इस गुब्बारे की छाया में : नागार्जुन

Is Gubbare Ki Chhaya Mein : Nagarjun

महादैत्य का दुःस्वप्न

अकस्मात—
अजीब-सी रासायनिक दुर्गन्ध
पूस की ठिठुरन वाली उस हवा में महसूस हुई
भेड़िये की विष्टा से मिलती हुई दुर्गन्ध
बनैले सूअर की गू से मिलती हुई दुर्गन्ध
छेद कर नासा-रन्ध्र कर दिया उद्विग्न मन को, प्राणों को
‘‘क्या है यह ?’’—विचलित हो उठे अन्तःकरण मेरे
‘‘क्या है यह ?’’—छत पर निकलकर लगाऊँ पता
आवाज दूँ पड़ोसियों को—‘‘क्या है यह ?’’
‘‘आ रही है किधर से ऐसी अजीब बद-बू ?’’

तेरहवीं रात थी पूस के उजाले पाख की
कोहरे में धुली-धुली चाँदनी फैली थी
चमक रही थीं छतें ही छतें
लेटा था शीतकाल उझली-सी धुली-छतों पर
चमक रहा था महागगन महानगर का
भारी-भारी जहाज से खड़े थे महा-प्रासाद
बीस मंजिला-तीस मंजिला-चालीस मंजिला
उनका विद्युत-श्रृंगार कर रहा था उपहास
चाँदनी गरीबिन का...कोहरे की मारी हुई

बिल्ली-सी अति चौकस
चुपचाप, पैर मारकर
पहुँचा छत पर,
बैठा, दुबककर
फुला-फुलाकर नथने
लेने लगा गंध का अंदाज
देखने लगा खुली आँखों से आस...पास...
सोचा और फिर-फिर सोचा :
मात्र मुझको ही महसूस हो रही है
यह विकट दुर्गन्ध
धोखा तो नहीं खा गई मेरी घ्राण चेतना !
और कहाँ कोई दिखाई पड़ रहा है छतों पर इधर-उधर !
अब इत्ती रात गए, मैं किस-किससे मालूम करता फिरूँ
‘‘क्यों, भाई, तुमको भी हवा में कुछ महसूस हो रही है
यही, कोई खास किस्म की स्मेल !
यही, कोई खास किस्म की गंध !
अच्छी-बुरी कोई बास !
दुर्गन्ध या सुगन्ध !’’
कि इतने में
दुर्गन्ध का वो लहरा निकल गया दूर
सहज हुई हवा
स्वच्छ लगने लगा वातावरण
--ऐसा स्वच्छ कि मुझको लगा...
दुर्गन्ध-फुर्गन्ध कुछ नहीं थी
वो तो अपने चित्त का भ्रम था !

नृत्यरत पिशाच का चटख-विकराल मुखौटा
होता गया और चटख और भी विकराल
आकार बढ़ता गया उसका
दुगुना-चौगुना-अठगुना, दसगुना
नृत्यरत पिशाच की बेडौल वीभत्स काया
आकार में बढ़ती गई
दुगुनी-चौगुनी-अठगुनी, दसगुनी....
छतों पर सरकने लगी क्रमशः
किंभूत-किमाकार उस पिशाच को
काली डरावनी छाया...
जंगम आतंक के स्थूलायत सुदीर्घ
पैरों की भद्दी छायाऽऽकृति
मजे में लग गई टहलने-बुलने

फलाँगती आई इस छत पर, उस छत पर
वो देखो, वो देखो !
भारी-भारी जहाज-से खड़े महा-प्रासाद
नृत्यरत पिशाच की जांघों के अन्तराल में
लगते हैं कैसे ! कैसे लगते हैं !....
कोई ढीठ बालक, दुर्दान्त प्रकृति शिशु
स्वनिर्मित क्रीड़ा भवनों को
लेकर अपनी जांघों के अन्दर
खड़ा है, खड़ा है
चल रहा है, चल रहा है
बाकी और बालक चकित हैं, विस्मय-विमोहित
‘‘क्या यह वही साथी है उनका !
जाने कैसी लीला रच रहा है !
क्यों आतंकित कर रहा है इस प्रकार सबको !’’
क्या पता, हमारे ही साथ का कोई व्यक्ति
जाड़े के निभृत-निशीथ में
कर रहा हो अभ्यास दानवी माया का
क्या पता, हमारे ही बीच का कोई एक
चुपचाप सीख रहा हो पिशाच-नृत्य का पाठ !

(1984)

इस गुब्बारे की छाया में

‘‘सारी रात रही मैं बैठी
कसम खुदा की, शपथ राम की
सारी रात रही हूँ बैठी
मेरे इस अभिनव प्रिय शिशु का
माथा गुब्बारे-सा फूला
ओह, फूलता चला गया है
अभी और भी फूलेगा क्या ?
हाथ-पैर तो ठीक-ठाक हैं
ठीक-ठाक है
गर्दन-कंधे
बाँह-बूँह भी ठीक-ठाक हैं
लेकिन देखो, सिर कैसा है
भारी-भड़कम गुब्बारे-सा
दीख रहा है
जाने क्या तो रोग ढुक गया
पैदा होते ही यह बबुआ
भद्दा-भद्दा लगा दीखने
डाक्टर साहा, बतलाओ जी
अभी और कितना फूलेगा
मेरे बबुआजी का माथा ?
हाय राम, यह—
कैसा तो भद्दा दिखता है !
जाने अब इसकी किस्मत में
विधना फिर से क्या लिखता है !
डाक्टर साहा,
इसका माथा छोटा कर दो
पैर पड़ूँ हूँ
सही शकल में ला दो इसको
जो-कुछ मेरे पास धरा है
दे डालूँगी सारा ही कुछ
हाँ, हाँ सारा सरबस दूँगी
माथा इसका छोटा कर दो
जाने क्या तो रोग ढुक गया !
जी, पैदा होते ही इसमें !’’

डाक्टर उवाच—
‘‘सुन री माई, सुन री माई
यह प्रचण्ड बहुमत ही सचमुच
तेरे शिशु का महारोग है
ये ही इसको ले डूबेगा
नहीं काम का रहने देगा
यह प्रचण्ड बहुमत ही
--इसको ले डूबेगा
यही गले का ढोल बनेगा
इस गुब्बारे की छाया में
तस्कर-मेला जमा करेगा
मतपत्रों का यह अति-वर्षण
प्रजातन्त्र की पीर हरेगा
कौन करेगा, कौन भरेगा
अगला युग ही बतलायेगा
सच बतला बबुआ की माई
हालीवुड का नाम सुना क्या ?
अमिताभों का मक्का है वो
वो सुनील दत्तों का काबा
अरी वही वैकुंठ-लोक है
निखिल
भुवनमोहिनी फिलिम-सुन्दरी
हालीवुड का देखे सपना
हम क्या बोलें कैसा भी हो
जी, बच्चन तो ठहरा अपना
धन्य हो गईं गंगा-यमुना
धन्य हुए अक्षयवट-संगम
तीस साल पर वहाँ जमा फिर रंगारंगम्’’

‘‘डाक्टर साहब, इसका मत्था छोटा कर दो
अभी चार दिन नहीं हुए हैं
जाने कैसा रोग ढक गया
यह क्या तो माथा लगता है
यह क्या तो सिर-सा दिखता है
हाथ-पैर तो ठीक-ठाक हैं
गर्दन-कंधे भी जँचते हैं
लेकिन देखो डाक्टर साहब
माथा कैसा भद्दा लगता है
देखा नहीं जा रहा सचमुच
क्या तो गड़बड़ घटी ‘गरभ’ में
रोग भर गए माथे में ही
जाने यह कैसा था, क्या था
पुरुब जनम में जाने कैसा पाप किया था !
पानी भरा अभी से सिर में
इसमें से पानी निकाल दो
डाक्टर, यह भद्दा दिखता है
देखा नहीं जा रहा हमसे
तुम यह मत्था छोटा कर दो
इन्जक्शन दो, सुई लगाओ
जैसे भी हो, इसका माथा छोटा कर दो’’

‘‘नहीं, नहीं, री माई यह तो
ठीक न होगा, ठीक न होगा
गुब्बारे-सा फूला-फूला
यह आगे भी दिखा करेगा
खुद ही यह अपने लिलार में
अपनी किस्मत लिखा करेगा
लम्बा-लम्बा भाषण देना भी सीखेगा
शा शाहों के लिबास में भी दीखेगा
बुद्धू होगा, साथी इसमें अकल भरेंगे
कुछ तो इसकी नकल करेंगे...’’

रोती-रोती
माई लेकिन रही बोलती
रही पूछती डाक्टर से वो...
‘‘लेकिन
गुब्बारे-सा भारी-भड़कम यह माथा
ऐसा ही क्या रह जाएगा ?’’
‘‘शुकुर मनाओ,
इसका बढ़ना यहीं रुक गया !
बंग और तैलंग हवा कुछ और लगे तो
दम न घुटेगा
साँस खुली की खुली रहेगी
शुकुर मनाओ
माता जी तुम शुकुर मनाओ
जान बची तो लाखों पाए
फिर तो क्यों कोई घबराए
शुकुर मनाओ, माता जी तुम शुकुर मनाओ
आपोआप रुक गया बढ़ना
गुब्बारे-सा अब यह माथा
ऐसा ही दिखेगा सबको
वो मसूर सी-नन्हीं आँखें
नजर आ रहीं भारी सिर में !
जाओ, जाओ !
उन नन्ही नन्ही आँखों में
अंजन कर दो !
जाओ, जाओ सोहर गाओ
दिल्ली पहुँचो, नेग-जोग की जुगत भिड़ाओ
जाओ, जाओ,
दिल्ली पहुँचो !
राज-तिलक होने वाला है
जो भी छींके, वो साला है
जाओ, जाओ, दिल्ली पहुँचो ;
थाप पड़ गई, ढोलक गूँजे
‘रस बरसे री, रस बरसे

(1985)

गुपचुप हजम करोगे

कच्ची हजम करोगे
पक्की हजम करोगे
चूल्हा हजम करोगे
चक्की हजम करोग

बोफ़ोर्स की दलाली
गुपचुप हजम करोगे
नित राजघाट जाकर
बापू-भजन करोगे

वरदान भी मिलेगा
जयगान भी मिलेगा
चाटोगे फैक्स फेयर
दिल के कमल खिलेंग

फोटे के हित उधारी
मुस्कान रोज दोगे
सौ गालियाँ सुनोगे
तब एक भोज दोगे

फिर संसदें जुड़ेंगी
फिर से करोगे वादे
दीखोगे नित नए तुम
उजली हँसी में सादे

बोफ़ोर्स की दलाली
गुपचुप हजम करोगे
नित राजघाट जाकर
बापू-भजन करोगे

लोकतंत्र के मुंह पर ताला

लोकतंत्र के मुँह पे ताला
द्वारे पर मकड़ी का जाला
बैठ गया है अफसर आला
पगलों से पड़ना था पाला

कहीं दाल है पानी-पानी
कहीं दाल में काला-काला
लोकतंत्र के मुंह पर ताला

कहीं दलाली कहीं घुटाला
मनके बिखरे टूटी माला
जपते थे जनतंत्री माला
नाना जी ने संकट पाला
उल्लू तक वरदान पा गए
तकरीरों का खुला पनाला
कहीं दलाली कहीं घुटाला

शरम नहीं है, लाज नहीं है
काम नहीं है, काज नहीं है
रॉयल्टी है राज नहीं है
पुरखों की आवाज नहीं है
गूंज भर गई है खोखल में
फिर भी आता बाज नहीं है
शरम नहीं है, लाज नहीं है।

अंह का शेषनाग

हज़ार फन फैलाए
बैठा है मारकर गुंजलक
अंह का शेषनाग
लेटा है मोह का नारायण
वो देखो नाभि
वो देखो संशय का शतदल
वो देखो स्वार्थ का चतुरानन
चाँप रही चरण-कमल लालसा-लक्ष्मी
लहराता है सात समुद्रों का एक समुद्र
दूधिया झाग...
दूधिया झाग...

(1967 में रचित)

वाह पाटलिपुत्र !

क्षुब्ध गंगा की तरंगों के दुसह आघात...
शोख पुरवइया हवा की थपकियों के स्पर्श...
खा रही है किशोरों की लाश...
--हाय गांधी घाट !
--हाय पाटलिपुत्र !
दियारा है सामने उस पार
पीठ पीछे शहर है इस पार
आज ही मैं निकल आया क्यों भला इस ओर ?
दे रहा है मात मति को
दॄश्य अति बीभत्स यह घनघोर ।
भागने को कर रही है बाध्य
सड़ी-सूजी लाश की दुर्गन्ध
मर चुका है हवाखोरी का सहज उत्साह
वह गंगा, वाह !
वाह पाटलिपुत्र !

(1957 में रचित)

अभी-अभी उस दिन

अभी-अभी उस दिन मिनिस्टर आए थे
बत्तीसी दिखलाई थी, वादे दुहराए थे
भाखा लटपटाई थी, नैन शरमाए थे
छपा हुआ भाषण भी पढ़ नहीं पाए थे
जाते वक्त हाथ जोड़ कैसे मुस्कराए थे
अभी-अभी उस दिन...

धरती की कोख जली, पौधों के प्राण, गए
मंत्रियों की मंत्र-शक्ति अब मान गए
हालत हुई पतली, गहरी छान गए
युग-युग की ठगिनी माया को जान गए
फैलाकर जाल-जूल रस्सियाँ तान गए
धरती की...

(1953 में रचित)

भारत भाग्य विधाता

ख़ून-पसीना किया बाप ने एक, जुटाई फीस
आँख निकल आई पढ़-पढ़के, नम्बर पाए तीस
शिक्षा मंत्री ने सिनेट से कहा--"अजी शाबाश !
सोना हो जाता हराम यदि ज़्यादा होते पास"
फेल पुत्र का पिता दुखी है, सिर धुनती है माता
जन गण मन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता

(1953 में रचित)

छतरी वाला जाल छोड़कर

छतरी वाला जाल छोड़कर
अरे, हवाई डाल छोड़कर
एक बंदरिया कूदी धम से
बोली तुम से, बोली हम से,
बचपन में ही बापू जी का प्यार मिला था
सात समन्दर पार पिता के धनी दोस्त थे
देखो, मुझको यही, नौलखा हार मिला था
पिता मरे तो हमदर्दी का तार मिला था
आज बनी मैं किष्किन्धा की रानी
सारे बन्दर, सारे भालू भरा करें अब पानी
मुझे नहीं कुछ और चाहिए तरुणों से मनुहार
जंगल में मंगल रचने का मुझ पर दारमदार
जी, चन्दन का चरखा लाओ, कातूँगी मैं सूत
बोलो तो, किस-किस के सिर से मैं उतार दूँ भूत
तीन रंग का घाघरा, ब्लाउज गांधी-छाप
एक बंदरिया उछल रही है देखो अपने आप

(1967 में रचित)

भारत-पुत्री नगरवासिनी

(महाकवि पंत की अति प्रसिद्ध कविता
'भारत माता ग्रामवासिनी' की स्मॄति में)

धरती का आँचल है मैला
फीका-फीका रस है फैला
हमको दुर्लभ दाना-पानी
वह तो महलों की विलासिनी
भारत पुत्री नगरवासिनी

विकट व्यूह, अति कुटिल नीति है
उच्चवर्ग से परम प्रीति है
घूम रही है वोट माँगती
कामराज कटुहास हासिनी
भारत पुत्री नगरवासिनी

खीझे चाहे जी भर जान्सन
विमुख न हों रत्ती भर जान्सन
बेबस घुटने टेक रही है
घर बाहर लज्जा विनाशिनी
भारत पुत्री नगरवासिनी

(1967)

मुबारक हो नया साल

फलाँ-फलाँ इलाके में पड़ा है अकाल
खुसुर-पुसुर करते हैं, ख़ुश हैं बनिया-बकाल
छ्लकती ही रहेगी हमदर्दी साँझ-सकाल
--अनाज रहेगा खत्तियों में बन्द !

हड्डियों के ढेर पर है सफ़ेद ऊन की शाल...
अब के भी बैलों की ही गलेगी दाल !
पाटिल-रेड्डी-घोष बजाएँगे गाल...
--थामेंगे डालरी कमंद !

बत्तख हों, बगले हों, मेंढक हों, मराल
पूछिए चलकर वोटरों से मिजाज का हाल
मिला टिकट ? आपको मुबारक हो नया साल
--अब तो बाँटिए मित्रों में कलाकंद !

(1967 में रचित)

गुड़ मिलेगा

गूंगा रहोगे
गुड़ मिलेगा

रुत हँसेगी
दिल खिलेगा
पैसे झरेंगे
पेड़ हिलेगा
सिर गायब,
टोपा सिलेगा

गूंगा रहोगे
गुड़ मिलेगा

(1988 में रचित)

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