जौहर : श्यामनारायण पाण्डेय

Jauhar : Shyam Narayan Pandey

चौथी चिनगारी : आखेट

दोपहरी थी, ताप बढ़ा था,
पूर्वजन्म का पाप बढ़ा था।
जल – थल – नभ के शिर पर मानो,
दुर्वासा का शाप चढ़ा था॥

वृत्त-बिन्दु-सा भासमान था,
तप्त तवे सा आसमान था।
दोपहरी के प्रखर ताप में,
जलता जग दावा – समान था॥

स्वयं ताप से विकल भानु था,
किसी तरह किरणें जीती थीं।
उतर उतरकर अम्बर - तल से
सर – सरिता में जल पीती थीं॥

ऊपर नभ से आग बरसती,
नीचे भू पर आग धधकती।
दिगदिगंत से आग निकलती,
लू - लपटों से आग भभकती॥

पंखों में खग बाल छिपाए,
छिपे अधमरे से खोतों में।
खोज खोज जल हार गए, पर
मिला न सीपी भर सोतों में॥

बैठे मृगजल हेर कहीं पर,
तृषित हरिण तरु घेर कहीं पर।
जीभ निकाल चीड़ - छाया में,
हाँफ रहे थे शेर कहीं पर॥

धूल – कणों से पाट रहे थे,
अंबर - तल विकराल बवंडर।
तृषित पथिक के लिए बने थे,
ऊसर – पथ के काल बवंडर॥

तपी रेह से भर देते थे,
जग की आँखें क्रुद्ध बवंडर।
पथ में कहीं पड़े तरुवर तो
कर लेते थे युद्ध बवंडर॥

मूर्छित मृगछौने, सुरही के
लैरू कुम्हला गए कहीं थे।
कहीं सूखते पेड़ पुराने,
सूख गए तरु नए कहीं थे॥

दिनकर – कर में आग लगी थी,
सरिता – सर में आग लगी थी।
जग में हाहाकार मचा था,
बाहर घर में आग लगी थी॥

दोपहरी में जब कि ताप से
सारा जग था दुःख झेलता।
अरावली के घोर विपिन में
एक वीर आखेट खेलता॥

स्वेद – बिंदु उसके ललाट पर
मोती – कण से झलक रहे थे।
वाजि पसीने से तर था, तन
से जल के कण छलक रहे थे॥

गमन - वेग से काँप रहा था,
वाजि निरंतर हाँफ रहा था।
पर सवार पीछे शिकार के,
बारबार पथ नाप रहा था॥

आग – सदृश तपती उसकी असि,
गरमी से भी अधिक गरम थी।
चोट भयंकर करती, पर वह
किसलय से भी अधिक नरम थी॥

लचकीली थी, लचक लचककर
नर्तन पर नर्तन करती थी।
चीर चीरकर वीर पंक्ति वह
पद-कर-तन-कर्तन करती थी॥

पीछे प्यासे मृग - दम्पति के,
वही पड़ी तलवार दुधारी।
गिरती हय की टाप शिला पर,
उड़ उड़ जाती थी चिनगारी॥

चपल चौकड़ी भर भरकर वह
उड़ता कस्तूरी – मृग - जोड़ा।
रतनसिंह ने उसके पीछे
छोड़ दिया था अपना घोड़ा॥

कभी झाड़ियों में छिप जाते,
कभी लताओं के झुरमुट में,
कभी पहाड़ों की दरियों में,
कभी समा जाते खुर – पुट में॥

कभी शिखर पर कुलाँचते थे,
कभी रेंगते पथ महान पर।
कभी सामने ही व्याकुल से,
कभी उड़े तो आसमान पर॥

मृग – दंपति पर रतन – लक्ष्य पर,
इधर उधर वन - जीव भागते।
शेर - तेंदुए - बाघ - रीछ सब
वन वन विकल अतीव भागते॥

छिपे दरारों में अजगर थे,
हाथी छिपे पहाड़ों में थे।
छिपे सरपतों में अरने थे,
हरिण कँटीले झाड़ों में थे॥

पर सवार को ध्यान न कुछ भी,
औरों के छिपने भगने का।
केवल उसको ध्यान लक्ष्य पर
ठीक निशाने के लगने का॥

भगते भगते खड़े हो गए,
थकी मृगी, मृग थका बिचारा।
कंपित तन मन, शिथिल अंग थे,
साँसों का रह गया सहारा॥

दोनों की आँखों से टप टप,
दो दो बिंदु गिरे आँसू के।
सूख गए पर हाय वहीं पर,
सन सन सन बहने से लू के॥

दोनों ने रावल से माँगी,
मौन – मौन भिक्षा प्राणों की।
क्षण भर भी पूरी न हो सकी,
पर इच्छा उन म्रियमाणों की॥

एक हाथ मारा सवार ने,
दोनों दो दो टूक हो गए।
चीख चीख वन की गोदी में,
धीरे - धीरे मूक हो गए॥

मृग – शोणित के फौवारों से,
मही वहाँ की लाल हो गई।
हाय, क्रूर तलवार रतन की,
दो प्राणों की काल हो गई॥

तुरत किसी ने कानों में यह
धीरे से संदेश सुनाया।
उतने श्रम के बाद अभागे
जीवन का बस अंत कमाया॥

यही नहीं, तेरे अघ से जब
विपिन – मेदिनी डोल रही है;
व्याकुल सी तेरे कानों में,
वनदेवी जब बोल रही है;

तो हत्या यह क्या न करेगी,
राजपूत - बलिदान करेगी।
यह घर – घर ब्रह्माग्नि लगाकर,
सारा पुर वीरान करेगी॥

चिता पद्मिनी की धधकेगी,
सारा अग – जग काँप जाएगा।
साथ जलेंगी वीर नारियाँ,
महा प्रलय भव भाँप जाएगा॥

विरह पद्मिनी का कानों से
सुनकर हय पर रह न सका वह।
गिरा तुरत मूर्छित भूतल पर
विरह – वेदना सह न सका वह॥

कहीं म्यान, शमशीर कहीं पर,
कहीं कुंत, तो तीर कहीं पर।
बिखर गए सामान रतन के,
कहीं ताज, तूणीर कहीं पर॥

घोड़ा चारों ओर रतन के
चक्कर देकर लगा घूमने।
सजल नयन हय मूर्छित प्रभु को
सूँघ सूँघकर लगा चूमने॥

विकल हींसता, पूँछ उठाकर
घूम रहा था सतत वृत्त में।
पड़ा मही पर रतन बिंदु – सा,
आग लगी थी तुरग - चित्त में॥

कभी मृगों की ओर दौड़ता,
कबी दौड़ता रतन - ओर था।
कभी कदम तो कभी चौकड़ी,
अश्व स्वेद से शराबोर था॥

इतने ही में पीछा करते,
आ पहुँचे अरि – क्रूर – गुप्तचर।
चपला – सी चमकीं तलवारें,
भिड़े वाजि से शूर गुप्तचर॥

हय था थका दौड़ने से, पर
सबको चकनाचूर कर दिया।
गुप्तचरों को क्षणभर में ही
भगने को मजबूर कर दिया॥

खूँद खूँदकर चट्टानों को
पर्वत की भी धूल उड़ा दी।
विजय – वात अरि – गुप्तचरों में
अपने ही अनुकूल उड़ा दी॥

एक दूसरी टोली आई,
बोल दिया धावा घोड़े पर।
पड़े अश्व - शोणित के छींटे
पर्वत के रोड़े रोड़े पर॥

मार डालने का घोड़े को
था उस वैरी - दल का दावा।
साफ साफ बच जाता था, पर
घोड़ा काट काटकर कावा॥

हाय गिरी तलवार किसी की,
घोड़े की अगली टाँगों पर।
खड़ा हो गया वीर तुरंगम,
शक्ति लगा पिछली टाँगों पर॥

यह लो पिछली टाँगों से भी
उलझी अरि की क्रूर कटारी।
हा तुरंग के करुण - नाद से
काँप उठी वन की भू सारी॥

हय का काम तमाम अचानक,
पलक मारते वहीं हो गया।
कातर आँखों से स्वामी की
ओर देखता वहीं सो गया॥

उस घोड़े को मरे न जाने,
कितने दिन, वत्सर, युग बीते।
किंतु आज भी उसी वाजि के
वीर - गान गाकर हम जीते॥

जो हो पथिक, कर्म का फल तो
जीव जीव को मिलता ही है।
निरपराध - वध - महापाप से
विधि का आसन हिलता ही है॥

वीर सती ने जिस रावल को
अपनी फुलझड़ियों से बाँधा।
अरि के गुप्तचरों ने उसको
लोहे की कड़ियों से बाँधा॥

उधर पथिक, रवि ने लाली से
तुरत छिपा ली शोणित - लाली।
रजनी ने भी डाली उस पर
अंधकार की चादर काली॥

दृश्य देखने को लालायित
जगमग जगमग तारे आए।
देख न सके गगन से जब तब,
ओसों के मिस भू पर छाए॥

बोल उठा योगी से राही,
रावल का क्या हाल हुआ?
क्या अनमोल रतन को पाकर
खिलजी मालामाल हुआ?

अब आगे की कहो कहानी
वैरी का दरबार कहो।
साथ रतन के उस उत्पाती
खिलजी का व्यवहार कहो॥

उठी विकल तुलसी की माला
फेर पुजारी बोल उठा।
खिलजी का निःसीम गर्व सुन
राही का मन डोल उठा॥

किंतु कथा के बीच बोलने
का उसको साहस न हुआ।
खिलजी को उत्तर देता, पर
गत – प्राणी पर वश न हुआ॥

नारायण मंदिर, द्रुमग्राम (आज़मगढ़)
विजयादशमी, संवत १९९७

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