अग्निकण (कथावस्तु-जौहर) : श्यामनारायण पाण्डेय

Agnikan (Jauhar) : Shyam Narayan Pandey

"फूँक दो उस राष्ट्र को जहाँ स्वाभिमान पर मर मिटनेवाले पुरुष नहीं, आग लगा दो उस देश में जहाँ पातिव्रत की रक्षा के लिए धधकती आग में अपने को झोंक देनेवाली स्त्रियाँ नहीं और पीस दो उस समाज को जो अपना अधिकार दूसरों को सौंपकर बँधुए कुत्ते की तरह याचक आँखों से उसकी ओर देखता है । मैं यह इसलिए कहती हूँ कि मैं मानव हूँ मानव जाति की विशेषताओं को जानती हूँ, मैं उसके अधिकारों से परिचित हूँ और मुझे उसके कर्त्तव्यों का ज्ञान है। मानव कुत्ता-बिल्ली नहीं है कि डण्डों की चोट खाकर भूल जाय, चूँ तक न करे, हलवाहे का बैल नहीं है कि बार-बार गालियाँ सुनकर चुप हो जाय, कानों पर जूँ तक न रेंगे और काबुक का कबूतर नहीं है कि साग बनाकर कोई निगल जाय और डकार तक न ले । मानव तूफान है, जिसके उठने पर समग्र सृष्टि हिल उठती है । मानव भूडोल है, जिसके डोलने से ससागरा पृथ्वी काँप उठती है और मानव वज्र है जिसकी कठोर ध्वनि से आकाश का कोण-कोण दहल उठता है । मानव समुद्र पी गया, मानव ने सूर्य के रथ को रोक लिया और ब्रह्माण्ड को परिमित कर अपने मस्तिष्क में भर लिया । फिर भी वीरसू चित्तौड़ चुप है, चुप है शत्रु दल के वक्षस्थल चीरकर रक्त चूसनेवाली पुस्तैनी हिंसा-वृत्ति और चुप है वैरियों के शिर पर तलवारों के साथ घूमनेवाली मृत्यु"-रानी ने दरबारियों पर एक तीक्ष्ण दृष्टि डाली; सारा दरबार स्तब्ध, नीरव और निश्चल ।

वीर सती ने लम्बी साँस ली, भावनाओं के संघर्ष से वाणी गरज उठी-"तृणं शूरस्य जीवितम् ' शूर जीवन को तृण समझता है' । हथियारों के संघर्ष में, तलवारों की चकाचौंध में और लड़ते हुए वीरों के अव्यक्त कोलाहल में स्वाभिमान की रक्षा धीर करते हैं, अधीर नहीं; मृत्यु के खुले हुए मुख के सामने क्रुद्ध विषधरों के फणों को रौंदते हुए सपूत चलते हैं, कपूत नहीं; अपने पैरों की धमक से पृथ्वी को कँपाते हुए भाले बरछों की तीव्र नोकों से सीने अड़ाकर रण-यात्रा पुरुष करते हैं, कापुरुष नहीं । राजपूतों का स्वाभिमान वैरियों के कटे हुए सीनों के ऊपर खेलता है, उनका गौरव हथियारों की प्रखर धारों में चमकता है और उनकी वीर वाणी तोपों की गड़गड़ाहट में गरजती है ।

आखेट खेलते हुए रावल का शत्रु की हथकड़ियों में बँधकर कारागृह में बन्द रहना आश्चर्य नहीं है; आश्चर्य है उसकी मुक्ति, जो तुम्हारी तलवारों के साथ म्यानों में सो रही है और खो रही है उसकी शक्ति शोणित की गङ्गा बहा देने वाले तुम्हारे हथियारों की अतृप्ति में ।

माँ-बहनों की यह अवज्ञा और तुम्हारी यह मौन साधना, रावल के पैरों में बेड़ियों की झङ्कार और तुम्हारे नश्वर जीवन पर ममता का यह अत्याचार ! अपमानित गढ़ के पाषाणों में भी एक हलचल और बापा रावल के दल के सामने दलदल । वैरियों का ताल ठोंककर ललकारना और मेवाड़ केसरियों का माँद में घुसकर झख मारना ? धिक्कार है तुम्हारे बल को, धिक्कार है तुम्हारी रवानी को ! बापा रावल के जवानो, धिक्कार है तुम्हारी जवानी को !

क्षत्राणियों के सीनों का दूध कलङ्कित करके राजपूतों का जीना मृत्यु से भी भयङ्कर और घृणित है, मेवाड़ के वातावरण में साँस लेनेवालों के लिए प्रतिपक्षी की क्रुद्ध आँखें देखने के पहले ही हलाहल पी लेना अच्छा है, आँधी और तूफान से लड़नेवाले मेवाड़ी सिंह बिजली सी कौंधनेवाली तलवारों में घुसकर यदि शत्रुओं के शिर काटकर पहाड़ न लगा दें तो उनके लिए एक चुल्लू पानी ही काफी है ! बस और कुछ ?"

रानी का रोम-रोम जल रहा था, आँखों से चिनगारियाँ निकल रही थीं और मुख के द्वार से दावानल के समान ज्वाला।

जिस समय महारानी रावल की मुक्ति में देर होने के कारण राजपूतों पर मुख से शब्दों के अङ्गार फेंक रही थीं ठीक उसी समय राजघराने के दो बालकों की त्योरियाँ चढ़ रही थीं, सीने तन रहे थे, भुजाएँ फड़क रही थीं और बार-बार उनके दायें हाथ तलवारों की मूठों पर चले जा रहे थे ।

रानी की ललकार जारी थी-"बोलो राणा के वंशधरी, बोलो रावल के वंशधरो, रावल की मुक्ति के लिए यदि युद्ध से इन्कार करते हो तो बोलो, आँधी से अपनी तूफानी गति मिला दूँ ? महिषमर्दिनी महाकाली-सी गरजूँ ? और क्षण भर में ही वैरियों के कलेजे चीरकर रक्त चूस लूँ ? बोलो, शेषनाग की तरह करवट लूँ ? और पलक भाँजते सारी पृथ्वी को चूर-चूरकर धूल में मिला दूँ ! बोलो, महाप्रलयकालीन ज्वाला की तरह भभकूँ और बात की बात में सारी सृष्टि जलाकर भस्म कर दूँ ? उत्साह न हो तो बोलो, किसी सम्राट् में क्या, चराचर सर्जन कर्त्ता ब्रह्मा, देवाधिदेव विष्णु और गण के सहित भूताधिपति रुद्र में भी चित्तौड़ की प्रबल गोद से मुझे छीन लेने की शक्ति नहीं है । लोहे की तीखी और तप्त सलाखों के बीच से होकर जलती हुई आग को कपड़े में बाँधकर ले जाना सरल नहीं है, त्रिपथगा के प्रवाह को रोककर उल्टी धारा बहा देना खिलवाड़ नहीं है । आकाश से ध्वनि, पृथ्वी से गन्ध और अग्नि से ज्वाला को दूर करना कठिन है, असम्भव है ।"

'महारानी की जय' के निनाद से सारा दरबार काँप उठा । गोरा बादल की उद्दीप्त तलवारें चमक उठीं और तत्क्षण गोरा की विनीत वाणी में साहस उमड़ने लगा-धन्य है देवि ! तू धन्य है । तू ह्री, श्री और कीर्ति की तरह पवित्र और शक्ति की तरह बलवती है । निश्चय, तू अपने पातिव्रत के तेज से शत्रुओं को भस्म कर सकती है, सिंहवाहिनी की तरह शत्रु असुर को पैरों के नीचे दबाकर चूर कर सकती है और अपनी वरद भुजाओं के बल से रावल रतन को मुक्त कर सकती है, इसमें संदेह नहीं, किन्तु गोरा की तलवार की कब परीक्षा होगी ? माँ ! गोरा का अदम्य उत्साह और दुर्दमनीय साहस किस दिन काम आयेगा ? माँ ! तेरे गोरा के गर्जन और बादल के तर्जन से वैरी-दल पर बिजली कब गिरेगी ? माँ ! गोरा बादल तेरे सामने बाल, किन्तु शत्रुओं के लिए काल हैं। माँ ! तू आज्ञा दे गोरा बादल की दो ही तलवारें वैरियों को यमपुर पहुँचाने के लिए काफी हैं। देवि, तू इशारा कर हम दुश्मनों के ऊपर मौत की तरह दौड़ें, मेवाड़ के अपमान का बदला खून की नदी बहाकर लें, हम विद्युद्गति से निकलें और खिलजी के पड़ावों में आग लगा दें। देवि, आज्ञा दें तुझे हमारी शपथ है; देवि, इशारा कर तुझे मेवाड़ की शपथ है; देवि, क्षमा कर तुझे रावल की शपथ है ।' ― बादल ने गोरा के कहे हुए शब्दों की हुँकारी भरी और दोनों वीर बालक हाथ जोड़कर रानी के सामने खड़े हो गये । अपलक, अचल और दुर्निवार्य ।

अगणित तलवारों के भयङ्कर प्रकाश से दरबार प्रकाशित हो गया, वीर सलामी के बाद सहस्रों मुखों से एक साथ निकल पड़ा-"हम राजलक्ष्मी के पातित्रत की रक्षा के लिए मर मिटेंगे, हम अपने गौरव के लिए समर-यज्ञ में स्वाहा हो जायेंगे और रावल के त्राण के लिए प्राण दे देंगे। चित्तौड़ का वक्षस्थल अभिमान से तन गया और वीरों की दर्पपूर्ण शब्दावली से आकाश का स्तर स्तर गूँज उठा ।

रानी भभर उठी, बार-बार रोमाञ्च होने लगा, तमतमाये मुख पर प्रसन्नता प्रस्फुटित हो गयी और अन्तर की मौन कल्पनाएँ मुखरित हो उठीं-

"वीरो, तुम्हारी प्रतिज्ञा मेवाड़ भूमि के अनुरूप ही है, किन्तु 'शठे शाठ्यं समाचरेत्' वाली कहावत कहीं व्यर्थ न पड़ जाय इसलिए तुम वैरी को सूचित कर दो कि 'आपके आज्ञानुसार हमारी महारानी अपने पति को मुक्त करने के लिए सात सौ सहेलियों के साथ कल प्रातःकाल पड़ाव पर पहुँच जायेंगी और इधर मखमली उहारों के साथ रात भर में सात सौ डोले तैयार कर दिए जायँ । एक एक डोले के भीतर सशस्त्र एक एक राजपूत और प्रत्येक डोले के चारों कहारों के वेष में मेवाड़ के सपूत, जो वैरियों के लिए यमदूत से भी भयङ्कर हों ।”

'महारानी की जय' के निनाद से एक बार फिर दरबार काँप उठा ।

प्रभात का समय था, कोयल के मीठे स्वर से प्रकृति मधुर हो रही थी । अनेक रूप-रंग के परिंदे दिनराज के स्वागत में प्रभाती गा रहे थे । मलयानिल से आलिङ्गित कलियों की मुसकान पर भौंरे नाच रहे थे, सुगन्धित पवन के गले मिल-मिल झूमती हुई आम्रशाखाओं से बौर झर रहे थे और पतझड़ के पीले पत्तों के बिछौनों पर महुए के फल टपटप गिर रहे थे, जैसे किसी के आँसू । इसी समय 'महारानी की जय' की तुमुल ध्वनि के बीच वीर दुर्ग का विशाल लौह फाटक खुला, वीर कहारों ने डोलियाँ उठायीं । क्षण भर बाद लोगों ने देखा कि चित्तौड़ के चक्करदार और ढालू पथ से कतार बाँधकर सात सौ डोले गोरा-बादल के नायकत्व में बड़ी लगन के साथ उतर रहे हैं। देखते ही देखते लाल-लाल मखमली उहारों के डोले शाही डेरों के पास पहुँच गये । अलाउद्दीन प्रसन्नता से उछल पड़ा और काजी को बुलाने के लिए आतुर हो उठा । उसे क्या पता था कि डोलों के भीतर उसके और उसके साथियों के काल बैठे हैं । पड़ाव के सामने बड़ी सावधानी से एक ओर डोले रखकर घाती कहार खड़े हो गये। एक बार तिरछी आँखों से तलवारों की ओर देखा, किन्तु तत्क्षण सजग ।

गोरा ने खिलजी के निकट जाकर कहा "लोक सुन्दरी हमारी महारानी, जो इस समय आपके हाथों में है, निकाह होने के पूर्व अपने पति रावल रतनसिंह से एक घड़ी तक मिल लेना चाहती हैं, मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप उसके अन्तिम मिलन की उत्सुकता का आदर करेंगे ।" डोलों के आने से अलाउद्दीन इतना मस्त हो गया था कि उसे अपने तन मन की भी सुध न थी । दाढ़ी के अधपके बालों पर हाथ फेरते हुए उत्तर दिया-"प्यारे राजकुमार, तुम्हारी बात और प्यारी की इच्छा दोनों मंजूर है। रावल छोड़ दिया जाएगा।" खिलजी के शब्द गोरा के हृदय में तीर की तरह धँस गये । क्रोध से आँखें लाल हो गयीं, भौंहें तन गयीं और अनायास उसका दायाँ हाथ बगल में छुरे पर चला गया । किन्तु बुद्धिमान् गोरा सँभल गया । रावल रतनसिंह मुक्त कर दिये गये और मुक्ति के दूसरे ही क्षण चित्तौड़ के सुरक्षित दुर्ग पर रानी से कारा की कहानी कह रहे थे जहाँ पहुँचना शत्रु क्या काल के लिए भी कठिन था। घड़ी दो घड़ी बाद भी जब रानी से रावल के मिलने का समय नहीं बीता, तब खिलजी बौखला उठा । क्रोध से रोम-रोम जलने लगा और उसके खूनी हाथों में नंगी तलवार चमक उठी-मौत की तरह । हड़बड़ाकर उठा और जाकर रानी के कृत्रिम डोले का परदा उठा दिया । उसमें उसे पद्मिनी नहीं मिली, न रावल ही; बल्कि एक सशस्त्र राजपूत उसकी ओर काल की तरह लपका । पैर के नीचे भयङ्कर साँप के पड़ जाने से जैसे कोई पथिक चिल्ला उठता ठीक उसी तरह चिल्लाकर वह भागा । उसका चिल्लाना था कि उसके सिपाहियों की सहस्रों तलवारें डोलों की ओर लपकीं, कहारों ने भी हथियार उठाये, घोर कोलाहल के बीच घमासान आरम्भ हो गया ।

जहाँ एक क्षण पहले मङ्गलगान की आशा थी, वहाँ मृत्यु का नग्न ताण्डव होने लगा। एक दूसरे को काटते हुए वीरों के गर्जन से आसमान फटने लगा । लाशों पर लाशें बिछ गयीं । रुधिर की टेढ़ी-मेढ़ी नदियाँ मुरदों को बहाती बढ़ चलीं । खिलजी सेना को व्याकुल देख राजपूतों की हिंसा-वृत्ति जागरित हो उठी, वे बड़े उत्साह से शत्रुओं को काट-काटकर गरजने लगे । राजपूत तो लड़ ही रहे थे, गोरा बादल के साहस और रण-कौशल को देखकर बड़े-बड़े रण-विशारद चकित थे । रुक-रुककर दोनों ओर के सैनिक बालकों के युद्ध देख रहे थे, आश्चर्य से आँखें फाड़-फाड़कर । वे जिधर रुख करते थे उधर भेड़ों और बकरियों की तरह शत्रु भागते थे। दोनों बालक वैरियों को दो काल की तरह मालूम पड़ते थे —-निःशङ्क, निर्भीक और दुर्द्धर्ष ।

शत्रुओं के पैर उखड़ गये, किन्तु यह क्या ! भगदड़ में ही गोरा घिर गया, सैकड़ों तलवारें उसके शरीर पर चमक उठीं और बात की बात में उसकी बोटी बोटी काटकर अलग कर दी गयी । उछलती और नाचती हुई उसकी शत-शत बोटियों से शब्द निकल पड़े-"वीरो, अपने देश के गौरव पर, अपनी जाति के सम्मान पर कुल बधुओं के पातिव्रत पर और स्वाभिमान पर मर मिटो ! वीरो, धर्म के ऊपर बलि हो जाना राजपूतों का जन्मसिद्ध अधिकार है। वीरो, वीर सती के चरणों में गोरा का प्रणाम कह देना ।"

शत्रु तो भाग ही रहे थे, दिल्ली पहुँच गये; किन्तु चित्तौड़ की सूर्याङ्कित पताका के नीचे वीरवर गोरा का बलिदान हो गया। कोई बतला सकता है क्यों और किस लिए ?

रात्रि के नीरव प्रहर में दुर्ग की छाती पर एक चिता जल रही थी, जल रही थी उसकी चढ़ती हुई जवानी और उमड़ता हुआ सौन्दर्य ।

लोग अश्रुपूर्ण और भयातुर नेत्रों से चिता की ओर देख रहे थे-अचल, स्तब्ध और निर्वाक् । देखते ही देखते मानव-शरीर के स्थान पर थोड़ी-सी राख रह गयी। चित्तौड़ के निवासियों ने मौन-मौन उसे उठाया और शिर से लगा लिया । दुर्ग के उस कठोर और पथरीले सीने पर अब भी राख के कुछ कण होंगे ? यदि होते तो ..!

चित्तौड़ के कहारों से दिल्ली के सम्राट् अलाउद्दीन खिलजी का पराजित होकर लौट जाना कम अपमान की बात न थी, अब तो उसके लिए यही उचित था कि वह पद्मिनी के नाम से ही भागता, किन्तु उस रूपलालची दानव की इच्छा बलवती ही होती गयी। वह इतना कठोर और नृशंस था कि उसका नाम लेकर माताएँ अपने रोते हुए बच्चों को चुप कराती थीं । उसके फाटकों पर खून चूते हुए कटे शिर टंगे रहते थे, तड़प-तड़पकर किसी को मरते देख-कर उसे बड़ा आनन्द मिलता था। वह किसी भी जंगली हिंस्र जन्तु से अधिक खूँखार था । उसके वस्त्रों में खून के दाग लगे रहते ।

यह सब होते हुए भी उसमें एक बान थी, अच्छी या बुरी । वह जिस काम को हाथ में लेता था, बार-बार मार खाकर भी उसे पूरा करना जानता था । यद्यपि उसे चित्तौड़ के रण-बाँकुरों से बुरी तरह हार खानी पड़ी तो भी उसका मन टूटा नहीं, उसने अपने वैभव की ओर देखा, विशाल सेना की ओर दृष्टि डाली और अपने बल का अन्दाजा लगाया । इसके बाद चित्तौड़ पर उसने अपने सामन्तों के चढ़ाई करने का निश्चय कर लिया । निश्चय ही नहीं, सामने प्रतिज्ञा की कि बिना विजय के लौटना हराम समझूँगा । चित्तौड़ को ध्वंस किये बिना जीते जी मैं दिल्ली में पैर नहीं रक्खूँगा और राजपूतों के खून से नहाये बिना जो कोई लौटेगा उसकी बोटी-बोटी काटकर कुत्तों के सामने डाल दूँगा, उसकी वह भीषण प्रतिज्ञा मौत की ललकार की तरह रानी के कानों में पड़ी, जैसे किसी ने पिघला हुआ राँगा डाल दिया हो । वह तिलमिला उठी । मौत के डर से नहीं, रावल की विरह वेदना से।

महारानी पद्मिनी भी शत्रु को हराकर निश्चिन्त नहीं हो गयी थीं बल्कि रात-दिन उसके आक्रमण की प्रतीक्षा ही कर रही थीं। वह अपने पति के मुख से उसके स्वभाव को सुन चुकी थी, उसकी पशुता से अनभिज्ञ नहीं थी और न उसकी निर्दयता से अपरिचित ही । वह जानती थी कि एक न एक दिन उसका आक्रमण होगा जो चित्तौड़ की नींव तक हिला देगा ।

वह सिहर उठती थी, ईश्वर की शरण में जाती थी और रावल का विरह सोचकर कराह उठती थी, किन्तु अन्तःकरण की प्रबलता उसके निर्मल मुख पर शीशे के भीतर दोप की तरह झलकती थी— स्पष्ट, अविकार और निर्मल ।

रात्रि का दूसरा प्रहर बीत रहा था, तरुतरु पात-पात में नीरवता छायी थी, नियति तृणों पर मोतियों के तरल दाने बिखेर रही थी, कुहासा पड़ रहा था, चाँद के साथ तारे छिप गये थे, मानो आँचल से दीप बुझाकर निशा सुन्दरी सो रही थी – मौन, निश्चल और निस्तब्ध ।

चित्तौड़ के पूर्व चित्तौड़ी नाम की एक छोटी-सी पहाड़ी है, दुर्ग से बिल्कुल सटी हुई । चित्तौड़ तीर्थ के यात्री जब कभी दर्शन के लिए उस पवित्र दुर्ग पर जाते हैं तब एक दृष्टि उस पहाड़ी पर भी डाल लेते हैं किन्तु दूसरे ही क्षण घृणा से मुँह फेर लेते हैं क्योंकि उनके सामने सात सौ वर्ष पूर्व का इतिहास नाचने लगता है-सौ सौ रूपों से । अलाउद्दीन की नृशंसता, राजपूतों का बलिदान और जौहर की धधकती आग ...। दर्शन के बाद जब यात्री चित्तौड़ के चक्करदार रास्ते से उतरने लगते हैं तब उनकी पवित्र भावनाओं के साथ पीड़ा सटी रहती है—जीवन के साथ मृत्यु की तरह ।

उस अन्ध रजनी में सारी सृष्टि सो रही थी, किन्तु अलाउद्दीन अपने सिपाहियों को ललकार-ललकारकर चित्तौड़ी पर कङ्कड़-पत्थरों का ढेर लगवा रहा था, इसलिए कि वह चित्तौड़ की ऊँचाई पा जाय । वही हुआ, थोड़े समय के परिश्रम से वह इतना ऊँचा हो गया कि उस पर से चित्तौड़ के छोटे छोटे जीव भी दिखाई देने लगे । उस पर उसने गोले बरसानेवाली तोप रखवायीं । भय से चित्तौड़ काँप उठा ।

अलाउद्दीन ने दूसरे दिन चित्तौड़ पर बड़े वेग से आक्रमण किया । राजपूत भी असावधान न थे । युद्ध आरम्भ हो गया, चित्तौड़ी पर की भीमकाय तोपें गरज-गरजकर राजपूत-दल का संहार करने लगीं। जीवन की ममता छोड़कर राजपूत भी शत्रुओं के शोणित से नहाने लगे । पाषाणों में बल खाती हुई रक्त की धाराएँ निकल पड़ीं । सिंहद्वार के युद्ध में राजपूतों ने वह साहस और वीरता दिखलायी कि उनके दाँत खट्टे हो गये, दुर्ग में घुसना उनके लिए कठिन ही नहीं असम्भव हो गया । पैतरे देते और तलवारें भाँजते हुए वीर केसरियों का लोमहर्षण संग्राम देखकर शत्रुओं का साहस ढीला पड़ गया । जैसे जैसे राजपूतों की वीरता का परिचय मिलता वैसे वैसे विजय के बारे में उन्हें सन्देह होने लगा ।

दूसरी ओर चित्तौड़ी की तोपें आग उगल रही थीं, चित्तौड़ के मकान तड़ तड़ के भैरवनाद के साथ धाँय धाँय जल रहे थे । अनाथ की तरह । हथसारों में बँधे हाथी और घुड़सारों में बँधे घोड़े खड़े-खड़े झुलस गये । गड़गड़ाकर गोले गिरे, भूडोल की तरह चित्तौड़ की नींव हिल उठी, बड़ी बड़ी अट्टालिकाएँ जड़ से उखड़ गयीं, मन्दिरों के साथ देव मूर्त्तियों के टुकड़े-टुकड़े हो गये। मानवता के सीने पर दानवता ताण्डव कर रही थी, गढ़ का चीत्कार तोपों की गड़गड़ाहट में विलीन हो गया। चित्तौड़ के दुर्ग से आकाश तक धूल ही धूल, धूम ही धूम । मानो उनचासो पवन के साथ अनेक बवंडर उठे हों । तलवारों और बरछों से युद्ध करनेवाले किंकर्त्तव्यविमूढ़ राजपूत दुर्ग के ऊपर प्रलय का कोप देख रहे थे। उनकी विकल आँखों में एक बूँद आँसू भी नहीं था, न मालूम क्यों ?

सन्ध्या हुई, रजनी ने अपनी काली चादर तान दी, कलमुँही रात का घोर अन्धकार दिशाओं में फैल गया और आकाश अपनी अगणित आँखों से दुर्ग का भयानक दृश्य देखने लगा ।

बापा रावल से बीसवीं पीढ़ी में रणसिंह नाम के एक बहुत पराक्रमी राजा हो गये हैं। उनसे रावल और राणा नाम की दो शाखाएँ फूटीं, रावलवंशीय रतनसिंह चित्तौड़ के अन्तिम शासक थे और राणा शाखावाले सीसोदे की जागीर पाकर वहीं राज करते थे । वहाँ के अधिपति लक्ष्मणसिंह, रावल रतनसिंह से दूध पानी की तरह मिले थे, अलाउद्दीन से दोनों मिलकर लड़ रहे थे, दोनों के जन-बल से चित्तौड़ की रक्षा की जा रही थी ।

आधी रात का समय था, प्रकृति निद्रा के अंक में लय हो रही थी, सर्वत्र निस्तब्धता छायी थी, झींगुरी के भी गायन बन्द थे । राणा लक्ष्मण सिंह अपने शयनागार में चित्तौड़ के गौरव की चिन्ता से व्याकुल हो रहे थे, पलंग पर निस्तेज सूर्य की तरह पड़े थे, बार-बार करवटें बदल रहे थे, नींद कोसों दूर थी । सोच रहे थे किस तरह बापा के गौरव की रक्षा होगी, किस तरह इस आगत विपत्ति से चित्तौड़ का उद्धार होगा और किस तरह एक क्षत्राणी के पातिव्रत का तेज रहेगा । उनकी चिन्ता क्षण क्षण बढ़ती जा रही थी उनकी आँखों में नींद नहीं, आँसू थे । इतने में निशीथिनी की निद्रा भङ्ग करते हुए किसी के गम्भीर कण्ठ से शब्द निकला-" मैं भूखी हूँ" । राणा का रोम-रोम सिहर उठा, कलेजा काँपने लगा । हड़बड़ाकर उठे और पलंग पर बैठ गये, उनकी चपल आँखें कमरे में दौड़ने लगीं, क्षण भर बाद उन्होंने देखा कि द्वार के एक किवाड़ का सहारा लिये चित्तौड़ की अधिष्ठात्री देवी खड़ी है। राणा उठकर खड़े हो गये और हाथ जोड़कर गद्गद कण्ठ से बोले -"इतने राजपूतों के रक्त से भी तेरी भूख नहीं मिटी ? तेरी प्यास नहीं बुझी ? हाय !" उत्तर मिला—" नहीं मैं राजरक्त चाहती हूँ", यदि तेरे राजकुमार एक एक कर युद्ध में नहीं उतरेंगे तो मेवाड़ से बापा रावल की कीर्त्ति इस बवंडर के साथ ही धूल की तरह उड़ जायेगी" । देवी अर्न्तधान हो गयीं और उनकी आज्ञा राणा के कलेजे में नेजे की तरह धँस गयी। दीवालों पर पढ़ा-'नहीं, मैं राजरक्त चाहती हूँ; कानों में गूँज रहा था-'नहीं मैं राजरक्त चाहती हूँ' ।

प्रातःकाल होते ही राणा लक्ष्मणसिंह ने अपने पुओं को बुलाया और रात की सारी घटना कह सुनायी । विषाद के बदले वीर राजकुमारों के मुखमण्डल पर प्रसन्नता फूट पड़ी। क्यों न हो; वीर कलङ्क से डरते हैं, मौत से नहीं । युद्ध भूमि मे जाने के लिए उतावले हो उठे, वे एक दूसरे से लड़ पड़े कि 'पहले मैं जाऊँगा । यह देखकर राणा का भी हृदय उत्साह से भर गया । उस वीर ने एक दिव्य मुसकान के साथ समझा-बुझाकर सबको शान्त किया । बड़े होने के कारण अपने पुत्र अरिसिंह की पीठ ठोंकी, राजमुकुट पहनाया और तिलक देकर युद्ध के लिए भेज दिया । अपनी तीखी तलवार से असंख्य शत्रुओं के सिर काटते वे मौत के खुले मुख में हथियार लिये ही घुस गये । इस तरह एक एक कर जब सात राजकुमार वैरियों की कराहती लाशों पर अपनी अन्तिम साँस ले चुके, तब सबसे कनिष्ठ पुत्र अजयसिंह ने शत्रुओं को ललकारा किन्तु अगणित वैरियों के हाहाकार में एक की ललकार ही क्या । विकट संग्राम करने के बाद किसी शत्रु की तलवार की चोट से घायल होकर गिर पड़े। राजपूतों ने सुरंग द्वारा उन्हें केलवाड़े के सुरक्षित पहाड़ों में भेज दिया । यदि उनकी चोट और गहरी हो जाती तो....।

राजकुमारों के बलिदान से राणा लक्ष्मणसिंह की भुजाओं में असीम शक्ति बढ़ गयी, जर्जर शरीर में एक बार यौवन फिर लौट आया । खूनी आँखें दिशाओं में घूम गयीं, उन्मत्त सिंह की तरह पैतरे बदलते हुए मैदान में उतर पड़े । भयङ्कर साँप की तरह फुफकारती हुई उनकी तलवार बढ़ी, मैदान साफ । सामने उछलती कूदती हुई लाशों का दृश्य भयावह हो गया । किन्तु खिलजी-दल की बाढ़ में अधिक देर तक टिक न सके । शत्रुओं के कण्ठों से तलवार निकालते हुए समर के यज्ञ में अपनी एक आहुति और बढ़ा दी। देवी के चरणों पर एक शिर और चढ़ा दिया । चित्तौड़ की राष्ट्रीय पताका काँप उठी और हिल उठा सिसोदिया का अजेय सिंहासन ।

सन्ध्याकाल की लाली धीरे धीरे मिट रही थी और उस पर निशा कालिख पोत रही थी, बड़ी लगन के साथ । न मालूम क्यों ! आकाश पर तारे झिल-मिला रहे थे मानो काली चादर पर किसी ने बेलबूटे काढ़ दिये हों ।

देश के गौरव और जाति के सम्मान के लिए राणा लक्ष्मणसिंह के स्वाहा हो जाने के साथ-साथ प्रजोवर्ग का रहा सहा साहस भी जाता रहा, उन्हे विश्वास हो गया कि निकट भविष्य में चित्तौड़ की हार निश्चित है इसलिए चित्तौड़ के निवासी नगर के खंडहरों से निकलकर एक टीले पर इकट्ठे हो गये, विमन विमन, मौन-मौन ।

महारानी पद्मिनी जिसके पवित्र किन्तु घातक सौन्दर्य ने चित्तौड़ को धूल में मिला दिया, चन्द्र-ज्योत्स्ना -सी राजमहल से निकलीं, जाति-धर्म की रक्षा के लिए मरे हुए शहीद पर फूल चढ़ाती और विदा के गीत गाती हुई रावल रतनसिंह के साथ वहाँ पहुँची जहाँ वीर देश की प्रजा चिन्ता-सागर में डूब-उतरा रही थी; उन्हें न कोई पथ मिल रहा था, न पथ प्रदर्शक ।

'महारानी की जय' के निनाद से रात्रि का नीरव वातावरण मुखरित हो उठा । दुख और चिन्ता की जगह साहस उमड़ने लगा । रंगों में रक्त की गति तीव्र हो गयी, क्षण भर बाद रानी की निर्भीक वाणी गरज उठी-"धर्म की बलिवेदी पर बलि हो जाना चित्तौड़ ने सीखा है और किसी देश ने नहीं, मा-बहनों के सम्मान पर मिट जाना राजपूतों ने समझा है और किसी जाति ने नहीं और स्वाभिमान के रक्षण के लिए जीवन को तृण की तरह बहा देना बापा रावल के वंशज जानते हैं, दूसरे नहीं । तुम्हारे गौरव की गाथा पवन के हिंडोले पर झूलती रहेगी और वीरता की कहानी दिशाओं में गूँजती रहेगी-रामायण और महाभारत की तरह ।

राजपूतों के लिए तो युद्ध ही शिवपुरी और वाराणसी है, स्वर्ग तक सीढ़ी लगा दो, तुम्हारे स्वागत के लिए देव आतुर हो उठे हैं। वीरो, आगे से तुमको मुक्ति बुलाती है और पीछे मुँह बाये भयङ्कर नरक खड़ा है। बोलो, आगे बढ़ोगे कि पीछे हटोगे ? नरसिंहों, गढ़ की काली रूठ गयी है, अब दुर्ग की रक्षा हो नहीं सकती, हाँ उसका गौरव तुम्हारे साहस की ओर देख रहा है, शत्रु की असंख्य वाहिनी की विजय मुट्ठी भर राजपूतों की वीरता से दब जायेगी, इसलिए एक बार फिर साहस करो, आन की रक्षा के लिए एक बार फिर हुंकार करो, नारियों के पातिव्रत के लिए और एक बार फिर गरजो, कुल की मर्यादा के लिए । सफलता जीवन और मृत्यु के उस पार है ।

क्षत्रियों के आत्मबल की और क्षत्राणियों को दृढ़ता की कठिन परीक्षा अब है । अब तक का युद्ध तो खिलवाड़ था, यह तो चित्तौड़ का नित्यकर्म है । तुम्हारे सौभाग्य से कर्त्तव्य अब आया है, पालन करोगे ? बोलो तो !”

अनेक दृढ़ कण्ठों से निकल पड़ा-"हाँ, राजलक्ष्मी की आज्ञा शिर आँखों पर।"

"वीरो, चित्तौड़ की भूमि कृतार्थ हुई । जौहर के लिए सन्नद्ध हो जाओ । आबाल-वृद्ध राजपूत केसरिया बाना पहन और हाथों में नंगी तलवार लेकर अन्तिम बार दुर्ग के बाहर निकल पड़े, मिटने और मिटाने के लिए। लेकिन यह याद रहे यदि फाटक के भीतर एक भी राजपूत का बच्चा रह जायेगा तो व्रत भङ्ग होने का भय है और क्षत्राणियाँ धधकती हुई चिता की भयङ्कर ज्वाला में कूद पड़ें। दीपशिखा पर पतंगों की तरह । स्वाभिमानी राष्ट्रों के सामने एक आदर्श के लिए । पुरुषों के व्रत में सबसे आगे मेरे पतिदेव और नारियों के व्रत मैं मैं रहूँगी । स्वाभिमान की रक्षा के लिए एक यही उपाय है, बस !"

महारानी और रावत के व्योम-विदारक जय-निनाद से चित्तौड़ी की तोपें दहल उठीं ।

जौहर का हृदय-द्रावक कार्य आरम्भ हो गया । राजपूतों ने कठिन परिश्रम कर धूप, चन्दन, आम और गुग्गुल की सुगन्धित लकड़ियों की एक विशाल चिता बनायी । उस पर मनों घी, तेल आदि अनेक दह्य पदार्थ छिड़क दिये गये । बात की बात में चिता से सटकर एक ऊँचा चबूतरा बन गया ताकि उस पर चढ़कर देश की वीराङ्गनाएँ चिता की प्रचण्ड लपटों में कूद-कूदकर जौहर व्रत की साधना करें । वीर राजपूत केसरिया वस्त्र धारण कर चिता के चारो ओर बैठ गये। उनकी बगल में नंगी तलबार और सामने शाकल्य, घी, खीर आदि हवन के सामान थे। चिता में आग लगा दी गयी और स्वाहा स्वाहा कर भयद और करुण मन्त्रों से आहुति देने लगे, अग्नि की भयावह लपटें खीर खातीं और घी पीती हुई आकाश की ओर बढ़ चलीं ।

इधर चित्तौड़ की वीराङ्गनाओं के साथ वीर सती पद्मिनी ने श्रृङ्गार किया । माथे पर सिन्दूर चमक उठा, पैरों में महावर की लाली दमक उठी, शरीर से सौन्दर्य फूट पड़ा, शत-शत प्रकाश से । किसी ने कहा लक्ष्मी, किसी ने सरस्वती किन्तु वह न लक्ष्मी थी न सरस्वती, वह थी पद्मिनी जो मेधा, धृति और क्षमा की तरह पवित्र, अपने ही समान सुन्दर । पूजा की थाली लेकर वह दुर्ग की वीर नारियों के साथ शिव मन्दिर की ओर चली ; तारों में चाँद की तरह, घनमाला में बिजली की तरह ।

कुल-वधुओं ने शिव प्रतिमा का तो दूर से ही अभिवादन किया, किन्तु पार्वती के चरणों पर सबकी सब गिरकर रोने लगीं"-माँ, दक्षयज्ञ के हवन-कुण्ड में जिस साहस से कूद पड़ीं वही साहस हम अबलाओं को दे ।" पाषाण की प्रतिमा पसीज उठी । देवताओं ने नारियों पर फूलों की वर्षा की ! सतियाँ चिता की ओर चल पड़ीं ।

पृथ्वी वेदना के भार से दबी जा रही थी, चित्तौरवासियों की दशा पर प्रकृति फूट-फूटकर रो रही थी । मारुत तीव्रगति से भागा जा रहा था, यामिनी चीख रही थी, तारे गगन पर काँप रहे थे और दिशाएँ त्राहि-त्राहि पुकार रही थीं, किन्तु उस समय चित्तौड़ निवासियों को कोई देखता तो आश्चर्य में डूब जाता । उनके मुख-मण्डल पर विवाद का कोई चिह्न नहीं था । वे हर्ष से उत्फुल्ल हो रहे थे।

देखते ही देखते पद्मिनी अपनी सहचरियों को लेकर चबूतरे पर खड़ी हो गयी। भाई ने बहन को, पुत्र ने माता को, पिता ने कन्या को और पति ने पत्नी को देखा, किन्तु जैसे के तैसे स्थिर रहे । हिल न सके । पारिवारिक प्रेम को देश के प्रेम ने दबा दिया ।

महारानी ने पहले अग्नि की पूजा की। इसके बाद हवन करते हुए राजपूतों पर दृष्टि डाली, वह्नि की प्रचण्ड लपटों पर आँखें फेरीं और अनन्त आकाश की ओर देखा । राजपूतों ने साँस रोक ली, तारे गगन की छाती से चिपक गये और दिशाएँ सिहरकर दबक गयीं । राजपूतों के साथ रावल ने काँपते हुए हाथों से चिता में घी डाला और चरु की आहुति दी। आग हाहाकार करती हरहराती हुई पद्मिनी का रूप ज्वाला में पचाने के लिए आकाश की छाती जलाने लगी । इधर राजपूतों के शत-शत कण्ठों से स्वाहा स्वाहा का कम्पित स्वर निकला, उधर रूप-यौवन के साथ पद्मिनी का शरीर घास-फूस की तरह जलने लगा । अब देर क्या थी वीर ललनाएँ एक पर एक आग में कूद-कूदकर मौत को ललकारने लगीं ।

आसमान टूटकर गिरा नहीं, चाँद फूटकर गिरा नहीं, पृथ्वी फटी नहीं, दुनिया घटी नहीं, किन्तु चित्तौड़ की वीर नारियाँ जलकर राख हो गयीं । सतीत्व की रक्षा का अमोघ अस्त्र मृत्यु है ।

अपनी माँ-बहनों को इस तरह मृत्यु के मुख में जाते हुए देखकर राजपूतों को आँखों से चिनगारियाँ निकलने लगीं, भौंहें तन गयीं और चेहरे तमतमा उठे, आग सहित चिता की राख को शरीर में मल लिया ।

नंगी तलवारें आकाश में चमचमायीं और दूसरे ही क्षण वे अपने गौरव की रक्षा के लिए घायल सिंह की तरह वैरी-दल पर टूट पड़े और गाजर-मूली की तरह काटने लगे। दोनों ओर के वीर आँखें मूँदकर तलवारें चला रहे थे । मुरदों से भूमि पट गयी । अरि-दल चकित और चिन्तित हो उठा, किन्तु अलाउद्दीन की विशाल सेना के सामने सौ-पचास राजपूतों की गणना ही क्या। उनका सारा पौरुष रक्त के रूप में बहने लगा । प्रत्येक राजपूत अपनी अन्तिम साँख तक लड़ता रहा । किसी ने भी अपनी जीवन-रक्षा कर अपने को तथा चित्तौड़ को कलङ्कित नहीं किया । जौहर का भयङ्कर व्रत समाप्त हो गया ।

राजपूतों के शोणित की वह गङ्गा दो दिन में सूख गयी होगी और चिता की वह आग भी बुझ गयी होगी, किन्तु वह गरम रक्त अब भी रगों में प्रवाहित है और वह आग आज भी हृदय में धधक रही है । बुझे तो कैसे ?

एक रूप-पिपासित हृदय-हीन व्यक्ति के कारण रावल-वंश की इतिश्री हो गयी । चित्तौड़ का उत्फुल्ल नगर भयङ्कर और वीरान हो गया। भारत के और रजवाड़े कान में तेल डालकर पड़े रहे । किन्तु चित्तौड़ के बलिदान की पवित्र कहानी आज भी दिशाओं में गूँज रही है ।

अपनी मातृ भूमि की रक्षा के लिए एक एक कर सभी राजपूतों के मारे जाने पर अलाउद्दीन चित्तौड़ में घुसा । उसके भाले की नोक पर रावल रतन-सिंह का शिर लटक रहा था, उसके साथी नंगी तलवार लिये पीछे पीछे चल रहे थे। सबके सब ऊपर से तो निर्भीक थे, किन्तु उनका अन्तर मुरदों से काँप रहा था, किसी भी मुरदे की खुली आँख देखकर चौंक पड़ते थे । राज-पूतों की वीरता का प्रभाव उनके मिट जाने पर भी शत्रुओं के हृदय में विद्यमान था। टूटे खंडहरों में, सूने घरों में और भग्न मन्दिरों में शहीदों की लाशें सड़ रही थीं । जन-शून्य पथ पर और सुनसान चौराहों पर मुरदे बिखरे पड़े थे।

उन अभागों को कफ़न भी नहीं मिल सका और न कुल में कोई संस्कार करनेवाला ही बच्चा । खूनों से लथपथ सो रहे थे, उनके मुँह पर सरपत के साथ आग क्या किसी ने एक चिनगारी भी नहीं रखी, उन्हें चील कौए गीध और स्यार फाड़-फाड़कर खा रहे थे, जगह-जगह पर गड्डों में रक्त जम गये थे, झगड़ते हुए कुत्ते उन्हें लपर लपर चाट रहे थे। बड़ा ही भयानक दृश्य था, बड़ा ही लोमहर्षण ।

पद्मिनी को खोजते हुए अलाउद्दीन ने चारो ओर बिखरे हुए मुरदों को देखा, लेकिन वह मुसकराकर रह गया, बोला नहीं ।

एक ओर चिता से धीरे धीरे धुआँ निकल रहा था । चमड़ों के सनसनाने, चर्बी के फसफसाने, मांस के सीझने और हड्डियों के चटखने के अशिव-नाद से चित्तौड़ का मौन भङ्ग हो रहा था, हवा के साथ दुर्गन्ध दूर दूर जा रही थी : जौहर का सन्देश लेकर ।

अलाउद्दीन उन्मत्त की भाँति पद्मिनी को ढूँढ़ रहा था, लेकिन उसे पद्मिनी नहीं मिली । वह चाहता था किसी से उसका पता पूछना किन्तु चित्तौड़ के उस विशाल नगर में उसे एक भी जीवित प्राणी नहीं मिला, जो उससे पद्मिनी की चर्चा करता । घूम-घूमकर देखा लेकिन निराश । वह व्याकुल हो उठा । अपना क्रोध बिखरे हुए मुरदों पर उतारना ही चाहता था कि मुरदों में घूमती हुई अचानक उसे बुढ़िया मिली । उसने पूछा “जिसके लिये मैंने चित्तौड़ को धूल में मिला दिया, वह विश्वमोहिनी पद्मिनी कहाँ है ? उसका क्या पता है ? बताओ, एक एक अक्षर पर एक एक मणि दूँगा ।"

प्रश्न सुनकर बुढ़िया की आँखों में आँसू आ गये, फटे आँचल से आँखें पोछकर चिता के धूम की ओर इशारा किया । आतुर अलाउद्दीन की उत्सुक आँखें चिता के दुर्गन्धित धुएँ की ओर उठीं, लेकिन यह क्या, अलाउद्दीन काँप क्यों रहा है, पसीने से तर क्यों हो गया और उसके हाथ का भाला रावल रतनसिंह का शिर लिये जमीन पर उन से गिरा क्यों ?

चिता के धूम से ज्योति और ज्योति से हाथों में कटार लिये महारानी पद्मिनी भैरवनाद कर अलाउद्दीन की ओर बढ़ी, उसकी हिंसक आँखों से चिनगारियाँ निकल रही थीं। वह पापी भय से चिल्ला उठा, उसकी चिल्लाहट से मुरदों को फाड़ते हुए कुत्ते चौंककर भूँकने लगे । प्राण-रक्षा के लिए कातर आँखों से बुढ़िया की ओर देखा, किन्तु बुढ़िया की जगह पर सिंहवाहिनी अष्टभुजी तड़प उठी । खून की प्यासी तलवार उसकी गर्दन पर गिरने ही वाली थी कि उसकी आँखें बन्द हो गयीं । मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। उसकी सारी कामनाएँ उसके मुँह से गाज होकर निकलने लगीं । साथ के सिपाही उस जीवित मुरदे को उठाकर दिल्ली ले गये । उस हृदयहीन हत्यारे को देखकर उसके सगे सम्बन्धी भी धिक्कारने लगे । वह स्वयं भी अपने किये हुए पर पछता रहा था, फूट-फूटकर रो रहा था और उसके अन्तर की वेदना उठ उठकर समझा रही थी। उसके भरे परिवार में चुप करानेवाला दूसरा नहीं था । उसकी विजय सौ-सौ हार से भी बुरी निकली ।

उस सम्राट् के छत्र पर जो कलङ्क का धब्बा लगा वह आज तक नहीं मिटा । आज भी हिन्दू-मुसलमान दोनों उस घृणित विजयी के नाम पर थूक देते हैं। आगे उसका क्या हाल हुआ, यह तो मालूम नहीं, लेकिन हाँ यह मालूम है कि उसने फिर कभी किसी राष्ट्र के साथ ऐसा दुर्व्यवहार नही किया ।

हाँ, पद्मिनी के बारे में तभी से एक किंवदन्ती चली आ रही है, जिसे सुनकर किसी को भी आश्चर्य हो सकता है, किन्तु है सत्य ! महारानी पद्मिनी अर्धरात्रि के मौन प्रहर में जौहर के गीत गाती हुई चित्तौड़ के शिखर पर उतरकर भग्न खंडहरों में गोरा बादल को पुकारती है । बन्दी को कारा से मुक्त करने के लिए समाधियों से जौहर के शहीदों को जगाती है । शान्त निशीथिनी में यदि कोई कान लगाकर सुने तो रानी की वीरवाणी अवश्य सुनाई देगी । अस्तु ।

इस महाकाव्य के आख्यान का सारांश तो यही है, कतिपय चिनगारियों में कल्पनाओं का चमत्कार अवश्य है जो पुस्तक के पारायण से ही मालूम हो सकेगा । दो चार पन्नों के उलटने से नहीं ।

'हल्दीघाटी' लिखकर मैंने जनता के सामने एक भारतीय वीर पुरुष का आदर्श रखा और 'जौहर' लिखकर एक भारतीय सती नारी का । इसलिए नहीं कि कोई छन्दों के प्रवाह में झूम उठे, बल्कि इसलिए कि भारतीय पुरुष 'प्रताप' को समझे और भारतीय नारियाँ 'पद्मिनी' को पहचानें ।

'जौहर' के छन्दों का चुनाव उसके विषय के अनुकूल हुआ है । सम्भव चुनाव ठीक न उतरा हो, लेकिन कविता की विद्युत्धारा हृदय को छूती चलेगी । कभी आँखों में आग, कभी पानी, कभी प्रलय की ज्वाला तो कभी कुर्बानी ।

श्रीमद्भागवत की संकल्पित कथा जिस पवित्रता और श्रद्धा के साथ पौराणिक व्यास तीर्थ से लौटे हुए अपने यजमान को सुनाता है उसी तरह पुलक-पुलककर भावुक पुजारी ने अधिकारी पथिक को 'जौहर' की कथा सुनायी है ।

'जौहर' का पाठ करते समय पाठक को पुजारी और पथिक दोनों मिलेंगे, सिद्ध-साधक के रूप में, ज्ञाता-जिज्ञासु के रूप में, गुरु और शिष्य के रूप में ।

पाठक के मानस मन्दिर में यदि पद्मिनी की पावन प्रतिमा और आँखों के सामने पुजारी और पथिक का वह दृश्य न रहा तो 'जौहर' की चिनगारियाँ का ताप असह्य हो जायेगा और यदि रहा तो चिनगारियों से आँखों को ज्योति मिलेगी-अपनी संस्कृति, अपनी कुल-मर्यादा और अपने स्वाभिमान को देखने के लिए ।

मानव ऊपर से ही सुन्दर और सत्य है भीतर से उसके ठीक विपरीत । यदि उसके अन्तर की चित्रावली सामने होती तो मानव एक दूसरे के ऊपर थूक देता, घृणा से ! खून चूस लेता, क्रोध से ! उसकी बर्बरता और उच्छृङ्खलता से विश्व में वह क्रान्ति मचती कि पृथ्वी निर्जीव, जनहीन और भयङ्कर हो जाती । यही विधाता की प्रतिभा का चरम विकास है । यही वृद्ध पितामह के युग युग से अभ्यस्त हस्त का कौशल है और यही रचना । जब मानव सष्टा का भ्रम ही है तब भला उसकी रचना कब भ्रम से भिन्न रहेगी । सम्भव है इस काव्य में अनेक दूषण हों, पर पद्मिनी के साहचर्य से वे भूषण बन गये । पुण्य सलिला गङ्गा की स्वच्छन्द धारा में पड़कर कौन-सी अपावन वस्तु अपावन रह जाती है ?

'जौहर' के बारे में जो कुछ मुझे कहना था कह चुका, शेष कहने के लिए हिन्दी जगत् में अनेक प्रवृत्तियों के जीव विद्यमान हैं —कवि, लेखक और समालोचक; जो बिना पूछे अपनी राय देने के लिए कटिबद्ध मिलेंगे । किन्तु मुझे इस बात का अभिमान है कि 'जौहर' लिखकर मैंने अपनी संस्कृति की पूजा की है।

मातृ-मन्दिर
सारंग, काशी
मेष-संक्रान्ति
2001

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