हिन्दी ग़ज़लें : सलिल सरोज

Hindi Ghazals : Salil Saroj

1. तेरी राह का पत्थर ही सही, तेरी राह में तो हूँ

तेरी राह का पत्थर ही सही, तेरी राह में तो हूँ
तू खूब कोसा करे ही सही, तेरी आह में तो हूँ

चोरी किए हुए मेरे ही शेर अच्छे लगते हैं तुम्हें
महफ़िल को छोडो मगर मैं तेरी वाह में तो हूँ

तारीखें दिलों दिमाग से मिटा भी दिया तो क्या
तुम्हारे घर के कलैंडर के किसी माह में तो हूँ

रात- रात भी पुराने खतों को यूँ ही नहीं पढ़ते
मैं भी किसी खत के जैसे तुम्हारी बाँह में तो हूँ

क्षितिज पर शायद कोई अक्स डूब गया होगा
मैं आँसू बन कर ही सही, तेरी निगाह में तो हूँ

2. भूख लगे तो रोटी की जात नहीं पूछा करते

भूख लगे तो रोटी की जात नहीं पूछा करते
पेट को लगेगी बुरी,ये बात नहीं पूछा करते

ये धरती बिछौना ,ये आसमाँ है शामिआना
बेघरों से बारहाँ दिन -रात नहीं पूछा करते

मालूम है कि एक भी पूरी नहीं हो पाएगी
बेटियों से उनके जज्बात नहीं पूछा करते

क्यों बना है बेकसी का ये आलम कौम में
सरकार से ऐसे सवालात नहीं पूछा करते

जिन उँगलियों में कालिख लगा दी गई हो
उनसे फिर कलम-दवात नहीं पूछा करते

जो दोस्त चला गया कमाने, गांव छोड़ के
कब होगी अब मुलाक़ात नहीं पूछा करते

वो टूट जाएगा बताते बताते हाल अपना
ऐसे इश्क़ की शुरुआत नहीं पूछा करते

3. बेटियों को देखकर यही समझ आता है

बेटियों को देखकर यही समझ आता है
वक़्त किस तरह तेजी से गुज़र जाता है

जिन हाथों में गुड्डे-गुड़ियाँ खेला करते थे
न जाने कब कागज़ कलम उतर आता है

हाथ पीले देखकर , दुल्हन बनी देखकर
आँखों को केवल रोना ही नज़र आता है

वो सब छोटे जूते,वो उसकी तुतली बातें
रह रह कर पूरे घर में ही पसर जाता है

4. जैसे बारिश से बेनूर कोई ज़मीन है

वो इस कदर बरसों से मुतमइन है
जैसे बारिश से बेनूर कोई ज़मीन है

साँसें आती हैं, दिल भी धड़कता है
सीने में आग दबाए जैसे मशीन है

आँखों में आखिरी सफर दिखता है
पसीने से तरबतर उसकी ज़बीन है

अपने बदन का खुद किरायेदार है
खुदा ही बताए वो कैसा मकीन है

ज़िंदगी मौत माँगे है उसकी आहों में
उसका मुआमला कितना संगीन है

(मुतमइन-शांत, ज़बीन-माथा
मकीन-मकान में रहने वाला)

5. कुछ देर में ये नज़ारा भी बदल जाएगा

कुछ देर में ये नज़ारा भी बदल जाएगा
ये आसमाँ ये सितारा भी बदल जाएगा

कितना मोड़ पाओगे दरिया का रास्ता
किसी दिन किनारा भी बदल जाएगा

दूसरों के भरोसे ही ज़िंदगी गुज़ार दी
वक़्त बदलते सहारा भी बदल जाएगा

झूठ की उम्र लम्बी नहीं हुआ करती
ये ढोल ये नगाड़ा भी बदल जाएगा

गिनतियों की उलटफेर में मत पड़ो
रात ढलते पहाड़ा भी बदल जाएगा

6. जब भी बात की तो तेरी ही बात की

जब भी बात की तो तेरी ही बात की
बस यूँ हमने बसर दिन और रात की

पहले चिंगारी, फिर शोला और फिर आफ़ताब
उनके हुश्न की तारीफ की यूँ शुरुआत की

ख़्वाबों की गुमशुदा गलियों में भटके उम्र भर
तब जाके उनके नूरे-नज़र से मुलाक़ात की

न देखें उन्हें तो कुछ और दिखता ही नहीं
हमने अपने लिए खुद ही ऐसी हालात की

7. गर हो आज तुम्हारी इजाज़त मुझे तो

गर हो आज तुम्हारी इजाज़त मुझे तो
आसमाँ पे तुम्हारी इबारत लिखना चाहता हूँ

तमाम दौलतें एक तरफ और तुम्हारी एक मुस्कान
मैं तुम्हारी मुस्कान पर भरे बाज़ार बिकना चाहता हूँ

रात की चादर हटे और तुम्हारा रूप खिले तब
मैं तुम्हारे माथे पर ओंस सा चमकना चाहता हूँ

कभी जुनून, कभी तिश्नगी, कभी आशना
तुम जैसा चाहो अब, मैं वैसा दिखना चाहता हूँ

तुम बन जाओ बस मेरी आखिरी मंज़िल
मैं थक गया सफर से, अब रुकना चाहता हूँ

8. बादशाहत तुम्हारी जितनी भी बड़ी हो आज, याद रखना

बादशाहत तुम्हारी जितनी भी बड़ी हो आज, याद रखना
वक़्त को हर एक तख्तो-ताज को गिराना आता है

यह हुकूमत सब यहीं धरी की धरी रह जाएँगी
आँधियों को अकड़े हुए शज़रों को झुकाना आता है

दूसरों को कमतर समझने की तुम्हारी भूल है ज़ानिब
सर्द रातों को भी जलते सूरज को बुझाना आता है

शतरंज की बिसात पर हो तो तैयार रहना कि
प्यादे को भी बादशाह की औकात दिखाना आता है

जुल्म की बरसी मनाने की तैयार में हो तुम, पर अब
कौम को भी खुद के लिए आवाज़ उठाना आता है

तुम से ही सीखी हैं हमने भी कुछ नई होशयारियाँ
अब हमें तुम्हारे घर में तुम्हें ही हराना आता है

9. तू मेरा कल नही, तू मेरा आज नहीं

तू मेरा कल नही, तू मेरा आज नहीं
तेरे मेरे दरम्यान अब कोई राज़ नहीं

तूने बुलाने में बहुत देर कर दी हमनशीं
सफर से लौट आने का रिवाज नहीं

तेरा नूर भले माहताब होगा ज़माने में
बेपर्दा हुश्न पर हमें तो कोई नाज़ नहीं

हुश्न की फिदरत है हर शय में बदल जाना
इश्क़ के यूँ बेअदब हो जाने के अंदाज़ नहीं

तुम तड़पोगी, तुम तरसोगी हमारे लिए
मेरी जुदाई में आह होगी, आवाज़ नहीं

10. तुम जब चले गए तो फिर हमें आए याद बहुत

तुम जब चले गए तो फिर हमें आए याद बहुत
जिस गुलशन को बसाया था, हुआ वो बर्बाद बहुत

सब गलियाँ है सूनी, सब रास्ते हो गए उदास बहुत
दिन है मेरा सोया सोया, और जागा है रात बहुत

जहाँ तक देखा था वो भी कम कुछ नहीं था
लेकिन कई अफसाने छिपे थे उसके बाद बहुत

जब था मौका तो रोक नहीं पाए जाते कदमों को
अब होगा भी क्या करके यूँ भी फरियाद बहुत

अगर रोने से ही खुश हासिल है तो हैं हम शायद बहुत
तुम्हें समझ नहीं पाया, दिल हमारा था सैय्याद बहुत

11. छत, दरवाज़े और दीवार सब ढह गईं

छत, दरवाज़े और दीवार सब ढह गईं
और वो ख़्वाब के आशियाँ बनाता रहा

बस्तियाँ जल गईं उसकी आँखों के आगे
और वो परियों की दास्ताँ सुनाता रहा

जो दोस्त थे सबसे ही दूरियाँ बना ली
और रकीबों से मोहब्बत निभाता रहा

जो अच्छाइयाँ थी मझमें सब छिपा दी
और बुराइयाँ उँगलियों पे गिनाता रहा

थी कीमत बहुत ज्यादा ईमानदारी की
सो वो सरेआम अपनी बेईमानी भुनाता रहा

इंसाँ सब बँट गए हिन्दू और मुस्लिम में
सियासत मजहबी तराने गुनगुनाता रहा

12. तुम कहो तो बन जाऊँ मैं

तुम कहो तो बन जाऊँ मैं
तुम्हारा काजल, बिंदी, चूड़ी, कंगन

तुम कहो तो लिपट जाऊँ बनके मैं
तेरा आँचल, अँगिया, ओढ़नी, पैजन

तुम कहो तो ढँक लूँ तुझे बनके मैं
आसमाँ, बादल, हवा, बरसता सावन

तुम कहो तो छू लूँ तुम्हें जैसे हो
कली, गुलाब, माहताब, खिलता यौवन

तुम कहो तो थम जाऊँ मैं जैसे कि
साँस, नब्ज़, फड़कन, दिल की धड़कन

तुम कहो तो बना लूँ मैं तुमको अपनी
खुशी, ग़म, मिलन, तड़पन और विरहन

13. छूते ही उसे जल तरंग बज उठता है

छूते ही उसे जल तरंग बज उठता है
पानी से बना सारा ही जिस्म हो जैसे

उसकी आँखों में देखूँ तो सब भूल जाऊँ
उसकी गहरी आँखों में तिलिस्म हो जैसे

वो हँसे तो गालों में लाली उभर आए
किसी गुलाब का ताज़ा किस्म हो जैसे

क्या नैन, क्या नक्स सब इस जहाँ से परे
खुदा ने तराशा कोई मुज्जसम हो जैसे

तुमसे ही दुनिया जीने के काबिल है अभी
तुम्हें देख बेकशी खुद भस्म हो जैसे

14. तुम दाखिल होना मेरे दिल में कुछ इस कदर कि

तुम दाखिल होना मेरे दिल में कुछ इस कदर कि
शोर उठे यहाँ से तो बस तेरे नाम की ही उठे

आग लगाना तो फिर ख्याल इतना जरूर रखना
ये शोला बुझे तो फिर तेरे शबाब से ही बुझे

मैंने हलफनामा तो नहीं डाला तेरे इकरार का
ले जाएगी जहन्नुम तक तेरा इन्कार ही मुझे

पास हूँ तो अहसासों के काबिल नहीं हूँ मैं
दूर जाऊँगा तो कर जाऊँगा बेशक बेक़रार ही तुझे

मुकम्मल न हो पर इश्क़ मुसलसल तो हो
फिर क्या फर्क पड़ता है रहें सारे अफसाने ही अनसुलझे

15. चलो आज पर्दा करने की रवायत ही गिरा देते हैं

चलो आज पर्दा करने की रवायत ही गिरा देते हैं
निगाहों में कुछ आरज़ू जला लेते है, कुछ बुझा देते हैं

आने वाली तमाम नस्ल की खातिर ही सही
एक चाँद आसमाँ तो दूजा हथेली पर उगा देते हैं

हो गया सारा मंज़र लहू लुहान और ये चुप रहा
मगरूर सूरज को अँधेरे में छिपाकर सज़ा देते हैं

सियासी हलफनामों का शोर बंद कर के
कुछ देर हम मासूमों को भी ज़बाँ देते है

तुम आओ जो बनके आफ़ताब कभी, तो फिर
हम खूबसूरती के पैमाने तमाम छिपा देते हैं

16. आपको देखके न जाने क्या क्या सोचते होंगे

आपको देखके न जाने क्या क्या सोचते होंगे
ज़मीं पे सरगोशी करता कोई चाँद सोचते होंगे

क्या कोई आतिश थी या कोई नर्म फुहार
फ़िज़ा से आपके जाने के बाद सौ मर्तबा सोचते होंगे

आपकी निगाहों से उजाले की कोई नहर बहती है
वीरान शहर में आपको गली आबाद सोचते होंगे

आपकी परछाई की ये कशिश भी तो देखिए
जिस पे भी पड़ी, खुद को शमशाद सोचते होंगे

आप जिस जिस से भी मिली ज़माने में
मरहबा सब खुद को बेइन्तहां शाद सोचते होंगे

17. खुले आसमाँ की धूप भी पिया कर

आलीशान महलों में वो गर्माहट नहीं
कभी खुले आसमाँ की धूप भी पिया कर

कोई फर्क ही नहीं है राम और अल्लाह में
दिल जिसे मानता है, नाम उसी का लिया कर

महँगाई बेइन्तहां है तो रास्ते भी बखूब हैं
किसी की मदभरी आँखों से पीके जिया कर

वक़्त अपनी चाल से ही चलेगी समझा कर
दुनियादारी छोड़, दो घड़ी आराम किया कर

बच्चियाँ पालने का ये नया दौर है मियाँ
आँखों में बग़ावत, हाथों में हथियार दिया कर

18. देखना ये है कि नफरत को ढाहता कौन है

तुम चले गए तो ये अहसास हुआ मुझे
ज़िन्दगी भर यूँ भी साथ रहता कौन है

सब को यही इल्म था कि सभी सही हैं
ज़माने में गलत को गलत कहता कौन है

खून में गर्मी बढ़ गई है इस कदर कि अब
बात गर छोटी भी हो तो सहता कौन है

ऐसे तो सारे ही सुखनबार है हमारे यहाँ
मुद्दा है कि बुरे वक्त में हमें चाहता कौन है

खड़ी तो कर दी सब ने ही मिलके दीवार
देखना ये है कि नफरत को ढाहता कौन है

19. मंदिरों में आरती, मस्जिदों में अजान होता नहीं

वो आँखों में होता है जो निगाहों में होता नहीं
जो हो इश्क़ में उसे फिर कोई होश होता नहीं

दवा, दुआ, शाइस्तगी, हमनफ्सगी सब बेकार
वो ज़ख़्म भी दें तो दर्द जरा भी होता नहीं

मीर, मोमिन, ग़ालिब, दाग सब को पढ़ डाला
लफ्ज़ अपना न हो तो इश्क़ पूरा होता नहीं

वो नज़रें ना उठाएँ वल्लाह वो नज़रें न झुकाएँ तो
इस ज़मीं पे कहीं दिन, कहीं रात होता नहीं

बिना उसकी बंदगी, बिना उसकीकी शागिर्दी के
मंदिरों में आरती, मस्जिदों में अजान होता नहीं

20. काजल करने के लिए ताज़ा खून चाहिए

इन आँखों को नूर नहीं जुनून चाहिए
काजल करने के लिए ताज़ा खून चाहिए

गीत, ग़ज़ल, कविता, नज़्म सब बोलती हैं
जिससे हज़रात क़त्ल हो, मजमून चाहिए

जिस्म में गर्मी, लबों पे आग, अदाओं में चुभन
इन्हें अब दिसम्बर में भी जून चाहिए

हलाल करके बन्द ज़ुबानों को जो मिले
कातिलों की पसन्द वाला ही शुकून चाहिए

इन्हें डराकर जीने की आदत है सदियों से
इहें अँधा, गूँगा, बहरा और लाचार कानून चाहिए

21. ये बच्चा सच बहुत बोलता है, यहाँ जी नहीं पाएगा

ये बच्चा सच बहुत बोलता है, यहाँ जी नहीं पाएगा
ज़माने के मुताबिक इसे झूठ भी सिखलाइए जरा

बेशुमार खुशी बयाँ कर दी सरे-महफिल आपने
हर एक खुशी में छिपा दर्द भी दिखलाइए जरा

ये सारे नए वायदों की सरकार है मेरे हुज़ूरे-वाला
एक बार वोट देके देखिए, फिर मुस्कुराइए जरा

कब तक दूसरों के भरोसे इंक़लाब लाई जाएगी
गर ज़ुल्म हुआ है तो खुद ही शोर मचाइए जरा

आप बुजुर्गों की बस्ती में हैं, इतना तो कीजिए
वो कहें कि बहुत हो चुका तो रूक जाइए जरा

कौन कहता है कि अब आपका हुश्न काम का नहीं
आप अपनी कातिल निगाहों को उठाइए जरा

22. एक अरसे से मैं बुझा ही नहीं

एक अरसे से मैं बुझा ही नहीं
मैं कश्मीर हूँ, जलना ही मेरी नीयत है क्या

रावी तो कभी चेनाब से धुआँ उठता है
चिनार से पूछो ये अच्छी तबियत है क्या

सेब के बगीचे वो केसर की क्यारियाँ
खुशबू बिखेरती फ़ज़ा हो गई रुखसत है क्या

डल झील के शिकारों में गूँजता था जो जलतरंग
उस मौशिकी की आगोश में कोई दहशत है क्या

वो गुलमर्ग की चमचमाती बर्फ की परछाइयाँ
अब किसी ज़ुल्म की नाज़ायज़ दौलत हैं क्या

जो रहा है मेरे बदन का ताज सदा से
देखो तो जरा गौर से, खून से लथपथ है क्या

23. किराए पे रह कर भी तो सदी गुजरती है

मैं उसके दिल में रहा, पर उसका हो न सका
किराए पे रह कर भी तो सदी गुजरती है

हर दिए से रोशनी आए ये कोई शर्त तो नहीं
पहाड़ों से छिटक कर भी रोशनी बिखरती है

आईना ही आखिरी मुंतजिर नहीं हुस्न का
धूल और मिट्टी में भी मूर्तियाँ सँवरती हैं

आसमाँ को तो कई दफे इक्तिला ही नही होता
जब धूप खिली हो तब भी बारिश बरसती है

ये धुआँ यूँ ही नहीं उठने लगा है यहाँ से
पास ही किसी हादसे में बच्चियाँ गरजती है

ये आँखों से बहे हैं 'सलिल', रंग जरूर लाएँगे
मंसूबों में आह न हो तो ये नहीं ढलकती हैं

24. सियासत

तुम संभल के रहना, वो जीना मुहाल कर देगा
ये सियासत है प्यारे, दो पल में बेहाल कर देगा

वो ताँक में बैठा है तुम्हारे हर एक कदम पर ही
तुम गलतियाँ भी नहीं करोगे, वो सवाल कर देगा

अपनी ही परछाईं कैसे खुद को डराने लगती है
तुम कुछ देर तो ठहरो, वो ये भी कमाल कर देगा

इनको वजीफा मिला हुआ है इसी तालीम में
संविधान को मशान और झंडे को रूमाल कर देगा

तुम्हारे ही मुद्दे, जिन्हें सदन में इन्हें उठाना था
उस पर कभी जो बात करो तो बबाल कर देगा

मत उलझना बहुत देर तलक इस महकमे में
तुम्हें फटेहाल, बदहाल और फिर हलाल कर देगा

25. वो मुझे मेरी हद कुछ यूँ बताने लगा

वो मुझे मेरी हद कुछ यूँ बताने लगा
जो डूबा मेरे रंग में, बेहद बताने लगा

इक आँधी चली और नेस्तोनाबूत हो गया
वो दिया जो कल सूरज का कद बताने लगा

जहाँ भी मिले अपनों के सर कटे हुए लाश
अखबार उसी को बारहां सरहद बताने लगा

पहले आँख फोड़ते हैं और फिर चश्मा बेचते हैं
कोई पूछे ये माजरा तो मदद बताने लगा

जिसको भी मौका मिला उसने ही लूटा है
वो रोज़ की जुल्मपरस्ती को अदद बताने लगा

यूँ तो तय नहीं होगा अब मंज़िल का सबब
धूप में चलने वाला हर पेड़ को बरगद बताने लगा

जिसकी उम्र गुज़र गई लंका जैसी नगरी में
मौका मिलते ही खुद को सुग्रीव और अंगद बताने लगा

बेटा ने कमाना शुरू किया और ये हादसा हुआ
बात-बात पर अपने बाप की आमद बताने लगा

26. ज़माने से हुई ख़बर कि मैं सुधर गया

ज़माने से हुई ख़बर कि मैं सुधर गया
फिर वो कौन था जो मेरे अंदर मर गया

दूसरों की निगाहों से जो देखा खुद को आज
देख कर अपना ही चेहरा क्यों डर गया

वो अल्हड़पन, वो लड़कपन कल तक जो था
आज ढूँढा बहुत, ना जाने किधर गया

मैं खोजता रहा खुद को स्टेशन की तरह
संसार रेल की तरह मुझसे गुज़र गया

मैं खोजता रहा जहाँ की तयशुदा मंज़िलें
मीलों चलके भी खाली मेरा सफर गया

कौन पहचानेगा मुझे बदले हालातों में
अपने भी ठुकरा देंगे, मैं घर अगर गया

जो दोस्त बनके नसीहतें देता रहा ताउम्र
ज्योंहि जरूरत पड़ी तो वो मुकर गया

मुझे बदलना था उसे, सो मुझे बदल गया
आदमी को मशीन बनाने का काम कर गया

27. उसे खूब मालूम है ज़ुल्म ढाने का तरीका

उसे खूब मालूम है ज़ुल्म ढाने का तरीका
ज़ख़्म देता है तो उसपर नमक भी रखता है

क्या कर सकेंगे आप उसके जुर्रत का मुकाबला
वो झूठ बोलता है तो धमक भी रखता है

दिन को पाट दिया काली अँधेरी रातों से, वावजूद इसके
अपने चेहरे पर वाइज़ चमक भी रखता है

वो है उस्ताद, और हैं उसके शागिर्द कई
लेकिन सबको बनाकर वो अहमक भी रखता है

सींचता है रोज़ नई फसलों की क्यारियाँ
और फिर चुपके से उनमें दीमक भी रखता है

28. आज वो भी जुल्म के शिकार हुए जो जुल्म किया करते थे

आज वो भी जुल्म के शिकार हुए जो जुल्म किया करते थे
भगवान की भी हम जात देख लेंगे सरे आम कहा करते थे

इनको न काशी न ही कुम्भ की कोई समझ थी कभी
जो गंगा को हिन्दू और यमुना को मुसलमान कहा करते थे

भाईचारे की राख और इंसानियत की आधी लाशों से
नदी की हर तट को जीता जागता मसान कहा करते थे

इन नदियों, इन घाटों, इन मेलों का कौन धर्म तय करेगा
वो जो कल तक गैर बिरादरी को श्मशान कहा करते थे

संस्कृति को सिर्फ बचाना नहीं समझाना भी पड़ता है
वो मानेंगे जो खुद को महान, औरों को शैतान कहा करते थे

29. धूप सेंकता हुआ कोई चाँद सुनहरा देखना

ये धुँध छँट जाए तो फिर चेहरा देखना
धूप सेंकता हुआ कोई चाँद सुनहरा देखना

उनसे मिल आईं तो हवा ये बतियाती हैं
गर्म चाय की प्याली में ढ़लता कोहरा देखना

निकलो तुम जो कभी अलसाये सवेरों में
ओंस से अपने बदन धोते हुए पेड़ हरा देखना

रखना गर ख्वाहिश कभी तो ऊँची ही रखना
हुश्न ही नहीं, हुश्न का हुनर भी गहरा देखना

जो आँख खुल जाए कभी आधी रातों में
बेटी के सिरहाने में परियों का पहरा देखना

ये तमाशा रोज यहाँ होता है, तुम भी देखना
लाउडस्पीकरों की बस्ती में हर कोई बहरा देखना

लगता है कि कोई नई जिंदगी तामील होगी
घर के मुँडेरों पर कोई कबूतर ठहरा देखना

सरहद के उस पार भी इंसान ही बसते हैं
हो यकीन तो कभी खुशी से हाथ लहरा देखना

30. आप तो इस शहर से वाकिफ़ हैं

आप तो इस शहर से वाकिफ़ हैं, आपने ये हलफ उठाया होता
सूरज जो सोया है यहाँ वर्षों से, उसको भी कभी जगाया होता

आप बाँटते रहे नफरतों की आयतें शहर की दरों-दीवार पर
गलती से ही सही कभी तो प्यार का तराना भी गुनगुनाया होता

वीरान गली, वीरान मकाँ, वीरान वक़्त और ये वीरान जहाँ सारा
अपनी सदाओं को इन खेत, इन खलिहानों को ही सुनाया होता

तुम्हारी जगह आज खिलौनों ने ले ली है, अजीब रिवाज़ है यहाँ
न होती ये हालत अगर तुमने बच्चों को नींद में थपकाया होता

भूख, चैन, सुख, लालसा, जवानी सब खो दिया इस शहर में आके
काश कि कोई मुझे भी मेरी माँ की तरह आके थोड़ा मनाया होता

आज तुम्हारा घर जला तो शहर में तुम्हें खौफ का इल्म हुआ है
क्यों होता हादसा गर तुमने पहले ही जलते घर को बचाया होता

31. कोई क़यामत न कोई करीना याद आता है

कोई क़यामत न कोई करीना याद आता है
जब दुपट्टे से तेरा मुँह छिपाना याद आता है

एक लिहाफ में सिमटी न जाने कितनी रातें
यक ब यक दिसम्बर का महीना याद आता है

ज़ुल्फ़ की पेंचों में छिपा तेरा शफ्फाक चेहरा
किसी भँवर में पेशतर सफीना याद आता है

छाती, सीना, नाफ, कमर सब के सब लाजवाब
उर्वशी, मेनका, रम्भा का ज़माना याद आता है

जिस तरह मैं हो गया हूँ तेरे हुश्न का कायल
क्या तुझे भी मुझ सा दीवाना याद आता है

32. अगली पीढ़ी का बोझ कौन उठाएगा

आग लगाने वाले आग लगा चुके
पर इल्ज़ाम हवाओं पे ही आएगा

रोशनी भी अब मकाँ देखे आती है
ये शगूफा सूरज को कौन बताएगा

बाज़ाए में कई"कॉस्मेटिक"चाँद घूम रहे
अब आसमाँ के चाँद को आईना कौन दिखाएगा

नदी, नाले, पोखर, झरने सभी खुद ही प्यासे
तड़पती मछलियों की प्यास भला कौन बुझाएगा

धरती की कोख़ में है मशीनों के ज़खीरे
क्यों नींद आती नहीं घासों पे, कौन समझाएगा

सिर्फ फाइलों में ही बारिश होती रहेगी
या सचमुच कोई बादल पानी भी देके जाएगा

मोबाइलों से चिपटी लाशें ही बस घूम रहीं
ऐसे दौर में अगली पीढ़ी का बोझ कौन उठाएगा

33. इश्क़ का भ्रम यूँ बनाते रहिए

इश्क़ का भ्रम यूँ बनाते रहिए
इस दिल में आते जाते रहिए

आप ही मेरी नज़्मों की जाँ थी
ये चर्चा भी सरे आम सुनते रहिए

सिलिए ज़ुबान तकल्लुफ से
लेकिन निगाहें मिलाते रहिए

आप मेरी हैं भी और नहीं भी
ये जादूगरी खूब दिखाते रहिए

आप बुझ जाइए शाम की तरह
मुझे दिन की मानिंद जलाते रहिए

है कोई बीमार आपका, फिक्र नहीं
आप बेरुखी से खिखिलाते रहिए

34. अफवाह

जीना मुश्किल, मरना आसान हो गया
हर दूसरा घर कोई श्मशान हो गया

माँ कहीं, बाप कहीं, बेटा कहीं, बेटी कहीं
एक ही घर में सब अन्जान हो गया

शहरों में नौकरियाँ खूब बिका करती हैं
इस अफवाह में गाँव मेरा वीरान हो गया

मन्दिर की घंटियाँ वो मस्जिद की अजानें
दोगले सियासतदानों की दुकान हो गया

प्यार, हमदर्दी, जज़्बात, अहसास, इंसानियत
"प्राइस टैग" लगा बाजारू सामान हो गया

बँटवारे की खींचातानी में ये हादसा हुआ
जो मुकम्मल घर था, खाली मकान हो गया

35. ये चाक जिगर के सीना भी जरूरी है

ये चाक जिगर के सीना भी जरूरी है
कुछ रोज़ खुद को जीना भी जरूरी है

ज़िंदगी रोज़ ही नए कायदे सिखाती है
बेकायदे होके कभी पीना भी जरूरी है

सब यूँ ही दरिया पार कर जाएँगे क्या
सबक को डूबता सफीना भी जरूरी है

जिस्म सिमट के पूरा ठंडा न पड़ जाए
साल में जून का महीना भी जरूरी है

सिर्फ जान पहचान ही काफी नहीं होती
नाम कमाना है, तो पसीना भी जरूरी है

36. मुझे मेरी मौत का फरिश्ता चाहिए

हर रोज़ ही कोई नई खता चाहिए
इस दिल को दर्द का पता चाहिए

कब तक होगा झूठा खैर मकदम
मुझे अब बेरुख़ी का अता चाहिए

अच्छे लगते ही नहीं सूनी मंज़िलें
काँटों से ही भरा रास्ता चाहिए

मेरा इश्क़ सबसे निभ नहीं पाएगा
सो हमनबा भी कोई सस्ता चाहिए

जिंदगी बोझिल है अब इस कदर
मुझे मेरी मौत का फरिश्ता चाहिए

(अता-दान)

37. इंसानियत क्या है

मेरी बातों पे गौर कीजिए जरा
समझिए, फिर दाद दीजिए जरा

कब तक यूँ दूसरों पे हँसा करेंगे
कोई लतीफा खुद पे भी लीजिए जरा

क्या करेंगे पाकर बेमानी दौलत
चाँद पाइए और फिर खीजिए जरा

खुशी का मतलब पता तब चले
गमों के आँसू जब पीजिए जरा

इंसानियत क्या है, समझ जाएँगे
ताकत हाथ में हो पर पसीजिए जरा

38. वो सीने से लगकर यूँ रो दिए

वो सीने से लगकर यूँ रो दिए
जितने भी पाप थे, सारे धो दिए

छूके अपनी जादुई निगाहों से
जवानी के कितने वसंत बो दिए

हर पल हीरा हर पल जवाहरात
अपनी ज़िंदगी के पल उसने जो दिए

साँसों के महीन धागे में चुन चुनकर
तासीर के बेशकीमती मोती पिरो दिए

माँगने की इन्तहां और भी होती है क्या
जो इशारा किया, झोली भर के सो दिए

मुझे खुदा ही बना दिया अपनी महब्बत से
खुदको दरिया सा मुझ समन्दर में खो दिए

39. जिसे जन्नत कहते हैं, वो हिन्दुस्तान हर घड़ी दिखाएँगे

कुछ इस तरह अपने कलम की जादूगरी दिखाएँगे
किसी की ज़ुल्फ़ों में लहलहाते खेत हरी-भरी दिखाएँगे

छोड़ो उस आसमाँ के चाँद को, मगरूर बहुत है
रातों को अपनी गली में हम चाँद बड़ी-बड़ी दिखाएँगे

किस्सों में जो अब तक तुम सुनते आए सदियों से
मेरा मुँह चूमता हुआ तुम्हें वही पुरनम परी दिखाएँगे

हम यूँ कर देंगे कि भूले नहीं भूलोगे ये शमा
हुश्न के महल में काबिज़ आफताब संगमरमरी दिखाएँगे

जहाँ भी चले जाओ, इतना ही हुश्न बरपा है हर जगह
जिसे जन्नत कहते हैं, वो हिन्दुस्तान हर घड़ी दिखाएँगे

40. तुम्हारी महफ़िल में और भी इंतज़ाम है

तुम्हारी महफ़िल में और भी इंतज़ाम है
या फिर वही साकी, वही मैकदा, वही जाम है

शायर बिकने लगे हैं अपने ही नज़्मों की तरफ
पुराने शेरों को जामा पहना कर कहते नया कलाम हैं

आप शरीफ न बन के रहें इन महफिलों में
वरना शराफत बेचने का धंधा सरे-आम है

रूमानियत, शाइस्तगी, मशरूफियात बेमाने हो गए
जाइए बाज़ार में, ये बिकते वहाँ कौड़ी के दाम हैं

इस पेशे में जिगर देके भी तो गुज़ारा होता नहीं
शायद इसीलिए शायर और शायरी बदनाम है

41. माना वक़्त बुरा है तो मर जाएँ क्या

माना वक़्त बुरा है तो मर जाएँ क्या
अपनी ही निगाहों से उतर जाएँ क्या

हर चीज़ मेरे मुताबिक हो, जरूरी तो नहीं
इतने से ग़म में जाँ से गुज़र जाएँ क्या

मैंने जीने का वायदा किया है किसी से
मौत को देख वायदे से मुकर जाएँ क्या

फूल की तरह खिलने का माद्दा है मुझमें
बेकार ही तूफाँ में पत्तियों सा बिखर जाएँ क्या

अभी तो पाँव जमाए हैं मेरी हसरतों ने
कोई कुछ कहे तो जड़ से उखड़ जाएँ क्या

42. सुना है कि आप लड़ते बहुत हैं

सुना है कि आप लड़ते बहुत हैं
शायद बातचीत से डरते बहुत हैं

मन्दिर-मस्जिद की आड़ लेकर
मासूमों पर जुल्म करते बहुत हैं

देशभक्त आपके अलावे और भी हैं
ऐसा कहें तो आप बिगड़ते बहुत हैं

रस्मों-रिवाज़ की नसें काट कर
आप चन्दन रोज रगड़ते बहुत हैं

जो कलंक मिट गई थी इस माटी से
आप उस जात-पात पे अकड़ते बहुत हैं

कोई जो पूछ ले समृद्ध इतिहास आपका
फिर अपनी हर बात से मुकरते बहुत हैं

43. जरूरी तो नहीं

हर सवाल का जवाब हो, जरूरी तो नहीं
मोहब्बत में भी हिसाब हो, जरूरी तो नहीं

पढ़नेवाला सब कुछ पढ़ ले, जरूरी तो नहीं
हर चेहरा खुली किताब हो, जरूरी तो नहीं

जवानी जलती सी आग हो, जरूरी तो नहीं
और हर शोर इंक़लाब हो, जरूरी तो नहीं

रिश्ते सब निभ ही जाएँ, जरूरी तो नहीं
बगीचे में सिर्फ गुलाब हो, जरूरी तो नहीं

जो जलता है काश्मीर हो, जरूरी तो नहीं
उबलता झेलम-चनाब हो, जरूरी तो नहीं

लाशों से भरा चुनाव हो, जरूरी तो नहीं
सरहद पे फिर तनाव हो, जरूरी तो नहीं

44. वो जो अपने होंठों पर अंगार लिए चलते हैं

वो जो अपने होंठों पर अंगार लिए चलते हैं
मचलते यौवन का चारमीनार लिए चलते हैं

ज़ुल्फ़ में पंजाब, कमर में बिहार लिए चलते हैं
हुश्न का सारा मीना-बाज़ार लिए चलते हैं

जिस मोड़ पर ठहर जाएँ, जिस गली से गुज़र जाएँ
अपने पीछे आशिकों की कतार लिए चलते हैं

कोतवाली बन्द, अदालतों की दलीलें सब रद्द
सारे महकमे को कर बीमार लिए चलते हैं

आँखें काश्मीर, चेहरा चनाब का बहता पानी
क़त्ल करने का सारा औज़ार लिए चलते हैं

जो देख लें तो मुर्दे भी जी उठे कसम से
अपने तबस्सुम में इक संसार लिए चलते हैं

45. कुआँ सूख गया गाँव का, पानी खरीदते जाइए

कुआँ सूख गया गाँव का, पानी खरीदते जाइए
आने वाली मौत की कहानी खरीदते जाइए

बूढ़ा बरगद, बूढ़ा छप्पर सब तो ढह गए
शहर से औने-पौने दाम में जवानी खरीदते जाइए

नहीं लहलहाते सरसों, न मिलती मक्के की बालियाँ
बच्चों के लिए झूठी बेईमानी खरीदते जाइए

रिश्तों की बाट नहीं जोहते कोई भी चौक-चौबारे
आप भी झोला भरके बदगुमानी खरीदते जाइए

नींद लूट के ले गई भूख पेट की
सुलाने के लिए दादी-नानी खरीदते जाइए

कहते हैं कि वो गाँव अब भी बच जाएगा
हो सके तो थोड़ी नादानी खरीदते जाइए

46. मैं भी न सोया, वो भी तमाम रात जागते रहे

मैं भी न सोया, वो भी तमाम रात जागते रहे
कभी खुद, कभी चाँद बनके मेरी छत पे ताकते रहे

आँखों से एक झलक भी न ओझल हो जाए
मेरी दहलीज को सितारों से टाँकते रहे

कोई आहट होती है कि साँसें दौड़ पड़ती हैं
फिर इक छुअन को रात भर काँपते रहे

आवारा हवा की तरह तुम जिस्म में मेरी घुल जाते
ख़्वाब दर ख़्वाब इक यही दुआ माँगते रहे

47. शाम ढले तुम छत पे क्यूँ आते हो

शाम ढले तुम छत पे क्यूँ आते हो
मुझे मालूम है चाँद को जलाते हो

तुम से ही नहीं रौशन ये जहाँ सारा
मुस्कुराकर तुम उसे यह बताते हो

होंगे सितारे तुम्हारे हुश्न पर लट्टू
गिराके दुपट्टा ये गुमाँ भी भुलाते हो

हुई पुरानी तुम्हारी अदाओं की तारीफें
रोककर सबकी साँसें उसे जताते हो

अमावस का डर भी तो है उसे पल-पल
तुम बेधड़क जलवा रोज़ दिखाते हो

कर दे वो रातें सबकी काली, कोई फर्क नहीं
खिलखिला के तुम दो जहाँ जगमगाते हो

48. जो परिन्दे डरते हैं हवाओं के बदलते रूख से

जो मकाँ बनाते हैं, वो अपना घर नहीं बना पाते
रेगिस्तान में उगने वाले पौधे जड़ नहीं बना पाते

जिन्हें आदत हैं औरों के रहमो-करम पे जीने के
वो कूबत होते हुए भी अपना डर नहीं बना पाते

जो पहचानते हैं इंसानों को सिर्फ औकात से
वो कभी किसी के दिल तक दर नहीं बना पाते

जो परिन्दे डरते हैं हवाओं के बदलते रूख से
वो सारे उड़ने के लिए अपना पर नहीं बना पाते

जिनकी जवानी बन गई जीहुजूरी का दूसरा नाम
वो ज़ुल्म के खिलाफ उठने वाला सर नहीं बना पाते

49. मैं जितना ही हूँ, उतना तो जरूर हूँ

अब इस तरह मुझे न बचा के रख
फानूस के जैसे तो न सजा के रख

मैं खुद तलाश लूँगा अपनी मंज़िलें
बाज़ार में दाम मेरा न बता के रख

मैं नई सुबह का नया सूरज सा हूँ
मुझे दिए की तरह न बुझा के रख

हैं ज़िन्दा बे-शक अहसासात सभी
यूँ असबाब के जैसे न उठा के रख

मैं जितना ही हूँ, उतना तो जरूर हूँ
यूँही बस हिसाब से न घटा के रख

50. कभी खुद का भी दौरा किया कीजिए

कभी खुद का भी दौरा किया कीजिए
जो जहर है निगाहों में पिया कीजिए

झूठी सूरत, झूठी सीरत और झूठा संसार
सच के खिलने का आश्वासन भी दिया कीजिए

हँसी मतलबी, आँसू नकली, बेमानी सब बातें
ज़ुबाँ ही नहीं, तासीर को भी सिया कीजिए

हवा में सारे वायदे, बेशक़्ल सारी तस्वीरें
हिसाब को कभी तो कुछ लिख लिया कीजिए

अपनी जात, अपनी बिरादरी, अपना महकमा
बेवज़ह कुछ दूसरों के लिए भी किया कीजिए

51. खत मेरा खोला उसने सबके जाने के बाद

खत मेरा खोला उसने सबके जाने के बाद
दिल हुआ रोशन, शमा बुझाने के बाद ।।1।।

महफ़िल चुप थी मेरी चुप्पी के साथ
हुआ हंगामा मेरे हलफ उठाने के बाद ।।2।।

जो अब तक देखा वो कुछ भी नहीं था
कयामत हुआ उनके दुपट्टा गिराने के बाद ।।3।।

माँ को समझाया, मैं जरूर आऊँगा
पर रोया बहुत हाथ छुड़ाने के बाद ।।4।।

मासूम जितने थे सब गुनाहगार साबित हो गए
मैं छूट गया, खुद को सियासतदां बताने के बाद ।।6।।

बाप के पैसे की क्या कीमत होती है
बात समझ में आई अपनी कमाई उड़ाने के बाद ।।7।।

52. न जाने किनका ख्याल आ गया

न जाने किनका ख्याल आ गया
रूखे-रौशन पे जमाल आ गया

जो झटक दिया इन जुल्फों को
ज़माने भर का सवाल आ गया

मैं मदहोश न हो जाती क्यों-कर
खुशबू बिखेरता रूमाल आ गया

मैं मिट जाऊँगी अपने दिलबर पे
बदन तोड़ता जालिम साल आ गया

मेरे हर अंग पे है नाम उसकी का
यूँ ही नहीं हुश्न में कमाल आ गया

(जमाल=सुंदरता)

53. दर्द ज्यादा हो तो बताया कर

दर्द ज्यादा हो तो बताया कर
ऐसे तो दिल में न दबाया कर

रोग अगर बढ़ने लगे बेहिसाब
एक मुस्कराहट से घटाया कर

तबियत खूब बहल जाया करेगी
खुद को धूप में ले के जाया कर

तरावट जरूरी है साँसों को भी
अंदर तक बारिश में भिंगोया कर

तकलीफें सब यूँ निकल जाएँगी
बदन को हवा में उड़ाया कर

54. अपने जहन में संविधान रखता हूँ

मैं अपने कामों में ईमान रखता हूँ
सो सबसे अलग पहचान रखता हूँ

सब इंसान लगते हैं मुझे एक जैसे
तासीर में हमेशा भगवान् रखता हूँ

है महफूज़ जहाँ मुझ जैसे बन्दों से
सच से लैश अपनी जुबान रखता हूँ

बना रहे हिन्दोस्तान मेरा शहंशाह
अपने तिरंगे में ही प्राण रखता हूँ

मुझे तालीम है मिट्टी की खुशबू की
अपने जहन में संविधान रखता हूँ

55. रात की रात से बात होती रही

रात की रात से बात होती रही
दिन शामियाने में बदन धोता रहा

हो गया मुल्क सारा ख़ूनम-खून
और सब नियम-कानून सोता रहा

दूजे की पोशक में जिस्म लपेट के
सरे-शाम अपना वजूद खोता रहा

बच्चे भूखे से बिलबिलाकर मरते रहे
और धर्म पर विचार-विमर्श होता रहा

आज़ादी हर साल आती है, पर कौन आज़ाद है
यही सोच मेरा वतन दिन-रात रोता रहा

56. फिर मेरी हँसी से अपनी तस्वीर रँगते क्यूँ हो

मुझे भुला दिया तो रात भर जागते क्यूँ हो
मेरे सपनों में दबे फिर पाँव भागते क्यूँ हो

एक जो कीमती चीज़ थी वो भी खो दी
अब बेवजह इस कदर दुआ माँगते क्यूँ हो

इतना ही आसान था तो पहले बिछड़ जाते
वक़्त की दीवार पे गुज़रे लम्हात टाँगते क्यूँ हो

गर सब निकाल दिया खुरच-खुरच के जिस्म से
फिर मेरी हँसी से अपनी तस्वीर रँगते क्यूँ हो

57. खुद को सबसे दूर किया है उसने

खुद को सबसे दूर किया है उसने
जब से मुझे मंजूर किया है उसने

इश्क़ की राह इतनी आसान नहीं
करके, जुर्म जरूर किया है उसने

आँखें दरिया, लब समंदर हो गए
हुश्न को ऐसे बेनूर किया है उसने

खुद का अक्स साफ दिखता नहीं
खुद को चकानाचूर किया है उसने

58. ज़ुल्फ़ों को चेहरे पे कितना बेशरम रखते हैं

ज़ुल्फ़ों को चेहरे पे कितना बेशरम रखते हैं
ज़माना अच्छा हो फिर ये भी भरम रखते हैं

ये बारिश छू के उनको उड़ न जाए तो कैसे
बदन में तपिश और साँसों को गरम रखते हैं

कमर जैसे पिसा की मीनार, निगाहें जुम्बिश
अपनी हर इक अदा में कितने हरम रखते हैं

उनको पढ़ कर सब सब पढ़ लिया समझो
वो अपनी तासीर में क्या महरम रखते हैं

वो चलें तो ज़िंदगी, वो रूक जाएँ तो मौत
अपने वजूद में खुदा का करम रखते हैं

59. अब कैसे कृष्ण, कैसे राम निकलेगा

तेरा न बोलना बहुत देर तक खलेगा
एक न एक दिन तेरा घर भी जलेगा

नज़र बंद हो अपनी बोई नफरतों में
फिर रहीम और कबीर कहाँ मिलेगा

चाँद को चुराके रात को दोष देते हो
इंतज़ार करो, आसमाँ भी पिघलेगा

जाति, धरम, नाम सबसे तो खेल लिया
अब कैसे कृष्ण, कैसे राम निकलेगा

पानी, हवा, मिटटी सब तो बँट गए हैं
किस आँगन में अब गुलाब खिलेगा

सब को बदल दिया खुद को छोड़के
सच को झूठ से और कितना बदलेगा

60. कभी शबनम तो कभी क़यामत लिखो कोई

लिखना है तो बादलों पे इबारत लिखो कोई
कभी शबनम तो कभी क़यामत लिखो कोई

कोहरों के बीच से रास्ता निकल के आएगा
मंज़िलों के ख़िलाफ़ भी बगावत लिखो कोई

फसलें नफरतों की सब कट जाएँगी खुद ही
धरती के सीने पे ऐसी मोहब्बत लिखो कोई

कितनी सदी तक यूँ ही पिसती रहा करेगी
माँ के थके चेहरे पे अब राहत लिखो कोई

तुम कहाँ गुम हो, किस ख़्यालात में गुम हो
दो पल को अपने लिए चाहत लिखो कोई

कुछ अनछुए पल, कुछ अनछुए अहसास
दिल के करीब से बातें निहायत लिखो कोई

61. दो कदम साथ चलिए मेरे

दो कदम साथ चलिए मेरे
फिर हालात बदलिए मेरे

तन ही सारा छिल जाएगा
जो ज़ख्मों से गुजरिए मेरे

जान जाते दर्द की गहराई
साथ ही डूबिए,उभरिए मेरे

ज़िन्दगी कोई हादसा लगेगी
बिखरे ख़्वाबों में चलिए मेरे

62. कोई रोज़ सही कोई लम्हा भी ऐसा हो

कोई रोज़ सही कोई लम्हा भी ऐसा हो
बादलों में भींगा हुआ सरज़मीं जैसा हो

पानी नाचे झूमके लहलहाते फसलों पे
कैसे पागल होते हैं, फिर शमा वैसा हो

पेड़ों के बदन पर हों सोने की बालिया
पगडंडियों पर बरसता रूपया पैसा हो

नदी गाए गीत कोई, झरने नाचे ताल पे
सोचो फिर ये दिन और ये रात कैसा हो

63. जो तुम चाहते हो बस वही मान लेते हैं

जो तुम चाहते हो बस वही मान लेते हैं
झूठ को सच, सच को झूठ जान लेते हैं

अब तक अक्सों में ढूँढते रहे इक दूजे को
चलो आज हम खुद को पहचान लेते हैं

तिनका तिनका जोड़ के आशिया बनाएँ
थोड़ा सा ज़मीन, थोड़ा आसमान लेते हैं

माँगों में सजे तुम्हारे भरी भरी हरियाली
अहसासों में गीता और कुरआन लेते हैं

खुशी की लहरें दौड़ा करें हमारे आँगन में
क्षितिज के आसपास कोई मकान लेते हैं

64. अच्छा था मेरे दर से मुकर जाना तेरा

अच्छा था मेरे दर से मुकर जाना तेरा
आसमाँ की गोद से उतर जाना तेरा

तू लायक ही नहीं था मेरी जिस्मों-जाँ के
वाजिब ही हुआ यूँ बिखर जाना तेरा

मेरी हँसी की कीमत तुमने कम लगाई
यूँ ही नहीं भा गया रोकर जाना तेरा

तुझे हासिल थी बेवजह दौलतें सारी
अब काम आया सब खोकर जाना तेरा

क्या आरज़ू करूँ तेरी तंगदिली से मैं
क्या दे पाएगा बेवफा होकर जाना तेरा

मैं सोचती रही कि हो जाऊँ तेरी फिर से
बुत बना गया हर बात पे उखड़ जाना तेरा

65. तेरी आँखों से ही कोई रास्ता निकल आए सही (ग़ज़ल)

तेरी आँखों से ही कोई रास्ता निकल आए सही
नया पुराना कहीं कोई वास्ता निकल आए सही

तलाश मंज़िल की बाकी तो है, फिर क्या हुआ
तेरी ज़ुल्फ़ों से शायद गुलिस्तां निकल आए सही

मेरे इंसान होने में अब भी थोड़ा भरम है तो सही
तेरी जुस्तजू से मेरा भी फरिश्ता निकल आए सही

तुम्हारे चेहरे में अक्स अपना मैं देख लेता हूँ सही
तुम्हारे वक़्त में ही मेरा गुज़िश्ता निकल आए सही

खोलूँ जो कभी मैं अपनी यादों के पिटारों को सही
कितनी ही अनकही बातें आहिस्ता निकल आए सही

66. यह इतिहास है गौर से पढ़िएगा

यह इतिहास है गौर से पढ़िएगा
एक एक सीढ़ी तौर से चढ़िएगा

सच और झूठ एक ही सफे पर
विश्वास ना हीं और से करिएगा

जो शासक चाहे वही यह बोले
फिर आप हर दौर से डरिएगा

जो जानते हैं वो भी सच है क्या
नहीं तो बिना ठौर के मरिएगा

67. तेरे बगैर यूँ ही गुज़ारा होता है मेरा

रात रोता है मेरा, सवेरा रोता है मेरा
तेरे बगैर यूँ ही गुज़ारा होता है मेरा

तुम थे तो ज़िंदगी कितनी आसाँ थी
अब हर काम दो-बारा होता है मेरा

किस- किस पल को हिदायत दूँ मैं
हरेक पल ही आवारा होता है मेरा

तुझे नहीं तेरा साया ही तो माँगा था
फ़कीरी किन्हें गवारा होता है मेरा

सपने कहाँ जग-मगाते हैं आँखों में
रौशन नहीं चौ-बारा होता है मेरा

याद में लब हिले, नहीं तो लब जले
जिगर का ऐसा नज़ारा होता है मेरा

68. अगर कुछ जलाना ही है तो जला दो मुझे

अगर कुछ जलाना ही है तो जला दो मुझे
जाति-धर्म के इस रिवाज़ से हटा दो मुझे

अगर नहीं जगह मेरे लिए अब समाज में
किसी पत्थर जैसे दीवार में लगा दो मुझे

फीका हो गया हूँ तुम्हारी चमक के सामने
बुझते सूरज के साथ-साथ ही बुझा दो मुझे

कहाँ तक ढो पाओगे मेरे विरोधी विचार यूँ
उफनते नदी पर टूटे पुल सा बिछा दो मुझे

मैं सच हूँ ,ज्यादा देर तक सह नहीं पाओगे
अपने घर से किसी लाश सा उठा दो मुझे

69. दिल को जब बात और लगेगी

दिल को जब बात और लगेगी
तब उधर भी रात और लगेगी

तुम समझते रहे बस खेल जिसे
वो सारी मुलाक़ात और लगेगी

मुकम्मल होगी गर तेरी कोशिश
तो मेरी भी शुरुआत और लगेगी

चाँदनी मुखड़े से होती मीठी बातें
तो सारी बिखरी खैरात और लगेगी

रख दो जो जुल्फों को काँधे पर
तो तारों की बारात और लगेगी

70. कितने अलग चेहरे थे

सच में रिश्ते तुम्हारे- मेरे कुछ गहरे थे
या बुलबुलों की तरह पानी पर ठहरे थे

शोर तो बहुत किया था मेरी हसरतों ने
लेकिन शायद तुम्हारे अहसास बहरे थे

कितनी कोशिश की मैं छाँव बन जाऊँ
ख्वाहिशें तुम्हारे चिलचिलाते दोपहरें थे

कब देखी तुमने हमारे प्यार का सूरज
निगाहों पर तुम्हारे धुन्ध और कोहरे थे

लगता तो था कि हम एक हँसी हँसते हैं
अब मालूम हुआ कितने अलग चेहरे थे

71. कुछ दिन भरम छोड़ कर भी देखिए

कुछ दिन भरम छोड़ कर भी देखिए
अपना अहंकार तोड़ कर भी देखिए

सब गलतियाँ दूसरों की नहीं होती हैं
कभी गिरेबां झकझोड़ कर भी देखिए

आपको आधा ही देखने की आदत है
खुद को दूसरों से जोड़ कर भी देखिए

आईना हमेशा सही चेहरा नहीं दिखाता
हो सके तो शीशा फोड़ कर भी देखिए

मिलते जाएँगे साथी कई राहों में यूँ ही
अपना रास्ता कभी मोड़ कर भी देखिए

72. या इलाही, वो तबाही है कोई

या इलाही, वो तबाही है कोई
चेहरे पे बादल छाई है कोई

क्या देखें और क्या ना देखें
जिस्म,अदा की खाई है कोई

उसे देखें फिर कुछ क्यूँ देखें
तूफ़ान समेटके आई है कोई

उस का गुरूर भी वाजिब है
बला की सूरत पाई है कोई

वो जिसे मिले, सब मिल जाए
वाकई अल्लाह दुहाई है कोई

73. कुछ कदम तुम भी बढ़ा कर देखते

कुछ कदम तुम भी बढ़ा कर देखते
रिश्ते कहाँ पड़े हैं, उठा कर देखते

कितनी दस्तकें दी दरवाजे पे तुम्हारे
किसी वजह मुझे भी बिठा कर देखते

चाँद क्यूँ न उतर आता तुम्हारे आँगन
कभी अपने छत पर चढ़ा कर देखते

हम इतने भी कमजोर नहीं गणित में
इश्क़ का पहाड़ा हमें पढ़ा कर देखते

74. ये नज़ारे बदल जाएँगे,तुम कदम मिला के तो चलो

ये नज़ारे बदल जाएँगे,तुम कदम मिला के तो चलो
राह में मुस्कराहटों की कलियाँ खिला के तो चलो

कोई दर्द कोई शिकन ऐसा नहीं जिसकी दवा नहीं
अपनी हथेली से मेरे ज़ख्मों को सहला के तो चलो

मंज़िलें कदम दर कदम हासिल होती चली जाएगी
निगाहों को काम-याबी का जाम पिला के तो चलो

तुम ही से सब खुशियाँ इख़्तियार हैं दो जहान की
कायदे से एक दफे खुद को फिर जिला के तो चलो

अब भी आपके भींगे होंठों पे शबनम चमक उठेंगी
अपने हुश्न को तिलिस्मी सा ख्वाब दिला के तो देखो

75. तुम क्या थे मेरे लिए,अब मेरी समझ में आता है

तुम क्या थे मेरे लिए,अब मेरी समझ में आता है
बादल छत पर मेरे , बिना बारिश गुजर जाता है

मेरा घर, मेरे घर की दीवारें और चौक - चौबारे
बिना तेरे अक्स के चेहरा सब का उतर जाता है

सबकी गलियाँ हैं रौशन आफ़ताबी शबनमों से
चाँद मेरी ही गली में ही बुझा-बुझा नज़र आता है

तुम थे तो सब नज़ारे सावन से भींगे-भींगे लगते थे
अब तो निगाहों में बस पतझड़ का मंजर आता है

कितने गुलाब खिला करते थे तुम्हारे हसीं लबों पे
तेरे बग़ैर सब्ज़ बाग़ में बस सूखा शज़र आता है

76. तुझे जाना है तो फिर आना क्यूँ

तुझे जाना है तो फिर आना क्यूँ
इस तरह से यूँ दिल लगाना क्यूँ

न खुद जलील हो ना मुझे कर
मेरे नाम से माँग सजाना क्यूँ

ख्वाब नहीं ठहरते इन आँखों में
मुझे अपने ख्यालों से जगाना क्यूँ

तू खुदा से भी गद्दारी कर जाए
तेरे लिए फिर हाथ उठाना क्यूँ

कौन तेरी जफ़ा से वाकिफ नहीं
तेरे रूठने पर तुझे मनाना क्यूँ

77. ज़मीर में सलामत मुआमला रखिए

हर रिश्ते में थोड़ा फासला रखिए
अभी से ही सही ये फैसला रखिए

दूरियाँ खलेंगी लेकिन खिलेंगी भी
अपने अहसासों पर हौसला रखिए

हर कोई तो ख़ुशी का कायल नहीं
हर घडी कोई नया मसअला रखिए

सीख जाएँगें दिल बहलाने का हुनर
हर मौसम में ही नया जुमला रखिए

तय हो जाएँगी ऐसे हर कठिन डगर
ज़मीर में सलामत मुआमला रखिए

78. तुम्हें खुद से ही मिलाने वाला कोई और भी था

इस लम्बे सफर में साथ तुम्हारे कोई और भी था
हर ठोकर पर सम्भालने वाला कोई और भी था

कितनी ही बरसातों ने कोशिशें की डराने की
सर पर आसमान उठाने वाला कोई और भी था

हर मोड़ पे कोई न कोई छोड़ कर जाता ही रहा
दूर मंज़िल तलक निभाने वाला कोई और भी था

जिसे भी अपना कहा,सबने ही बेगाना कर दिया
नए रिश्तों को संवारने वाला कोई और भी था

कुछ तो खाली रह गया था तुम्हारे खुद के होने में
तुम्हें खुद से ही मिलाने वाला कोई और भी था

79. सच लिखने को कलम में दावात बहुत है

वो कम दिक्खे है लेकिन उस में बात बहुत है
चाँद के जलवे बिखेरने को इक रात बहुत है

हम क्या ना लुटा बैठेंगे तुम्हारी मुलाक़ात को
मुझे लूटने को तेरी निगाहों की मात बहुत है

चलो नहीं छेड़ेंगे तुम्हें हम आइन्दा कभी भी
पर साँप के डसने को उस की जात बहुत है

कैसे और कब बदलेगा यह ख़ौफ़ ज़दा मंज़र
यह मत पूछ,पर तेरी छोटी शुरुआत बहुत है

घर में हो तो बचे हुए हो ,यह ग़लतफ़हमी है
जान लेनी हो तो अपनों की ही घात बहुत है

मजहब को क्या करना है मंदिर -मस्जिद से
फकीरों के भेष में दरिंदों की जमात बहुत है

इक ही कोशिश पर साँसें जब उखड़ने लगीं
नेताजी कहते हैं यहाँ तो मुआमलात बहुत हैं

बहुत ही रंगीन दिखता है टी वी अखबारों में
वरना इस मुल्क की नाज़ुक हालात बहुत है

क्या पता कहाँ पहुँचेंगी मेरी ग़ज़लें बाज़ार में
पर सच लिखने को कलम में दावात बहुत है

80. वो मेरे चंद गुनाहों की किताब रखता है

वो मेरे चंद गुनाहों की किताब रखता है
नौसिखिया है, इश्क़ में हिसाब रखता है

नींद आएगी नहीं उसे किसी भी सूरत में
आँखों में बे - हिसाब मेरे ख्वाब रखता है

कहता है कि मेरे निशाँ तक मिटा देगा
और आँगन में मुझे माहताब रखता है

बुझा कर रौशनी पूरे घर में सूना बैठा है
और पलकों में छुपाके मेरे आब रखता है

जिन सवालों से मुझे घेरने की कोशिशें हुईं
अपने होंठों पर उनके खूब जवाब रखता है

(आब-चमक, माहताब-चाँद)

81. इन शहरों का एक रास्ता गांव को भी खुलना चाहिए

इन शहरों का एक रास्ता गांव को भी खुलना चाहिए
बहुत बीमार है ये, इसका हवा-पानी बदलना चाहिए

इतनी तेज़ ज़िन्दगी कि जीने को साँसें कम पड़ जाए
ज़िंदा रहने को इसे कुछ आवारा पल मिलना चाहिए

धूप तरसती रहती है किसी गोरी के दीदार करने को
हर छत के ऊपर ही अब एक सूरज खिलना चाहिए

कोई किसी को जानता नहीं,किस तरह का रिवाज़ है
हर महीने यहाँ कोई पर्व, कोई त्योहार मनना चाहिए

सारे बदन पर कालिख की चादर ओढ़ रखी हो जैसे
किसी रोज़ इसे चन्दन और हल्दी भी मलना चाहिए

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