ग़ज़लें ख़याल लद्दाखी हिंदी कविता
Ghazlein Khayal Ladakhi

अभी है कमसिनी उस पर अभी उस का शबाब आधा

अभी है कमसिनी उस पर अभी उस का शबाब आधा
न तोडो शाख़ से उस को खिला है जो गुलाब आधा

यही है ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा गोया अज़ल से ही
ख़ुशी आधी रही दिल को जिगर को इज़तराब आधा

फ़क़ीरों सी बना हालत फिरे हैं मन्दिर ओ मस्जिद
मिले है ढूंडने से क्या गुनाहों में सवाब आधा

हक़ीक़त निस्फ हो जाए हक़ीक़त फिर हक़ीक़त है
कशिश उत्नी ही रहती है बजा हो माहताब आधा

नहीं मुझको ख़बर कोई भी उस बाब ए इजाबत की
मगर हर दम ख़राबे का खुला रहता है बाब आधा

मुकम्मल तौर मैं बरबाद भी तो हो नहीं पाया
बुरा हो इस ख़राबी का हुआ ख़ाना ख़राब आधा

न जाने हश्र कैसा हो अगर पूरा हटा लीजे
क़यामत टूट पड़ती जब उठाएं वह नक़ाब आधा

निशानी है यह पीरी की कमर टेढी नज़र धुन्धली
सियाही ज़ुल्फ़ की आधी तो उसपर है ख़िज़ाब आधा

इशक़ के ख़ूब तार जुड़ते हैं

इशक़ के ख़ूब तार जुड़ते हैं
एक दिल से हज़ार जुड़ते हैं

संग लेकर कोई कोई ख़न्जर
मुझसे यूँ बेशुमार जुड़ते हैं

मौसमें रक़स करने लगती हैं
जब ख़ज़ां से बहार जुड़ते हैं

चार आँखों की आड में देखो
दो दिल ए बेक़रार जुड़ते हैं

राबते उम्र भर के हैं गोया
मुझसे ग़म बार बार जुड़ते हैं

एक उम्र ए कलान है जिस में
अहद ए नासाज़गार जुड़ते हैं

राबते दरमयां रहें अब भी
मुझ से कुछ सोगवार जुड़ते हैं

आप ही से ख़याल जाने क्यूं
दौर ए नापायदार जुड़ते हैं

एक बेकार आरज़ू हूँ मैं

एक बेकार आरज़ू हूँ मैं
अपने जैसा ही हूबहू हूँ मैं

सांस चलती है दिल धडकता है
सर से पा तक अगर रफ़ू हूँ मैं

खो गया हूं मैं दशत ए तनहा में
ख़ुद को पाने की जुस्तजू हूँ मैं

गरदिश ए वक़्त रोक ले कोई
मरग से अपने रूबरू हूँ मैं

वो कि रंग ए शराब हैं गोया
लज़्ज़त ए जाम ओ मुशक ओ बू हूँ मैं

जो तलाशें ख़याल बेचैनी
उनसे कह दो कि चार सू हूँ मैं

जो मिरे शेर कह के ज़िन्दा हैं
उनका अन्दाज़े गुफ़तगू हूं मैं

आईना मुझ से पयार करता है
ख़ुद से हर बार दूबदू हूं मैं

जो तलाशें ख़याल बेचैनी
उनसे कह दो कि चार सू हूं मैं

कोई कशिश तो आपकी गुफतार में है है

कोई कशिश तो आपकी गुफतार में है है
तसकीं भी और लुत्फ भी आज़ार में है है

कुछ बनदिशें भी बनदगी में यार की होंगी
मुश्किल कोई तो इशक़ के इज़हार में है है

सुनने लगा हूं दिल के धडकने की सदा मैं
क्या दिल भी कोई सीना ए दिलदार में है है

जन्नत में वो स्कून कहां यार मिले है
जो लुत्फ रन्ज ओ दरद के बाज़ार में है है

क्या जाने ज़िन्दा रहते हैं किसकी दुआ से लोग

क्या जाने ज़िन्दा रहते हैं किसकी दुआ से लोग
मर जाएं सब के सब यहाँ मेरी बला से लोग

नासाज़गार वक्त है ऐसा कि क्या कहें
जलती हैं शम्में और बुझे हैं हवा से लोग

रोज़ ए अज़ल भी ख़ौफ़ ए ख़दा था नहीं कहीं
डरते नहीं हैं आज भी क़हर ए ख़ुदा से लोग

हाँ हाँ सुख़न शनास बहुत कम मिले मुझे
महफिल में गरचे मिलते हैं शायर नुमा से लोग

या कायनात ए कुल की कोई बात है अलग
या मेरे शहर में ही बसे हैं जुदा से लोग

क्या फिर से कोई हूर का दामन है ख़ूँ से सुर्ख़
इतना डरे हुए हैं जो रंग ए हिना से लोग

तौबा ख़याल जाने मुहब्बत को क्या हुआ
सरशार हाए अल्ला हैं बुग़्ज़ ओ अना से लोग

खुद मैं अपनी ज़ुबाँ से आगे हूं

खुद मैं अपनी ज़ुबाँ से आगे हूं
यानी हर इक बयाँ से आगे हूं

मेज़बां हूं क़ज़ा का अपनी मैं
आज फिर मेहमाँ से आगे हूं

लौट जाना है लाज़मी मुझ को
दो क़दम आशियाँ से आगे हूं

या तो मेरी है नासमझदारी
या तो मैं हर गुमाँ से आगे हूं

आप ख़न्जर बकफ़ सही लेकिन
मैं भी आह ओ फ़ुग़ाँ से आगे हूं

इक मुकम्मल क़फ़स में हूं गोया
ज़िक्र ए कोन ओ मकां से आगे हूं

मुझसे बढ़कर नहीं रहा कोई
अब मैं सारे जहां से आगे हूं

जब से मैं हूं ख़याल के हमराह
तब से गोया ज़माँ से आगे हूं

ख़्वाबों में हमारे भी वह पैकर नहीं आया-रेख्ती

(रेख्ती: स्त्रियों की बोली में की हुई कविता)

ख़्वाबों में हमारे भी वह पैकर नहीं आया
बिस्तर है मगर साहिब ए बिस्तर नहीं आया

मस्जिद को कहा घर से वह निकला था मगर फिर
ठेके को गया और वह जाकर नहीं आया

अब जेठ भरोसे ही मेरा पेट पले है
अम्मी वह तिरा लाडला जाकर नहीं आया

इक दौर ए जवानी मिरी ऊपर से यह दूरी
जब होवे तमन्ना तो वह अकसर नहीं आया

माँ बाप को मेरे तो यह शायर ही मिला था
अल्लाह कोई और नज़र बर नहीं आया

इस जिस्म में ढूंडे है रदीफ़ और क़वाफ़ी
कमबख़्त किसी रात जो पीकर नहीं आया

मैं बाँस चढ़ी और वह घूंघट मिरा पूछे
यह हुस्न किसी जा सर ए मनज़र नहीं आया

ना जाने मिरी सौत से क्या उसको लगी है
भैया से मिरे मार भी खाकर नहीं आया

दो चार सही हम ने भी देखे हैं सुख़नवर
तौबा कि ख़याल आप सा शायर नहीं आया

गर वोह नहीं होता तो ये मंज़र भी ना होता

गर वोह नहीं होता तो ये मंज़र भी ना होता
सहरा नहीं होते ये समन्दर भी ना होता

दुश्मन जो मिरी ज़ात के अक्सर नहीं होते
अपनों का सहारा मुझे दम भर भी ना होता

मज़हब मिरा उर्दू है मिरा दीन है उर्दू
होता ना ये मज़हब तो ये काफ़र भी ना होता

गर अबरू कमानी मिरे दिलबर की ना खिंचती
सीने के मिरे पार ये नश्तर भी ना होता

मैं फिर भी इसी अहद-ए-हक़ीक़ी को निभाता
कुछ फ़र्क नहीं मुझको पयम्बर भी ना होता

हर शै को किसी शै की ज़रूरत है हमेशा
साक़ी नहीं होता तो ये साग़र भी ना होता

ऐ काश मुझे ज़ीस्त अता ही नहीं होती
बरपा मरे आज़ार का दफ़्तर भी ना होता

हालात ख़्याल आज भी आज़ुरदा हैं मेरे
मरता भी नहीं और मैं बेहतर भी ना होता

जब तलक ख़ुद पे यक़ीं मुझ को सरासर न रहा

जब तलक ख़ुद पे यक़ीं मुझ को सरासर न रहा
मेरा किरदार मिरे क़द के बराबर न रहा

जो न समझा है न समझेगा गिला क्या उस से
कल ख़ुदा आज मुनाफ़िक़ को पयमबर न रहा

सब की मुट्ठी से बस अब ख़ाक गिरे तन पे मिरे
शुक्र है आज किसी हाथ में पत्थर न रहा

रोज़ सजदे को झुकाया है ये सर मैं ने मगर
फिर भी माज़ी से मिरा हाल तो बहतर न रहा

पेट की भूक तो कुछ कर के मिटा ली मैं ने
आँख की भूक को अब कुछ भी मय्यसर न रहा

जब भी झुकता हूँ तिरे दर पे उठा हूँ लेकिन
जब भी उठने की तमन्ना में उठा सर न रहा

उनकी ख़ुशियों में लताफ़त हैं सिवा हों लेकिन
दर्द कोई भी मिरे दर्द से बहतर न रहा

आईना देख ख़याल आज मुझे बोल उठा
रूबरू जिस से हुआ हूँ मैं वह पत्थर न रहा

जलवा बरपा वह ताबनाक हुआ

जलवा बरपा वह ताबनाक हुआ
मेरा साया ही जल के ख़ाक हुआ

कुछ न होवे है आदमी से मगर
जो हुआ ख़ैर वह तपाक हुआ

मैं वही मरहला ए पाकीज़ा
एक बोसे से जो न पाक हुआ

नामुकम्मल रफ़ू है एक अभी
इक गिरेबान फिर से चाक हुआ

उस ने देखा नहीं 'ख़याल' मुझे
जाने कैसे मैं फिर हलाक हुआ

जिगर के पार गो तलवार निकले

जिगर के पार गो तलवार निकले
सहन से होके जब दीवार निकले

हक़ीक़त है अयां लाशे पे मेरे
चलो ख़नजर बकफ़ कुछ यार निकले

मेरा दु:शमन भी है पत्थर मुझ ही सा
जो टकराए वह मुझ से नार निकले

वह घर से बे हिजाबाना चलें जब
क़यामत के अजब आसार निकले

ख़याल इक अनजुमन हैं आप ही में
ख़राबे से वो जब सरशार निकले

ज़िन्दगानी के काम एक तरफ़

ज़िन्दगानी के काम एक तरफ़
अक़द का इंतज़ाम एक तरफ़

हां मुहब्बत का नाम एक तरफ़
साज़ोसामां तमाम एक तरफ़

हुस्न पत्थर मिज़ाज ख़ूब रहे
हुस्न का इहतराम एक तरफ़

इक तरफ़ है अदालतों की क़तार
हाकिम-ए-बेलगाम एक तरफ़

मेरी तनहाईयां वहीं की वहीं
शहर का इंतज़ाम एक तरफ़

दुश्मनों का मिज़ाज और कहीं
दोस्त का इंतक़ाम एक तरफ़

साथ तेरा मिला है जब से मुझे
रख दिया हर निज़ाम एक तरफ़

आक़िलों की मिसाल और सही
बे ख़ुदी का कलाम एक तरफ़

लुत्फ़ क्या है ख़्याल तो ही बता
रख दो गर बाद ओ जाम एक तरफ़

ज़िन्दगी जब भी मुसकुराती है

ज़िन्दगी जब भी मुसकुराती है
मौत आ आ के छेड़ जाती है

किस को आई किसे चली लेकर
मौत ख़ुद क़ायदे बनाती है

साथ रहती है मेरे माज़ूरी
मैं चलूँ वह मुझे चलाती है

आप आते हैं मेरी क़िसमत है
साँस का क्या है आती जाती है

बरदाश्त बढ़े इतना कि कोहसार न हो जाऊं

बरदाश्त बढ़े इतना कि कोहसार न हो जाऊं
डर यह भी है मझको कि मैं दीवार न हो जाऊं

बीमारी ए उल्फत से कभी कोई उठा है
ख्वाहिश है मिरी इशक़ का बीमार न हो जाऊं

ख्वाबों की ख़यालों की ही दुनिया में बजा हूं
मझको न सदा दो कहीं बेदार न हो जाऊं

बुनियाद हूं नफ़रत का मुझे कम रखें बेहतर
इतना न उठाओ कि मैं दीवार न हो जाऊं

खींचो न मसीहा मुझे हरफा न बदल जाए
रहने दो सुख्नवर कहीं बेकार न हो जाऊं

बुरा कुछ न मेरा ग़रीबी करे

बुरा कुछ न मेरा ग़रीबी करे
पशेमां फ़क़त बदनसीबी करे

रहें फ़ासले दरमयां उम्र भर
कोई ख़ुद से कितना क़रीबी करे

कोई दर्द दे कर गया उम्र का
कोई उम्र भर को तबीबी करे

मिज़ाज ए सरफ़रोशी कम नहीं है

मिज़ाज ए सरफ़रोशी कम नहीं है
जनून ओ वलवला मधम नहीं है

हरीफ़ी ने बपाया है तलातुम
रफ़ीक़ आदम का अब आदम नहीं है

सभी मशग़ूल हैं बुग़्ज़ ओ अना में
किसी को हाजत ए मातम नहीं है

फ़ज़ा में शादमानी है यक़ीनन
मगर अफ़्सुरदगी भी कम नहीं है

ग़म ओ आज़ार का होना तसलसुल
किसी को भी ख़ुशी पैहम नहीं है

कहाँ है मेरे हिस्से की सआदत
ख़ुदा मुझ से अगर बरहम नहीं है

यह नुस्ख़ा भी कुछ आज़माना पड़ेगा

यह नुस्ख़ा भी कुछ आज़माना पड़ेगा
संभलने को कुछ लडखडाना पड़ेगा

दिल ए ज़ार की आज़माइश को फिर से
किसी संग से दिल लगाना पड़ेगा

बस इक बार सजदा किया मैकदे को
ख़बर क्या थी पीछे ज़माना पड़ेगा

जो भूले तरीक़ ए अदावत उन्हीं को
सबक़ इशक़ का फिर सिखाना पड़ेगा
ज़रूरत है वक़्त ए रवाँ की तो चलिए
ख़राबों को फिर आना जाना पड़ेगा

कहीं दफ़्न कर दे न मुझको ज़माना
मैं ज़िन्दा हूँ सब को बताना पड़ेगा

बहुत सह लिया अहद ए नासाज़ मैं ने
अब अपना कलेजा दिखाना पड़ेगा

सहल कब हैं जादे ख़याल इस जहाँ के
गिराँ राह हैं डगमगाना पड़ेगा

या मुझको हद ए इश्क़ की पहचान करा दो

या मुझको हद ए इश्क़ की पहचान करा दो
या मौज ए तलातुम को मिरे घर का पता दो

या आग लगा दो मिरी तनहाई में आकर
या घर के उजाले को मिरे कोई दिया दो

अब दिल है न इस दिल पे कोई बोझ है मेरे
बस ख़ाक हू तुम ख़ाक को मिट्टी में मिला दो

सुब्ह से शाम तलक

सुब्ह से शाम तलक
अहद ए नाकाम तलक

खीँच लाती है हया
दैर ओ अहराम तलक

पुर इबारत न हुई
हर्फ़ ए इलज़ाम तलक

ज़ीस्त कटती है कटे
एक अनजाम तलक

एक धोका है ख़ुशी
दर्द ओ आलाम तलक

कुछ किए से न बने
गाह ए अनजाम तलक

जी को जीने का ग़रज़
बरकत ए जाम तलक

मैं फ़क़त एक घड़ी
वह कि अय्याम तलक

ज़िनदगी बोझ कोई
दाम ए आराम तलक

मुनजमिद दर्द मिरे
मेरे इनदाम तलक

कोई इमकान ख़याल
ज़ब्त ए अनजाम तलक

(Taj Rasul Tahir Sahib ki zameen par)

सूली चढ़ी हैं बस्तियों की बस्तियां

सूली चढ़ी हैं बस्तियों की बस्तियां
आदाब ऐ किरदार ए मरग ए नागहां

है किस के हाथों में क़लम तलवार सी
है कौन जो लिखता लहू से दास्तां

होता नहीं है अब दुआओं का असर
आलम जहां की बनदगी है बेज़ुबां

है चार जानिब मौत का मनज़र बपा
तुरबत में करती है जवानी आशियां

क्या ख़ाक कोई जी रहा है ज़िन्दगी
गरदन रसन ज़हनों में ग़म की बेड़ियां

इनसान का ही ख़ौफ़ है इनसान को
फिर भी ख़ुदा इनसानियत पर महरबां

महमां सही हम चार दिन के ही मगर
क्यों कर हुई है मौत अब के मेज़बां

जिन के इशारों पर क़ज़ा थी नाचती
है ख़ाक में लिपटी हुई वह हस्तियां

जिस शहर में थी खिलखिलाती शोख़ियां
बसती हैं आकर वां ख़याल अब सिस्कियां