर। और सितारे अन्तरिक्ष की चैखट लाँघ रहे हैं, मानो, नभ से उतर यहाँ वे भी आनेवाले हों!

सौन्दर्य

तुम्हें देखते ही मुझमें कुछ अजब भाव जगता है; भीतर कोई सन्त, खुशी में भर, रोने लगता है। कितनी शुभ्र! पवित्र! नहा कर अभी तुरत आई हो? अथवा किसी देव–मन्दिर से यह शुचिता लाई हो? एकाकिनी नहीं तुम, कोई शिखा और जलती है; किसी शक्ति की किरण तुम्हारे संग–संग चलती है। और नहीं तो क्यों न सुलगती तृषा अंक भरने की? क्यों जलती है तुम्हें देख इच्छा पूजा करने की?