आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने : नागार्जुन

Aakhir Aisa Kya Kah Diya Maine : Nagarjun

सबके लेखे सदा सुलभ

गाल-गाल पर
दस-दस चुम्बन
देह-देह को दो आलिंगन
आदि सृष्टि का चंचल शिशु मैं

त्रिभुवन का मैं परम पितामह
व्यक्ति-व्यक्ति का निर्माता मैं
ऋचा-ऋचा का उद्गाता मैं
कहाँ नहीं हूँ, कौन नहीं हूँ

अजी यही हूँ, अजी वहीं हूँ
जहाँ चाहिए वहाँ मिलूँगा
स्थापित कर लो, नहीं हिलूँगा
उच्छृंखलता पर अनुशासन

दया-धरम पर मैं हूँ राशन
सबके लेखे सदा-सुलभ मैं
अति दुर्लभ मैं, अति दुर्लभ मैं
महाकाल भी निगल न पाए
वामन हूँ मैं, मैं विराट हूँ
मैं विराट हूँ, मैं वामन हूँ

(23.1.85)

बार-बार हारा है

गोआ तट का मैं मछुआरा
सागर की सद्दाम तरंगे
मुझ से कानाफूसी करतीं

नारिकेल के कुंज वनों का
मैं भोला-भाला अधिवासी
केरल का वह कृषक पुत्र हूँ
‘ओणम’ अपना निजी पर्व है
नौका-चालन का प्रतियोगी
मैं धरती का प्यारा शिशु हूँ
श्रम ही जिसकी अपनी पूँजी
छल से जिसको सहज घृणा है
मैं तो वो कच्छी किसान हूँ
लवण-उदधि का खारा पानी
मुझसे बार-बार हारा है...

सौ-हजार नवजात केकड़े
फैले हैं गुनगुन धूप में
देखो तो इनकी ये फुर्ती
वरुण देव को कितनी प्रिय है !
मैं भी इन पर बलि-बलि जाऊँ !
मैं भी इन पर बलि-बलि जाऊँ
मेरी इस भावुकता मिश्रित
बुद्धू पन पर तुम मुसकाओ
पागल कह दो, कुछ भी कह दो
पर मैं भी इन पर बलि-बलि जाऊँ !

(23.1.85)

संग तुम्हारे, साथ तुम्हारे

एक-एक को गोली मारो
जी हाँ, जी हाँ, जी हाँ, जी हाँ...
हाँ-हाँ, भाई, मुझको भी तुम गोली मारो
बारूदी छर्रे से मेरी सद्गति हो...
मैं भी यहाँ शहीद बनूँगा

अस्पताल की खटिया पर क्यों प्राण तजूँगा
हाँ, हाँ, भाई, मुझको भी तुम गोली मारो
पतित बुद्धिजीवी जमात में आग लगा दो
यों तो इनकी लाशों को क्या गीध छुएँगे
गलित कुष्ठवाली काया को

कुत्ते भी तो सूँघ-सूँघकर दूर हटेंगे
अपनी मौत इन्हें मरने दो...
तुम मत जाया करना
अपना वो बारूदी छर्रा इनकी खातिर
वर्ग शत्रु तो ढेर पड़े हैं,
इनकी ही लाशों से अब तुम

भूमि पाटते चलना
हम तो, भैया, लगे किनारे...
नहीं, नहीं, ये प्राण हमारे
देंगे, देंगे, देंगे, देंगे, देंगे
संग तुम्हारे, साथ तुम्हारे
मैं न अभी मरने वाला हूँ...
मर-मर कर जीने वाला हूँ...

(12.4.81)

सुन रहा हूँ

सुन रहा हूँ
पहर-भर से
अनुरणन—
मालवाही खच्चरों की घंटियों के
निरन्तर यह
टिलिङ्-टिङ् टिङ्
टिङ्-टिङा-टङ्-टाङ् !
सुन रहा हूँ अनुरणन !
और सब सोये हुए हैं
उमा, सोमू, बसन्ती, शेखर, कमल...

सभी तो सोये पड़े हैं !
अकेले में जग गया हूँ

सुन रहा हूँ
मालवाही खच्चरों की
घंटियों के अनुरणन
दूरगामी खच्चरों की
घण्टियों के अनुरणन
श्रुति-मधुर है यह क्वणन
मुख्य पथ से दूर
वे पगडंडियाँ हैं
भारवाही खच्चरों के
खुरों से रौंदी हुई हैं

पहाड़ी ग्रामांचलों तक
ट्रक तो जाते नहीं हैं !
कौन उन तक माल पहुँचाए
तेल, चीनी, नमक, आटा—
गुड़ ‘य’ माचिस—मोमबत्ती
दवा-दारू या कि चावल-दाल
ईधन, लोह-लक्कड़
साहबों की कुर्सियाँ तक
खच्चरों की पीठ पर ही लदी होतीं !

निकर या बुशशर्ट..
रेडीमेड सारे
शिशु-जनोचित
सभी कुछ तो
खच्चरों की पीठ पर ही लदा रहता
पहुँचता है दूर-दूर...
पहाड़ी ग्रामांचलों तक...
क्या पिठौरागढ़-भुवाली...
रानीखेत—अल्मोड़ा---कहीं भी
पहुँचने की
निजी ही पगडंडियाँ हैं
खच्चरों के खुरों से रौंदी हुई
वे युगों तक
इतर साधारण जनों की
पथ-प्रदर्शक...

सुन रहा हूँ
खच्चरों की
घण्टियों की अनुरणन...
नित्य ही सुनता रहूँगा...
रात्रि के अन्तिम प्रहर में....
भारवाही खच्चरों की
घण्टियों के अनुरणन—
तालमय, क्रमबद्ध...

(10.5.85)

बाघ आया उस रात

‘‘वो इधर से निकला
उधर चला गया ऽऽ’’
वो आँखें फैलाकर
बतला रहा था :
‘‘हाँ बाबा, बाघ आया उस रात,
आप रात को बाहर न निकलो !’’
जाने कब बाघ फिर से आ जाये !
‘‘हाँ वी ही ! वो ही जो
उस झरना के पास रहता है
वहाँ अपन दिन के वक्त
गए थे न एक रोज ?
बाघ उधर ही तो रहता है।
बाबा, उसके दो बच्चे हैं
बाघिन सारा दिन पहरा देती है
बाघ या तो सोता है
या बच्चों से खेलता है....’’

दूसरा बालक बोला—
‘‘बाघ कहीं काम नहीं करता
न किसी दफ्तर में
न कालेज मेंऽऽ’’
छोटू बोला—
‘‘स्कूल में भी नहीं...’’
पाँच-साला बेटू ने
हमें फिर से आगाह किया
अब रात को बाहर होकर बाथरूम न जाना !’’

जंगल में

जंगल में
लगी रही आग
लगातार तीन दिन, दो रात
निकटवर्ती गुफावाला
बाघ का खानदान
विस्थापित हो गया

उस झरने के निकट
उसकी गुफा भी
दावानल के चपेट में
आ गई थी...
वो अब किधर
भटक रहा होगा ?
रात को निकलता होगा
पूर्ववत्...

बाघिन बेचारी
अपने दोनों बच्चों पर
रात-दिन पहरा देती होगी
मध्य रात्रि में
आस पास की झाड़ियों के
चक्कर लगा आती होगी
जरूर ही जल्द वापस होती होगी
वात्सल्य क्या
उस गरीब का
स्थायी भाव न होगा
बाघ लेकिन
सारा-सारा दिन
वापस न आता होगा
हाँ, शिकार पा जाने पर
फौरन लौटता होगा बाघ !

(5.6.85)

ध्यानमग्न वक-शिरोमणि

ध्यामग्न
वक-शिरोमणि
पतली टाँगों के सहारे
जमे हैं झील के किनारे
जाने कौन हैं ‘इष्टदेव’ आपके !

‘इष्टदेव’ है आपके
चपल-चटुल लघु-लघु मछलियाँ...
चाँदी-सी चमकती मछलियाँ...
फिसलनशील, सुपाच्य...
सवेरे-सवेरे आप
ले चुके हैं दो बार !
अपना अल्पाऽऽहार !
आ रहे हैं जाने कब से
चिन्तन मध्य मत्स्य-शिशु
भगवान् नीराकार !

मनाता हूँ मन ही मन,
सुलभ हो आपको अपना शिकार
तभी तो जमेगा
आपका माध्यन्दिन आहार

अभी तो महोदय, आप
डटे रहो इसी प्रकार
झील के किनारे
अपने ‘इष्ट’ के ध्यान में !
अनोखा है
आपका ध्यान-योग !
महोदय, महामहिम !!

इन घुच्ची आँखों में

क्या नहीं है
इन घुच्ची आँखों में
इन शातिर निगाहों में
मुझे तो बहुत कुछ
प्रतिफलित लग रहा है!
नफरत की धधकती भट्टियाँ...
प्यार का अनूठा रसायन...
अपूर्व विक्षोभ...
जिज्ञासा की बाल-सुलभ ताजगी...
ठगे जाने की प्रायोगिक सिधाई...
प्रवंचितों के प्रति अथाह ममता...
क्या नहीं झलक रही
इन घुच्ची आँखों से?
हाय, हमें कोई बतलाए तो!
क्या नहीं है
इन घुच्ची आँखों में!

फुहारों वाली बारिश

जाने, किधर से
चुपचाप आकर
हाथी सामने लेट गए हैं,
जाने किधर से
चुपचाप आकर
हाथी सामने बैठ गए हैं !
पहाड़ों-जैसे
अति विशाल आयतनोंवाले
पाँच-सात हाथी
सामने--बिल्कुल निकट
जम गए हैं
इनका परिमण्डल
हमें बार-बार ललचाता रहेगा
छिड़ने-छेड़ने के लिए
सदैव बुलावा देता रहेगा !

लो, ये गिरी-कुंजर
और भी विशाल होने लगे !
लो, ये दूर हट गए,
लो, ये और भी पास आ रहे,
लो, इनका लीलाधरी रूप
और भी फैलता जा रहा,
लेकिन, ये गुमसुम क्यों हैं ?
अरे, इन्होंने तो
ढक लिया अपने आपको
हल्की-पतली पारदर्शी चादरों से
झीने-झीने, 'लूज'
झीनी-झीनी, लूज बिनावटवाली
वो मटमैली ओढ़नी
बादलों को ढक लेगी अब
अब फुहारोंवाली बारिश होगी
बड़ी-बड़ी बूँदें तो यह
शायद कल बरसेंगे...
शायद परसों...
शायद हफ़्ता बाद...

(1984 में रचित)

कोहरे में शायद न भी दीखे

वो गया
वो गया
बिल्कुल ही चला गया
पहाड़ की ओट में

लाल-लाल गोला सूरज का
शायद सुबह-सुबह
दीख जाए पूरब में
शायद कोहरे में न भी दीखे !
फ़िलहाल वो
डूबता-डूबता दीख गया !
दिनान्त का आरक्त भास्कर
जेठ के उजले पाख की नौवीं साँझ
पसारेगी अपना आँचल अभी-अभी
हिम्मत न होगी तमिस्रा को
धरती पर झाँकने की !
सहमी-सहमी-सी वो प्रतीक्षा करेगी
उधर, उस ओर
खण्डहर की ओट में !
जी हाँ, परित्यक्त राजधानी के
खण्डहरोंवाले उन उदास झुरमुटों में
तमिस्रा करेगी इन्तज़ार
दो बजे रात तक
यानि तिथिक्रम के हिसाब से,
आधी धुली चाँदनी
तब तक खिली रहेगी
फिर, तमिस्रा का नम्बर आएगा !
यानि अन्धकार का !

(1984 में रचित)

रातोंरात भिगो गए बादल

मानसून उतरा है
जहरी खाल की पहाड़ियों पर

बादल भिगो गए रातोंरात
सलेटी छतों के
कच्चे-पक्के घरों को
प्रमुदित हैं गिरिजन

सोंधी भाप छोड़ रहे हैं
सीढ़ियों की
ज्यामितिक आकॄतियों में
फैले हुए खेत
दूर-दूर...
दूर-दूर
दीख रहे इधर-उधर
डाँड़े के दोनों ओर
दावानल-दग्ध वनांचल
कहीं-कहीं डाल रहीं व्यवधान
चीड़ों कि झुलसी पत्तियाँ
मौसम का पहला वरदान
इन तक भी पहुँचा है

जहरी खाल पर
उतरा है मानसून
भिगो गया है
रातोंरात सबको
इनको
उनको
हमको
आपको
मौसम का पहला वरदान
पहुँचा है सभी तक...

(1984 में रचित)

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