भूल जाओ पुराने सपने : नागार्जुन

Bhool Jao Purane Sapne : Nagarjun

भूल जाओ पुराने सपने

सियासत में
न अड़ाओ
अपनी ये काँपती टाँगें
हाँ, मह्राज,
राजनीतिक फतवेवाजी से
अलग ही रक्खो अपने को
माला तो है ही तुम्हारे पास
नाम-वाम जपने को
भूल जाओ पुराने सपने को
न रह जाए, तो-
राजघाट पहुँच जाओ
बापू की समाधि से जरा दूर
हरी दूब पर बैठ जाओ
अपना वो लाल गमछा बिछाकर
आहिस्ते से गुन-गुनाना :
‘‘बैस्नो जन तो तेणे कहिए
जे पीर पराई जाणे रे’’
देखना, 2 अक्टूबर के
दिनों में उधर मत झाँकना
-जी, हाँ, महाराज !
2 अक्टूबर वाले सप्ताह में
राजघाट भूलकर भी न जाना
उन दिनों तो वहाँ
तुम्हारी पिटाई भी हो सकती है
कुर्ता भी फट सकता है
हां, बाबा, अर्जुन नागा !

(11.10.79)

स्वगत : अपने को संबोधित

आदरणीय,
अब तो आप
पूर्णतः मुक्त जन हो !
कम्प्लीट्ली लिबरेटेड...
जी हाँ कोई ससुरा
आपकी झाँट नहीं
उखाड़ सकता, जी हाँ !!
जी हाँ, आपके लिए
कोई भी करणीय-कृत्य
शेष नहीं बचा है
जी हाँ, आप तो अब
इतिहास-पुरुष हो
...
स्थित प्रज्ञ—
निर्लिप्त, निरंजन...
युगावतार !
जो कुछ भी होना था
सब हो चुके आप !
ओ मेरी माँ, ओ मेरे बाप !
आपकी कीर्ति-
जल-थल-नभ में गई है व्याप !
सब कुछ हो आप !
प्रभु क्या नहीं हो आप !

क्षमा करो आदरणीय,
अकेले में, अक्सर
मैंने आपको
दुर्वचन कहे हैं !
नहीं कहे हैं क्या ?
हाँ, हाँ, बारहाँ कहे हैं
मैंने आपको दुर्वचन जी भर के फटकारा है,
जी हाँ, अक्सर फटकारा है
क्षमा करो प्रभु !
महान हो आप...
महत्तर हो, महत्तम हो
क्‍या नहीं हो आप ?
मेरी माँ, मेरे बाप !
क्या नहीं हो आप ?

(8.5.79)

इतना भी काफी है !

बोल थे नेह-पगे बोल,
यह भी बहुत है ! इतना भी काफी है !
औचक ही आँख गए खोल,
यह भी बहुत है ! इतना भी बहुत है !
गाहक थे, पता चला मोल,
यह भी बहुत है ! इतना भी बहुत है !
अचल था तन, मन गया डोल,
यह भी बहुत है ! इतना भी काफी है !
लौटे हो, लगी नहीं झोल,
यह भी बहुत है ! इतना भी काफी है !

2.2.80

कैसे रहा जाएगा...

यह क्या हो रहा है जी ?
आप मुँह नहीं खोलिएगा !
कुच्छो नहीं बोलिएगा !
कैसे रहा जाएगा आपसे ?
आप तो डरे नहीं कभी अपने बाप से
तो, बतलाइए, यह क्या हो रहा है ?
कौन पा रहा है, कौन खो रहा है ?
प्लीज बतलाएँ तो सही...
अपनी तो बे-कली बढ़ती जा रही
यह क्या हो रहा है जी
प्लीज बतलाएँ तो सही...

26.2.79

आइए हुजूर

ओ हो हो हो
आइए हुजूर, आइए !
आ हा हा हा
बड़ी मुद्दत के बाद दिखाई पड़े हुजूर !
कहाँ ले चले हैं तशरीफ
खरामा खरामा चल रहे हैं
पैरों में क्या कोई तकलीफ है हुजूर ?
मैं हुजूर की क्या खिदमत करूँ, हुजूर !
हाय हाय हुजूर...
होय होय हुजूर...
मगर ये कया बात हुई हुजूर
कि हुजूर से चला नहीं जा रहा है अब
19.1.85 . पहले तो जब जब मुलाकात हुई
तब तब लगता था कि
हुजूर ने 'चलज़ा' तो सीखा ही नहीं
सरपट भागना ही-सीखा है हुजूर ने !
मगर अब ये क्‍या बात हुई हुजूर
कि, हुजूर से चला नहीं जा रहा है...

5.3.79

लाठी-गोली आबाद रहे

हमने सरकार बनाई है
सरकार चलेगी हम से ही

लाठी-गोली आबाद रहे
तो बात बनेगी कम से ही

इन मूँछों पर बिच्छू थिरकें
बंधुआ श्रमिकों के दम से ही

बाकी बातों में क्या रक्खा
धरती फटती है बम से ही

साँस खींचो

करो गर्जन, करो तर्जन, साँस खींचो
सींग झाड़ो, खुरों से कीचड़ उलीचो
दिखावट के ओ झरोखो, ओ दरीचो
हवा तक तुमसे सहमती, आँख मीचो
और क्या क्‍या बनोगे अब, अरे नीचो
तुम्हें क्या है, कुवेरों के बाग सींचो
सींग झाड़ो, खुरों से कीचड़ उलीचो
करो गर्जन, करो तर्जन, साँस खींचो

30.3.79

अपना यह देश है महाऽऽन

अपना यह देश है महाऽऽन !
जभी तो यहाँ चल रहा भेड़िया धसाऽऽन !
शब्दों के तीर हैं जीभ है कमाऽऽन !
सीधे हैं मजदूर और बुद्धू हैं किसाऽऽन !
लीडरों की नीयत कौन पाएगा जाऽऽन
अपना यह देश है महाऽऽन !

6.11 79

जपाकर

जपाकर दिन-रात
जै जै जै संविधान
मूँद ले आँख-कान
उनका ही धर ध्यान

मान ले अध्यादेश
मूँद ले आँख-कान
सफल होगी मेधा
खिंचेंगे अनुदान

उनके माथे पर
छींटा कर दूब-धान
करता जा पूजा-पाठ
उनका ही धर ध्यान

जै जै जै छिन्‍मस्ता
जै जै जै कृपाण
सध गया शवासन
मिलेगा सिंहासन

18.1.82

इतना भी क्‍या कम है प्यारे

लाशों को झकझोर रहे हैं
मुर्दों की मालिश करते हैं
...ये भी उन्हें वोट डालेंगी !
मत पत्रों की आँख मिचोली
सबको ही अच्छी लगती है
फिर भी सच है
किस्मत उनकी ही जगती है
जैसे-तैसे जीतेंगे जो
जैसे-तैसे ज्यादा-ज्यादा मतपत्रों को
खीचेंगे जो, जीतेंगे वो
हाँ, हाँ, वो ही जीतेंगे
जी हाँ, वो ही जीतेंगे !
लाशें भी खुश खुश दीखेंगी
मुर्दे भी खुश खुश दीखेंगे
उनकी ही सरकार बनेगी
श्रमिक जनों का खेतिहरों का
छात्र वर्ग का, लिपिक वर्ग का
गिरिजन का भी, हरिजन का भी
आम जनों का
लहू चूसने की तरकीबें
नई नई ईजाद करेगी
निर्मम होकर कतल करेगी
जो भी चूँ बोलेगा, उसकी

जो भी अब सरकार बनेगी
सेठों को ही सुख पहुँचाएगी
पाँच साल फिर मौज करेंगे
लोक सभाई-लोक सभाई-लोक सभाई
सांसद-फांसद, M.L.A. गण, M.L.C. गण
पाँच साल फिर मौज करेंगे
यूँ ही बस भत्ता मारेंगे
नौकरशाही की छाया में
सुविधा भोगी बौद्धिक जनों की
उसको ही आशीष मिलेगी
धर्म धुरंधर पंडित-मुल्ला
टिकड़मजीवी ग्रंथ कीट विधा व्यवसायी
कवि-साहित्यिक, पत्रकार, तकनीक-विशारद
सबकी ही आशीष मिलेंगी
नवसत्ता, अभिनव सत्ता को
सबकी ही आशीष बटोरेगी
फिर से सरकार

मुझ-जैसे पागल दस-पाँच
उस सत्ता को पहुँचाएँगे क्या रत्ती भर भी आँच ?
मुझ जैसे पागल दस-पाँच !
कैसी भी सरकार बने तो
उसका हम क्या कर लेंगे ?
क्या कर लेंगे, हाँ जी, उसका !
कुत्तों जैसे भौंक-भौंककर -
उसकी नींद हराम करेंगे ?
हाँ जी, हाँ जी, हाँ जी, हाँ जी !
इतना तो कर ही सकते हैं...
इतना तो कर ही सकते है...
यह भी तो काफी है प्यारे !
इतना भी क्या कम है प्यारे ?

मत-पत्रों की लीला देखो
भाषण के बेसन घुलते हैं
प्यारे इसका पापड़ देखो,
प्यारे इसका चीला देखो
चक्खो, चक्खो पापड़ चक्खो
गाली-गुफ्ता झापड़ चक्खो
मतपत्रों की लीला चक्खो
भाषण के बेसन का, प्यारे, चीला चक्खो...

लाशों को झकझोर रहे हैं
मुर्दों की मालिश करते हैं
निर्वाचन के जादूगर हैं
राजनीति के मायाधर हैं
इनकी जयजयकार मनाओ
इनकी ही सरकार बनाओ
पीछे देखा जाएगा जी
आएगा जो, आएगा जी
भुगतें वैसी, करनी इनकी होगी जैसी
नहीं, नहीं, सो क्योंकर होगा ?
नहीं, नहीं, सो क्योंकर होगा ?
नहीं, नहीं, सो क्योंकर होगा ?
फिर क्या होगा !
फिर क्‍या होगा !
फिर क्या होगा !
9.11.79

तुमको केत्ता मिला है

सौ वर्ष पुरानी बुढ़िया
अपनी झोपड़ी के बाहर
सवेरे सवेरे
धूप सेंक रही थी
इधर-उधर लोग आ-जा रहे थे
मुझे उँगली के इशारे से
उसने रोका -
अस्पष्ट भाषा की
अवधी बोली थी :

'बाबू, क्या पाँच साल बाद
फिर वही खेल
खेलने आए हो आप लोग ?
दिल्‍ली से आए हो ?
चाँदी का गोल-गोल सिक्का
बिछाकर यह खेल खेलते हैं
इस बार भी क्‍या वही राजा बनेगा ?
क्या वही दरबारी होंगे ?
सच-सच बतलाना
तुमको केत्ता रुपया मिला है ?
कुछ हमको भी दिलवाना भइया !'
बुड्ढी का बकवास सुनने के लिए
हमारे पास वक्‍त नहीं था,
हम सरपट भागे
गौरीगंज वाली सड़क की तरफ !

(जनसत्ता / 5 नवम्बर, 89)

तुम्हें नींद नहीं आती

तुम्हें नींद नहीं आती
बीच-बीच में चौंक पड़ते हो
मिजोरम में अक्सर भुतहा आवाज उठती है
काजीरंगा का अभयारण्य
बाढ़ में डूबा रहा दस रोज
गैंडे और हाथी घुट-घुट कर मर गए
क्या तुमने उनकी सड़ी लाशें देखीं ?
इन मूक जन्तुओं की निष्प्राण काया
असम के तुम्हारे हवाई सर्वेक्षण की
परिधि में न आती थी, न आई।
अच्छा तो है तुम्हें नींद न आए
अच्छा तो है तुम चौंक-चौं'क पड़ो
तुम्हारी इस नट लीला के प्रति
मेरा कवि जरा भी हम दर्द नहीं...

(जनसत्ता / 5 नवम्बर, 89)

तेरा क्या-क्या होगा ?

तेरा क्या-क्या होगा ?
निरीह भोले !
तेरे को कभी पता नहीं चलेगा
तेरी इस छवि का,
तेरी उस छवि का,
क्या-क्या इस्तेमाल हुआ !
निकट भविष्य में
या दूर भविष्य में
कहाँ-कहाँ, कब-कब
तेरी इन छवियों का
कैसे-कैसे इस्तेमाल होगा,
तेरे को कभी पता नहीं चलेगा

लगभग भूखा ! लगभग नंगा तू
अभी क्या खाना चाहता है ?
पेट भर जाने पर
तू क्या-क्या पहनना चाहेगा ?
क्या-क्या ओढ़ना चाहेगा ?
पेट भर जाने पर
यों ही उलंग
तू भाग जाना चाहेगा
अपने सम-वयसी
उलंग साथियों के बीच
तू उन्हें दस पैसे पाँच पैसेवाला
यह ताजा सिक्‍का
नहीं दिखाना चाहेगा ?

(3.3.89)

ऊर्जा हमारी अखूट-असीम

मुँह की खाएँगे हमीं से
वर्ग शत्रुओं के अर्जुन और भीम
ऊर्जा हमारी
अखूट-असीम
फिर से महाभारत
जमा नहीं पाएँगे
दुःशासन-दुर्योधन
काम नहीं आएगा
गीतावाले सारथी का
छलिया प्रबोधन
अबकी करेंगे हम
महर्षि वेद व्यास का ही
सचमुच संशोधन
आत्मघात करेगा
सम्राट वो बूढ़ा अंधा
युधिष्ठिर तक नहीं देगा
अंधे ताऊ की अर्थी को कंधा
अन्त में
विदुर
करेगा
आत्मदाऽऽऽह !
किसी के मुँह से
निकलेगी नहीं आऽऽह !!

(3.12.84)

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